शनिवार, 17 नवंबर 2012

PREM-VIVAH

प्रेम-विवाह


मंगलम् भगवान विष्णु, मंगलम् गरूण ध्वज

मंगलम्............................................

जीवन मंगलमय लगे

कर लिया प्रेम-विवाह

हृदय पर पत्थर रख

कट लिया माँ बाप से

प्रेम से सराबोर जीवन

मधुरम मधुरम गति

पकड़ने लगी

पीपल के पेड़-सी

लाभदायी भी लगी

मन करे पूज लो

मन करे छँहा लो

मन करे भूतहा पेड़ बना दो

या मन करे तो

सोमावरी अमावस्या के दिन

घुमरी घुमरी सूत भी लपेट दो

कोई छीन न ले इस रिस्ते को...



तुलसी पत्ता है यह प्रेम

जिस खाने में ड़ालो

पवित्रता के साथ-साथ

बरक्कत भी आती है

खुशियाँ तो मानो

जीवन के अंग अंग में

भीन रहा है



लेकिन हृदय का पत्थर

कभी कभी दर्द से

दरकता भी है

ठोकर मारता है हृदय को

क्या प्रेम इतना सर्वोपरि है

कि माँ-बाप का हृदय

कुचलकर जिया जाये

कठुआ गई थी माँ

जिस दिन सुना था उसने

बिटिया ने दूसरे जाति

में कर लिया बियाह

दहाड़ रहे थे पिता

मर गई वो हमारे लिए

गरज रहा था भाई

नहीं कर सकती है बहना

ऐसा कुकर्म

लकवा मार गया

बहन को

अब मेरा क्या होगा...

इन सब के बावजूद

अंदर ही अंदर फूट रहे थे

कठोर पहाड़ों के बीच

झरने के कई सोते

हहरते हहरते

काश ! यह सब झूठ होता...



अपने हृदय पर रखे पत्थर

से मैंने एक टूकड़ा उठाया

और फोड़ दिया रिस्तों का सिर

ठठाकर हँस पड़ी मेरी जीत

पिता ने जब मुँह पर दरवाजा

बंद किया

आँखों में आँसू लिए हँसा विद्रोह

रूढ़िवादी मानसिकता के खिलाफ

आज नहीं तो कल अपनाना ही

है, आखिर इन्हीं की तो खून हूँ !!



खून...

खून से याद आया प्रीतम प्यारे का

आखिर वो भी तो किसी

का खून है

उनके भी माँ बाप ने

ऐसा ही किया होगा

दर्द बराबर है, पर

एक-दूजे को संभालते

संभालते

पीपर-पात कबका झहर

चुका है

सूखी हड्डियाँ दिख रहीं हैं

पेड़ पर

सूखी हड्डियों पर भला

बगूले कैसे वास करे

हृदय पर रखे पत्थर से

घुटने लगी हैं साँसें

रिस्तों में नहीं बची कोई

आस

पत्थर पहाड़ बन गया है

खुशियों के सोते बीच

दरारें भी पड़ती हैं

चार जीवन इधर तो

अट्ठारह जीवन उधर

अट्ठारह को कैसे भूल जाये

और कैसे भूलते होंगे

वे लोग

जिन्होंने जीना सीखा

हमें देखकर

मरना जाना

हमसे बिछड़कर



परंपराओं के गलियारे में

संवेदनाओं का आना जाना

गलत तो नहीं

संवेदना की बाहों में

नई रीत-प्रीत का फलना-फूलना

गलत तो नहीं

गलत तो रूढ़ियों का विकृत्त

रूप लेना है

लेकिन विकृत्तियों से भागना !!

उसे समझने के बजाय...

कायरता है



प्रेम विवाह तो हो गया

पर

प्रेम-जाल में फंसे तो वे

रिस्ते हैं

जिसे समाज ने अपनी

गोदी में पनाह दिया

लेकिन...

भूल जाते हैं लोग

समाज में जीवन पलता है

जरूर

लेकिन समाज हमसे ही बनता है

और बनाता है नये-पुराने रीत-प्रीत



किसी का हृदय बार-बार

पत्थरों से

तोड़ चकनाचूर कर

देने से जाति व्यवस्था

तोड़ी नहीं जा सकता

और न ही अंतर्जातीय विवाह

की स्थापना की जा सकती है



विजय पताका तो

तब फहरायेगा

जब हम तुलसी बनेगे

अपने बीज से उपजायेंगे

अनेक तुलसी के पौधे

जीते-जी पूजा की थाल में सजेंगे

या मरते मुख की शोभा

किसी चरणामृत से कम न हो

यह प्रेम जीवन

या आचमन भरे हाथ

सूखकर भी बनें अमृत

अमृत बहे हर जीवन में

रिस्तों में, रीतों में, गीतों में

क्योंकि

पूर्णता में ही खुशी

है, अधूरेपन में नहीं

प्रेम-विवाह का गीत

अधूरा है,

कुछ कर्तव्य अभी बाकी है

विजय तो तब होगी

जब किसी घुसपैठिये की

तरह नहीं

बल्कि तुलसी के पौधे की तरह

प्रेम से आँगन में लगाई जाऊँ

क्योंकि

तुलसी की पूर्णता गंगा से है.

सोमवार, 12 नवंबर 2012

PYAZ

             प्याज


प्याज और औरत का रिस्ता

लगभग एक जैसा होता है

तकलीफ में लगती है झरार

पर होती है दर्द की दवा भी

है हर रिस्तों की जान

आलू गोभी भूजिया

हो या फ्राइड राइस,

दाल तड़का

या फिर नूडल्स ही

कच्चा हो या पक्का

हर रिस्तों में ढ़लना जानती है

प्याज

गुरुवार, 8 नवंबर 2012

Chup Mat Ho Gargi... Ab Tumhara Sir, Koi Dhad Se Alag Nahi Kar Sakta - 2

चुप मत हो गार्गी... अब तुम्हारा सिर, कोई धड़ से अलग नहीं कर सकता - 2



हे धरा !

मैं तुम्हारे अंदर

पल रही बीज की

वह जड़ हूँ

जो सृष्टि को सृष्टि

और सृजन को सृजनयोग्य

बनाती है


मैं तुम्हारी अंश हूँ

तुम्हारी ही वंश

मत उखाड़ फेको मुझे

यदि मैं नहीं, तो

न उगेंगे पौधे

न लगेंगे फल

न होगी बगिया

और न चहकेंगी चिड़िया

न होगी सृष्टि

न होगा सृजन

और न ही होगा कोई सृजनहार…


बोलो धरा

क्या तुम्हें मंजूर है

प्रलय का ताण्डव-नर्तन…

लोगों का क्या

लोग तो तुम्हें

सहनशील धैर्यशील

मानते हैं

पर क्या वे जानते हैं

सहनशीलता की सीमा ?

क्या उन्हीं के कहने पर

मिटाने जा रही हो

अपना ही अस्तित्व ?


कहने को तो

लोग कहते हैं

स्त्री-पुरूष में अंतर नहीं होता

अंतर तो कर्म से बनता है

लेकिन हे धरा

अभी तो मैंने इस

दुनियाँ में कदम भी नहीं रखा

फिर

अभी से कर्म कैसा

और अंतर क्यों

बताओ न...


लोग कहते है

वैदिक काल में

स्त्री-पुरूष में समानता थी

स्वतंत्र थी स्त्रियाँ !!!

फिर क्यों जबरदस्ती

उठाया गया श्वेतकेतु की

माँ को

क्यों सहमति देनी पड़ी

विवाह को

क्यों अहिल्या बनी पत्थर

क्यों परशुराम ने काटी

माँ की जिह्वा

क्यों मिली धमकी

गार्गी को

क्यों गाय के बदले अनेक

हाथों सौंपा गया माधवी को

क्यों खिलौना बना पृथ्वी पर

भेजता रहा इन्द्र

विवश अप्सराओं को

क्यों ऋचाएँ लिखकर भी

नहीं बन सकीं वे विदुषी

क्यों पति के रहते हुए भी

बार-बार जन्मी सति

जन कल्याण हेतु क्यों

हो गई रति विधवा

क्यों दर-दर की ठोकरें

खाती रही शकुन्तला


हे धरा !

क्यों चुना सीता ने

फिर से तेरा ही गर्भ

क्यों नहीं जा सकी

उर्मिला पति संग

क्यों कट गई नाक

सुपर्णखा की

नियोग प्रथा होते हुए भी

क्यों नहीं अपना सकी

कर्ण को कुन्ती

क्यों अम्बा अम्बालिका को

बदलना पड़ा रूप

क्यों खोल न सकी

गांधारी आँखों से पट्टी

क्यों अर्जून की होकर भी

भाईयों में बट गई द्रोपदी

चीर हरण के समय कहाँ

थी पतियों की शक्ति

क्यों विवश थी पति से दूर

रहने हेतु रोहिणी

क्यों भाई की चहेती होकर

भी बंदी बनी देवकी

क्यों उठाया वासुदेव ने

मरने हेतु पुत्र के बदले

यशोदा की पुत्री

क्यों यशोदा पुत्र पालकर

भी रह गई पुत्र-प्रेम से वंचित

क्यों वियोगिनी हुईं गोपियाँ

क्यों राधा हुई आँसूओं से संचित

क्यों मीरा को करना पड़ा

विषपान

कहो धर्म में कितना है

प्राप्त नारी को सम्मान ?


क्यों आश्रमों में बनी

भिक्षुणियाँ भोग-विलास

क्यों जन्मीं कुप्रथा

बाल-विवाह

पर्दा-प्रथा, सति-प्रथा

क्यों प्रेम करने पर बेटियाँ हुईं

ऑनर कीलिंग की शिकार

क्यों मना करने पर फेंका

गया तेजाब

क्यों संविधान में होकर भी

नहीं हुई अधिकार की

भागीदार


हे धरा !

देखो इतिहास के पन्नों

को पलटकर

पन्नों में रह गई

हैं नारियाँ सिमटकर

पवित्रता नैतिकता

मर्यादा के बीच

कितना है उनका जीवट ?


हे धरा !

तुम्हारे विनाश में

स्कैनिंग मशीन

की गलती है

या हमारी सोच की ?

सोचो धरा सोचो

गर्भ में अभिमण्यु

चक्रव्यूह का सातवां द्वार

तोड़ना क्यों नहीं

सीख पाया ?

उस वक्त तुम सो गई थी

पर इस वक्त मत सोना

तुम्हारे ही जागने से

जागेगा संसार

तुम्हारे ही सोने होगा

संसार विरान


हे धरा !

अब तुझे धरा नहीं

बनना होगा गार्गी

जिसने डटकर सामना

किया था याज्ञवल्क्य का

तुम्हें भी सामना करना होगा

रूढ़िवादी समाज का

कह दो इस समाज से

न होगी अब अहिल्या

न मेनका

न माधवी

न ही शकुन्तला

न सीता न उर्मिला

न राधा न गोपियाँ

न कुन्ती न द्रोपदी

अब होगा जन्म सिर्फ

एक मानव का

और दुंगी जन्म

मानवता को…


हे गार्गी !

यदि तू चाहती है

कि मैं इस दुनियाँ

में आऊँ, तो

पूछो हर

याज्ञवल्क्य से

फल से बीज बनता कैसे है

बीज रोपा कहाँ जाता है

नफरत का उल्टा क्या है

ममता का आश्रय कहाँ है

पृथ्वी से सहनशील कौन है

आसमान से ऊँचे ख्वाब किसके हैं

पितृसत्ता और मातृसत्ता का उल्टा क्या है

स्वतंत्रता का मतलब क्या है

समानता होती क्या है

प्रेम बसता कहाँ है

प्रेम निभाता कौन है

प्रेम का परिणाम क्या है

सृजन होता कैसे है

संहार शुरू कहाँ से होता है ???


हे गार्गी !

डर मत

तुम्हारे लिए कदम

तुम्हें ही उठाना होगा

यदि तेरा एक सिर कटेगा

तो लहरायेंगे हजारों हाथ

और तेरा सिर बचा

तो जन्मेंगे हजारों सिर

आज की चुप्पी

प्रश्न-चिन्ह है

तुम्हारे जडों पर

वंश पर, अंश पर

समूल पर, अस्तित्व पर

इसलिए

चुप मत हो गार्गी...

अब तुम्हारा सिर,

कोई धड़ से अलग नहीं कर सकता…

Chup Mat Ho Gargi... Ab Tumhara Sir, Koi Dhad Se Alag Nahi Kar Sakta - 1

चुप मत हो गार्गी… अब तुम्हारा सिर, कोई धड़ से अलग नहीं कर सकता - 1



धरती, आकाश, सागर किसने बनाया

मैं नहीं जानती

मैं बस इतना जानती हूँ कि

स्त्री को स्त्री तुमने बनाया

वरना मैं तो तुम्हारी तरह ही निश्छल जन्मी थी


प्यार करती रही माँ-बाप को

पर माँ माँ न थी, एक औरत थी

और पिता पिता न थे, एक पुरूष थे

यह जाना मैंने जनानांगों के उभरने के बाद


क्यों रोकती थी माँ ब्वायज़ स्कूल में पढ़ने से और

क्यों रोकता था भाई गाँव में घूमने से

यह जाना मैंने प्रेम में धोखा खाने के बाद


क्यों माँ छुपाती थी सात पर्दों में और

क्यों पापा जड़ते थे तमाचा लड़कों के साथ खेलने पर

यह जाना मैंने शादी के बाद


क्यों पति ने हमेंशा रखा चहारदीवारी में और

क्यों पुत्र ने रखा सदैव चौखट पर

यह जाना मैंने जवानी बीत जाने के बाद।


क्यों हर तरफ छायी है उदासी

क्यों हर जगह तुम ही तुम हो

कहीं भी मैं नहीं ...

यह समझा मैंने उम्र कट जाने के बाद


क्या बचा है बचाने को

चुप मत हो गार्गी...

अब तुम्हारा सिर, कोई धड़ से अलग नहीं कर सकता...

बुधवार, 7 नवंबर 2012

RANG

     रंग



भावों के गाँठ खोल

जब पहचानना चाहा जीवन को

दिखाई दिए हजारों रंग

और उन रंगों के पीछे

अनेक कच्चे रंग

कच्चे रंग जो चढे थे

कई कपड़ों पर

पानी में डालते ही

घुल गए और

पहचान दे गए अपनी

दूसरे कपड़ों पर भी

कच्चे रंग वाला

कपड़ा भले हो जाए

बेरंग, लेकिन

दूसरे कपड़े पर चढा रंग

छूटकर भी नहीं छूटता

कहीं न कहीं लगा ही

रह जाता है

बेदरंग रंग.

सोमवार, 5 नवंबर 2012

TAZAB - 2

     तेज़ाब – 2


चमकती दमकती महकती

सबकी आँखों की चमेली

हर रोज खिलती खिलखिलाती

आँगन में और

उसी चमेली से सजाती थी

छोटे-से घर को, उपवन को

सोचती थी एक दिन चाँद भी

फीका पड़ जायेगा

इस हुस्न के आगे

सूरज भी मद्धम होगा

इसकी रौशनी के आगे

छम छम छमकते फूल

झरेंगे आँचल से

झमझमाकर समेट लूँगी

दुनियाँ की सारी

सुनहरी किरणों को



किसकी नज़र लग गई

इन चाहतों को

इस खिलखिलाते चेहरे को

अचानक मुर्झा-सी गई

किसने झौंस दिया

इन चमेली के

पौधों को

अब न रौशनी रही

न रहा सुनहरापन

न आँचल

न हुस्न

यदि बचा है कुछ

तो वह है मात्र

तड़प... जलन...

सिसकियाँ



तुम कहते थे

कि तुम मुझसे

प्यार करते हो

दुनियाँ की सारी खुशियाँ

भर दोगे मेरे दामन में

दिन तो क्या रात में भी

मुर्झाने ना दोगे

चाँद तारे लाकर मेरे

आँचल में सजा दोगे

मैं कह दूँ तो अपनी

जान भी दे दोगे



तुम्हें बुरा लगता था

मेरा ना कहना

पर नहीं बुरा लगा

मेरा अस्तित्व मिटा देना

गीदड़-भभकियों का शस्त्र

जब खत्म हुआ तुम्हारी झोली से

तब तुमने चुना कायरता का तेजाब

जिसपर नहीं काम करता कोई आब



तुम्हारा अहं मेरे ना पर

भारी पड़ा

और एक रात तुमने

मुझे मिटा देने के बजाए

पिघलने के लिए

छोड दिया कोयले की भट्टी में

फेंक गए तेजाब

बिदग-बिदक कर बदकने के लिए...

क्या यही था तुम्हारा प्यार

या थी हवस जो

न मिलने पर तुम्हारे अहं

ने मेरे जीवन का गला

घोंट देना चाहा ?



क्या कभी सुना है

किसी लड़की को किसी

लड़के के ऊपर तेजाब

फेकने की ख़बर ?

अगर फेंका होगा

तो फेंका होगा उसने अपना

अहं और समेटा होगा

तुम्हारे स्वाभिमान को

अगर फेंका होगा तो

फेंका होगा तुम्हारी

बुराईयों को

और अपनाया होगा तुम्हें

सर्वस्व



हर रोज पिघलती हूँ मैं

सिर्फ एक राख की ज़िन्दा

लोंदा हूँ मैं

तुम्हें लगा होगा कि

तुम सिर्फ मुझे

सज़ा दे रहे हो

पर सज़ा भुगत रहे हैं

मेरे माँ-बाप

भाई बहन रिस्तेदार

एक घाव लड़की मानी गई

दूजा घाव बिमार ... तेजाब



शिव ने भी कामदेव को

भस्म करने के बाद

दिया था वरदान

दूसरा रूप धरने का

पर यहाँ न तो तुम शिव हो

और न हम कामदेव



छूट जाओगे

कुछ समय बाद जेल से

जी सकोगे अपना जीवन दूबारा

फिर लुटाओगे अपना

दोगला प्यार किसी

अनजान हुस्न पर

नहीं होगा कोई अफसोस तुम्हें

और न ही मिलेगी कोई तुम्हें सज़ा…



मैं पूछती हूँ एकता का नारा देने वाले

भारत के संविधान से

क्या है कोई ऐसी सज़ा

जो मेरे तकलीफ़ के बराबर

मिल सके उन्हें भी तकलीफ़

या कम कर सके मेरे तकलीफ़ को ?

क्या है कोई ऐसी सज़ा

जिससे उनका भी चेहरा हो जाए

इतना ही विदीर्ण... विभत्स...

या मेरा चेहरा हो जाए पूर्ववत् ?

क्या है कोई ऐसी सज़ा

जिससे जाग जाए सबमें इंसानियत

या मैं पुनः इंसान बन खड़ी होऊँ ?

क्या है कोई…

अगर है तो हमें भी बताओ…

क्या है कोई ऐसी सज़ा…

TEZAB - 1

    तेजाब- 1


तेजाब के हाथ पाँव बड़े

ही लम्बे और सबल हो गए हैं

यूँ कहें तो काल से भी लम्बे

गली-गली सड़क-सड़क

जमीं-पानी छत-चौबारे

आँखें गड़ाए रहता है हरपल

कब कोई हुस्न से लथपथ

परी मिले

झट दबोच लें बाहों में

आखिर उसकी क्या मजाल जो

ना-नुकूर कर सके

और अगर कर भी दे तो

जिह्वा का एक बूँद

ही काफी है

बरसों से जमीं गन्दगी

झट से साफ कर देता है

फिर तो उसका

चूर-चूर होता घमण्ड...

पूछो ही मत

गर्व से गुर्राते हुस्न की

ऐसी की तैसी

पिघलते देर न लगेगी

सबक सीख लेगी

फिर किसी को ना तो क्या

हाँ भी कहने

की हिम्मत न रहेगी

सारा घमण्ड चूर-चूर हो जाएगा

जब हुस्न रह-रहकर बर्रायेगा

किसकी मजाल जो

कर पाये मुकाबला

बच कर रहना

आखिर हर घर में पनपता

खेलता खिलखिलाता

और अचानक

रूप बदलता

तेजाब जो हूँ.

शुक्रवार, 2 नवंबर 2012

Mandi

            मंडी



भावनाओं की मंडी में आजकल उछाल है

धड़ल्ले से मिलावटी सामग्री बेचो

बेझिझक खरीदो, सिर्फ ब्रांड का लेबल ही काफी है

वैसे भी इस दुनियाँ में प्योर बचा ही क्या है

क्रीम पाउडर ईंट सीमेंट सब तो मिलावट

से ही तो बनता है

क्रीम पाउडर से पहले झुर्रियाँ बढ़ाओ

बाद में उसी से छिपाओ

सिमेंट से रेत का घर बनाओ

और ढ़ह जाए तो पैसे वाले तो लोग हैं ही

फोन लैपटॉप किसी की अमानत, किसी की बताओ

आता कौन है देखने

साग सब्जियों का तो पूछो ही मत

इंजेक्शन लगाओ उत्पाद बढ़ाओ

पहले खा-खाकर बिमार पड़ो फिर दवा खा-खाकर मरो

हर तरफ से उछाल ही उछाल

और हो भी क्यों न, हम भी तो उछल रहे

चकाचौंध के साथ

रोनी सूरत भला किसको भाती है

बहुत हो गया... प्यार और संवेदना का रोना-धोना

अब तो एंटरटेन अच्छा लगता है

मिलावटी भावनाओं की मंडी में आजकल उछाल है.

गुरुवार, 1 नवंबर 2012

GHURE KA DEEYA

   घूरे का दीया


साल भर घर में

किसी सजावट की तरह पड़ी रही

इधर-उधर, इस कोने, उस कोने

आँचल से बिखेरती रही

ममता, नीति वचन

कथा-कहानियाँ

रामायण महाभारत का पाठ

ये जानते हुए कि

कोई सुनने वाला नहीं है

जमाना बहुत आगे बढ़ चुका है


पर हाँ...

कहीं कहीं काम भी आ जाती हूँ

पोछ देती हूँ कोने में पडा रामायण

बेटे की कूर्सी

साफ करती हूँ आँगन में

जमी काई

बहू की ऊबकाई

नाती का टट्टी

अच्छा लगता है

अपनों के लिए कुछ करना


 
सब करके भी निरर्थक हूँ

बड़बड़ाती रहती हूँ

पता नहीं क्यूँ...

कोई मेरी बात समझता ही नहीं

या मैं समझा नहीं पाती

या मैं कुछ ज़्यादा ही बोलने लगी हूँ

नरक-चतुर्दशी आ गई

साल भर का कूड़ा

घूर पर फेंका जा रहा है

घर में मेहमान बहुत है

काम भी कुछ नहीं

चलो घूरे पर दीया ही

बार लेते हैं

एक जगह बना लेंगे

घूर के पास

और दीया की

रखवाली भी हो जायेगी.

सोमवार, 29 अक्तूबर 2012

NAYA ADHYAAY

नया अध्याय

लोहे की गर्म पिघलती सलाखें

जैसे ही धंसी पतली गुफा में

सुलगने लगा तन-मन

और जीवन

एक-एक घात-प्रतिघात से

बन गईं अनेक सुराखें

और उन सुराखों से झांकने लगे

बेदरंग दर्द के चेहरे...

उन चेहरों से लिपटी तरल

लाल चादर

घनघनाते स्पंदन-कंपन-क्रंदन

निचुड़ते गए संतरे से रस

और छिलते रहे नाखूनों की

छिलनी से कच्चे आलू

दरदराते रहे चेहरे को

और भभोरते रहे

सनमाईका जड़े पीठ को

एक के बाद एक

तब तक

जब तक कि

उन्हें मरी हुई न जान पडूँ



सचमुच...

मरी हुई ही पायी थी

खुद को

जंगल झाड़ियों के बीच...

पर न जाने कैसे

जागी जिन्दा लाश

ओढ़े लाल कफ़न

बियावान में



गुफा के मुँह बर्रा रहे थे

जैसे झौंसा गया हो तेजाब से

पिंडलियाँ दरक रही थी

चोट खाए तलवार की धार से

कटे-फटे होठ

हो गए थे बेजुबान

घोघियाई आँखें

निकल रहीं थी आँख से



हाँ...

कभी जिन्दा थी

याद आयी एक धूँधली सी काया

जो हँसती खेलती थी

रिस्ते के अन्य कायाओं के साथ

कौन है वो आदिम स्मृतियाँ

पता नहीं...

बस याद है

एक धूँधली सी जिंदा काया

जिसे चलती सड़क से

जबरदस्ती उठा लिए

कुछ ईज़्जतदार लोग

फिर नोचते हुए कुछ गिद्ध

उड़ते-मँडराते चील कौवे

रेंगते शरीर पर विषैले सर्प

ज़हर उगलते-छोड़ते नाग

निगलते अज़गर

रंग बगलते गिरगिट

रेंगते केचूएँ

बिल बनाते चूहे

हुँवाते सियार

खाते भूखे भेड़िए



काश !!

कोई बुरा स्वप्न होता

रात से बेहतर साँझ होती

लाचारी से बेहतर सुस्ती होती

जीवन से बेहतर मृत्यु होती



सोचा... चलो खत्म कर ले

इस अपमानजनक व्यथा को

इस गिड़गड़ाते जीवन को

जीवन से जुड़ी हर कथा को



पर याद आयी उन स्मृत्तियों की

और उन स्मृत्तियों को जी-जान से

सजोने वाले जीवन की

पर ...

कैसे दिखा पाऊँगी उन सबको

अपना मुँह

कैसे बता पाउँगी अपनी तकलीफ

खुद तो सहन कर लुँगी

असहनीय पीड़ा को

लेकिन कैसे सह पायेंगे

मेरी पीड़ा से पीडित

रहने वाले लोग

कैसे...?



तभी खयाल आया

मुसीबत के समय मुझे

कैसे संभालती थी माँ

मेरे जागने से जागते थे पापा

हँसने से हँसता था भाई

रोने से रोती थी बहन

क्या जी पायेंगे वे लोग मेरे बिना

न जाने कहाँ-कहाँ ढूँढते होंगे

जो एक पल भी न रह पाते थे देखे बिना

क्या मैं स्वयं मर पाऊँगी उनके बिना



नहीं...

नहीं मर सकती...

जी सकती हूँ उन्हें देखकर

मर सकती हूँ उन्हें देख

न जाने कौन सी हिम्मत

मेरे दिलो दिमाग में छाई...

हिम्मत बटोर उठने लगी

दो खंभों के बीच से

सरकते छत की तरह

झोलरी बन झूलने लगा गर्भ

सरकने लगीं अंतड़ियाँ

बहने लगा कौमार्यपन का दुख



देखती हूँ सबकी निगाहें

मेरे संरक्षक थे बेवश

अफ़सोस है उन्हें

क्यों नहीं बन सके

ससमय रक्षक

हजारों सवाल

मेरी ही देह पर...

हजारों उँगलियाँ

मेरे ही चरित्र पर...

हजारों सूर्खियाँ

मेरे ही शक़्ल पर...

आखिर क्यों...



क्यों नहीं उठती

उँगलियाँ उन पर...

लोग कहते हैं

इसका रेप हुआ है

क्यों नहीं कहते लोग उन्हें

इसने रेप किया है

क्यों कहते हैं हमें लोग

बलात्कार की शिकार

क्यों नहीं कहते लोग उन्हें

बलात्कारी...हैवान...



घर से लेकर पुलिस, समाज

और दुनियाँ के सामने

मैं एक सूर्खी हूँ

लेकिन...

अपनी नज़र में

मैं एक सपनीली लड़की

जिसके सपने काँच की तरह

टूट गए, और

उसकी कीर्चियाँ

चुभ रही हैं मेरी तन-मन

और जीवन पर



सुना है... वे ईज़्जतदार लोग

पकड़े गए

जिन्होंने मुझे

जीते-जी भेज दिया है

रौरव नरक में

कुछ सालों की सज़ा काट

निकल जायेंगे वे जेल से

पर...



पर...

क्या मैं सम्भाल पाऊँगी

अपने इस दर्द को

क्या मेरे गर्भ की दीवारों

पर बनें

सलाखों की निशान

मिट पायेंगे

क्या ज़हरीले नागों के

स्पर्श से कभी

मैं मुक्त हो पाऊँगी

क्या मैं उठ पाऊँगी इस

नरक से

अगर उठ भी गई तो

क्या समाज

उबरने देगा मुझे

इस दर्द की नदी से



ईज़्जत के पंख क्या

देह का पर्याय है

या मर्दजात की ख़ैरात

जिसे जब चाहा मरोड़कर

बिखेर दिया

ईज़्जत तो सद्गुण और

दुर्गुणों से बनता है...

फिर वे जन्म से ही ईज़्जतदार क्यों

और हम उनकी अमानत कैसे

वे ईज़्जतदार...

और हमारी ईज़्जत लुटती है... कैसे

वे लूटकर भी नहीं लुटते

हम बचाकर भी लुट जाते हैं... कैसे

क्या एक सुरंग

निर्धारित कर सकती है,

ईज़्जत और बे-ईज़्जत की सीमा ?



क्या कूसुर था मेरा

जो बिना ग़लती के सजा मिली मुझे

अधखिले फूल को

मसल दिया

लेकिन...

नहीं



नहीं...

अब मुरझाना नहीं है

ये माना कि मसले जाने के बाद

कुछ खुशबू उड़ गयी

मेरे पखुँड़ियों से

मुरझाते हुए भी

उड़े रंग रंगीनियों से

लेकिन अब नहीं



समेटूँगी मैं फिर से

अपने खुशबूओं को

भरूँगी फिर से

बेरंदरंग जीवन में रंग

दर्द को बनाऊँगी हिम्मत

गर्भ में भरूँगी ममता

रिस्तों को आस्था

स्मृत्तियों को श्रद्धा

जीवन को प्रेम

और प्रेम से बनाऊँगी

एक संसार

जिससे शुरू हो सके

जीवन का एक

नया अध्याय...

शुक्रवार, 26 अक्तूबर 2012

MANUSHYA AUR PASHU

मनुष्य और पशु




मनुष्यों में स्त्री

और

पशुओं में बैल दुखी होता है

जब चाहो बैल के मुँह

पर जाबा लगा जोत दो खेत

ताकि वह चर न सके



गाय बैल जन्म दे

लोग दुखी होते हैं

गाय गाय को जन्म दे

पूजा होती है

लेकिन स्त्री ???



दुधारू गाय की

पूजा सर्वत्र होती है

दुधारू माँ भी

सम्मानित है कहीं-कहीं

गाय बिसुक जाने पर

अगले के उम्मीद में

खिलाया जाता है

लेकिन

स्त्री के सूख जाने पर

उसे बैल की तरह

जोता जाता है.



दुधारू गाय की लताड़ भली

किन्तु दुधारू औरत की....???

सोमवार, 22 अक्तूबर 2012

Pahchaan

      पहचान





मछली का पेट फटा

निकली अँगूठी

तब जाकर कहीं पहचान पाये

दुष्यंत शकुंतला को



हाय रे विडम्बना !

पत्नी को पहचानने के लिए

अंगूठी का सहारा



क्या प्रेम, विवाह और बिस्तर

सब अनहोनी थी...

या

गर्भाधान भी कोई

था चमत्कार !!!

जो अनजाने से ही

चू गया गया गर्भ में

और पुत्र भरत

बन गया यथार्थ...



बालक मोह लिया विस्मृत्ति में भी

लेकिन पत्नी याद नहीं आयी

जिसने अपने भावनाओं से

सींचा था प्रेम का खेत

और रोपा था जीवन का बीज



अँगूठी...

जो धड़कनों वाली नली से

गिरकर मत्स्य-गर्भ में जा फँसी

और निकली तो

अपने हृदय की धड़कनों की याद आयी,

पहचान गए दुष्यंत !

अपना लिया शकुन्तला को



किन्तु आज की शकुन्तला

के पास

ऐसी कौन सी है पहचान ?

सिवाय डी.एन.ए. टेस्ट के !!



पहचानो दुष्यंत पहचानो

बिना अँगूठी के

कौन सी शकुन्तला तुम्हारी है, और

कौन सा भरत.... ???

ऊफफफफफ....

बदल गया इतिहास...