रविवार, 16 नवंबर 2014

इज़्ज़तदारों के पाइन तरे

इज़्ज़तदारों के पाइन तरे  


     काहे रे नलिनी, तू कुम्हिलानी”1 - आज कबीरदास होतें तो क्या आज भी यही पंक्तियाँ लिखतें ? यदि लिखते तो किस संदर्भ में ? जीवन की आपाधापी, जीव की निराशा, अमानवीयता, छूआछूत, नारी-शोषण, मानव तस्करी देखकर ? आज नलिनी को कुम्हलाने के कई कारण है - बाल-विवाह, दहेज-प्रथा, बलात्कार, अपहरण, हत्या, वेश्यावृत्ति आदि । शायद कबीर स्वयं भी कुम्हलाने लगतें । आज वेश्या के पाइन तरे की बात नहीं याद आती, बल्कि वेश्याओं के वेश्या बनने के कारणों का पता लगाते लगाते पतिव्रता नारी की संकल्पना भूल जातें और वेश्याओं को बचाने के लिए कोई मुहिम छेड़ देतें । भक्ति और साधना कहीं ताक पर रखकर हर दिन होने वालें अपराधों को देखकर क्रोध में कोई अविस्मरणिय छन्द रच जातें तथा भक्ति औऱ साधना में रत् महापुरूषों के चंगूल से महिलाओं को बचाने के लिए अपना सर्वस्व दाव पर लगा देतें । आज वे संतों का पेट भरने के लिए पत्नी को कंधे पर रखकर बनिया के दुकान पर नहीं छोड़ने जातें बल्कि संतो को देखकर पहले अपनी पत्नी को घर में छिप जाने की सलाह देतें । कदाचित् आज के समय में नारी के प्रति उनका कुछ अलग ही नज़रिया होता ।
       आज की नलिनी पानी के नाम पर पानी पानी हो रही है । कहीं पानी बचाने के लिए हत्याएँ तो कहीं पानी के लिए मानव-तस्करी । दिन प्रति दिन बढ़ता मानव तस्करी का गुपचुप खेल प्रत्येक मानव को भयभीत किए रखता है । इसके कई कारण हैं, जैसे - श्रम, अंग व्यापार, विवाह और सेक्स । जिनमें से स्त्रियों की तस्करी का सबसे बड़ा कारण सेक्स अर्थात् वेश्यावृत्ति है । वेश्यावृत्ति के कुएँ में हर दिन हजारों बच्चियाँ, लड़कियाँ और औरतें ढ़केली जा रही हैं । भारत में पाँच रेड लाइट एरिया शीर्ष स्थानों पर हैं - कोलकाता का सोनागाची,  दिल्ली का जी.बी. रोड़ (उत्तरी कोलकाता), मध्यप्रदेश का रेशमपुरा (ग्वालियर), उत्तर-प्रदेश का कबाड़ी बाज़ार (मेरठ), मुंबई का कामथीपुरा (मायानगरी)  । इसके अतिरिक्त वाराणसी में दालमंडी, सहारनपुर में नक्कास बाज़ार, मुजफ्फरपुर में छतरभुज स्थान तथा नागपुर में गंगा-जमुना आदि का नाम भी प्रसिद्ध है । इन स्थानों पर स्त्रियाँ स्वेच्छा, अनिच्छा और जबरदस्ती, अपहरित तथा विवशतावश आदि कई कारणों से देह व्यापार के धंधे में शामिल हैं यूनिसेफ की एक रिपोर्ट (1996) के अनुसार – “4 से 5 लाख  बाल वेश्यायें भारत में हैं । भारतीय पतिता उद्धार सभा के अध्यक्ष खैराती लाल भोला के अनुसार 60-70 लाख काल गर्ल्स कार्यरत हैं । ये ब्यूटी पार्लर, मसाज सेन्टर और चलते फिरते अपना धन्धा करती हैं । रेड लाइट एरिया चिन्हित हैं । तीन लाख कोठे, तेइस लाख अस्सी हजार से अधिक वेश्यायें और बावन लाख से अधिक इनके बच्चे हैं । इनमें काल गर्ल्स की संख्या शामिल नहीं है”2 । जहाँ अपनी कामुकता पर ईज़्जत का लिबास धारण कर हर वर्ग के ईज़्ज़तदार पहुँचकर अपनी ईज़्ज़त बेच आते हैं और परिवार और समाज में पुनः आन बान शान के साथ सीना ताने खड़े हो जाते हैं ।
        समाज में जो कुछ भी हो रहा है वह इज़्ज़त के लिए और इज़्ज़त के नाम पर । किंतु सबसे जटिल सवाल है कि ईज़्ज़त है क्या ? क्या ईज़्ज़्त वह है, जो हम अपनी नज़रों में हैं अथवा ईज़्ज़्त वह है, जो हम दूसरों की नज़रों में हैं ? रिश्तों को ताक पर रखकर कामूक पाशविकता को किसी के हाथों चन्द रूपयों में बेच आना ईज़्ज़्त है अथवा वह है, जब किसी को पेट भर खाना खिलाने अथवा रिश्तों को बचाने के लिए किसी की कामुक पाशविक लार झेल जाना ? क्या ईज़्ज़त वह है, जो किसी की विवशता को इतना विवश बना देना कि उसकी रीढ़ की हड्डी तक टूट जाए अथवा वह है, जब विश्वास विवशता में बदल जाए और हड्डी क्या, आत्मा भी न बचे ? क्या ईज़्ज़्त वह है, जहाँ मानव मानव न रहे अथवा ईज़्ज़त वह है कि मानव को उसके घर में मानव बनाकर भेजे ? ऐसी ही ईज़्ज़त पर व्यंग्य है डी.एम.मिश्र की ईज़्ज़तपुरम
       ईज़्ज़तपुरम गरीबी, गरीबी से उत्पन्न समस्याएँ, धोखा, वेश्यावृत्ति में प्रवेश और वेश्यावृत्ति का आधुनिकीकरण तक के सफ़र का एक लम्बी श्रृंखलात्मक कथा है अथवा यह प्रतीक रूप में ली गयी गुलाबो का जीवन-चरित्र है, जो गुलाबों के जीवन में उम्र और वेश्यावृत्ति के साथ हुए परिवर्तन को धारावाहिक रूप में कविता की लड़ियों में पिरोया गया है ।
       काव्य-संग्रह की पहली पंक्ति ही गरीबी की समस्या से शुरू होती है, जहाँ भूखे पेट में आदर्शवाद और भारी लगने लगता है ।
                                            ठंडा हो / चूल्हा
                                            अनुपस्थित हो / धुँआ
                                            खामोश हो / बरतन
                                            और भड़की हो
                                            भूखी आग
                                            तो दाँत
                                            अपनी जड़ों की
                                            गीली मिट्टी / और
                                            कच्ची हरियालियों को
                                            चबाने और
                                            उजाड़ने पर
                                            उतर आये

                                            जब / शुष्क आँतों की
                                            मरोड़ पर
                                            खोखले आदर्शों का
                                            बोझ / और भी
                                            गरू पड़ें”3  
       गरीबी की मार से गुलाबो हारती नहीं बल्कि वह स्वाभीमान के साथ झाड़ू लगाकर पैसा कमाती है, बाद में वह लोगों के सामने हाथ फैलाने से अच्छा मुँगफली और रेवड़ी बेच कर  अपना तथा  अपने परिवार का पेट भरना शुरू करती है । किंतु दरिन्दगी और / वहशीपन से / अनभिज्ञ गुलाबो / कब नौ से / तेरह की हो गयी / पता न चला”4  और उसके दैहिक उभार पर राहगिरों की नज़र रहने लगी । ट्रेन की बोगी में शोहदों के बीच फँसी गुलाबो की ईज़्ज़त तार तार हुई, जिसे बचाने के लिए रामफल के अलावा कोई सामने नहीं आया । बलात्कार एक ऐसा अनुभव है, जो पीड़िता के जीवन की बुनियाद को हिला देता है । बहुत-सी स्त्रियों के लिए इसका दुष्परिणाम लम्बे समय तक बना रहता है, व्यक्तिगत संबंधों की क्षमता को बुरी तरह से प्रभावित करता है, व्यवहार और मुल्यों को बदल आतंक पैदा करता है”5
       एक भारतीय महिला के लिए उसके समस्त आदर्शों और नैतिकता का केन्द्र बिन्दु उसकी देह है । दैहिक आघात सिर्फ दैहिक नहीं होता बल्कि मानसिक होता है । उसपर से गरीबी का तमाचा और परिवार के प्रति उत्तरदायित्व उसके समस्त अस्तित्व को झकझोर देता है । बढ़ती उम्र के साथ बनियाइन छोटी होना और प्रथम रजस्राव से अनभिज्ञ रज में लथपथा जाना और बलात्कार के पश्चात् शर्म से बाहर न निकल पाना, घर में पैसे न आने पर माँ के ताने उसके आहत मन को और अधिक झकझोर देता है ।  
                                                 काश !
                                                 पुरी दुनियाँ
                                                 नग्न होती
                                                 तब
                                                 न नग्नता होती
                                                 न अश्लीलता”6
       उसके जीवन में विवशता से विषमता तब उत्पन्न होती है, जब उसे उसका ही प्रेमी पाँच हजार रूपए में पटाकर कोठे पर बैठा देता है । नथ उतराई से उसके सुहागरात के सपनों का छिन जाना और गुलाबबाई के नाम से धंधे में प्रवेश की विडंबना उपन्यास तिनका तिनके पास, दस द्वारे का पींजरा, और मुर्दाघर की याद स्वतः दिला जाता है । मुजरे के / होठों पर / मरसिया का / पाठ”7 गुलाबो से बनी गुलाबबाई का सिर्फ दर्द ही नहीं व्यक्त करता बल्कि मृत्तप्रायः संसार की क्रुरता से अपने मृत्यु की कामना भी प्रबल दिखायी देती है । जहाँ सभी इज़्ज़दार अधम-श्रेष्ठ, सन्त-असन्त, गृहस्थ-अतिथि आदि 8 सबकी बारी-बारी से तृप्ति होती है परंतु गुलाबबाई खामोश है ।   
       बढ़ती उम्र और झुर्रियों के साथ-साथ अम्मीजान की चिंता भी बढ़ने लगी । किंतु उन्हें हर सड़ी-गली चीज को ठिकाने लगाने महारत हासिल है । दिल्ली के जी.बी.रोड पर हाई-फाई कोठा चलाने वाली तथा हाई प्रोफाइल के ग्राहक से जूड़ने वाली अम्मीजान की बहन शकुन्तला हाई-फाई तकनीकि के साथ ग्राहक पटाने के लिए न सिर्फ ट्रेनिंग देती हैं बल्कि अनेक नुस्खों के साथ चमकती रोशनी में सड़ी-गली चीज़ का प्रयोग करने में पारंगत हैं । अतः 20 हजार की सस्ती माल गुलाबबाई को मैडम शकुन्तला के हाथों बेच देना कोई घाटे का सौदा नहीं ! बिक गई गुलाबबाई और शुरू हुआ वेश्यावृत्ति का नया सफ़र  ।
        दिल्ली की चमक-दमक में गुलाबबाई का मिस रोजी में कायपलट सस्ते माल का हाई प्रोफाइल रोशनी में चल देना अपने आप में एक अनोखा अनुभव है । मिस रोजी अब आत्मविश्ववास से परिपूर्ण है । अब उसे अपने धंधे से कोई शिकायत नहीं बल्कि उसके लिए यह धंधा कैरियर है / वृत्ति है / शौक है / शान है / सेक्स / अब / श्रम है / शर्म नहीं”9 
       जी.बी. रोड़ प्रत्येक वर्ग के लिए अछूत हैं किंतु रात के अंधेरे में वह किसी भी वर्ग से अछूता नहीं रहता । दिन में सफेदपोश इज़्ज़दार लोग इज़्ज़तभरी नगरी इज़्ज़तपुरम का फीता काटकर उद्घाटन भी करते हैं, जिस पर मूकदर्शक तालिया बजा बजाकर नारा लगाते हैं- जिंदाबाद-जिंदाबाद और सबसे पीछे खड़ी उम्र के ढ़लान पर मिस रोजी कहती है – जिंद-आबाद ! जिंद-आबाद !!
       मिस रोजी उम्र के ढलान पर अपना सौन्दर्य ही नहीं बल्कि स्वास्थ्य भी खो चुकी है । नेफा के नीचे / अब / सोख्ता कहाँ / वाटरपैड है”10 । जब रामफल, माँ, परिवार, अम्मीजान, मैडम शकुन्तलता, ग्राहक तथा अपना स्वयं का नाम गुलाबो सब साथ छोड़ जाते हैं तब आत्मघाती बिमारी एड़्स हाथ थाम लेता हैं । किंतु समस्त दुखों के गर्भ में जाने के पश्चात् भी तिरानबे वर्ष में मिस रोजी एक बार फिर गुलाबो की तरह जीवन जीना चाहती है, वह अनन्त सुख और अटूट प्रेम की तलाश अदम्य लालसा मरी नहीं, जिंदा है और उसे उम्मीद है कि सुख प्राप्त होगा, उसके जीवन का सफर अभी अपूर्ण है, वह हार नहीं मानेगी –
                                                   जीना ही
                                                    जीवन है
                                                    चलो
                                                    सफ़र
                                                    अपूर्ण अभी
                                                    हार नहीं मानो”11                           
       इस काव्य-संग्रह की खास विशेषता है कि गरीबी से उत्पन्न समस्या से गुलाबो के जीवन का व्यापक चित्रण है, यह काव्य नहीं होता तो उपन्यास अवश्य होता । कविता कहने की कवि की अपनी शैली है । परत-परत / जिस्म में मुँह / इतने घुसे जायें कि / चेहरे थूकदान लगें”12 अथवा पशु यौन क्रियाओं में / अमानुषिक क्रूर लिप्ति / मैदान दो अंगुल / रस्साकसी भीषण / हवाओं के रूख पर / अँजुरी भर स्वेद / ओठों पर / झाग और फ़ेन / सर से पाँव तक / चिपचिपायी चाँदनी13 आदि पंक्तियाँ पढ़ने से मन में हवसी समाज के प्रति घृणा उत्पन्न हो जाती है । समाज में छिपे इज़्ज़तदार लोगों की धज्जियाँ उड जाती हैं । कवि के साथ साथ पाठक भी आक्रोश से भर जाता है ।  
       किंतु इन सबके बावजूद संवेदना के स्तर पर निराशा होती है । इस संग्रह के अतिरिक्त साहित्य में वेश्यावृत्ति पर आधारित कुछ उपन्यास और कविताएँ लिखी गई हैं – जैसे, मधु कांकरिया का आखिरी सलाम, अलका सरावगी का शेष कादंबरी, जगदंबा प्रसाद दीक्षित का मुर्दाघर, अनामिका का तिनका तिनके पास और दस द्वारे का पिंजरा । साथ ही अनामिका और निर्मला पुतुल ने छिटपुट रूप में कविताएँ भी प्राप्त होती हैं ।
       यह सत्य है कि वेश्यावृत्ति पर पूरा काव्य-संग्रह नहीं दिखाई देता । इस संग्रह को पढ़ने के पश्चात् स्पष्ट होता है कि कवि ने वेश्यावृत्ति पर काफी अध्ययन किया है अथवा वेश्याओं के जीवन को बहुत करीब से देखा है । गरीबी से विवश होकर वेश्यावृत्ति में कदम रखना और वेश्यावृत्ति का व्यवसाय में परिवर्तन कवि के रिसर्च को दर्शाता है । इन्होंने हर घटना को समेटना चाहा है और उससे उत्पन्न लाभ-हानि को दर्शाया है । इन सबके बावजूद कवि का काव्य-संग्रह घटनात्मक है न कि संवेदनात्मक । अनामिका ने जो संवेदना एक ही कविता चकलाघर की एक दुपहरिया में व्यक्त कर दिया है, वह संवेदना पूरी किताब में भी व्यक्त नहीं हो पायी है ।
       गुलाबो मशीन की तरह हर समस्या से लड़ने के लिए कोई न कोई तरकीब ढ़ूँढ़ लेती है, वह साहसी और धैर्यशाली है, पुरे काव्य में गुलाबो आजीविका के लिए जद्दोजहद करती है । किंतु उसका दर्द कहीं भी इस तरह से व्यक्त नहीं हुआ है, जिससे पाठक आहत हो जाए । पुरूष के पाशविक व्यवहार से पाठक आहत होता है, न कि गुलाबो के दुख से दुखी ।
       सबसे बड़ी बात है कि गुलाबो की माँ भी माँ की तरह नहीं बल्कि अम्मीजान की तरह दिखती है, जो सिर्फ पैसा जानती है, उसके अंदर अपनी बेटी के लिए कोई ममता नहीं । वह गुलाबो के जीवन की सबसे बड़ी विलेन है । गरीबी से परेशान माँ की ममता का संपूर्ण लोप है । गुलाबो से लेकर मिस रोजी में काया-पलट तक हो जाता है, परंतु गुलाबो हर जगह खामोश है । न परिस्थिति स्वीकार की स्थिति है न ही प्रतिकार की । जबकि उसे छोड़कर सबकी संवेदनाएँ स्पष्ट दिखती हैं । सिर्फ संग्रह के मध्य में तथा अंत में एक-एक अनुच्छेद दिख जाते हैं, आखिरी कविता की पंक्तियाँ उसकी हिम्मत, जीजिविष और अटूट प्रेम की लालसा से उसके जीवन का दर्द समझ में आ जाता है, पर उससे जुड़ाव नहीं हो पाता ।
       निर्मला पुतुल की पंक्तियाँ
                                         “उनकी आँखों की पहुँच तक ही
                                         सीमित होती उनकी दुनिया
                                         उनकी दुनिया जैसी कई-कई दुनिया
                                         शामिल हैं इस दुनिया में / नहीं जानती वे
                                         वे नहीं जानतीं कि
                                         कैसे पहुँच जाती हैं उनकी चीजें दिल्ली
                                         जबकि राजमार्ग तक पहुँचने से पहले ही
                                         दम तोड़ देतीं उनकी दुनिया की पगडण्डियाँ
                                         नहीं जानती कि कैसे सूख जाती हैं
                                         उनकी दुनिया तक आते-आते नदियाँ
                                         तस्वीरें कैसे पहुँच जाती हैं उनकी महानगर
                                         नहीं जानती वे ! नहीं जानतीं !!”
अथवा अनामिका की कविता चकलाघर की एक दुपहरिया’  की पंक्तियाँ
                                        “ ‘जिंदगी, इतनी सहजता से जो हो जाती है विवस्त्र
                                           क्या केवल मेरी हो सकती है ?
                                        उसने कहा और चला गया !
                                        एक कुंकुम रंग की क्रूरता
                                        पसरी थी अब घर में !
                                        ………..
                                        ……….
                                       उतरती हुई धूप ने सोचा –
                                       क्यों होना चाहिए कुछ भी किसी का
                                       उसकी मर्जी के खिलाफ ?15
आदि कविताएँ पढ़ते समय ये पंक्तियाँ जिस तरह से आत्मा को झकझोर देती हैं और पाठक अभिन्न रूप से वेश्या की संवेदना से जुड़ जाता है, उसी तरह वह गुलाबो से नहीं जुड़ पाता । इस काव्य-संग्रह को पढ़ने के पश्चात् उसी प्रकार का अनुभव प्राप्त होता है जिस प्रकार हम खाना खाते समय टी.वी. पर किसी त्रासदी में घायल, पीड़ित, मृत्यु अथवा बलात्कार आदि समाचार देख लेते हैं और बाद में अपने दिनचर्या में जुड़ जाते हैं । कवि अपनी भाषा-शैली के माध्यम से परिस्थिति तथा परिवेशगत् शरीर तैयार करने में सफल हुए हैं, किंतु शरीर के अंदर प्राण फूकने में चूक हो गयी है । यदि इस संग्रह में गुलाबो के अंदर जान आ जाती, तो कदाचित आज ये समय-सापेक्ष कविताएँ गुमनामी की सांस नहीं ले रही होतीं ।


पाद-टिप्पणी एवं संदर्भ ग्रंथ –
1.     शुक्ल, डॉ. धनेश्वर प्रसाद, संपा. मध्यकालीन कविता संग्रह. पृ. 06. विद्यार्थी पुस्तक भंडार, गोरखपुर. 1996.
2.     अग्निहोत्री, डॉ. ए.एन. महिला सशक्तिकरण और कानून. पृ. 32 (सहारा समय – साप्ताहिक, 3 अप्रैल, 2004. पृ. 22-23). सरस्वती प्रकाशन, कानपुर, प्रथम, 2008.
3.     मिश्र, डी.एम., इज़्जपुरम्. पृ. 11. नमन प्रकाशन, नई दिल्ली. द्वितीय, 2012.
4.     मिश्र, डी.एम., इज़्जपुरम्. पृ. 23. नमन प्रकाशन, नई दिल्ली. द्वितीय, 2012.
5.     जैन, अरविन्द. औरत होने की सज़ा. पृ. 165. (डब्ल्यू यंग, रेप स्टडी, 1983). राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली. 2006.
6.     मिश्र, डी.एम., इज़्जपुरम्. पृ. 46. नमन प्रकाशन, नई दिल्ली. द्वितीय, 2012.  
7.     मिश्र, डी.एम., इज़्जपुरम्. पृ. 66. नमन प्रकाशन, नई दिल्ली. द्वितीय, 2012.
8.     मिश्र, डी.एम., इज़्जपुरम्. पृ. 68. नमन प्रकाशन, नई दिल्ली. द्वितीय, 2012.
9.     मिश्र, डी.एम., इज़्जपुरम्. पृ. 104. नमन प्रकाशन, नई दिल्ली. द्वितीय, 2012.
10.  मिश्र, डी.एम., इज़्जपुरम्. पृ. 110. नमन प्रकाशन, नई दिल्ली. द्वितीय, 2012.
11.  मिश्र, डी.एम., इज़्जपुरम्. पृ. 119. नमन प्रकाशन, नई दिल्ली. द्वितीय, 2012.  
12.  मिश्र, डी.एम., इज़्जपुरम्. पृ. 105. नमन प्रकाशन, नई दिल्ली. द्वितीय, 2012.  
13.  मिश्र, डी.एम., इज़्जपुरम्. पृ. 106. नमन प्रकाशन, नई दिल्ली. द्वितीय, 2012.
14.  पुतुल, निर्मला. नगाड़े की तरह बजते शब्द. पृ. 11. अनु. अशोक सिंह. भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली. प्रथम, 2005.

15.  अनामिका. कवि ने कहा. पृ. 105,107. किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली. प्रथम, 2008.



-रेनू यादव
रिसर्च / फेकल्टी असोसिएट
हिन्दी विभाग
      गौतम बुद्ध युनिवर्सिटी,
यमुना एक्सप्रेस-वे, नियर कासना,
गौतम वुद्ध नगर, ग्रेटर नोएडा – 201 312

शनिवार, 25 अक्तूबर 2014

प्रवासी कथाओं में स्त्री-विमर्श

संपादक आदरणीय सुधा ओम ढ़ींगरा तथा अतिथि संपादक डॉ. सुशील सिद्धार्थ द्वारा संपादित हिन्दी-चेतना (अक्टूबर-दिसम्बर 2014) के 'कथा आलोचना विशेषांक' में मेरा यह लेख प्रकाशित हुआ है -


प्रवासी कथाओं में स्त्री-विमर्श



हिन्दी साहित्य के आँचल में जहाँ एक ओर स्त्री-विमर्श, दलित-विमर्श, आदिवासी विमर्श, अल्पसंख्यक विमर्श आदि के बेल-बूटे दिखाई दे रहे हैं, वहीं प्रवासी विमर्श भी उभर कर चमकने लगा है।  अपनी चमक के साथ ही प्रवासी साहित्य के लिए प्रवासी कहलाने और न कहलाने पर बहस छिड़ गई है। प्रवास में लिखा गया साहित्य प्रवासी साहित्य है, जिसे मुख्य धारा का साहित्य अपने में कहीं- कहीं से चुन कर सम्मिलित कर लेता है, और प्रायः उसे मुख्यधारा का साहित्य समझ लिया जाता है। किन्तु सत्य तो यह है कि प्रवासी साहित्य आज व्यापक रूप धारण कर चुका है और उनमें से कुछेक रचनाओं का मुख्यधारा में शामिल हो जाना पूरे प्रवासी साहित्य का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता। इसलिए प्रवासी को पहले प्रवासी बनकर ही संघर्ष करना होगा, तत्पश्चात्  मुख्यधारा के साहित्य में सम्मिलित होने के लिए हाशिए को मिटाना होगा, जो अचानक संभव नहीं। यह भी ध्यातव्य है कि मुख्य धारा का साहित्य अपने माँ-बाप के घर अर्थात् हिन्दी क्षेत्रों में पला-बढ़ा है और प्रवासी साहित्य अनाथ की तरह। इसलिए भाषिक शुद्धता-अशुद्धता का प्रश्न भी निरर्थक है। जिस प्रकार अन्य विमर्शों ने अपनी-अपनी पहचान बनाने के लिए अपने नाम के साथ अधिकारों की माँग कर रहे हैं, उसी प्रकार प्रवासी को प्रवासी कहना और उनका अधिकार माँगना अनुचित नहीं होगा और अधिकार प्राप्ति के बाद हाशिए की लकीर प्रवासी नाम संभवतः खत्म भी हो जाए।       
      प्रवासी साहित्य की खास विशेषता है कि प्रत्येक सुख-सुविधाओं के साथ-साथ विदेशी भूमि पर देशी चूल्हा जलने से घर की रोटी की सुगंध आती है तथा यह भी ध्यान रखने योग्य बात है कि परायी  भूमि को कर्मक्षेत्र बना लेने से न तो घर की रोटी की सुगंध भूली जा सकती है और न ही पराया समाज और संस्कृति अपना लेने से अपनी मातृभूमि के प्रति प्रेम समाप्त हो सकता है एवं न ही अपनी देशी आत्मा विदेशी में परिवर्तित हो सकती है। इसलिए बार-बार इन साहित्य पर नॉस्टेल्जिया का आरोप भी लगता रहा है। कदाचित् यहीं से शुरू होती है मूल्यों की टकराहट और उससे उत्पन्न होने लगती हैं सामाजिक-सांस्कृतिक समस्याएँ; जिससे आहत होने लगती हैं संवेदनाएँ। इसीलिए स्वच्छंद पाश्चात्य के खुली छतरी के नीचे भारतीय संवेदनाएँ अपना पर फैलाने से पहले ही स्वयं में सिकुड़ जाती हैं। इससे तीन स्थितियाँ उत्पन्न होती हैं :पहला पाश्चात्य संस्कृति के अनुरूप ढल जाना, जिससे पूर्व मूल्यों का विघटन और नए मूल्यों का निर्माण होता है। दूसरा भारतीय एवं पाश्चात्य संस्कृति और मूल्यों में सामंजस्य बनाकर आगे बढ़ना; जिससे जीना आसान हो जाए और तीसरा पाश्चात्य मूल्यों को स्वीकार न कर पाना, जिससे निराशाजनक स्थिति से तंग आकर भग्नाशा का शिकार हो जाना; जो कि विकृत्त रूप धारण कर लेता है अथवा विद्रोही बन जाना; ताकि परिस्थितियाँ बदल सकें। और ये तीनों ही स्थितियाँ प्रवासी साहित्य में दृष्टिगत होती हैं।
         प्रवासी साहित्य की सबसे विशिष्ट बात यह है कि वहाँ महिला साहित्यकारों की भागीदारी पुरुष साहित्यकारों से अधिक है तथा वह भारतीय महिला लेखन की भाँति हाशिए पर नहीं खड़ा है, और न ही किसी एक बनी-बनायी परिपाटी को लेकर चल रहा है, बल्कि अपनी विषय वैविध्यता के कारण मुख्यधारा में सम्मिलित है। यह मात्र स्त्री संवेदना को ही व्यक्त नहीं करता बल्कि पाश्चात्य परिवेश में जूझ रहे प्रत्येक व्यक्ति की संवेदना को स्वर प्रदान करता है, इनमें बच्चे, बूढ़े, पुरुष, समलैंगिंक, अंतर्नस्लीय, उच्चवर्गीय, मध्यवर्गीय व्यक्ति एवं परिवार तथा मस्तमौले विदेशी भिखारी भी परिवेशगत स्थान पाते हैं। भारत में महिला-लेखन अभी चौखट पार कर रहा है, किंतु प्रवास में महिला लेखन भूमंडल में टहल रहा है । वह देख रहा है वहाँ के सच्चाइयों को, मूल्यों को, यथार्थ को और ढ़ूँढ़ रहा है संवेदना का अंतःसूत्र ।
        प्रवासी महिला कथाओं में अनेक रचनाकारों के नाम हैं
        अमेरिका से सुषम बेदी, सुदर्शन प्रियदर्शिनी, अनिल प्रभा कुमारसुधा ओम ढींगरारेनूराजवंशी गुप्ता, पुष्पा सक्सेनाप्रतिभा सक्सेना, इला प्रसादरचना श्रीवास्तव एवं आस्था नवल।
        कैनेडा से शैलजा सक्सेना, रीनू पुरोहित। 
        ब्रिटेन से ज़किया ज़ुबैरी, दिव्या माथुर, उषा राजे सक्सेना, अचला शर्मा, शैल अग्रवाल, नीना पॉल, उषा वर्मा, कादम्बरी मेहरा, कविता वाचक्नवी एवं नीरा त्यागी।
        संयुक्त अरब अमीरात से पूर्णिमा वर्मन।
        कुवैत से दीपिका जोशी।
        डेनमार्क से अर्चना पेन्यूली।
        फ्रांस से सुचिता भट्ट।
        ऑस्ट्रेलिया से- रेखा राजवंशी।
        नीदरलैंड- पुष्पिता अवस्थी। 
        चीन- अनीता शर्मा। 
        इन लेखिकाओं के साहित्य का अध्ययन करने से स्पष्ट होता है कि भूमंडलीकरण के हाहाकार में बढ़ती यांत्रिकता और मनुष्य की संवेदनहीनता ने इन्हें अंदर से झकझोर दिया है, जिससे इन्होंने अपनी जड़ों को मज़बूत बनाते हुए मन की अथाह गुफा में भारतीय मूल्यों का पुनर्मूल्यांकन एवं पुनर्स्थापित किया है । विषय-वैविध्यता तथा एक ही विषय में संवेदना की वैविध्यता का उदाहरण इनकी कहानियों में साफ़-सुथरा एवं सुन्दर ढंग से प्रस्तुत हुआ है । सुदर्शन प्रियदर्शिनी की कहानी अखबारवाला’, सुषम बेदी की अवसानअथवा सुधा ओम ढींगरा की कमरा नं. 103’, तीनों ही कहानियों का संदर्भ अलग है पर विषय मृत्यु है। भारत के गाँव-घर में अचानक किसी के घर आटा-दाल माँगने के बहाने पहुँचना और घंटों बैठकर पड़ोसियों के साथ गलचऊर कर लेना अथवा जाड़े की रातों में आग के अलाव के सामने बैठकर बतिकही कर लेना एक सामान्य सी बात है, किंतु विदेश में फ़ोन किए बिना, वह भी उनकी प्राइवेसी को बिना नुकसान पहुँचाए, किसी के घर जाना संभव नहीं । भारत में अपने बेटे से मार खाकर पड़ोसी के घर में जाकर रो आना और सहानुभूति के तौर पर खाना भी खा लेना एक सामान्य सी बात है, परंतु कमरा नं. 103’ की मिसेज वर्मा परदेश में एकदम अकेली हो जाती हैं क्योंकि बेटा-बहु घर में लगे जाले की तरह उन्हें उतार फेंकते हैं, जिससे उनके जीवन का उद्देश्य समाप्त हो गया । भाषा की भीषण परेशानी तो बिना बात किए खत्म हो ही नहीं सकती और बिमारी की हालत में बार्नज अस्पताल में पहुँचा दी जाती हैं। उनकी जिन्दगी की सुरक्षा कोमा जैसी बिमारी करती है, अस्पताल में नर्सें ही उनकी अपनी हैं। बेटा-बहु तो कभी उनकी सलामती जानने भी नहीं आते। अवसानकहानी में मृतक के इच्छा का अवसान है तो अखबारवालाकी कहानी भारतीय संस्कारों से बिल्कुल ही भिन्न। भारत में त्योहार उत्सवों की भाँति मृत्यु संस्कार में पास-पड़ोस के लोग ही नहीं बल्कि गाँव-गड़ा सब एक साथ रोते-धोते हैं । यही नहीं तेरहवीं तक मृतक के परिवार वालों का खयाल पास-पड़ोस और रिश्तेदार रखा करते हैं । किन्तु अखबारवालाकहानी में मृतक का मरना भी पर्सनल प्रॉबलम है । ये कहानियाँ स्वतः ही अभिमन्यु अनत की कहानी मातम पुरसीतथा तेजेन्द्र शर्मा की कहानी पासपोर्ट के रंगऔर क़ब्र का मुनाफ़ाका स्मरण करा जाती हैं। 'मातम पुरसी' और 'क़ब्र का मुनाफ़ा' कहानियों में मृत्यु एक घटना है, मृत्यु में भी फायदा नुकसान देखा जा सकता है। 
इला प्रसाद की कहानी ई-मेलऔर एक अधूरी प्रेमकथाअपने आप में संचार और हॉस्टल की कहानी को समेटते हुए आधुनिक युग की क्षणिक अनुभूति की कहानी है । सुधा ओम ढींगरा की और बाड़ बन गईतथा कौन सी ज़मीन अपनीप्रवासी संवेदना को समेटती है तो वह कोई और थीमें पुरुष-विमर्श, ‘दृश्य भ्रममें अपराध बोध से भरे पुरुष की संवेदना को दर्शाती है। पूर्णिमा वर्मन की कहानी उड़ानउत्तर-आधुनिक परिवेश को दर्शाती है।
        किंतु यदि मात्र स्त्री-विमर्श को ध्यान में रखा जाए तो प्रवासी साहित्य में स्वानुभूति और सहानुभूतिपरक साहित्य समान रूप दृष्टिगत होता है । सहानुभूतिपरक साहित्य में तेजेन्द्र शर्मा की कहानी देह की कीमत’, गौतम सचदेव की आकाश की बेटी’, सुमन कुमार घई की सुबह साढ़े सात से पहलेआदि कहानी तथा स्वानुभूतिपरक साहित्य में सुषम वेदी का उपन्यास हवन’, ‘लौटना’, सुदर्शन प्रियदर्शिनीका उपन्यास न भेज्यो बिदेसआदि तथा कहानियों में ज़किया जुबैरी की कहानी सांकल’, ‘मेरे हिस्से की धूप’, सुधा ओम ढींगरा की कहानी आग में गर्मी कम क्यों है’?, ‘टारनेडो’, ‘क्षितिज से परे…’, ‘बेघर सच’, सुषम बेदी की काला लिबास’, ‘तीसरी दुनिया का मसीहा’, ‘सड़क की लय’, उषा वर्मा की सलमा’, अनिल प्रभा कुमारी की घर’, पुष्पा सक्सेना का विकल्प कोई नहीं’, सुदर्शन प्रियदर्शिनी की धूप’, अचला शर्मा की चौथी ऋतु’, नीरा त्यागी की माँ की यात्रा’, दिव्या माथुर की सफ़रनामाआदि प्रमुख हैं।
        इन कहानियों में स्त्री का यथार्थ प्रमुख रूप से तीन रूपों में सामने उभर कर आया है
        • भारतीय संस्कारों का आत्मसातीकरण
        • मानवीय संवेदना और मानवीय मूल्यों की खोज
        • अस्मिता के प्रति जागरूक

भारतीय संस्कारों का आत्मसातीकरण – 
        भारतीय परिप्रेक्ष्य में स्त्री-विमर्श धर्म, नैतिकता तथा दैहिकता के दायरे से बाहर निकलने के लिए फड़फड़ा रहा है क्योंकि भारतीय संस्कार स्त्री-जीवन में नीर-क्षीर की भाँति इस प्रकार रच-बस गया है। सिमोन द बोउवार का कथन स्त्री स्त्री पैदा नहीं होती, बनाई जाती है, भारत में विशेष रूप से चरितार्थ है। कदाचित् यही कारण है कि भारतीय महिलाएँ विदेश में अपने संस्कारों को भूल नहीं पातीं। न भेज्यो विदेसकी नायिका रत्ती और गुरमीत बिशन सिंह से प्रदत्त षड़यंत्रों से उत्पन्न समस्याओं से निरंतर जूझते हुए भी पति-परमेश्वर की अवधारणा से मुक्त नहीं हो पाती और मूक बनकर जीवन गुज़ारती है। रत्ती को जब अपने साथ हुए धोखे की बात समझ में आती है कि तब वह लड़ने झगड़ने के बजाय खामोशी के साथ अपने पति प्रीतम से विमुख होने लगती है, किंतु प्रीतम के प्रति अनन्य प्रेम उसे पुनः वापस लौटने हेतु विवश कर देता है। हवनउपन्यास की नायिका गुड्डो अमेरिका में रहने के पश्चात् भी दिग्भ्रमित नहीं होती। उसकी सारी शक्ति, संस्कार, नैतिकता और मूल्य मानो हवन से ही अर्जित होती है, जिससे परिवार-कल्याण की कामना पूर्ण हो जाती है। वकील साहब गुड्डो का सहारा लेकर अमेरिका में सपरिवार बसना चाहते हैं, इसीलिए वे गुड्डो की चापलूसी भी करने से नहीं थकते और अमेरिका पहुँचते ही उसे गले से लगाते हुए अपने प्रेम का इज़हार करते हैं। उस समय वह उन्हें झटकते हुए बोलती है, “आप क्या समझते हैं, यहाँ आकर मैं कुछ और हो गई हूँ। मेरी वैल्यूज़, मेरे संस्कार बदल गए हैं... आपकी वहाँ कभी ऐसी हिम्मत नहीं हुई थी और यहाँ मेरे घर में ही आप मेरे मेहमान बनकर लूट रहे हैं... मैं लिहाज और मुरव्वत बरतती रही पर आपने सच में समझा कि यहाँ के माहौल ने मुझे बदल दिया है। जिस आज़ादी की मैं बात कर रही थी...आपने उसे जिस्मानी आज़ादी भर ही समझ लिया। जितने हिन्दुस्तानी मर्द मिलते हैं, सोचते हैं चूँकि अमरीका में रह रही है इसलिए ज़रूर कुछ लूज़ या लिबरल हो गई होगी... उनका रवैया वही होता है जो इस वक्त आपका है
         - (कौर, गुरप्रीत. सुषम बेदी के कथा साहित्य में प्रवासी भारतीय समाज के विविध पक्ष. पृ. 111-112. (बेदी, सुषमः हवन, (1996) पृ. 141)
         ‘सांकलकी नायिका सीमा की आत्मा अपने पुत्र को पाश्चात्य रंग में ढलते देखकर आहत होती है। टारनेडोकी भारतीय संस्कारों से पूरित वंदना अपनी बेटी सोनल तथा उसकी सहेली क्रिस्टी जो जैनेफर की बेटी है, को भारतीय संस्कार प्रदान करती है तथा विदेश की चमक-दमक में पथभ्रष्ट होने से बचाने का प्रयास करती है । 
          इस प्रकार ये नायिकाएँ स्वच्छंद विदेशी परिवेश में भी संस्कारों से विमुख नहीं होती बल्कि विदेश में जाकर 'बिगड़ने' वाली अवधारणाओं को तोड़ती हैं ।
 
मानवीय संवेदना एवं मानवीय मूल्यों की खोज-
          भारत में स्त्री विमर्श का संघर्ष चौखट से बाहर निकलने के लिए है किन्तु प्रवासी कहानियों में स्त्री-विमर्श चौखट से बाहर निकलने के पश्चात् वर्चस्ववादी मानसिकता तथा भारतीय एवं पाश्चात्य मूल्यों के टकराहट के कारण है। भारत में स्त्री-विमर्श प्रेम, परिवार और विवाह की ओर लौट रहा है, जिसके प्रमुख समर्थक अनामिका, कात्यायनी, सुशीला टाकभौरे आदि साहित्यकार हैं, लेकिन प्रवासी स्त्री-विमर्श परिवेशगत प्रभाव के कारण चारों दिशाओं में गोते लगा-लगाकर मानवीय मूल्यों की तलाश कर रहा है, हालाँकि यह भी अपने भारतीय संस्कारों से आगत है। इनके स्त्री-विमर्श की दिशाएँ अलग-अलग दृष्टिगत होती हैं। प्रेम, प्रजनन और परिवार की कामना करते हुए भी संस्कारों के विपरीत परिवेश और परिस्थिति के कारण मूल्यों की टकराहट से सारी परिस्थितियाँ गड्ड- मड्ड सी हो जाती हैं, परिणामस्वरूप निराशा, कुंठा, पीड़ा, संत्रास का जन्म होता है।
         ‘सांकलकी नायिका सीमा चाहकर भी अपने पाश्चात्य प्रभावित पुत्र समीर में अपने लिए बचपन वाला प्रेम नहीं ढूँढ़ पाती तथा अपनी ममता को नियंत्रित करने का प्रयास करती है। हवनउपन्यास में गुड्डो को डॉ. जुनेजा से प्रेम करने के पश्चात् पता चलता है कि वह भारतीय नारियों का प्रेम के नाम पर शोषण करता है, इसलिए वह पुनः अपने अकेलेपन की दुनियाँ में लौट आती है। अनुज का कई स्त्रियों के साथ संबंध होने से तनिमा व्यग्र हो जाती है और संबंध-विच्छेद का फैसला करती है। तीसरी दुनिया का मसीहाकी नायिका अपने पति से बेहतर ब्रूनो को संवेदनशील समझ कर उससे प्रेम करने लगती है और उसे ही अपना भगवान् मान बैठती है, लेकिन ब्रूनो का अंधविश्वास पुनः नायिका को यथार्थ के धरातल पर ला पटकता है। न भेज्यो बिदेसमें पैसे और शोहरत की लालच में बहके बिशन सिंह में संवेदना रत्ती की मृत्यु के पश्चात् जगता है। क्षितिज से परे...की नायिका सारंगी को अपने पति सुलभ का तथा धूपकी नायिका रेखा को अपने पति का यानी दोनों नायिकाओं को अमरीका में कदम रखते ही उनकी संवेदनहीनता का आभास हो जाता है। अंततः विवश होकर तलाक का फैसला करना पड़ता है। 
       कुछ कहानियों में संवेदनहीनता ही है जो विदेश की धरातल पर रिश्तों में खटास पैदा कर देती है, तो कुछ कहानियों में संवेदना को ढूँढ़ते हुए पड़ोसी मृतक अखबारवाले के शव तक पहुँचना और सभी में संवेदनहीनता देखकर आँखें नम किए वापस लौट जाना सुदर्शन प्रियदर्शिनीका संवेदना उड़ेलकर लिखने का परिचायक है।
       आश्चर्यजनक बात यह है कि किन्हीं कहानियों में विदेशी परिवेश में भी बच्चों का वहाँ के अनुसार समाजीकरण नहीं हो पाता और वे मानवीय मूल्यों की तलाश में पलायन कर जाते हैं। टारनेडोकी क्रिस्टी को अपनी माँ का बॉयफ्रेंड बदलते रहना पसंद नहीं आता तथा आख़िरी बॉयफ्रेंड केलब की कूदृष्टि माँ-बेटी दोनों पर होने से वह घर छोड़ने के लिए विवश हो जाती है। काला लिबासकी कैशोर्य मन अनन्या नस्लीय भेद तथा राष्ट्रीय भेद होते देखकर भारतीय मूल्यों के प्रति जिज्ञासु हो जाती है तथा किसी से सही उत्तर न मिल पाने के कारण विक्षिप्त-सी और उदण्ड होने लगती है, अंततः पलायन कर जाती है।
        लेकिन कुछ कहानियों में नए मूल्यों की तलाश में नायिकाएँ विकल्प भी ढूँढ़ती हैं । पुष्पा सक्सेना की कहानी विकल्प कोई नहींमें बेटे की मृत्योपरांत सास नहीं चाहती कि उसकी बहू आजीवन वैधव्य का श्राप झेलती रहे, बल्कि वह बहू का पुनर्विवाह भी करवाती है तथा अतीत में डूबी बहू को शिक्षा देती है कि दूसरा पति, पहले का विकल्प नहीं हो सकता  -(
www.pravasiduniya.com/nri-literature-and-woman-dr.anita-kapoor-america, 7 March, 2012. (प्रवासी कथा साहित्य और स्त्री - डॉ. अनीता कपूर (महिला दिवस पर विशेष)
         प्रैक्टिकल दुनियाँ के धागे में ऐसा भावनात्मक रिश्ता प्रवासी साहित्य ही पिरो सकता है। डॉ. प्रीत अरोड़ा अपने लेख प्रवासी साहित्य की कहानियों में यथार्थ और अलगाव के द्वन्द्वमें लिखती हैं – “आज भारत में लिखी जा रही अधिकांश हिन्दी कहानी स्त्री-विमर्श के नाम पर दैहिक विमर्श करती नज़र आती है । जबकि प्रवासी कहानियाँ मानवीय यथार्थ के भीतर मूल्यों की तलाश करती नज़र आती हैं। - (
himalin.com/himalininews/प्रवासी -साहित्य-की-कहानी.html?source=refresh, 12 jan, 2014, डॉ. प्रीत अरोड़ा प्रवासी साहित्य की कहानियों में यथार्थ और अलगाव के द्वन्द्व,)

अस्मिता के प्रति जागरूक -
        प्रवासी कथाओं में नारी के तीन रूप उभरकर सामने आए हैं । पहला, पाश्चात्य परिवेश में इस प्रकार ढल जाना कि नारी का विकृत रूप दर्शाता है अथवा पाश्चात्य परिवेश की विकृतता पाठकों के सामने आती है, जैसे टारनेडोकी जैनेफर या काला लिबासमें अनन्या की माँ, जो अपने मूल्यहीन स्वच्छंद जीवन को ही इतना मूल्यवान मानने लगती हैं कि अपने बच्चों तक का ध्यान नहीं रख पातीं, जिससे बच्चे पथभ्रष्ट हो जाते हैं।
         दूसरा, प्रवासी नारी भारतीय एवं पाश्चात्य परिवेश में सामंजस्य बनाकर आगे बढ़ने का प्रयास करती है। जैसे हवनकी गुड्डो, ‘सड़क की लयकी नेहा, ‘धूपकी रेखा, ‘टारनेडोकी वंदना, ‘आग में गर्मी कम क्यों हैकी साक्षी, ‘मेरे हिस्से की धूपकी शम्मो आदि।
         तीसरा, स्त्री या तो निराशाजन्य स्थिति में अवसादग्रस्त हो गई है अथवा विद्रोहिणी बन गई है । न भेज्यो विदेसकी गुरमीत और सांकलकी सीमा अवसादग्रस्त हो जाती हैं, तो काला लिबासकी अनन्या, ‘टारनेडोकी क्रिस्टी, ‘घरकी नादिरा, ‘क्षितिज से परे…’ की सारंगी, ‘हवनकी तनिमा आदि नायिकाएँ विद्रोही बन जाती हैं।
        सुदर्शन प्रियदर्शिनी तथा ज़किया ज़ुबैरी की नायिकाएँ कहानी के अंत तक परिस्थिति के साथ ताल-मेल बैठा लेती हैं। इला प्रसाद की नायिकाएँ अंत में रोज़मर्रा के जीवन में लिप्त हो जाती हैं।  सुषम बेदी की नायिकाएँ अलग-अलग स्वभाव की होती हैं, वे जुझारू भी हैं, भावुक भी, विद्रोही भी तथा सुधा ओम ढींगरा की नायिकाएँ कहानी के अंत तक आते-आते सशक्त रूप ले लेती हैं, वे परिस्थितियों से हार नहीं मानतीं बल्कि उनमें समस्याओं से लड़ने की क्षमता एवं जीजिविषा जाग उठती है । किंतु ये सभी नायिकाएँ अपनी अस्मिता के प्रति जागरूक हैं।
        इन सभी साहित्यकारों की रचनाओं में विषय बाहुल्य दिखाई देता है । भारत में जहाँ आधी आबादी का साहित्य अभी शनैः शनैः घर की चौखट लाँघकर समाज, देश और राजनीति की ओर कदम बढ़ा रहा है वहीं प्रवास की आधी आबादी का विषय किसी एक साँचे या किसी एक विमर्श में बाँधकर नहीं देखा जा सकता । इनके साहित्य में उत्तर-आधुनिक परिप्रेक्ष्य में वृद्धा विमर्श, पुरुष-विमर्श, स्त्री-विमर्श तथा मूल रूप से प्रवासी-विमर्श के रूप में हिन्दी साहित्य में अपना स्थान बना रहा है। ये कथाएँ भारतीय और पाश्चात्य समाज और संस्कृति, परिवेश, भाषा और परंपरा का, मनोविज्ञान और मानवीयता का, संवेदना और वेदना का, मानव जीवन के सहजता और असहज घात-प्रतिघातों को चित्रित कर रही हैं।

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रिसर्च / फेकल्टी असोसिएट
गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय
यमुना एक्प्रेस-वे, नियर कासना,
गौतम बुद्ध नगर, ग्रेटर नोएडा (उ.प्र.) – 201312
ई-मेल – 
renuyadav0584@gmail.com



सोमवार, 22 सितंबर 2014

सुर्खी


    सुर्खी

हर पल सुर्खियों में
छायी रहती हूँ मैं
कभी लाल सूर्ख जोड़े में
तो कभी काले सफेद पर्दे में
कभी सीधे-सीधे
तो कभी तोड़ मरोड़ कर

गार्गी अपाला घोषा के मंत्रों
की भाँति
कहीं बेनाम अंकित
थेरियों की गाथा बन
कहीं गुमनाम
या सिंहासन पर बैठी
अनचिन्ही अदृष्य युवराज्ञियों
और महारानियों की भाँति
या इतिहास में गायब
उन लेखिकाओं की भाँति

सुबह सुबह कुछ पन्नों
में सिमटी
सबसे जरूरी सबसे खास
दोपहर में इस टेबल
से उस टेबल तक
जरूरी गैरजरूरी बन
शाम तक रद्दी की तरह
बिखर जाती हूँ
किसी रस्ते, किसी कोने
या किसी की तराजू में
तोल दी जाती हूँ
अयोग्यता के बटखरे में
हर जगह होते हुए हुए
भी हूँ गुमनाम
हाँ, मैं एक सूर्खी हूँ ।