नया अध्याय
लोहे की गर्म पिघलती सलाखेंजैसे ही धंसी पतली गुफा में
सुलगने लगा तन-मन
और जीवन
एक-एक घात-प्रतिघात से
बन गईं अनेक सुराखें
और उन सुराखों से झांकने लगे
बेदरंग दर्द के चेहरे...
उन चेहरों से लिपटी तरल
लाल चादर
घनघनाते स्पंदन-कंपन-क्रंदन
निचुड़ते गए संतरे से रस
और छिलते रहे नाखूनों की
छिलनी से कच्चे आलू
दरदराते रहे चेहरे को
और भभोरते रहे
सनमाईका जड़े पीठ को
एक के बाद एक
तब तक
जब तक कि
उन्हें मरी हुई न जान पडूँ
सचमुच...
मरी हुई ही पायी थी
खुद को
जंगल झाड़ियों के बीच...
पर न जाने कैसे
जागी जिन्दा लाश
ओढ़े लाल कफ़न
बियावान में
गुफा के मुँह बर्रा रहे थे
जैसे झौंसा गया हो तेजाब से
पिंडलियाँ दरक रही थी
चोट खाए तलवार की धार से
कटे-फटे होठ
हो गए थे बेजुबान
घोघियाई आँखें
निकल रहीं थी आँख से
हाँ...
कभी जिन्दा थी
याद आयी एक धूँधली सी काया
जो हँसती खेलती थी
रिस्ते के अन्य कायाओं के साथ
कौन है वो आदिम स्मृतियाँ
पता नहीं...
बस याद है
एक धूँधली सी जिंदा काया
जिसे चलती सड़क से
जबरदस्ती उठा लिए
कुछ ईज़्जतदार लोग
फिर नोचते हुए कुछ गिद्ध
उड़ते-मँडराते चील कौवे
रेंगते शरीर पर विषैले सर्प
ज़हर उगलते-छोड़ते नाग
निगलते अज़गर
रंग बगलते गिरगिट
रेंगते केचूएँ
बिल बनाते चूहे
हुँवाते सियार
खाते भूखे भेड़िए
काश !!
कोई बुरा स्वप्न होता
रात से बेहतर साँझ होती
लाचारी से बेहतर सुस्ती होती
जीवन से बेहतर मृत्यु होती
सोचा... चलो खत्म कर ले
इस अपमानजनक व्यथा को
इस गिड़गड़ाते जीवन को
जीवन से जुड़ी हर कथा को
पर याद आयी उन स्मृत्तियों की
और उन स्मृत्तियों को जी-जान से
सजोने वाले जीवन की
पर ...
कैसे दिखा पाऊँगी उन सबको
अपना मुँह
कैसे बता पाउँगी अपनी तकलीफ
खुद तो सहन कर लुँगी
असहनीय पीड़ा को
लेकिन कैसे सह पायेंगे
मेरी पीड़ा से पीडित
रहने वाले लोग
कैसे...?
तभी खयाल आया
मुसीबत के समय मुझे
कैसे संभालती थी माँ
मेरे जागने से जागते थे पापा
हँसने से हँसता था भाई
रोने से रोती थी बहन
क्या जी पायेंगे वे लोग मेरे बिना
न जाने कहाँ-कहाँ ढूँढते होंगे
जो एक पल भी न रह पाते थे देखे बिना
क्या मैं स्वयं मर पाऊँगी उनके बिना
नहीं...
नहीं मर सकती...
जी सकती हूँ उन्हें देखकर
मर सकती हूँ उन्हें देख
न जाने कौन सी हिम्मत
मेरे दिलो दिमाग में छाई...
हिम्मत बटोर उठने लगी
दो खंभों के बीच से
सरकते छत की तरह
झोलरी बन झूलने लगा गर्भ
सरकने लगीं अंतड़ियाँ
बहने लगा कौमार्यपन का दुख
देखती हूँ सबकी निगाहें
मेरे संरक्षक थे बेवश
अफ़सोस है उन्हें
क्यों नहीं बन सके
ससमय रक्षक
हजारों सवाल
मेरी ही देह पर...
हजारों उँगलियाँ
मेरे ही चरित्र पर...
हजारों सूर्खियाँ
मेरे ही शक़्ल पर...
आखिर क्यों...
क्यों नहीं उठती
उँगलियाँ उन पर...
लोग कहते हैं
इसका रेप हुआ है
क्यों नहीं कहते लोग उन्हें
इसने रेप किया है
क्यों कहते हैं हमें लोग
बलात्कार की शिकार
क्यों नहीं कहते लोग उन्हें
बलात्कारी...हैवान...
घर से लेकर पुलिस, समाज
और दुनियाँ के सामने
मैं एक सूर्खी हूँ
लेकिन...
अपनी नज़र में
मैं एक सपनीली लड़की
जिसके सपने काँच की तरह
टूट गए, और
उसकी कीर्चियाँ
चुभ रही हैं मेरी तन-मन
और जीवन पर
सुना है... वे ईज़्जतदार लोग
पकड़े गए
जिन्होंने मुझे
जीते-जी भेज दिया है
रौरव नरक में
कुछ सालों की सज़ा काट
निकल जायेंगे वे जेल से
पर...
पर...
क्या मैं सम्भाल पाऊँगी
अपने इस दर्द को
क्या मेरे गर्भ की दीवारों
पर बनें
सलाखों की निशान
मिट पायेंगे
क्या ज़हरीले नागों के
स्पर्श से कभी
मैं मुक्त हो पाऊँगी
क्या मैं उठ पाऊँगी इस
नरक से
अगर उठ भी गई तो
क्या समाज
उबरने देगा मुझे
इस दर्द की नदी से
ईज़्जत के पंख क्या
देह का पर्याय है
या मर्दजात की ख़ैरात
जिसे जब चाहा मरोड़कर
बिखेर दिया
ईज़्जत तो सद्गुण और
दुर्गुणों से बनता है...
फिर वे जन्म से ही ईज़्जतदार क्यों
और हम उनकी अमानत कैसे
वे ईज़्जतदार...
और हमारी ईज़्जत लुटती है... कैसे
वे लूटकर भी नहीं लुटते
हम बचाकर भी लुट जाते हैं... कैसे
क्या एक सुरंग
निर्धारित कर सकती है,
ईज़्जत और बे-ईज़्जत की सीमा ?
क्या कूसुर था मेरा
जो बिना ग़लती के सजा मिली मुझे
अधखिले फूल को
मसल दिया
लेकिन...
नहीं
नहीं...
अब मुरझाना नहीं है
ये माना कि मसले जाने के बाद
कुछ खुशबू उड़ गयी
मेरे पखुँड़ियों से
मुरझाते हुए भी
उड़े रंग रंगीनियों से
लेकिन अब नहीं
समेटूँगी मैं फिर से
अपने खुशबूओं को
भरूँगी फिर से
बेरंदरंग जीवन में रंग
दर्द को बनाऊँगी हिम्मत
गर्भ में भरूँगी ममता
रिस्तों को आस्था
स्मृत्तियों को श्रद्धा
जीवन को प्रेम
और प्रेम से बनाऊँगी
एक संसार
जिससे शुरू हो सके
जीवन का एक
नया अध्याय...
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