गुरुवार, 29 जुलाई 2010

Hamne Sochaa ki...

      हमने सोचा कि...

सोचा की तुम्हें भूल जायेंगे हम,
तुम चाहो तो भी न पास आयेंगे हम.

जितना सताया है तुमने हमें,
उतना ही तुम्हें भी सतायेंगे हम.

मगर ये पागल दिल है यारों,
तुम्हें तड़पाकर खुद तड़प जाएँ हम.

सोचा की इस बार बात करलें,
अगली बार रूठ जायेंगे हम.

गर दिल नहीं है दिल में तुम्हारे,
रेत से पानी निचोड़ लायेंगे हम.

Har Aadami

हर आदमी

हर आदमी
औरत के सामने
नंगा होना चाहता है.
पर सज्ज़नता का
जामा पहन
इज्ज़तदार बन जाता है.

Do Saheliyaan

दो सहेलियाँ

दो सहेलियाँ
आपस में
बात करतीं
अपने घर, परिवार
सपनों की दुनियाँ के
बारे में,
पर
नहीं कर पातीं
अपने
प्यार के
बारे में.

दो सहेलियाँ
आपस में
बात करतीं
भावनाओं, समस्याओं
लक्ष्य के बारे में,
पर
नहीं आश्वस्त
हो पातीं
अपने
जीवन के
बारे में.

रविवार, 25 जुलाई 2010

site !

                सीते !

सीते, तू क्यों हार गई ?
तू देवी है, तू  माता है
तू आराध्य, जगमाता है.
तू समस्त नारियों की अभिमान 
तेरे पगचिन्हों पर चले जहान,
तू आदर्श पुत्री, तू पत्नी है
तू आदर्श बहू औ' रानी है
दुनियाँ की ये इच्छा है
तुझ जैसी सबको सती मिले.
फिर ऐ पतिव्रता,
तू क्यों हुई लहुलुहान
अंततः दे दी क्यों जाँ गवां
तू सतियों में सती नारी है.
हर समाज  में प्यारी है.

ऐ सुकुमारी, क्या तुझे पता ?
जब चली तू पति-प्रेम हेतु वनवास
उर पति भी तेरे संग चला
उर नहीं जा सकी पिय के संग
वो खड़ी रही एक पग, दीप जला
उस मर्म को तुने कितना समझा ?
वो शिखा संग जलती रही
पिया की राह तकती रही,
तू पिया संग निश्चिन्त रही
लक्ष्मण रक्षा हेतु जगे बन प्रहरी
उर आंसू पीकर मौन रही
विरह-अग्नि में तपती रही,
जब लगा लक्ष्मण को नागपाश
मुर्छित भ्रात्रु का तुझे नहीं आभास
उर समझ गई वह प्रचंड काल
वह साधना में तल्लीन  हुई
लक्ष्मण को मिला जीवनदान
प्रिय-प्रेम में वह विजयी हुई.

ऐ पतिव्रता, क्या तुझे पता ?
तेरी बहन मांडवी की वेदना,
भरत भ्रात्रु-प्रेम में बन गए सन्यासी
वो प्यारी खजाने में भी खाली
दूर पति हो तो सह ले जुदाई
गर पास हो तो कैसे सहे
उसका हिय कैसे बना कठोर
क्या उसके दर्द का है कोई ओर-छोर ?

ऐ महारानी, राम की रानी !
क्या तुझे पता, श्रुतिकेतु की महानता ?
जब सबने ले लिया अवकाश
तब श्रुति ने ही सम्भाला पिय संग राज्य
वह डटी रही पर हटी नहीं
वह जगी रही पर सोई नहीं
पिय संग हो या दूर हो
वह रोई सही पर घबराई नहीं.

ऐ जानकी ! तेरी बहनें थीं
धैर्यवान, बलवान और महान
वे खामोश सही पर डरी नहीं
वे तन्हाँ सही पर अडिग रहीं
वे हारकर मरी नहीं.

ऐ सीते, क्या तुझे पता है
आत्महत्या कौन करता है ?
...................................
........ तू डरती रही
पति,समाज और दुनियाँ से
माना की पति का दिया साथ
वन में चल दी ले हांथों में हाथ
कष्ट सहती रही दिन औ' रात,

सूना है, तुझमें थी बड़ी शक्ति
सृष्टि पर है तेरी हस्ती
फिर भी
'किडनैप' हो गई रावण के हाथ.

सूना है, यदि रावण तुझे छू देता, तो
वह जलकर भष्म हो जाता
फिर क्यों नहीं जलाकर भाग आई
तू अपने राम के पास !!
क्यों होने दिया नरसंहार
क्या नहीं समझ पाई थी
कुटुम्बी जनों का प्यार,
क्या सुनाई नहीं देता था
अशोक-वाटिका में
माताओं, विधवाओं का चीत्कार,
क्यों नहीं तोड़ा तुने कारागार
क्यों करती रही अबला की भांति
अपने राम का इंतज़ार.
उस राम का, जिसने
वापस आते ही ली अग्नि-परीक्षा
क्या तुझपर न था तनिक भी विश्वास
पर इतना बता जानकी-
'विश्वास बिना प्रेम संभव कैसे ?
विश्वास तो प्रेम का बीजारोपण है'!

सूना है, ये सब खेल था
राम ने तुझे पहले ही
अग्नि को सौप दिया था
क्योकि उन्हें पता था
रावण तुझे ले जाएगा
ब्रम्हा जो थे !!!
अपहृत सीता तो तेरी छाया थी
उन्होंने मात्र अग्नी से तुम्हे वापस लिया था .

क्या करूँ सीते, मेरा मन नहीं मानता
     क्योकि औरत के साथ हुए
      प्रत्येक जुर्म को 
खेल ही समझा जाता है.
पुरुष खेलता है,
क्योंकि औरत खिलौना जो है !!
मैंने तो यहाँ तक सूना है की
नेपथ्य में रावण तुझे
माता कहकर पूजता था,
क्या ये  सत्य है सीते !
प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष का चलचित्र
एक ओर माता और
दूसरी ओर हवस की  इच्छा,
फिर इतना बता दो जनकदुलारी !
'किस समाज की ओर
     संकेत करता है ये छद्म' ?

वापसी का भी क्या फ़ायदा सीते
     एक धोबी के व्यंग से
कर दिया गया तेरा परित्याग
राम जिसे पहचानते तक न थे
उसके व्यंग को पहचान गए
तू सहचरी बन प्रतिपल रही साथ
पर तेरी पहचान से वे रहे अनजान
अपमान की आशंका से
छोड़ दिया तेरा हाथ
वह भी उस समय
जब थी गर्भवती तू, और
    उन्हें रहना था तेरे पास !
कहाँ गया था उस समय 
लक्ष्मण का मात्रु-प्रेम
क्या जंगल में था
     मात्र भ्रात्रु-प्रेम !
क्या नहीं था खानदान
     में कोई शेष
जो कुचल  सके ऐसे राज्य का
     छद्मी वेश !

क्या सोचा था कभी, तुने बाद में
     क्यों तेरी बहनों ने
चुप्पी साध ली थी ?
जबकि जनकपुरी की सभी लड़कियां
एक साथ अयोध्या में ब्याही गई थीं !
तुम उनकी मार्गदर्शिका होकर भी
     झेलती रही अत्याचार
क्या नहीं हो सकता था लंका के बाद
     कोई और व्याभिचार
होती रही तेरे सतीत्व की परीक्षा
राजा राम बने रहें सदाचार !

सुना है, राम-राज्य में
    ये राम की विवशता थी,
जिसका सपना
    प्रत्येक भारतीय देखता है.
वो राज्य,जहाँ पत्नी को
बेसहारा जंगल में छोड़ दिया जाता है
कसूर मात्र शक और व्यंग्य !!

ऐ सीते, क्यों नहीं लड़ी तू हक़ के लिए
आत्महत्या कर ली कर मात्र शक के लिए,
     क्या कुछ भी नहीं सीखा
          अपनी बहनों से
जो हिम्मत के साथ
          घर में अटल रहीं,
तू रानी बनकर भी
          विकल रही .

सुना है, राम तुझे बचाने के लिए दौड़े थे
पर तबतक तू धरती में समा चुकी थी ,
     और ये भी सुना है राम भगवान थे, औ'
    तुझे प्यार भी बहुत करते थे,
जब तू जंगलों में बेसहारा भटक रही थी
तब तेरी प्रतिमा से पूजा सम्पन्न हुई थी,
    वे बहुत शक्तिशाली भी थे
    लंका नगरी से बचाकर तुझे लाये थे
    अपने सामने तिल-तिलकर मरने के लिए.
सुना है, उनके लिए कुछ भी असंभव न था
परन्तु तुम्हे बचाना उनके लिए संभव न हो सका
    तू काल के गर्त में समाती गई
    और वे तेरे बाल नोचकर 'सीते-सीते' चिल्लाते रहे.

सीते ! समझ में नहीं आता
    मैं क्या कहूँ,
    दुनियाँ की भाँती मैं भी तुझे पूजूं
    अथवा तेरी दयनीय दशा पर
        आंसू बहाऊं.
समय बदल गया, पर
    ये छद्मी संसार न बदला
राम के निकालने पर
    यदि तू घर से न गई होती
अत्याचारों से क्षुब्ध हो
    यदि आत्महत्या न की होती
तो आज अपनी बहनों की तरह
    तू इस दुनियाँ में नहीं जानी जाती.
तू कठपुतली बन नाचती रही
संवेदनहीन बन
    प्रत्येक जुर्म सहती गई
मुर्दे की भाँती
    हर खेल का अंग बनती गई
इसलिए तू आज
    देवी है, पूजनीय है,
    प्रेयसी है, पत्नी है.

क्या तुझे पता है, आज के युग में भी
    जो औरत खामोश है
वह सुशील, अच्छी और संस्कारी कहलाती है.
    जो अन्याय के विरुद्ध बोलती है
वह मानसिक विकृति की शिकार कहलाती है.
औरतों का बोलना तो फूटे ढोल को भी नहीं सुहाता
    फिर पुरुष को..............?
यदि रामराज्य का एक अंक यही है, तो
इस देश के भविष्य का क्या होगा ?
      

शनिवार, 24 जुलाई 2010

Badnaam aurat

     बदनाम औरत

रौरव नरक में भी क्या
    ऐसी सज़ा मिलती होगी,
जैसी मिलती है यहाँ
   प्रेम करने वाली लड़कियों को
रर रर कर मरने की.

घर की चक्की छूटे समय हो गया,
   पर घरर-घरर
करते हैं हम रोज यहाँ.

छूरी, कतरनी हाथों से
   भले छुट जाए,
पर दांतों से हमें कतरना  
   उनका रोज का काम है.

घिरनी से पानी निकालते हैं
   खेत सींचने के लिए,
पर वो पानी निकालते हैं
   हमें मिटाने के लिए.

जुआठे में लगे बैल की भाँती
   हमें हांकते हैं,
जैसे वो चाहे दहिने, बाएं
   घुमा देंगे.

सूखी धरती की भाँती
   बर्राने के बाद
जब हम बोलने के लिए
   मजबूर हो जाते हैं,
तब वो नाम रख देते हैं
   मर्दमार औरत.

मर्दमार होने की अगर आदत पड़ जाए
   तो नहीं रोक पाता कोई
बदनाम औरत होने से.

रविवार, 18 जुलाई 2010

Paramparaaon Ki Guhaar

           परम्पराओं की गुहार

परम्पराओं के चेहरों पर झुलती झुर्रियाँ  
व्यथित हैं की वे बांध न सकीं अपने यौवनावस्था को,
लिजलिजी हो वे गुहार लगाती रहीं
       नई पीढ़ी के सामने-
"मुझे मुक्त करो, मुझे मुक्त करो".
"जीते जी अपमान सहना  मुश्किल है,
       इसलिए कम से कम मरते-मरते
दधिची हांड का दे जाए अस्त्र-शस्त्र,
     उसे आदर्श और कल्याण के लिए प्रयोग करना
                         और
     खोखले दकियानूसी राक्षसों का संहार,
जिससे मानवीयता हो गई त्रस्त, अस्त-व्यस्त,
जिससे भारत के इतिहास में लग गया दाग,
       स्त्रियाँ हुईं निर्वस्त्र,
तुम लोग लेकर चलना सदा शाश्वत सत्य".

शुक्रवार, 16 जुलाई 2010

Jindagi Wah Nahi, Jo Dikhti Hai

ज़िन्दगी वह नहीं, जो दिखती है,
ज़िन्दगी वह, नहीं जो दिखती है.
इच्छाएँ वह नहीं, जो इच्छा है,
इच्छाएँ वह, नहीं जो इच्छा है.
प्यार वह नहीं, जो प्यार है,
प्यार वह, नहीं जो प्यार है.
मंजिलें वह नहीं, जो मंजील है,
मंजिलें वह, नहीं जो मंजील है.
रास्ते वह नहीं, जो रासता है,
रास्ते वह, नहीं जो रासता है.
ख़ुदाई वह नहीं, जो ख़ुद है,
ख़ुदाई वह, नहीं जो ख़ुद है.

सोमवार, 12 जुलाई 2010

Tujhe Pranaam

           तुझे प्रणाम

जब भी मै देखती हूँ
    बड़ी-बड़ी इमारतें, ऊँचें-ऊँचे महल
         और विस्तृत घर;
तब मेरा मन हर्षित हो
    सपनों का पंख लगा
    पूरी दुनियाँ में
         विचरण करने लगता है.
फुदक-फुदक कर
    इस घर से उस घर
    इस महल से उस इमारत तक
         का, जायजा लेने लगता है.
कि कौन सा भवन
    सबसे ज्यादा अच्छा है
    सुन्दर, साफ़ औ'
         अद्भुत कलाकृतियों से परिपूर्ण है.
जो सबमें सर्वोपरि है
    उससे भी सुन्दर
    एक घर
         मैं बनवाउंगी.

उस घर की रूप-रेखा
    मेरे मन में उमड़ने-घुमड़ने लगती है
    हर कलाकृति संचारियों-सी
         आ-आकर लुप्त हो जाती है.
तब मेरे मन की आवृतियाँ  
   अनवरत घुमड़ने के बाद
         खुलने लगती है परत-दर-परत.

किसने बनाई होंगी ये इमारतें
    किसने रखी होगी पहली नींव
    किसके हाथ और कंधे लौह-सा
         प्रतिक्षण कर्मरत हुए होंगे??
अनुमान भी नहीं लगा सकते
    हम उसका, और उसके
    हाथों की
         अद्भुत विशेषताओं की.
क्योंकि घर को
    घरवाले के नाम से जाना जाता है
    और मजदूरों की मेहनत
         मेहनताना में चली जाती है.

जिनके हाथ  फौलादी बन
    नितकर्मरत रहते हैं
सर स्वयं बज्र बन
    ईंट, गिट्टी, सीमेंट ढ़ोते हैं,
जिनके जीभ यंत्रवत
    एक-दूजे को पुकारा करते हैं
उनमें स्वयं एकता रहे ना रहे
    एक-एक ईंट से
         इमारत बनाया करते हैं.

जिनके बच्चे दिन में
    सबसे ऊँची छत पर
         चढ़कर हर्षित होते है
वही रात में नीचे
    छोटी-सी जगह में सोते हैं.
दिन-रात गालियाँ सुनते-सुनते
    सपनों में भी गाली बकते हैं
आशान्वित हो हर सुबह-शाम
    अपनों से पूछा करते हैं;
कब बन जाएगा ये घर मेरा
    जिसे आप बनाया करते हैं ?
मायूसी औ' निराशा को छुपा
    वे हंसकर चुप हो जाते हैं,
उत्तर क्या दें और क्या कहें
दो गज जमीं मिली है जो अभी
   वो भी
         कल रहे या ना रहे.

जब मालिक से किसी कुमारी का
    छुपते-छुपाते नैन लड़ जाते हैं
तब घर-वर का सपना
    पूरा हो ना हो
    किसी मजदूर से ब्याह रच जाते हैं.
मालिक का सीमेंट औ' सामान 
   अपनी झोपड़ी में रख
   नव-दम्पति बाहर सो जाते हैं.

ऊँचे महलों को छोड़ 
    वे सड़क पर खाना खाते हैं 
गर्मी की तपन, जाड़े की ठिठुरन
    बरसात के थपेड़े दृढ़ता से सहते हैं;
सबकी गालियाँ सुनकर भी 
    हमेशा हंसते रहते हैं.

पैसों का मालिक होता कोई और 
    वे नमक-रोटी पर गुजारा जरते हैं 
जो ईमान से सबका घर बनातें
    लोग उन्हें ही बेईमान कहा करते हैं
सुख चैन से सोती जब दुनियाँ
    वे आहें भरा करते हैं.

सबकी दृष्टि में हैं जो आम
    उनका मात्र कर्म ही
है दुनियाँ, घर, सामान
    अपनी विशालता, दृढ़ता औ' अस्मिता
से हैं वे बहुत महान
ऐ कलाकार ! ऐ सहनशक्ति !
ऐ बज्र देह ! तुझे प्रणाम,
       तुझे प्रणाम...

रविवार, 4 जुलाई 2010

Ae Maanav

  ऐ  मानव !

ऐ मानव !
मंदिर से मस्ज़िद
गुरुद्वारा से गिरजाघर
मत दौड़,
आस्था रख ईश्वर में,
परन्तु विश्वास कर
      अपने कर्म में,
हस्तरेखाओं से भाग्य नहीं बदलता
भाग्य बदलता है चिंतन और कर्म से.

ऐ मानव !
दुनियाँ बदलने की ठानी है तुमने,
स्वयं को तुमने बदला कितना है ?
पाने की तुमने गिनती कर रखी,
दुनियाँ को तुमने दिया कितना है ?
गिरा रहे हो किसे किस-किसकी नज़रों में,
गिरते हुए को उठाया कितना है ?

ऐ मानव !
अपने आतंक से डराया सभी को,
तू स्वयं किसी से डरे तो नहीं ?
बदले की भाव से गुजर रहे हो सदा,
तू स्वयं किसी से आहत तो नहीं ?
बन गए क्रूर, निर्दई, हत्यारे
जीवनपथ का यही आख़िरी रास्ता तो नहीं.

ऐ मानव !
दर्पण में नहीं तू खुद में झाँक
सच्चाई नज़र आ जायेगी.
दूसरों को नहीं तू खुद को टटोल
अपूर्णता पूर्ण हो जायेगी.
मानवीय प्रेम में तू श्रद्धा रख
मानवीयता स्वतः स्थापित हो जायेगी.

Dil Kholkar Karo

     दिल खोलकर करो

आँखें मूंद  लेने से
    सच्चाई बदल नहीं जाती,
होंठ भींच लेने से
    गाली दब नहीं जाती,
मुट्ठी बाँध लेने से
    थप्पड़ लगाने की टीस कम नहीं हो जाती,
पैर पटक देने से
    दौड़ने का उत्साह कम नहीं हो जाता,
सो जाने से
    दिमाग सोचना बंद नहीं कर देता,
लिखना बंद कर देने से
    घटनाएँ और उद्वेलन बंद नहीं हो जाती;

करो, सब करो
   दिल खोलकर करो,
परन्तु
   अपने दायरे में रहकर करो,
जिससे दूसरों को
   न हो तकलीफ,
और तुम भी
   न बन सको कुंठित.