शुक्रवार, 22 जुलाई 2011

JUTE

                     जूते
एक दिन कहा उन्होंने तमककर--
     "तुम मेरे पैरों की जूती बराबर भी नहीं हो.."

सहम गई लीला
सपटकर किसी कोने की सीलन भरी दीवार से
सोचती रही रात भर
  'क्या सचमुच मैं जुती बराबर भी नहीं हूँ?'
  पति-परमेश्वर मान  
जब भी
पोछती हूँ अपने आँचल से जूते
कभी नहीं ख़याल आया
कि मैं भी इन जूतों की तरह हूँ
या इनसे कुछ कम?

थके-मादें ऑफिस से जब आतें
जूते पहने ही सो जातें
नींद खुल जाने के डर से
हलके हाथों जूते निकालते समय
नहीं ख़याल आया कभी
'मैं अपना ही अस्तित्व निकाल रही हूँ?'

अगर तुम्हारे लिए ये सच है
तो यही सही-
पर सुनो न----
    क्या जूते पावों की शोभा नहीं होते?
    क्या जूतों से मनुष्य की औकात नहीं नापी जाती?
    क्या जूते मनुष्य की इज्जत का हिस्सा नहीं होते?
अगर नहीं--
तो कभी जाओ बिना जूता पहने
 या फटा जूता पहन कर
सड़क पर, ऑफिस में, बाज़ार,
रिश्तेदारों या मित्रों के घर,
या फिर कोई उत्सव-त्यौहार मनाने,
या अपनी बहन-बेटी का रिश्ता लेकर
या खुद की शादी में..
देखो क्या इज्जत रहती है तुम्हारी?
     हर कंकड़- पत्थर, कांटे-कीचड़,
     तपती धरती से बचाते हैं जूते
     खुद घिस जाते हैं पर तुम्हारे पावों
     पर आंच नहीं आने देतें..

       बस एक सवाल है मेरा--
जूते सिर्फ पैरो के लिए है
पर मैं तुम्हारे सर से लेकर
पाँव तक लिपटी कवच की तरह
दिन-रात तुम्हे सुरक्षित रखने की कोशिश
करती हूँ.
फिर भी मुझमें ऐसी क्या कमी है
कि मैं तुम्हारे जूतों के बराबर भी नहीं?????