बुधवार, 19 सितंबर 2018

'Sach Kuchh Aur Tha' Ka Sach

केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा से निकलने वाली पत्रिका 'प्रवासी जगत' के अप्रैल-जून, 2018 के अंक में सुधा ओम ढ़ींगरा की कहानी-संग्रह की समीक्षा 'सच कुछ और था का सच' प्रकाशित...


सच कुछ और था का सच

जीवन के इंद्रधनूष में सबका रंग और उन रंगों का सच अलग-अलग होता है, जिसकी व्याख्या करना सुधा ओम ढींगरा को बखूबी आता है । प्रेम, देह, नैतिकता, अनैतिकता, प्रगतिवाद, परंपरा, सभ्यता, विज्ञान, मनोविज्ञान आदि को रिश्तों की कसौटी में कसती ही नहीं बल्कि किसी पेय पदार्थ के साथ बर्फ डालने के जैसा घोलती हैं । कौन-सी जमीन अपनी, कमरा नं. 103 की कहानियाँ जितनी रोचक, संवेदनशील एवं मनोविश्लेषणपरक हैं, उससे भी कहीं अधिक संवेदनशील एवं मनोविश्लेषणात्क कहानियाँ सच कुछ और था में संग्रहित हैं । ‘आग में गर्मी कम क्यों है’ और टारनैडो जैसी चर्चित एवं यादगार कहानियाँ लिखने के बाद इस संग्रह की अनुगूँज’, विकल्प’, ‘विष-बीज’ औरबेघर सच कहानियाँ साहित्य जगत् को एक नया आयाम प्रदान करती हैं । इस संग्रह में अधिकतर कहानियों के किस्सागोई की खास विशेषता है कि कहानी सहनायक के माध्यम से कहलवाकर मुख्य पात्र को सामने लाया जाता है अर्थात् एक कहानी के समानांतर दूसरी कहानी भी चल रही होती है, जो रिश्तों की जटिलताओं को परत-दर-परत उधेड़ते हुए व्याख्यात्मक रूप प्रदान करता है । जिनमें से न सिर्फ सकारात्मक प्रवृत्ति वाले पात्र (नायक) बल्कि नकारात्मक प्रवृत्ति के पात्र (खलनायक) भी केन्द्र में हैं ।

इस संग्रह के ग्यारहों कहानियों का अपना-अपना स्वाभाविक एवं यथार्थपरक सच है । सुधा जी ने पात्रों की मनःस्थितियों को मनोविश्लेषण की लड़ियों में बडें ही सुन्दर ढंग से पिरोया है । जो आकोकुरा की पुस्तक द बुक ऑफ टी के राजकुमार पीवो की वीणा के स्वर के समान है, जिसकी जैसी आवश्यकता और मनःस्थिति होगी उसे वैसी ही सुनायी पडेगी । चाहे वह परिवार से प्रताडित अनुगूँज की नायिका गुरमीत हो या नैतिकता-अनैतिकता से परे विकल्प की नीरा, चाहे अपनी माँ के आँखों का सूनापन दूर करने की इच्छा रखने वाली काश ! ऐसा होता की पारूल हो अथवा बेघर सच की सुलझी हुई रंजना... ये नायिकाएँ अपने अस्तित्व के प्रति सिर्फ जागरूक ही नहीं बल्कि अपने अधिकारों के लिए निरंतर संघर्ष करती नज़र आती हैं । वहीं मनप्रीत, रिया, सम्पदा, साकेत रिश्तों के ताने-बाने को समझने का प्रयास करते हैं और अंत में अपने कमजोरियों पर विजय प्राप्त कर सही एवं तर्कसंगत फैसला लेते हैं । किंतु उसकी खुशबू की जूली, पासवर्ड की तन्वी, तलाश जारी है… के दोनों छद्मी चोर, विष-बीज का खलनायक उर्फ नायक आदि के अपराधिक प्रवृति के पीछे हमारे समाज का ही हाथ है । कुछ स्पेशल अपीयरेन्स भूमिका निभाने वाली नायिकाएँ (अनुगूँज की जिली, विष-बीज की टीचर, सच कुछ और था की अर्चना, काश ! ऐसा होताकी मिसेज़ हाइडी) सशक्त महिलाएँ हैं, जो पाठक पर बिजली की तरह कौंधकर दूरगामी प्रभाव छोड़ती हैं और उनकी अधूरी कहानियाँ पूरी होने की माँग करती हैं ।

संग्रह की पहली कहानी गूँज के पीछे की आवाज अनुगूँजस्वदेश और विदेश की संस्कृतियों एवं मूल्यों की टकराहट, स्त्री-शोषण, बेवफाई, हत्या, कोर्ट में गवाही और फिर सच का सामने आना पाठकों को अनायास ही अपनी तरफ आकर्षित कर लेता है । सुखमय जीवन की चाह में एन.आर.आई. से लड़कियों का विवाह और विवाहोपरांत उनके साथ हो रही घटनाएं-दुर्घटनाएँ हमारे समाज को लगातार सतर्क कर रही हैं । माँ-बाप बिना जाँच-पड़ताल किए विदेश में ब्याह तो देते हैं किंतु अपनी लड़कियों की परिस्थितियों से अनभिज्ञ रहते हैं । गुरूमीत अपने माँ-बाप से कुछ कह नहीं सकती किंतु अपने अधिकारों के प्रति सचेत है और उसकी सचेतनता का परिणाम है उसकी हत्या । गुरमीत की सीधी-सादी देवरानी मनप्रीत ने ससुराल वालों के सामने कभी अपना मुँह नहीं खोला किंतु गुरमीत के साथ हो रहे अत्याचार और हत्या की वह प्रत्यक्ष गवाह है । ससुराल वालों के समझाने और अचानक से पति का प्यार उमड़ने के पश्चात् भी उसकी ग्लानि उसे जीने नहीं देती । बचपन से ही सही समय पर सच न बोल पाने के कारण वह सदैव अपने आपको दोषी ठहराती रहती है । किंतु अंत में परिकल्पनाओं की दुनियाँ से हकीकत के धरातल पर आकर अपनी स्वभावगत कमजोरियों पर विजय प्राप्त करते हुए अंतर्द्वन्द्व से बाहर निकल कर समस्त विवशताओं को तोड़ते हुए सच बोलकर अपराधियों को सजा दिलवाती है        

उसकी खुशबूअसफल प्रेम के अपमान-बोध से उत्पन्न आपराधिक प्रवृत्ति में लिप्त होने की कहानी है, जो अपने अस्तित्व को किसी भी हाल में स्थापित करना चाहती है और बताना चाहती है कि वह किसी से कम नहीं । कहानी की नायिका जूली अपने प्रेमी मनोज के द्वारा विवाह के दिन ठुकराये जाने के पश्चात् अपमान सह नहीं पाती और मनोज के साथ-साथ उसके जैसे भारतीय पुरूषों को अपने जाल में फंसाकर उनकी हत्या कर देती है । उसके हिस्से में प्यार की खुशबू तो नहीं आती किंतु हत्या जरूर आती है । तीन पुरूषों की हत्या के पश्चात् मिस्टर सुमित सक्सेना चौथे शिकार हैं जो मनोज की भाँति ही भारतीय पुरूषों की तरह हृष्ट-पुष्ट लम्बे-साँवले हैं और आसानी से जूली के आकर्षक बदन पर लगे परफ्यूम की तीखी खुशबू से सम्मोहित भी हो जाते हैं । यह सम्मोहन यूं ही नहीं बल्कि अपनी कल्पनात्मक पत्नी की खूबसूरती जूली में देखकर उससे प्रेम कर बैठते हैं  और जूली के इरादों से अनभिज्ञ उसका शिकार बन जाते हैं ।

प्रायः सोशल मीडिया पर लगे पोस्ट को सरसरी निगाह से देखकर उसपर कुछ चलता-सा कमेंट कर आगे बढ़ जाना और अपनी रोजमर्रा के जीवन में व्यस्त हो जाना हमारे दिनचर्या का हिस्सा हो गया है, परंतु कुछ पोस्ट्स का परिणाम कितना खतरनाक हो सकता है अथवा किसी खतरे की चेतावनी भी हो सकती है...! इसका सच है - सच कुछ और था । इस कहानी में रिया, निखिल और लिंडा पात्रों के प्रत्यक्ष होते हुए भी कोई मुख्य पात्र नहीं कहा जा सकता, किंतु प्रत्यक्ष न होते हुए भी कहानी के केन्द्र-बिन्दू में महेन्द्र है । उसकी कुंठा, आकांक्षा, सुपरियारिटी का दिखावा और उस दिखावे की आड़ में बदले की भावना आदि छद्मी मुखौटे को समझना आसान नहीं था किंतु ये सब रिया की नज़रों से छुप नहीं पाता । चारित्रिक ढ़कोसले में अपने लंगोटिया यार निखिल से अपने सभी राज प्रेम, विवाह, आकांक्षा और कुंठा को छुपाकर सुसभ्य और आदर्श दोस्त के रूप में व्यावहारिक जीवन जी रहा होता है । कॉलेज के दिनों में अर्चना से प्रेम और उसे गर्भावस्था की अवस्था में छोड़ देना, अमेरिका में लिंड़ा से विवाह कर यह दिखाना कि भारतीय संस्कृति से कोसो दूर है किंतु लिंडा की इच्छाओं को नज़रअन्दाज कर बुढ़ापे में अपनी देश भारत में जीवन गुजारना और अपनी मिट्टी पर ही मृत्यु प्राप्ति की इच्छा ने उसके इस ढ़कोसले भरे रहस्य से पर्दा उठा दिया । सुलझी हुई अमेरिकन लिंडा के बार-बार कहने पर भी तलाक नहीं देना और उसे इतना परेशान करना कि वह मानसिक तनाव से गुजरते हुए एक दिन उसे गोली मार देती है, जिसका जिक्र वह सोशल मीडिया पर पहले ही अपने पोस्ट में कर चुकी होती है । किंतु उसकी बातों पर ध्यान दिए बिना सलाह देने वालों की लम्बी लिस्ट भी उसे डिप्रेशन से बचा नहीं पाती और वह अपराध की ओर बढ़ जाती है ।

हमारा प्रेम, हमारी समझ, हमारा विश्वास हमारे जीवन का पासवर्ड है । हम प्रेम में कब अपने जीवन का पासवर्ड अपने प्रेमी को हाथों में सौंप देते हैं... यह बिना सोचे कि कब उसके षड़यंत्रों के शिकार हो जायें !!  नायक समीर अत्यंत सुलझा और समझदार होने के बावजूद भी अपने घर से लेकर कम्प्यूटर का पासवर्ड अपनी पत्नी तन्वी के लावण्य और सरलता पर मुग्ध होकर सौंप देता है, जबकि तन्वी का मकसद अपने प्रेमी के साथ जीवनयापन हेतु ग्रीन कार्ड प्राप्त करना होता है । किंतु तन्वी की अत्यधिक चालाकीपन ने अन्जाने में ही अपने जीवन का पासवर्ड समीर को दे दिया और हवालात पहुँच गयी ।  

तलाश जारी है... यह समाज के हर उस फ्रॉड व्यक्तियों की तलाश है जो रोजमर्रा के जीवन में छोटी-मोटी बातों में भी नियमों का उल्लंघन कर सरकार को थूक लगाने कोई कसर नहीं छोड़ते ! और तो और वे इसे अपराध नहीं बल्कि थोड़ी-सी चालाकी या अपनी समझदारी समझते हैं । इनके अनुसार ये छोटे मोटे फर्जी काम (फोन में क्वॉटर डालकर बात करना, मंदिर के सामने या पार्क में फोम के ग्लास में शराब पीना, नशे के बहाने किसी की बीवी के साथ नाच लेना आदि) समझदारी है और टैक्स भरकर आखिर अपनी ईमानदारी का परिचय दे तो देते ही हैं । किंतु वे भूल जाते हैं कि दूसरों को बेवकूफ समझना खुद में एक बेवकूफी है । यह समाज के ऐसे हर समझदार व्यक्ति पर तीखा कटाक्ष है ।

जैनेटिक प्रॉब्लम’ के कारण जींस का कमज़ोर होना और अपने खानदान के खून से माँ बनने की प्रबल इच्छा से नैतिकता-अनैतिकता को ताक पर रखते हुए विवाहेत्तर संबंधों की उलझन को सुलझाती विकल्प कहानी प्रेम और देह के विमर्श को बड़ी ही आसानी से समझा देती है । अपने वंश-वृक्ष से फल प्राप्ति की इच्छा से नीरा ने विकल्प के रूप में अपने देवर कमल को चुना, जहाँ भावनाओं की जगह नहीं । हैरानी की बात यह है कि इस संबंध के लिए पूरे परिवार की सहमति है, परंतु इन परिस्थितियों से अनभिज्ञ नैतिकता की राह पर चलने वाली सम्पदा ने जल्द ही इस घर में कदम रखा है वह अपनी जिठानी नीरा और अपने देवर कमल के संबंध को देखकर आहत हो जाती है और मानसिक तनाव एवं अंतर्द्वन्द्व से गुजरने लगती है ।लेकिन जिठानी के सरल स्वभाव और विवाहेत्तर संबंध को जानने के पश्चात् उससे आर्टिफिशियल इन्सेमिनेशन के विकल्प चुनने का प्रस्ताव रखती है किंतु नीरा समझाते हुए कहती है - लाडो, आकाश में उड़ने वाला परिन्दा जब धरती के कठोर धरातल पर पैर रखता है तब उसे एहसास होता है कि यथार्थ की कठोरता क्या है !” (ढ़ींगरा, सुधा ओम. सच कुछ और था. पृ. 76) जीवन में विकल्प तो बहुत से हैं परंतु सही विकल्प का चयन ही समझदारी है साथ ही नीरा पर यह प्रश्न छोड़ जाती है कि उसके पति की भी यही समस्या है तब ऐसे में उसका विकल्प क्या होगा ?    

विकल्प के बिल्कुल विपरीत कहानी है विष-बीज। बलात्कार एक ऐसा विष है जो समाज के हर स्त्री को जाने-अनजाने दहशत में रखता है । स्त्री हर जगह असुरक्षित महसूस कर रही है । बलात्कारी एक ऐसा वृक्ष है, जिसके हाथ कहीं भी पहुँच सकते हैं । परंतु सवाल यह है कि इस विष के बीज कहाँ से आते हैं, कैसे उत्पन्न होते हैं ? लेखिका ऐसे अपराधियों के उत्पत्तिजनक परिस्थितियों एवं उनके अंतर्द्वन्द्वों को बड़े ही सुन्दर ढ़ंग से व्याख्यायित करती हैं मेरे भीतर का डीमन (शैतान) नफ़रत का भोजन खा-खा कर इतना शक्तिशाली हो गया है कि उसने मेरे ऐंजल (फ़रिश्ता) को दबोच लिया है । (ढ़ींगरा, सुधा ओम. सच कुछ और था. पृ. 78)
इस कहानी का नायक उर्फ खलनायक की आपराधिक मनोवृत्ति डॉ. एबेन ऑलेक्सेंडर की पुस्तक प्रूफ ऑफ हेवनपर आधारित है । बाल्यावस्था में उसकी सौतेली माँ की प्रताड़ना और अपने माँ की कमी का एहसास, अनाथालय में बाल-शोषण और अनाथालय की मालकीन रौनी से बताने पर उल्टे इसे ही डराना-धमकाना, प्रेमिका सूजन की बेवफाई इसके अपराधिक मानसिकता की आग में घी डालने का काम करता है । अब वह औरत की अस्मिता को कुचलना चाहता है, उसके अस्तित्व को चोट पहुँचाना चाहता है, उन औरतों के रोने-तड़पने से उसे खुशी मिलती है । यह खुशी पाने के लिए उसके पास एक ही हथियार है - बलात्कार । वह कहता है – पितृसत्ता जानती है कि नारी पुरूष से मज़बूत है और नारी कभी गुटों की, गिरोहों की, सभ्यताओं की मुखिया हुआ करती थी और समाज का संचालन करती थी । बड़े षड़यंत्रों और प्रयासों के बाद भी पुरूष ने सत्ता संभाली और पितृसत्ता का वर्चस्व हुआ है । बलात्कार” ही ऐसा शस्त्र है, जिसके भय से समस्त नारी जगत् को दबा कर रखा जा सकता है (ढ़ींगरा, सुधा ओम. सच कुछ और था. पृ. 84)
वह बदले की आग में हैवानियत की सीमा पार करता तब दिखाई देता है जब अफ़गानिस्तान में टूटी दीवारों के बीच बनी एक खोह में एक माँ अपनी तीन बेटियों के साथ छुप कर बैठी होती है उस समय वह कुछ फौजियों के साथ मिलकर बलात्कार करता है और जब उनकी चीख की गूँज से भी मन शांत न हुआ तो उन्हें गोली मार देता है और अंत में अन्जाने में ही सही अपनी माँ से बलात्कार करने के लिए उसे किडनैप कर चुका होता है । उसे समझ में नहीं आता है कि बेहोश पड़ी महिला के साथ उसके अन्दर का हेवन शांत कैसे हो गया ? लेकिन बेहोश महिला के माँ होने का पता चलने पर वह आत्म-ग्लानि से भर उठता है और उसे समझ में आता है कि यदि उसके पिता ने उसकी माँ को छोड़ा नहीं होता, यदि उन्होंने दूसरी शादी न की होती तो उसे माँ का प्यार मिलता और आज वह अपराधी न बनता । यह कहानी बाल-मनोविश्लेषण से लेकर अपराधिक मनोवृत्तियों, पारिवारिक विघटन, बाल-शोषण, बलात्कार पर एक बड़ी बहस खड़ा करती है ।

काश ! ऐसा होताकहानी भारत और अमेरिका में विधवाओं की स्थिति पर तुलनात्मक विमर्श के रूप में प्रश्न खड़ा करती है । पुरूष के विधुर होने पर उसके विवाह की स्वतंत्रता और स्त्री के विधवा होने पर उसके विवाह की मनाही ने समाज में अनेक विकृतियाँ पैदा की है । स्त्री की तकलीफ, उसका दर्द सिर्फ उसका होता है । जिस प्रकार अमेरिका में मिसिज़ हिडिन को वृद्धावस्था में जीवनसाथी चुनने का अधिकार है यदि उसी प्रकार भारत में पारूल की माँ अथवा अन्य महिलाओं को भी जीवनसाथी चुनने की स्वतंत्रता मिल जाती तो आज उनके जीवन में अकेलापन नहीं होता, उन्हें अनेक तकलीफों से मुक्ति मिल जाती ।

क्यों ब्याही परदेस कहानी दूर का ढोल के सुहावने स्वर का रहस्य खोलती नज़र आती है । परदेस का सुहावना आकर्षण किसी को नहीं छोड़ता किंतु हकीकत सारे सपनों को चूर भी कर सकता है । क्यों ब्याही परदेस लेखिका का अपना अनुभव होने के साथ-साथ उन औरतों का भी अनुभव है जो परदेश में दो संस्कृतियों, दो मूल्यों के टकराहट में फंसी अकेलापन महसूस करती हैं । दोनों ही देशों के अपने-अपने संघर्ष हैं ।  यह कहानी स्वदेश एवं विदेश के परिवेश एवं संघर्षों की तुलना करते हुए पत्रात्मक शैली में लिखी गई है ।

और आँसू टपकते रहे... हालातों में पिसती बेवश जिन्दगी की मर्मस्पर्शी कहानी है । कहानी एक ऐसी महिला की है जो बचपन से दुख झेल रही हालात की मारी विवाह होने के पश्चात् सास के षड़यंत्रों में फंसकर वेश्यावृत्ति की ओर ढ़केल दी जाती है । होटल के कमरा नं 15 में बिहारी की नायिका की भाँति लाल सूती साड़ी में लिपटी पल्लू को होंठों और दाँतों से भींच कर सिसकियाँ लगाते हुए अपने क्लाइंट कोमल से बचाव का गुहार लगाती है । कोमल की दयालु प्रवृत्ति ने उसे उस दिन वहाँ छोड़ दिया किंतु उसकी सिसकियों को भूल नहीं पाया । वह अपनी ग्लानि से मुक्ति पाने और उसे बचाने के लिए होटल के कमरे में पहुँचता है लेकिन तब तक देर हो चुकी होती है । वह लड़की अपने आपको एक शराबी से बचाने के लिए होटल के कमरे से छलांग लगा चुकी होती है । दूसरे दिन उसकी मृत्यु की सूर्खी पढ़कर कोमल के आँखों से आँसू टपकते रहे । 
  
औरत की अस्मिता और अस्तित्व की कहानी है बेघर सच । औरत का कोई घर नहीं होता जबकि औरत पूरे घर में होती है । मायका में पराया धन और ससुराल में दूसरे घर से आयी लड़की की चुप्पी की एक वजह यह भी है । रंजना की माँ अपनी कला, संगीत को सास और चाची सास के डर से कभी मूर्तवत् रूप नहीं दे पायीं और हमेशा से चुप्प रही । सास की मृत्यु के पश्चात् उन्होंने अपनी संवेदनात्मक मूर्तियों को आकार देना प्रारंभ किया । माँ की आकांक्षाएँ, भावनाएँ और सपने मूर्तियों के रूप में अपने साथ समेट कर रंजना अपने पति संजय के घर आ गयी । किंतु संजय का अतिमहत्त्वाकांक्षी और वर्कएल्कोहलिक होना और रात में रंजना को मात्र भोग समझ कर भोगना रंजना को आहत कर जाता । रंजना ने अपनी भावनाओं और संवेदनाओं को भी कला में ढूँढना शुरू किया और उसे एम. सदोष के होमलेस आइज़, इन द आइज़ ऑफ टाइम जैसी मूर्तियों में मिली । मूर्तियों को देखकर कविता गढ़ना और उस कविता का मूर्तियों के साथ प्रकाशित होना तथा उसकी कविता को पढ़कर सदोष का मूर्ति गढ़ना दोनों में अदेह सूक्ष्म दोस्ती का रूप प्रारंभ हो जाता है । परंतु यह दोस्ती रंजना के पति संजय को प्रेम लगने लगा और अपनी गलतफ़हमी में उसने आरोप लगाना प्रारंभ किया । उसने उसे एहसास दिलाया कि वह उसके घर में रहकर किसी और से प्रेम नहीं कर सकती । वह उसकी माँ की मूर्तियों को फेंकने के साथ-साथ उसकी भावनाओं को भी तार-तार करने लगा । रंजना प्रेम समझती है पर उसे समझा नहीं पाती –प्रेम का अर्थ केवल शरीरों का मिलन नहीं है प्रेम एक अनुभूति है.. आवश्यक नहीं कि उसकी अभिव्यक्ति शब्दों से की जाय.. वह अपनी अस्मिता के साथ उसकी कला को निहारती है । उसकी कला की मीरा सी दीवानी है । मूर्तियों की तराश और उससे पैदा किये भावों से प्रेम करती है; जो नारी के भीतर की बंद गुफाओं को खोलते हैं... नारी की अंतर्वेदना को मूर्त करते हैं । नारी के अंगों को नहीं, भावनाओं और संवेगों को रूप देते हैं... (ढ़ींगरा, सुधा ओम. सच कुछ और था. पृ. 114) अंततः मूर्तियों के साथ अपने एक नए घर का चयन करती है, जिसे वह अपना कह सकेगी और अपनी इच्छाओं, भावनाओं, संवेदनाओं को मूर्त रूप दे सकेगी ।  

इन कहानियों में लेखिका ने स्थूल और सूक्ष्म, प्रेम और देह, व्यावहारिक एवं प्रेक्टिकल, कल्पना और यथार्थ के धरातल पर अलग-अलग प्रयोग किए हैं । जहाँ एक ओर प्रेम से अलग दैहिक आवश्यकताओं आकर्षण, प्रेम, लस्ट और सच्चे प्रेम के अंतर को जिस दिन तुम समझ जाओगी, उस दिन तुम मेरे सच को भी जान पाओगी । देव से मैं सच्चा प्रेम करती हूँ और कमल के साथ रिश्ते की गरिमा की रक्षा करना भी मैं जानती हूँ  (ढ़ींगरा, सुधा ओम. सच कुछ और था. पृ. 76) पर चर्चा करती हैं तो वहीं दूसरी ओर दैहिकता से परे प्रेम प्रेम का अर्थ केवल शरीरों का मिलन नहीं है…” (ढ़ींगरा, सुधा ओम. सच कुछ और था. पृ. 114) अथवा प्यार पुरूष के लिए बस एक शब्द है और स्त्री के लिए ब्रह्माण्ड । ब्रह्माण्ड के दर्शन वह बस एक बार करती है और पूरी निष्ठा से अन्तःस्थल की गहराइयों से उसमें समा जाती है । काम के वाणों को भी प्रेम की प्रत्यंचा पर चढ़ा लेती है । (ढ़ींगरा, सुधा ओम. सच कुछ और था. पृ. 114) को व्याख्यायित कर स्त्री-मन एवं विमर्श को दो अलग-अलग चिंतन प्रदान करती हैं । एक तरफ सम्पदा और मनप्रीत के माध्यम से नैतिकता को उच्च शिखर पर पहुँचाती हुई दृष्टिगत होती हैं वहीं दूसरी ओर नीरा के माध्यम से नैतिकता-अनैतिकता से परे आवश्यकताओं और जीवन की सच्चाई से अवगत करवाती हैं । एक तरफ सरकार को चूना लगाने वालों का विरोध करती हैं तो दूसरी तरफ जूली और विष-बीज का नायक और लिंड़ा के माध्यम से रोचक थ्रीलर उत्पन्न कर उनके मनोभावों को गहराई से समझने-समझाने का प्रयास भी करती है ।
सुधा जी में मनोविज्ञान की गहरी समझ है । वे विकृत मानसिकता को भी विकृत नहीं रहने देतीं बल्कि उसके प्रभावी कारकों का वर्णन कर मनोविश्लेषणवादी चिंतन की ओर मोड़ देती हैं । इनकी कहानियाँ सामाजिक ताने-बाने में विधवा-विवाह एवं विधवा विमर्श, नैतिकता-अनैतिकता, परदेश में ब्याही जाने वाली लड़कियों की स्थिति, बाल-शोषण, यौन-शोषण, स्त्री-विमर्श, फौजियों का उत्तरदायित्व, प्रेम और वर्चस्ववादी सत्ता की गहरी पड़ताल करते हुए हम सब पर यह प्रश्न उठाती हैं कि इन सभी घटनाओं के पीछे जिम्मेदार कौन है – हमारा समाज, हमारी रूढ़ीवादी मानसिकता, वर्चस्ववादी सत्ता अथवा राजनीति ?


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शनिवार, 25 अगस्त 2018

Setu ....................... सेतु: कविताएँ: रेनू यादव

Setu ....................... सेतु: कविताएँ: रेनू यादव: - रेनू यादव डॉ. रेनू यादव खामोशी सदियों से खामोश खामोशियों के बीच कहीं न कहीं छुपाने की कोशिश है इच्छाएँ अनिच्छाएँ आँसू, दर्द...

शनिवार, 7 जुलाई 2018

असहमति

पिट्सबर्ग अमेरिका से निकलने वाली वेब पत्रिका 'सेतु' में  प्रकाशित... 
लिंक - http://www.setumag.com/2018/06/Renu-Yadav-Hindi-Poetry.html

असहमति

असहमति
जरूरी है तुम्हारे होने के लिए
जो साबित करता है तुम्हारा होना...
जैसे धरती का सीना चीर कर निकलते है
बीज से कसमसाते अंकूर
जैसे शांत मौसम को
झकझोर देती है आँधी
जैसे तिलमिलाती धूप को
शांत करते हैं बारिश
जैसे चमकते चाँद को अचानक से
ढंक लेते हैं बादल
जैसे अटल पहाड़ों में भी
रास्ता ढूँढ़ लेती हैं नदियाँ
वैसे ही तुम्हारी असहमति
प्रमाण है
तुम्हारे जीवित संभावनाओं संवेदनाओं का
और तुम्हारी सक्रियता का ।

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                                                      - रेनू यादव

खामोशी

पिट्सबर्ग अमेरिका से निकलने वाली वेब पत्रिका 'सेतु' में  प्रकाशित... 
लिंक - http://www.setumag.com/2018/06/Renu-Yadav-Hindi-Poetry.html


खामोशी

सदियों से खामोश
खामोशियों
के बीच कहीं न कहीं
छुपाने की कोशिश है
इच्छाएँ अनिच्छाएँ
आँसू, दर्द
और खुशियाँ

क्योंकि जानती हूँ
तुम इन्हें
नहीं समझ पाओगे

मेरे काँपते होंठ
तुम्हें गुलाब की
पखूँडी नज़र आती है
प्यासी नज़रों में
दिखाई देता है समन्दर
मेरे चेहरे की झुर्रियों
में नज़र आता है
चाँद पर दाग
और मेरी पूरी देह
कोई तिलिस्म
तिरिया चरितर’ !

पर नहीं नज़र आता
मेरे मन के कोने में
तड़पते गीत
और जख़्म
गुलाब की पँखुडियों का
लहुलुहान होकर
लाल बन जाना
समन्दर में घुँटती
साँसें
झुर्रियों के बीच
छिपे सौन्दर्य का मुकाबला
और देह से
पूरी की पूरी
अस्तित्व में आने की इच्छा ।

इच्छाएँ...
आँधियों के बीत जाने पर
गहराती खामोशी
मुस्कराहट की
उर्वरता ओढ़े
खामोश जीवन में
बिन कहे समझ लेने
की चाह ।


   - रेनू यादव

शुक्रवार, 4 मई 2018

'Naqqashidar Cabinet' Mein Chitrit Bhartiya Avam Amerikan Parivesh-Bodh


'शोध-दृष्टि - सुधा ओम ढींगरा का साहित्य' (संपा. बलबीर सिंह एवं प्रकाश चन्द बैरवा) पुस्तक में प्रकाशित

नक़्क़ाशीदार केबिनेट में चित्रित भारतीय एवं अमेरिकन परिवेश-बोध

           प्रवासी साहित्यकारों (सुषम वेदी, तेजेन्द्र शर्मा, सुदर्शन प्रियदर्शिनी, जक़िया जुबैरी, पूर्णिमा बर्मन, अर्चना पेन्यूली, दिव्या माथूर, डॉ. पुष्पिता आदि) में सशक्त हस्ताक्षर डॉ. सुधा ओम ढींगरा द्वारा सृजित उपन्यास नक़्काशीदार केबिनेट अमेरिका में घटित हो रहे हरिकेन एवं टारनेडो (प्रभंजन एवं चक्रवात) की त्रासदी के साथ-साथ फ्लैश बैक एवं डायरी शैली में लिखा गया है । यह प्रभंजन एवं चक्रवात जनजीवन के पीड़ा, संत्रास एवं त्रासदी की गाथा है, जो अलग-अलग कहानियों को एकसूत्र में पिरोते हुए अमेरिकन परिवेश में जी रहे भारतीय हृदय की स्मृत्तियों में रह-रहकर झंझावात ला देता है । इस संदर्भ में यह कहना गलत न होगा कि इस उपन्यास में परिवेश-बोध मुख्य है और कथा गौण अथवा परिवेश एक ऐसा माध्यम है जो भारतीय एवं अमेरिकन कथाओं को खुद में आत्मसात कर लेता है । साथ ही लोगों के मन में उत्पन्न उन रूढ़िवादी मानसिकता एवं अवधारणाओं (विदेशों में तलाक की संख्या अधिक है, प्रेम में भी प्रोफेशनल होते हैं, बच्चों की परवरिश पर ध्यान नहीं दिया जाता अथवा बच्चे संस्कारी नहीं होते, सेक्स के लिए रिश्तों का बंधन नहीं होता, खंडित परिवार, संवेदनहीन समाज आदि) को तोड़ता हुआ दृष्टिगत होता है । देखा जाए तो हर कार्य को सरकार का काम है, नहीं समझा जाता । लोग स्वयं भी अपने लिए खड़े होते हैं (ढ़ींगरा, सुधा ओम. नक़्काशीदार कैबिनेट. पृ. 8), साम्यवाद तो इस देश में हैं (ढ़ींगरा, सुधा ओम. नक़्काशीदार कैबिनेट. पृ. 10), इस देश में समय भागता है, बीतता नहीं (ढ़ींगरा, सुधा ओम. नक़्काशीदार कैबिनेट. पृ. 10), यहाँ हाई स्कूल तक बोर्डिंग या हॉस्टल की अवधारणा नहीं हैं (ढ़ींगरा, सुधा ओम. नक़्काशीदार कैबिनेट. पृ. 11), किसी नुक्कड़, किसी चौराहे पर खाली ठल्ले बैठे लोग ताश खेलते नज़र नहीं आते । एवई बेमक़सद कोई घूमता नज़र नहीं आता (ढ़ींगरा, सुधा ओम. नक़्काशीदार कैबिनेट. पृ. 10), यहाँ पद, प्रतिभा को देखकर, काम करने के लिए दिया जाता है, रौब जमाने के लिए नहीं (ढ़ींगरा, सुधा ओम. नक़्काशीदार कैबिनेट. पृ. 65) आदि वाक्य भारतीय एवं अमेरिकन परिवेश की तुलना के साथ-साथ हमारी जड़ मानसिकता पर गहरा व्यंग्य भी है ।
            इस उपन्यास में दो प्रमुख पात्र सम्पदा और सोनल की आपस में गुंफित कथाएँ एक दूसरे की पूरक हैं । चक्रवात (हरिकेन एवं टारनेडो) के बीच फंसी सम्पदा के घर में रोजवुड की बनी नक़्काशीदार केबिनेट (जो कि सोनल ने दिया था) से प्राप्त हुई सोनल की डायरी के माध्यम से कहानी आगे बढ़ती है और यह कहानी मात्र एक कहानी न होकर सोनल के जीवन में आया चक्रवात है जो भारत से होकर अमेरिका की ओर गुजरता है । पंजाब में जमीदार मनचंदा परिवार (जो कि सोनल का खानदान था) की सम्पत्ति के लिए सोनल के ऐयाश चाचा मंगल एवं उसकी पत्नी मंगला के मायके वालों के द्वारा लगातार रचे जा रहे षड़यंत्र, षड़यंत्रों की खबर गाँव में फैलने पर खुद को बचाने के लिए तथा अपने ही घर वालों से बदला लेने के लिए सोनल की बहन मीनल से बलात्कार एवं उसकी हत्या और फिर उग्रवादियों के साथ मंगला का मिल जाना, एक-एक करके सोनल के सहायक पम्मी एवं परिवार (सोनल के दादा, पिता, दादी) की हत्या, सोनल और उसकी माँ का घर छोड़ने पर मजबूर होना और घर छोड़ने के पश्चात् सोनल की संपत्ति पर नाना-मामा की नज़र रहना तथा संपत्ति हासिल करने के लिए एक षड़यंत्र के तहत अमेरिका में रहने वाले एक फर्जी डॉक्टर बलदेव के साथ सोनल का विवाह कर देना, अमेरिका में विवाह की सच्चाई सोनल के सामने आना और उसका ससुराल वालों के जाल में फँसने से बचने के लिए वहाँ से भागकर जान बचाना, किसी तरह भागकर डनीस और रॉबर्ट के घर में शरण लेना, उसके बाद संस्था में समाज-सेवा करना और वहीं सम्पदा से मुलाकात और अपने दोषियों को सज़ा दिलवाने का प्रण लेना तथा अंततः षड़यंत्रकारियों को सज़ा दिलवाना किसी चक्रवात से कम नहीं ।
          सोनल की कहानी अकेले नहीं चलती बल्कि छोटी-छोटी और भी कई कहानियों से जुड़ती चली जाती है अथवा सोनल के माध्यम से कहलवा ली जाती हैं । सन् 1801 से 1839 तक के बीच महाराजा रणजीत सिंह के तोशख़ाने की कहानी, अफ़गानिस्तान के सुजात शाह दुर्रानी द्वारा महाराजा रणजीत सिंह को कोहिनूर हीरा प्राप्त होना, महारानी विक्टोरिया को कोहिनूर सौंपा जाना, लाहौर पर अंग्रेजों की फतह, 1849 में अंग्रेज-सिख युद्ध, अफ़गान हमलावरों द्वारा अमृतसर के स्वर्ण मंदिर को नष्ट किया जाना और महाराजा रणजीत सिंह द्वारा दोबारा सोने की परत चढ़वाना, गुरू तेगबहादूर की हत्या, राजा खड़क सिंह के जेल जाने के पश्चात् सोनल के पुरखों द्वारा तोशख़ाने से धन का चुराया जाना और उस धन के लिए पीढ़ी-दर-पीढ़ी कभी डाकुओं द्वारा तो कभी रिश्तेदारों तथा कभी अपनों के द्वारा खुन खराबा होना, पड़दादी का अधोवस्त्र में धन छुपाकर घर छोड़ना, हवेली में तहखाना बनवाना और तहखाने में छिपे धन को गुप्त रखना, सुनारों को गाँव में बसाना और उनसे गहने बनवाना, पंजाब प्रांत में खलिस्तानियों का उग्र रूप धारण करना, कवि एवं विचारक अवतार सिंह संधु पाश की हत्या, 1981 में पंजाब केसरी अखबार समूह के संपादक लाला जगतनारायण की हत्या, भगत सिंह का जिक्र, ऑपरेशन ब्लू स्टार, इंदिरा गाँधी की ह्त्या के पश्चात् खूनी खेल, लेनिनवाद, कामरेड, मार्क्सवाद, नक्सलवाद आदि पर चर्चा करना तथा अचानक से युवाओं में पंजाब के परिस्थितियों को बदलने का उहा-पोह, मंगला की बड़ी बेटी का उग्रवादियों के साथ भाग जाना और छोटी बेटी के साथ बलात्कार एवं हत्या, पम्मी की हत्या आदि सामाजिक, राजनैतिक एवं ऐतिहासिक घटनाओं की कड़ियाँ कहानी को न केवल रोचक बनाते हैं बल्कि कोरी कल्पना से अलग हटकर जीवंतता भी प्रदान करते हैं ।
          इन सबमें सुक्खी यानी सुखवंत का प्रेम सबसे अधिक सराहनीय कहा जा सकता है कि वह कदम-कदम पर सोनल का साथ देने के लिए तत्पर रहता है । शुरूआती दौर में सोनल सुक्खी का प्यार समझते हुए भी उसे स्वीकार नहीं कर पाती परंतु जब तक उसे अपने प्रेम का एहसास होता है तब तक वह अपने नाना के षड़यंत्रों में फँस चुकी होती है और डॉ. बलदेव सिंह के साथ विवाह करके अमेरिका चली जाती है । अमेरिका में अपने ससुराल वालों की सच्चाई सामने आने पर एयरपोर्ट पर सुक्खी द्वारा दी गई हिदायत और डॉलर ही काम आते हैं । बाद में सुक्खी नौकरी छ़ोडकर अमेरिका आ जाता है और सोनल की रक्षा करता है और अंत में यह प्रेम परिणय में बदल जाता है ।
          इस उपन्यास की खास विशेषता है कि पंजाब में नशे के गिरफ्त में युवाओं का भविष्य तथा रोजी-रोटी के लिए हर तीसरे चौथे घर से व्यक्तियों का दुबई, कैनेडा, खाड़ी के देशों में जाना आदि का वर्णन वहाँ की स्थिति को दर्शाता है तथा साथ ही सोनल जैसी अनेक भोली-भाली मासूम लड़की को फँसाकर उन्हें देह-व्यापार और नशे के धंधें में उतार देना गंभीर समस्या को उजागर करता है । बलदेव का गिरोह पंजाब के गाँवों से भोली-भाली लड़कियों से शादी करके यहाँ लाता । अधिकतर लड़कियों को बाहरी दुनियाँ के बारे में ज़्यादा पता नहीं होता था । देह व्यापार से अधिक लोग उनसे नशे का धंधा करवाते । उनके द्वारा एक देश से दूसरे देश में नशे पहुचाएँ जाते । नशे उनके अंगों में भर दिए जाते थे । अगर किसी देश में कोई लड़की पकड़ी जाती । उस देश का कानून उसे सज़ा देता । वह उम्र भर वहाँ की जेलों में पड़ी रहती । ज़िंदा होकर भी मुर्दों सी ज़िन्दगी जीती(ढ़ींगरा, सुधा ओम. नक़्काशीदार कैबिनेट. पृ. 107)
          बलदेव गिरफ्तार होने के बाद स्वीकार करता है कि सोनल उसकी भारी भूल थी अन्यथा वह पकड़ा नहीं जाता । सोनल ने कभी हार नहीं माना बल्कि उसने बलदेव को पकड़वाने की ठान ली थी और निर्णय लिया कि उसके साथ जैसा हुआ आगे से किसी अन्य लड़की के साथ ऐसा न हो । सुशील सिद्धार्थ के अनुसार, यह उपन्यास पढ़ते हुए लगता है कि नियती की स्वीकृत व्याख्या को सुधा ने सोनल के माध्यम से चुनौती दी है । उन्होंने बताया है कि साहस, विवेक, सत्य बना रहे तो नियति की यति और गतिमति भी बदलती है(सुबीर, पंकज (संपा.). विमर्श – नक़्काशीदार केबिनेट. पृ. 19 (बाहरी भीतरी चक्रवात की रूपक गाथा – सुशील सिद्धार्थ))
         एक तरफ पंजाब की समस्याएँ तो दूसरी तरफ अमेरिकन संस्कृति । दोनों संस्कृतियों के टकराव को लेखिका बखूबी उकेरती हैं । सम्पदा न केवल उपन्यास की एक पात्र है बल्कि स्वयं लेखिका का प्रतिनिधित्व करती दृष्टिगत होती है एक डॉक्टर, एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में। सम्पदा खुशहाल जीवन व्यतीत करते हुए भी कहीं न कहीं अकेलेपन की शिकार है । सार्थक का कम बोलना, पुरू और पारूल का दूर जाना आदि उसे अकेलेपन से भर देता है । लेकिन सम्पदा इन सबमें जीना सीख गई है । सुधा जी की नायिकाएँ प्रायः सशक्त और आत्मविश्वास से भरी होती हैं । वे कभी हार मानना नहीं जानतीं । सम्पदा भयंकर प्रभंजन और चक्रवात में भी तटस्थ रहती है तथा चक्रवात के पूरे समय में सोनल के जीवन में आये चक्रवातों को डायरी में पढ़ती है किंतु अपने मन में उठ रहे तुफान (एम्प्टी नेस्टर्ज़) को बड़ी सहजता से झेल जाती है । वह संवेदनशील होते हुए भी भावुक नहीं होती, चोरी होने के पश्चात् भी चिखती-चिल्लाती नहीं, दुखी है पर दिखाती नहीं, स्मृति है पर विस्मृति नहीं...  जो कि उसके अनुभवी होने और परिपक्वतापन को दर्शाता है । 
         यह उपन्यास न केवल स्त्री-संघर्ष की दास्ताँ है बल्कि सोनल की कहानी के माध्यम से पंजाब में हो रहे उन तमाम मासूम लड़कियों के साथ अन्याय, छल-कपट, धोखा, देह - व्यापार, नशे का धंधे में फँसाये जाने आदि की गाथा है, जिससे समाज को सदैव सतर्क और जागरूक रहने की जरूरत है । यह न सिर्फ सोनल की यात्रा है बल्कि दो देशों की संस्कृतियों के टकराहट की खनक है, जिसमें विश्वास-अविश्वास, बोध-अबोध, ज्ञान-अज्ञान, जिम्मेदारियों-ग़ैर-जिम्मेदारियों आदि का एक साथ झटके लगते हैं । यह न केवल परंपरा, आधुनिकता, ग्रामीण, शहरीकरण, भूमंडलीकरण, बाज़ारीकरण की परिस्थितियों को बयान करता है बल्कि इन सबके अंतःकरण में छिपे घात-प्रतिघातों को भी व्यक्त करता है । रोहिणी अग्रवाल के शब्दों में कहें तो यह उपन्यास निःसंकोच प्रियदर्शन के बेस्टसेलर उपन्यास ‘जिन्दगी लाइव की श्रेणी में रखा जा सकता है जो एक ओर पठनीयता के संस्कार को पुनर्जीवित करती है तो दूसरी ओर अपने समय की विडम्बनाओं को नज़दीक से देखने की निर्भीक नज़र भी जुटाता है     (सुबीर, पंकज (संपा.). विमर्श – नक़्काशीदार केबिनेट. पृ. 25 (नक़्क़ाशीदार केविनेट’ : स्मृति और सृजनेच्छा के बीच – रोहिणी अग्रवाल))  
           इस उपन्यास में लेखिका ने लेखकीय कर्तव्य निभाते हुए विकसित देशों के प्रति जब कोई समस्या का समाधान नहीं निकलता तो पाश्चात्य की देन है कहकर पल्ला झाड़ लेते हैं (ढ़ींगरा, सुधा ओम. नक़्काशीदार कैबिनेट. पृ. 103) जैसे वाक्यों एवं कथन के माध्यम से विकासशील देशों का नज़रिया भी साफ किया है तथा दोनों ही देशों की सांस्कृतिक एवं परिवेशगत तुलना करके अनेक भ्रमपूर्ण अवधारणाओं को दूर करने का प्रयास किया है । अनजान जगह पर डनीस एवं रॉबर्ट जैसे बुजुर्गों द्वारा सोनल की सहायता, सम्पदा एवं सार्थक द्वारा प्रत्येक मुश्किल क्षणों में सोनल के साथ होना यह सिद्ध करता है तथा स्वयं लेखिका भी कहती हैं अमेरिकन में सेवा भाव कूट-कूट कर भरा होता है(ढ़ींगरा, सुधा ओम. नक़्काशीदार कैबिनेट. पृ. 67) अमेरिका में लोगों को उनके नाम से पुकारना चाहे वे कितनाहूँ वृद्ध हों अथवा किसी उच्च पद पर आसीन क्यों न हों, जब तक हाथ पाँव काम करे तब तक बच्चों पर निर्भर न रहना, नौकरों से काम करवाने के बजाय अपना काम स्वयं करना, पुलीस वालों का अत्यंत जिम्मेदारी के साथ काम करना आदि अमेरिकी परिवेश की विशेषताएँ प्रत्येक स्थान पर दृष्टिगत होती हैं । दूसरी ओर पंजाब प्रांत में जमीदारी प्रथा, खेत, नहाने और पेशाब के लिए सिमेंट अथवा ईंट से घर के बाहर बना घेरा, शराब के अड्डे, गाँव वालों का एकजूट होकर साथ देना, पम्मी और सुक्खी जैसे भले लोगों का होना, मीडिया का निष्पक्ष होकर न्याय के लिए तहलका मचा देना, मीडिया के द्वारा पुलीस प्रशासन की धज्जियाँ उड़ाना, मीनल को न्याय दिलवाना, अफवाहों का अफसाना बन जाना आदि पंजाब के गाँवों को जीवंत कर देता है । 
        जहाँ एक ओर अमेरिकी परिवेश की अच्छाई दर्शायी गयी है तो वहीं दूसरी ओर बुराईयाँ भी दृष्टिगत होती हैं । हाइजेन और टारनेडो के बीच सार्थक और सम्पदा के घर चोरी तथा समाचार के द्वारा ब्रुकलिन में ही 99600 चोरियों की ख़बर आश्चर्य से भर देता है कि इस विपदा में कैसे कोई चोरी करने की भी सोच सकता है ! भारत के पंजाब प्रांत में 73.5 प्रतिशत युवा पीढ़ी का नशेड़ी होना, सम्पत्ति के लिए अपनों का खून कर देना, गाँवों में आधा जीवन लड़ाई-झगड़े में और आधा जीवन कोर्ट कचहरी में बीत जाना, विवाह के नाम पर लड़कियों का खरीद-फरोख्त होना आदि भारत की गंभीर समस्याएँ है ।
             जीवन उतना ही नहीं होता जितना हम समझते हैं, बल्कि उससे परे भी बहुत कुछ होता है । नक़्काशीदार केबिनेट उस परे शब्द को अभिव्यक्त करता है । अच्छाई-बुराई प्रत्येक देश में है । दूर के ढ़ोल को न तो पूरी तरह से सुहावना समझना चाहिए और न ही बेसुरा । सरल, सहज और सूक्ष्म तरिके से संदर्भ और कथ्य को गुंफित करने वाला यह उपन्यास परिवेशगत दृष्टि से सशक्त एवं बेहतरीन है ।  
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संदर्भ-ग्रंथ – सुबीर, पंकज (संपा.). विमर्श- नक़्क़ाशीदार केबिनेट (बाहरी-भीतरी चक्रवात की रूपक गाथा). सं. प्रथम, 2018. शिवना प्रकाशन, सीहोर.

- डॉ. रेनू यादव

शनिवार, 28 अप्रैल 2018

स्त्री-देह को ‘आइटम’ के रूप में परोसते आइटम सॉन्ग्स


'साहित्य और सिनेमा' पुस्तक में प्रकाशित


स्त्री-देह को आइटम के रूप में परोसते आइटम सॉन्ग्स

डॉ. रेनू यादव

             एक समय था जब फिल्मों में सूमधुर गीत-संगीतों के साथ-साथ कैबरे डांस का तड़का हुआ करता था । सेक्सी कैबरे डांसर अपनी भाव-भंगिमा वेश-भूषा के माध्यम से नायक-खलनायकों को रिझाते हुए फिल्म में दिए हुए किरदारों के साथ अपना मकसद पूरा करने में कामयाब हो जाती थीं । उस समय सेक्सी से तात्पर्य था कैबरे डांसर । लेकिन अब फिल्मों में कोई भी नायिका सेक्सी हो सकती है । यह आवश्यक नहीं कि कैबरे डांसर की तरह कोई अलग से आइटम गर्ल हो बल्कि फिल्मों में बदलते मानकों के साथ-साथ शालीन अदाकारा भी आइटम सॉन्ग पर डान्स करने से नहीं हिचकतीं । गगन गिल के अनुसार स्त्री देह स्वयं एक भाव है (पचौरी, सुधीश. स्त्री-देह के विमर्श. पृ. 44) और यह कहना अनुचित न होगा कि आइटम गर्ल्स देहष्टि के आग पर उत्तेजना के दबे मनोविकारों को सुलगाने में पूरी तरह कामयाब हो रही हैं । इसीलिए तो सिर्फ एक डान्स के कारण आइटम गर्ल मुख्य नायिका से अधिक पापुलर और फिल्म उद्योग को अधिक आर्थिक मुनाफा पहुँचाने वाली हो जाती है । उदाहरण के लिए चिकनी चमेली आइटम सॉन्ग का सिर्फ प्रोमोज दिखाकर डायरेक्टर ने अग्निपथ (2012) फिल्म को 100 करोड़ का आंकडा पार करवा लिया था ।   

           जिस गीत का फिल्म से कुछ लेना-देना नहीं होता तथा फिल्म में सिर्फ एक मोड़ देने के लिए अथवा ब्रेक के लिए मौज-मस्ती के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, उसे आइटम सॉन्ग कहा जाता है । यह सॉन्ग स्त्री को आइटम गर्ल्स के रूप नई छवि प्रदान करता है । आइटम से तात्पर्य है वस्तु और आइटम गर्ल एक दैहिक वस्तु के रूप में ही संप्रेषित होती है । यह पत्र-पत्रिकाओं, विज्ञापनों, फैशन जगत में दिखने वाली अथवा टी.वी. सीरियल तथा फिल्म जगत में काम करने वाली नायिकाओं-खलनायिकाओं से अलग छवि है । फिल्म की कहानी में इनकी भागीदारी न होते हुए भी ये फिल्म उद्योग को बड़ा मुनाफा पहुँचाने में कामयाब होती हैं । इसलिए इनकी फीस भी फिल्म की नायिका के बराबर अथवा उनसे अधिक होती है । मुन्नी बदनाम हुई के लिए मलाइका अरोड़ा खान ने 2 करोड़, बेबी डॉल के लिए सनी लियोनी ने 3 करोड़ और फेबीकोल से के लिए करीना कपूर ने 5 करोड़ रूपये मेहनताना लिया था । (जैन, उज्वल. फीस सुनकर रह जायेंगे आप दंग. http://punjabkesari.com/entertainment/these-items-will-be-stunned-by-hearing-the-crores-of-girls-fees/ 10 जुलाई, 2017)
                ये सभी आइटम गर्ल्स उत्तर-आधुनिक नारीवाद की स्वतंत्रता, समानता और सद्भावना के नारे को मात दे रही हैं । पर्सनल इज पॉलिटिक्स के सिद्घांत के तहत दैहिकता के दहकते अंगारे पर रातों-रात अपनी प्रसिद्धी की रोटी सेंक रही हैं । इनकी छवि साहित्य और फिल्मी स्त्रियों पद्मिनी, यशोधरा, पारो, चित्रा, श्रद्धा आदि से बिल्कुल भिन्न कामूक, आक्रामक और बेधड़क हैं । उत्तर-आधुनिक नारीवाद अपनी देह पर अपना स्वतंत्र अधिकार चाहता है किंतु ये स्त्रियाँ स्वतंत्रता के नाम पर देह की एक राजनैतिक षड़यंत्र से निकल दूसरे षड़यंत्र के दलदल में फँस चुकी हैं... कभी अपनी इच्छाओं के नाम पर तो कभी जीवन-शैली के नाम पर, कभी करियर के नाम पर तो कभी आर्थिक सक्रियता या जागरूकता  के नाम पर । अब कबीर की नारी को देखकर अंधा होत भुजंग की बात नहीं है बल्कि नारी खुद अपने नए ब्यूटी मिथ में दिग्भ्रमित हो बॉडी डिस-प्ले करके गीतों के बोल और हाव-भाव के माध्यम से लोगों को अंधा करने के लिए उद्धत है । कुंडी न खड़काओ राजा, सीधे अंदर आओ राजा... मुड बनाओ ताजा ताजा’ (गब्बर इज बैक, 2015) आदि सेक्स टॉक अथवा अब सेक्स सॉन्ग की संज्ञा दें तो गलत न होगा, के माध्यम से सॉफ्ट पोर्नोग्राफी परोस रही हैं । अपने समूची बदन को निचोड़ते हुए नमकीन बटर और तंदूरी चिकन’ (‘फेबीकोल से’, दबंग – 2, 2012)  बनकर मर्दों की थाली में उछल-उछल कर स्वतः ही गिर रही हैं तथा लार टपकाते हजारों मर्द चिकनी, आइटम’ ‘(टिंकू जिया’, यमला पगला दीवाना, 2011) आदि से संबोधित कर उसे अपनी-अपनी ओर खींचने की होड़ में हैं । और तो और आइटम गर्ल कभी पऊवा चढाकर(चिकनी चमेली’, अग्निपथ, 2012) ख़ुद आयी होती हैं तो कभी ख़ुद को एल्कोहल के साथ गटकने’ (‘फेबीकोल से’, दबंग – 2, 2012) के लिए मर्दों से गुहार लगा रही होती हैं, इतना ही नहीं आँखों से सेंकवाना उसे बिल्कुल पसन्द नहीं बल्कि हाथों से मनमानी (हल्कट जवानी, हिरोइन, 2012) करवाने के लिए बेकरार होती हैं । सुधीश पचौरी के अनुसार, स्त्री की नई छवि बनाने वालों ने स्त्री को अतिरिक्त मूल्य पैदा करने वाली बनाया है । उसकी नई छवि धन उपार्जित करती है । वह समूची अर्थव्यवस्था को गति देने वाली है । वह अब एक उद्योग है  (पचौरी, सुधीश. स्त्री-देह के विमर्श. पृ. 15)    

            जिस प्रकार सिनेमा पर समाज का प्रभाव पड़ता है उसी प्रकार समाज पर सिनेमा का भी प्रभाव पड़ता है । सिनेमा जगत शिक्षित-अशिक्षित, बाल-बच्चे-बूढ़े तथा युवा वर्ग यानी हर तबके को अपनी चपेट ले लेता है, जिसमें गीत-संगीत चलते-फिरते हर समय हमारे जीवन का एक अभिन्न हिस्सा बनकर साथ होता है । जिसमें से आइटम सॉन्ग्स (पार्टी ऑल नाइट, अभी तो पार्टी शुरू हुई है, तम्मा-तम्मा, जुम्मा-चुम्मा) में कुछ समय के लिए ही सही, अत्यधिक प्रभावकारी कारक होते हैं, जिससे अधिकतर लोग प्रभावित हो गुमराह होने के कगार पर भी आ जाते हैं ।

           फिल्म-जगत् में इन सेक्सी बोल वाले और तड़कते-भड़कते गानों के नाम आइटम सॉन्ग नाम के रूप में भले ही 2010 के आसपास अधिक प्रचलित हुआ हो लेकिन इसकी परंपरा अलग-अलग रूपों में पहले से ही चली आ रही है । 50 के दशक में आवारा (सन् 1956) फिल्म में कुक्कू मोरे पर फिल्माया गया डान्स एक दो तीन आजा मौसम है रंगीनको यदि आइटम सॉन्ग (उस समय आइटम सॉन्ग नाम नहीं था) कहा जाए तो गलत न होगा, जिसमें नायिका अपने यौवन की मादकता से नायक को अपनी ओर खींचने की भरपुर कोशिश करती है । 70 के दशक में बिन्दू जावेरी पर फिल्माया गया गाना ढ़िन्चक ढ़िन्चक कितने बीत गए हैं दिन कितनी बीत गयी रातें दिलरूबा, सब कुछ मिला तू ना मिला” (आरोप, 1974), उसी समय 60-70 के दशक में डान्सिंग क्वीन हेलन ये मेरा दिल यार का दीवाना, दीवाना दीवाना प्यार का परवाना” (डॉन, 1978) और पिया तू अब तो आजा” (कारवाँ, 1971) ने अपने डान्स के माध्यम से शरीर में झनझनाहट पैदा कर देने वाली अदाओं से हंगामा ला दिया था । 70 के दशक में जयश्री टी. रेशमी उजाला है, मखमली अंधेरा आज की रात ऐसा कुछ करो हो नही हो नही सबेरा...” (शर्मिली, 1971), 70 के दशक में जीनत अमान कुर्बानी (1980) फिल्म में लैला मैं लैला, ऐसी मैं लैला, हर कोई चाहे मुझसे मिलना अकेला” (जिसे अब रईस फिल्म में सनी लियोनी पर फिल्माया गया है) ने काफी धूम मचा रखा था । जवानी जानेमन हसीन दिलरूबा (नमक हलाल, 1982) औररात बाकी बात बाकी, होना है जो हो जाने दो (नमक हलाल, 1982) में परवीन बॉबी का ग्लैमर स्पष्ट नज़र आता है । शालीन किरदार निभाने वाली मुमताज भी इस प्रभाव से बच न सकीं, फिल्म भाई-भाई (1970) में आज रात है जवाँ, दिल मेरा न तोड़िये, कल ये रात फिर कहाँ, कल की बात छोड़ियेके माध्यम से अपने बोल्डनेस का परिचय दे ही दिया ।
               साथ ही मुजरा स्टाइल में आइटम सांग कहा जाये तो अरूणा ईरानी का इंसान (1982) फिल्म में राजा मोरी बाली उमर, बाली उमर का रखियो खयालका एक रूप दिखाई दिया, जिसके अनेक रूप बाद में भी सामने आए । चाइना गेट (1998) में उर्मिला मातोन्डकर ने छम्मा छम्मा ओ छम्मा छम्मा... बाजे रे मेरी पैजनियाके माध्यम से लोगों की नींदें उड़ा दी । पतली कमर मटकाकर, नागीन सी बलखाकर, नैन से नैन लड़ाकर, धानी चूनर सरकाकर शिल्पा शेट्ठी ने दिलवालों के दिल का करार लूटने, मैं आयी हूँ यू.पी. बिहार लूटने” (शूल, 1999) गाकर सबका दिल लूट लिया था, जिसमें वे जवानी की सारी बहार लूटा रही होती हैं । मुजरा स्टाइल में आइटम सान्ग्स पर नए नए प्रयोगों के साथ गोलियों की रास लीला राम-लीला (2013) फिल्म में ब्लॉउज का बटन बंद करते हुए प्रियंका चोपड़ा के ऊपर फिल्माया गया राम चाहे लीला चाहे लीला चाहे राम इन दोनों के लव में दुनिया का क्या काम (जिसे प्रियंका आधुनिक मुजरा का नाम देती हैं), एजेन्ट विनोद (2012) फिल्म में करीना कपूर पर दिल मेरा मुफ्त काफिल्माया गया है ,जिसमें हॉटनेस का पूरा खयाल रखा गया है । बंटी और बबली (2005) फिल्म में अमिताभ और अभिषेक के साथ ऐश्वर्या कजरारे कजरारे , तेरे कारे कारे नैनापर ठुमके लगाती हुई दिखाई देती हैं ।

             समय के साथ साथ बोल्ड गीतों का प्रचलन बढ़ा । खलनायक (1993) फिल्म में धक् धक् गर्ल् माधुरी दीक्षित ने अपनी आह से मर्दों की सिसकारियाँ (Moaning) निकाल देने वाला गाना चोली के पीछे क्या है, चुनरी के नीचे क्या है से धमाल मचा दिया था । जिसे इला अरूण और अलका याज्ञनिक ने आवाज दिया था, जिसके लिए इन्हें उस साल का फिल्म-फेयर अवार्ड भी मिला था और फिर से इन्हीं दोनों गायिकाओं की जोड़ी अपनी आह हायऔर दईया की सिसकारियों भरी आवाज से फिल्म करन-अर्जून (1995) में ममता कुलकर्णी के हॉट अवतार में राणा जी से माफी माँगती हुई नज़र आती हैं, जिसमें गुप चुप गुप चुप ... लम्बा लम्बा घुंघट काहे को डाला रे कहते हुए गाने के आखिरी में नायिका को मुँह काला होने से बचा लेती हैं । माधुरी दीक्षित के थिरकते कदम पर एक दो तीन (तेज़ाब, 1988), अमिताभ बच्चन का जुम्मा चुम्मा दे दे (हम, 1991) माँगना, चलती ट्रेन में शाहरूख खान के साथ मलाइका अरोड़ा ख़ान का चल छईयाँ छईयाँ (दिल से,1998), देख ले आँखों में आँखें डाल (मुन्ना भाई एम.बी.बी.एस., 2003) में मुमैथ खान का अविस्मरणीय बोल्ड अवतार, बाबू जी जरा धीरे चलो बिजली खड़ी यहाँ बिजली खड़ी (दम, 2003) याना गुप्ता का बिजली बनकर गिरना, बिपाशा बासू पर फिल्माया गया सुलगता गाना बीड़ी जलाइले ज़िगर से पिये (ओमकारा, 2006),  माइया माइया गुलाबी तारे चुन (गुरू, 2007) में मल्लिका शेरावत के थरथराते कदम और कमर, रसपान के लिए बेकरार मलाइका अरोरा ख़ान का होठ रसीले तेरे होठ रसीले (वेलकम, 2007), राखी सावंत का सर चढ़कर बोलता क्रेज अरे ये तो बता देखता है तू क्या (क्रेजी – 4, 2008) आदि फिल्म में विशेष उपस्थिति (spatial appearance) की एक लम्बी परंपरा है, जो दर्शकों के दिलो-दिमाग पर छाकर उन्हें सिनेमाघरों तक खींच लाने में कामयाब होते हैं । 

            2010 से आइटम सॉन्ग्स फिल्मों में एक आवश्यक तड़का बन गया, फिल्म को सूपर-डूपर हिट कराने में जिसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका होने लगी है । करोड़ों रूपये खर्च करके बने अकेले आइटम सॉन्ग में भरपुर सेक्सुआलिटी का प्रदर्शन होता है । सन् 2010 में कैटरीना कैफ़ पर फिल्माया गया सफेद चादर में लिपटी शीला की जवानी (तीसमार ख़ान, 2010) किसी के हाथ में तो नहीं आना चाहती किंतु अपनी कामूक अदाओं से सबको लुभाकर एक सूपरहिट सॉन्ग दे जाती हैं । मलाइका अरोरा ख़ान अर्थात् मुन्नी कभी झंडूबाम बनकर, कभी टकसाल, कभी आइटम से आम, आइटम बम, कभी अमिया से आम, सरेआम, सिनेमाहाल का रूप धारण कर डार्लिंग के लिए बदनाम (मुन्नी बदनाम हुई डार्लिंग तेरे लिए, दबंग, 2010)  होती है । 2011 में इश्क का मंजन घिसने वाले धर्मेन्द्र और बॉबी देओल अर्थात् पिता और पुत्र टिंकू जिया (यमला पगला दीवाना, 2011) गाकर एक ही लड़की के साथ रोमांस करके कजरारे कजरारेमें अमिताभ और अभिषेक की याद दिलाते हुए एक ऐसी संस्कृति को दर्शाते हैं जो कि भारतीय संस्कृति में वर्जनीय है । सन् 2012 में मलाइका अरोरा सलीम की गली छोड़कर अनारकली डिस्को चली” (हाउसफुल 2, 2012) तो कैटरीना कैफ़ चिकनी चमेली छुपके अकेली पउवा चढ़ा के आयी (अग्निपथ, 2012), करीना कपूर ऊँह आह की आवाज से अँगडाईयाँ लेते हुए मिस कॉल से भी पटने के लिए तैयार हैं - मेरे फोटो को सीने से यार चिपका ले सईयाँ फेबिकोल से (दबंग – 2, 2012), छोकरों के जवानी की प्यास को और बढ़ाती हुई गौहर ख़ान हुआ छोकरा जवाँ रे (इशकजादे, 2012), हल्कट जवानी (हिरोइन, 2012) से सबकी नीयत हलाल करने वाली करीना कपूर स्वयं को चखना बनाकर चख लेने की ख्वाहिश रखती हैं । सन् 2013 में सनी लियोनी एक दिन के लिए, एक पल के लिए और सिर्फ कल के लिए दुल्हन बनना चाहती हैं, जिस पर लैला तेरी ले लेगी, तू लिखकर ले ले(शूटआऊट एट बडाला, 2013) का स्वांग भरा जाता है तो प्रियंका चोपड़ा पिंकी बन पैसा फेंक तमाशा देख, नाचेगी पिंकी फुल टू लेट (जंजीर, 2013) में वह न तो मुम्बई की है न दिल्लीवालों की, वह सिर्फ पैसों वालों की हैं जबकि यह ध्यान देने योग्य बात है कि वे एक स्वावलम्बी महिला होते हुए इस तरह के गाने पर अभिनय कर रही हैं । सन् 2015 में सम्भावना सेठ पर फिल्माए गए गाने में गाती हैं मैं सोडा तुफानी, कैरम की रानी, तीखी कचौरी मुँह में आ जाए पानी (बेलकम बैक, 2015), मलाइका अरोरा ख़ान पर आकर सारे फैशन ही खत्म हो जाते हैं फैशन ख़तम ख़तम मुझपे (डॉली की डोली, 2015) तो करीना कपूर की जवानी बीमा करवाकर संदूक में रखने लायक चीज नहीं है इसलिए यूज करने के लिए आवाहन करते हुए कहती हैं - मेरा नाम मैरी है” (ब्रदर्स, 2015) तो सनी लियोनी खुद को अव्वल नम्बर चीज मानती हुए पानी वाला डांस” (कुछ कुछ लोचा है, 2015) और चित्रांगदा सिंह पर फिल्माए गए गाने के बोल कुंडी मत सरकाओं राजा(गब्बर इज बैक, 2015) ने अश्लीलता की सारी हदें पार कर दी है । सन् 2016 में रिचा चड्ढा का कैबरे डान्स मैं तो तेरे वास्ते हुई पानी-पानी, सरेआम ही लुट गई ये जवानी (कैबरे, 2016) सेक्सिएस्ट सॉन्ग में रखा जा सकता है तो सन् 2017 में हिकी को सार्वजनिक करती सईयाँ ने मोड़ी मेरी बहियाँ वो दे गया हमका हिकी हिकी (भूमी, 2017) सनी लियोनी पर फिल्माया गया लैला मैं लैला (रईस, 2017) पर सिनेमाघरों में न सिर्फ दर्शकों ने अपनी अपनी कूर्सियाँ छोड़कर नाचना और सीटी बजाना शुरू कर दिया बल्कि पैसों की बरसात तक करने लगें । 

          ये नायिकाएँ आइटम सॉन्ग्स तो करती हैं परंतु इन्हें आइटम गर्ल कहलाना पसंद नहीं बल्कि ये फिल्मों में अपनी विशेष उपस्थिति (स्पेशल अपियरेंस) मानती हैं । यह उपस्थिति चाहे समाज के लिए कितनाहूँ घातक क्यों न हो ? ये उपभोग बनकर उपभोक्ताओं को लुभाती हैं । इन्हें अपनी जवानी जानलेवा जलवा... देखने में हलवा लगता है, ट्रेलर दिखाकर पूरी फिल्लम दिखाने के लिए आमंत्रित करती हैं, शाम के अकेलेपन को बाँटने के लिए तैयार खड़ी होती हैं अथवा ज़िस्म की तिजोरी को तोड़कर लूट लेने के लिए आमंत्रित भी करती हैं (चिकनी चमेली, अग्निपथ, 2012), या फिर निःसंकोच कहती हैं - आजा मेरे राजा तूझे जन्नत दिखाऊँ मैं, बर्फिले पानी में फायर लगाऊँ मैं... (दबंग – 2, 2012), या जोबन है प्यासा तो जोर करे... आइटम बनाकर रखले  (हिरोइन (2012) । माचीस की तीली से भीगी बीड़ी जलाना, बबली बनकर बंटी के साथ कमरे में 20-20 होना और स्वयं को लुटवाने की चाह (बेलकम बैक, 2015) अथवा उ ला ला उ ला ला(द डर्टी पिक्चर, 2011) आदि गानों पर अभिनय करके मर्दों के दिल की धड़कने बढाना और अपने दैहिकता का वस्तुगत मूल्यांकन करना और करवाना स्वतंत्रता और समानता का स्वांग भरना ही तो है !! जहाँ स्त्री को खुलकर कहा जाता है और हम उस पर एन्ज्वॉय भी करते हैं – तू चीज बड़ी है मस्त मस्त” (मोहरा, 1994) या पैसा पैसा करती है तू पैसे पे क्यूँ मरती है(यह ध्यातव्य है कि इस फिल्म में नायक स्वयं पैसे के लिए मर रहा होता है जबकि यह गाना नायिका के लिए फिल्माया गया है, दे दना दन, 2009) ।

             आइटम सॉन्ग फिल्म-जगत का औद्योगिक दाव है जिसका उद्देश्य बड़ा मुनाफा अपने हक़ में करने का होता है, लेकिन इन सस्ती लोकप्रियता के कारण हम एक बार फिर स्त्री के वस्तुगत मूल्यांकन की ओर बढ़ रहे हैं । पतली दुबली छरहरी कामूक शरीर का ब्यूटी मिथ भले औद्योगिक जगत के लिए फायदेमंद हो पर स्त्रियों के प्रति समाज का नज़रिया अत्यधिक घातक होता जा रहा है । एक तरफ स्वयं स्त्रियाँ भी उसी ब्यूटी मिथ की ओर बढ़ रही है तो दूसरी ओर पुरूष भी आम औरतों में भी वही दैहिक संरचना देखना चाहते हैं । नाओमी वूल्फ के अनुसार, सुन्दरता का यह मिथ एक राजनीतिक मुहिम है जो औरत के खिलाफ जाती है । औद्योगिक क्रान्ति में घर के भीतर रहने वाली आरंभिक स्त्री गृहिणीथी । उत्तर-औद्योगिक क्रांति ने उसे बाहर निकाला लेकिन एकब्यूटी मिथ के साथ । यह ब्यूटी मिथ ही नया नियंत्रण है । स्त्री घर से निकलती है और ब्यूटी के उद्योग में फंस जाती है । सौन्दर्य की यह विचारधारा ही मिथ है जो नए ढंग से स्त्री पर सामाजिक नियंत्रण लागू करती है  (पचौरी, सुधीश. स्त्री-देह के विमर्श. पृ. 27) देखा जाय तो यह कट्टरपंथी नारीवादी कैथरीन मेकनॉन का पोर्नोग्राफी संबंधी मूल्यांकन के साथ सटिक बैठता है कि इसमें सामाजिक संबंधों के संगठन हेतु स्त्री अपने कामुकता भरे समर्पण के द्वारा अपना प्रभुत्व स्थापित करती है, लेकिन इसमें पुरूष अपना वर्चस्व बनाये रखता है । (चतुवेदी, जगदीश एवं सुधा सिंह. कामुकता पोर्नोग्राफी और स्त्रीवाद. पृ. 14) यह कहना गलत न होगा कि जिस अस्मिता के लिए नारिवादियों ने अपनी जी-जान लगा दी उसे आइटम सॉन्ग्स ने एक झटके में उखाड़ फेंका । आज लड़कों के लिए लड़कियों के साथ छेड़खानी करना सहज एवं प्राकृतिक लगने लगा है और शीला, मुन्नी, जिया, टिंकू, पिंकी, मैरी आदि लड़कियों का घर से निकलना दूभर हो गया है । आज सेक्स बेडरूम से निकल कर पब, पार्टी, घर, स्कूल और सड़कों पर सार्वजनिक हो गया है । स्त्री अपनी अस्मिता को तार-तार होते हुए न सिर्फ देख रही है बल्कि आज़ादी के नाम पर उसे एन्ज्वॉय भी कर रही है । होमी के. भाभा का उत्तर-उपनिवेशवाद के द्विविधावादी (Ambivalence) सिद्धांत के तहत देखा जाए तो स्त्री पितृसत्ता के जकड़न के दो तरिकों के बीच फँसी हुई दिखाई दे रही है । वह स्टीरियोटाइप इमेज को तोड़ने में सफलता तो हासिल कर ली है लेकिन ख़ुद को आइटम होने से बचा नहीं पा रही अर्थात् वह कल भी वस्तु थी और आज भी है । स्त्री को वर्चस्ववादी सत्ता के इस षड़यंत्र को समझना होगा । आज़ाद स्त्री को सोचना होगा कि क्या वह सचमुच आज़ाद है ? कहीं वह इन सॉन्ग्स के माध्यम से लोगों के दिमाग में यह तो नहीं भर रही कि वह तंदूरी चिकन और बटर नमकीन ही है अथवा चखना बनकर कहीं भी कभी भी चख लेने वाली चीज है ? क्या वह सिर्फ एक चीज बनकर तो नहीं जीना चाहती ? या फिर वह प्यास बुझाने का सिर्फ एक साधन है ? क्या वह एन्ज्वॉयमेंट का साधन ही बने रहना चाहती है अथवा जीवन एक अहम् हिस्सा ?


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संदर्भ ग्रंथ –
·         पचौरी, सुधीश. स्त्री-देह के विमर्श. सं. प्रथम 2000. प्रकाशक – आत्माराम एंड संस, दिल्ली.
·         चतुर्वेदी, जगदीश्वर एवं सुधा सिंह. कामुकता पोर्नोग्राफी और स्त्रीवाद. सं. 2007. प्रकाशक – आनन्द प्रकाशन, कोलकाता.