शनिवार, 17 नवंबर 2012

PREM-VIVAH

प्रेम-विवाह


मंगलम् भगवान विष्णु, मंगलम् गरूण ध्वज

मंगलम्............................................

जीवन मंगलमय लगे

कर लिया प्रेम-विवाह

हृदय पर पत्थर रख

कट लिया माँ बाप से

प्रेम से सराबोर जीवन

मधुरम मधुरम गति

पकड़ने लगी

पीपल के पेड़-सी

लाभदायी भी लगी

मन करे पूज लो

मन करे छँहा लो

मन करे भूतहा पेड़ बना दो

या मन करे तो

सोमावरी अमावस्या के दिन

घुमरी घुमरी सूत भी लपेट दो

कोई छीन न ले इस रिस्ते को...



तुलसी पत्ता है यह प्रेम

जिस खाने में ड़ालो

पवित्रता के साथ-साथ

बरक्कत भी आती है

खुशियाँ तो मानो

जीवन के अंग अंग में

भीन रहा है



लेकिन हृदय का पत्थर

कभी कभी दर्द से

दरकता भी है

ठोकर मारता है हृदय को

क्या प्रेम इतना सर्वोपरि है

कि माँ-बाप का हृदय

कुचलकर जिया जाये

कठुआ गई थी माँ

जिस दिन सुना था उसने

बिटिया ने दूसरे जाति

में कर लिया बियाह

दहाड़ रहे थे पिता

मर गई वो हमारे लिए

गरज रहा था भाई

नहीं कर सकती है बहना

ऐसा कुकर्म

लकवा मार गया

बहन को

अब मेरा क्या होगा...

इन सब के बावजूद

अंदर ही अंदर फूट रहे थे

कठोर पहाड़ों के बीच

झरने के कई सोते

हहरते हहरते

काश ! यह सब झूठ होता...



अपने हृदय पर रखे पत्थर

से मैंने एक टूकड़ा उठाया

और फोड़ दिया रिस्तों का सिर

ठठाकर हँस पड़ी मेरी जीत

पिता ने जब मुँह पर दरवाजा

बंद किया

आँखों में आँसू लिए हँसा विद्रोह

रूढ़िवादी मानसिकता के खिलाफ

आज नहीं तो कल अपनाना ही

है, आखिर इन्हीं की तो खून हूँ !!



खून...

खून से याद आया प्रीतम प्यारे का

आखिर वो भी तो किसी

का खून है

उनके भी माँ बाप ने

ऐसा ही किया होगा

दर्द बराबर है, पर

एक-दूजे को संभालते

संभालते

पीपर-पात कबका झहर

चुका है

सूखी हड्डियाँ दिख रहीं हैं

पेड़ पर

सूखी हड्डियों पर भला

बगूले कैसे वास करे

हृदय पर रखे पत्थर से

घुटने लगी हैं साँसें

रिस्तों में नहीं बची कोई

आस

पत्थर पहाड़ बन गया है

खुशियों के सोते बीच

दरारें भी पड़ती हैं

चार जीवन इधर तो

अट्ठारह जीवन उधर

अट्ठारह को कैसे भूल जाये

और कैसे भूलते होंगे

वे लोग

जिन्होंने जीना सीखा

हमें देखकर

मरना जाना

हमसे बिछड़कर



परंपराओं के गलियारे में

संवेदनाओं का आना जाना

गलत तो नहीं

संवेदना की बाहों में

नई रीत-प्रीत का फलना-फूलना

गलत तो नहीं

गलत तो रूढ़ियों का विकृत्त

रूप लेना है

लेकिन विकृत्तियों से भागना !!

उसे समझने के बजाय...

कायरता है



प्रेम विवाह तो हो गया

पर

प्रेम-जाल में फंसे तो वे

रिस्ते हैं

जिसे समाज ने अपनी

गोदी में पनाह दिया

लेकिन...

भूल जाते हैं लोग

समाज में जीवन पलता है

जरूर

लेकिन समाज हमसे ही बनता है

और बनाता है नये-पुराने रीत-प्रीत



किसी का हृदय बार-बार

पत्थरों से

तोड़ चकनाचूर कर

देने से जाति व्यवस्था

तोड़ी नहीं जा सकता

और न ही अंतर्जातीय विवाह

की स्थापना की जा सकती है



विजय पताका तो

तब फहरायेगा

जब हम तुलसी बनेगे

अपने बीज से उपजायेंगे

अनेक तुलसी के पौधे

जीते-जी पूजा की थाल में सजेंगे

या मरते मुख की शोभा

किसी चरणामृत से कम न हो

यह प्रेम जीवन

या आचमन भरे हाथ

सूखकर भी बनें अमृत

अमृत बहे हर जीवन में

रिस्तों में, रीतों में, गीतों में

क्योंकि

पूर्णता में ही खुशी

है, अधूरेपन में नहीं

प्रेम-विवाह का गीत

अधूरा है,

कुछ कर्तव्य अभी बाकी है

विजय तो तब होगी

जब किसी घुसपैठिये की

तरह नहीं

बल्कि तुलसी के पौधे की तरह

प्रेम से आँगन में लगाई जाऊँ

क्योंकि

तुलसी की पूर्णता गंगा से है.

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