सोमवार, 10 मार्च 2014


खिड़कियाँ खोल दी है
फगुनाहट के लिए
सिंहर रहीं हैं हवायें
बारीश की बूँदों के साथ
पर रंगत...
बिला है कहीं !

सोमवार, 25 नवंबर 2013

'कमरा नं 103' में प्यासी भारतीय संवेदनाएँ

'शोध दिशा', अंक 23 (जुलाई-सितम्बर 2013) में सुधा ओम ढ़ीगरा की कहानी-संग्रह 'कमरा नं. 103' पर लिखी पुस्तक समीक्षा 'कमरा नं 103 में प्यासी भारतीय संवेदनाएँ' प्रकाशित -





सोमवार, 22 जुलाई 2013

Rishte

रिश्ते - 1

रिश्ते समुद्र की तरह होना चाहिए
जिसमें समा जाए कोई भी नदी
रिश्ते नहीं होना चाहिए गड्ढ़े या तालब की तरह
जो बारिश के साथ भर जाए, अन्यथा सूख जाए

रिश्ते - 2

रिश्ते खुले आसमान की तरह होना चाहिए
जिसमें समा जाए पूरी पृथ्वी और बह्माण्ड भी
रिश्ते नहीं होने चाहिए तारों की तरह
जो किसी और की रोशनी से टिमटिमाए

रिश्ते - 3

रिश्ते बसन्त ऋतु की तरह होने चाहिए
जिसमें सूखे पत्ते भी खिले-खिले लगे
रिश्ते नहीं होने चाहिए पतझड़ की तरह
जिसमें खिले फूल भी मुरझाये लगे

मंगलवार, 30 अप्रैल 2013

Gulaab


गुलाब

गुलाब...
एक रोज दिए थे तुमने
इज़हार-ए-दोस्ती की खातीर
वो आज किसी फेकीं हुई
रद्दी की किताबों में मिली
जिसकी खुशबू आज भी बरकरार है
और तुम्हारा चेहरा धूँधला
हो चुका है...

सोमवार, 1 अप्रैल 2013

काव्य-संग्रह - मैं मुक्त हूँ

बुधवार, 23 जनवरी 2013

Shahid

       शहीद


संसार के हवन कुंड के सामने

जब बंधी थी हमारे रिस्तों

की गांठ

तब फेरे लिए थे हमने

रीति-रिवाजों के साथ

शहनाइयों के सुर में सुर मिलाकर

सुरीला लग रहा था हमारा जीवन


पर सुर को बेसुरा कर

चले गए तुम उसी रात

देश-सेवा हेतु


हेतु तो मेरे जीवन का

बस यही रह गया

तुम और तुम्हारा परिवार

तुम्हारे रिस्ते, तुम्हारी परंपराएँ...


तुम्हारे ड्यूटी में दुन्दुभी

बजती थी

और मेरा जीवन हर समय

था एक रणक्षेत्र

और मैं सुनती रहती थी

हर रोज एक नयी नई दुन्दुभी

की आवाज़


आवाज़... जो घर कर गई हैं

मेरे हृदय में

कि एक दिन तुम आओगे और

मुझे आवाज़ दोगे

पर...

ऐसा न हुआ


हुआ तो बस इतना कि

तुम आये

लौट आये बजती बिगुल के

साथ, तिरंगे के आवरण में

ताबूत को अपना कवच बना


कवच तो बना लिया था मैंने

भी तुम्हारे प्यार को

एहसास को, यादों को

तुम न होते हुए भी

होते थे हर पल मेरे साथ


साथ... जो होते हुए भी

कभी न था

सिंदुर बिन्दी और बिछुए

की सौगात के अलावा

जिससे मैं तुमसे जुडी थी

और तुम मुझसे


मुझसे तो बहुत कुछ

जुड़ गया था...

तुम्हारी प्रतीक्षा का दर्द

अपने होने न होने का एहसास

धनयुक्त निर्धन होने का आभास

परिवार के प्रति कर्तव्य का भास


कर्तव्य...

तुम बखूबी निभा रहे थे

देश के लिए

लेकिन क्या मेरे प्रति भी

तुम्हारा कोई कर्तव्य था

या अपने परिवार के प्रति

जिम्मेदारियों का एहसास

सिवाय साल में ढ़ाई महिने

की छुट्टी के अलावा ?


अलावे पर तो हर रोज

जल रही थी मैं

दिल में तुम्हारे प्यार की

ज्योति जलाए

कि कभी तुम भी रहोगे

हमारे साथ

चाहे बीस साल बाद ही सही

तुफानों को भी झेल गई

सुखमय जीवन की चाह में


सुखमय जीवन की चाह जब

पूरी होने को आई

तभी तुम छोड़ गए मेरा साथ

बीच भंवर में डूब गई नईया

देश का सफ़र तो निभा चूके

पर भूल गए कि तुम हो

मेरे भी हमसफ़र हो


हमसफ़र...

तुम तो शहीद कहलाओगे,

नवाजे जाओगे

वीरता के पुरस्कार से

पर मैं...

मैं क्या कहलाऊँगी

मेरा तो पूरा जीवन शहीद

हुआ है तुम पर

जीऊँगी मैं हर पर

तिल-तिलकर

सिर्फ मैं ही नहीं तुम्हारे

माता-पिता

और तुम्हारे परिवार के साथ-साथ

समस्त रिस्तेदार भी

शहीद हैं


हे शहीद ! बोलो...

इस शहीद पत्नी और परिवार को

कौन सा नाम दोगे

बोलो...

कौन से रत्न से हमें नवाजोगे

और कौन सा निभाओगे हमारे

लिए कर्तव्य


कर्तव्य निभाने की जिम्मेदारी

क्या सिर्फ मेरा है ?

नहीं…

मैं तो सीता भी नहीं बन सकी

कि तुम्हारे साथ जा सकूँ वन में

न ही हूँ कैकेयी या सत्यभामा

जो लड़ सकूँ तुम्हारे साथ युद्ध

नहीं है फूरसत मुझे

कि जौहर कर सकूँ

नहीं...

मैं नहीं हूँ इतनी महान

जो तुम्हारे जाने पर

न गिराऊँ एक बूँद भी आँसू

मुझे गर्व है तुम पर

पर मैं हूँ एक साधारण नारी

और मेरा जीवन भी

हुआ है शहीद...


हे शहीद...

बोलो...

अब कौन सा

वाद्ययंत्र मेरे शहीद

होने पर बजाओगे

और कौन से रत्न से

हमें नवाजोगे

या संसार के हवन-कुंड

में अब कौन सी

अग्नि जलाओगे...

बुधवार, 9 जनवरी 2013

BEMATLAB

          बेमतलब



बेमतलब लगती हैं इनकी हरपल पनीली स्वप्नीली आँखें

बेमतलब लगता है इनका हरपल बड़बड़बड़ाना

बेमतलब होता है इनका इस घर से उस घर तक झाँक आना

बेमतलब होता है कभी भी अपनों के नाम पर हाथ पसारना

पर, हर बेमतलब के पीछे

होता है कोई न कोई खास मतलब

मतलब पूरा करते करते ये स्वयं

प्रायः रह जाती हैं बेमतलब.

सोमवार, 7 जनवरी 2013

Parkiya

      परकीया




बड़े-बड़े डॉक्टरों ने

रोग बताया लाइलाज़

कुछ ने नखरा

कुछ ने बताया हिस्टीरिया

सारी बिमारियों के नाम के

बावजूद भी

नहीं पहचान पाया कोई वैद्य

नब्ज़


क्यों मुझे चाँद के पलकों

पर आँसू लटके दिखाई देते हैं

क्यों सूरज की तपन भी

सह जाती हूँ शून्य होकर

क्यों बारिश के बाणों से

आग लग जाती है बदन में

क्यों ठंड

ठंड नहीं जगा पाती

तन मन में

क्यों सिंहरन उठती है धूप में

क्यों छाता लेकर खोलना

भूल जाती हूँ खड़ी दोपहर में

क्यों हाथ में चश्मा लेकर

ढ़ूँढ आती हूँ पूरे घर में

क्यों आँसूओं में डूबते हुए

भी खाना ठूँसती हूँ मुँह में

क्यों हो जाती हूँ अकेली

भरी सभा में

क्यों डसती हैं यादें

तन्हाई में

क्यों नंगे पैरों घूम आती हूँ

शहर में

क्यों पैरों में चूभे काँटों के

दर्द लगते हैं कम

क्यों हँसी के पर्दे में

लिखती हूँ तड़पते गीत

क्यों रात भर जाग-जाग कर

रटती रहती हूँ मीत मीत


क्यों जान होकर भी

हो गई हूँ बेजान

क्यों हर वक़्त रहता है

लबों पे उनका ही नाम

क्यों हर साँस में आती जाती है

उनके ही यादों की साँस


साँसों का क्या ?

अंदर आती हैं

प्राणवायु बनकर

और जाते समय

बन जाती हैं

मृत्युवायु

और अब तो

नीम बनकर

पीने लगी हूँ जीते-जी

मृत्युवायु...


क्यों बार-बार सिंदूर

लगाकर पोछ देती हूँ

कि शायद

सिंदूर लगाने से

तुम फिर से मेरे हो जाओ

या फिर पोछ देने से

टूट जाए ये रिस्ता

ताकि मुक्त हो सकूँ

तुम्हारी यादों से

पर...

ऐसा कुछ भी नहीं होता

होता है तो बस यही

कि तुमसे

जितना अलग होना

चाहती हूँ

न जाने कैसे तुम

उतना ही मुझसे

जुड़ते चले जाते हो

और...

तुम जीवन से जाकर भी

हृदय से नहीं जा पाते हो


क्या तुम्हें भी कभी

आती होगी हमारी याद

क्या याद किया होगा कभी

जागकर रात रात

वो वक्त

जो अब जमकर

थक्के बन चूके हैं...

या हमारे याद करने से

क्या आती हैं कभी

तुम्हें भी हिचकियाँ


तुम्हें हिचकियाँ आये

न आये

पर मैं ही याद करती हूँ और

मेरी ही आती हैं हिचकियाँ

शायद किसी याद के भ्रम में


सारी बिमारियों के नाम

के बावजूद भी

नहीं पहचान पाया

कोई वैद्य नब्ज़

जिसकी रगों में बहता है

उनके प्यार का नब्ज़

जिन्होंने अपनी नब्ज़

सौंप दी किसी और की

नब्ज़ को


तुमने सिर्फ मुझसे ही

रिस्ता नहीं तोडा

बल्कि तोड़ा है हमसे जूडे

हर रिस्ते को

मेरे तन को मेरे मन को

और मेरी आत्मा को भी

उन सारे खूबसूरत एहसासों

को, जिन्हें हमने सजाया था

हमारे घर और बगियों में

और देखा था एक छोटा-सा

सपना

जिसमें समा जाती है पूरी

की पूरी पृथ्वी


और...

अब यह पृथ्वी

पृथ्वी न होकर

बन गई है

परकीया...

शनिवार, 17 नवंबर 2012

PREM-VIVAH

प्रेम-विवाह


मंगलम् भगवान विष्णु, मंगलम् गरूण ध्वज

मंगलम्............................................

जीवन मंगलमय लगे

कर लिया प्रेम-विवाह

हृदय पर पत्थर रख

कट लिया माँ बाप से

प्रेम से सराबोर जीवन

मधुरम मधुरम गति

पकड़ने लगी

पीपल के पेड़-सी

लाभदायी भी लगी

मन करे पूज लो

मन करे छँहा लो

मन करे भूतहा पेड़ बना दो

या मन करे तो

सोमावरी अमावस्या के दिन

घुमरी घुमरी सूत भी लपेट दो

कोई छीन न ले इस रिस्ते को...



तुलसी पत्ता है यह प्रेम

जिस खाने में ड़ालो

पवित्रता के साथ-साथ

बरक्कत भी आती है

खुशियाँ तो मानो

जीवन के अंग अंग में

भीन रहा है



लेकिन हृदय का पत्थर

कभी कभी दर्द से

दरकता भी है

ठोकर मारता है हृदय को

क्या प्रेम इतना सर्वोपरि है

कि माँ-बाप का हृदय

कुचलकर जिया जाये

कठुआ गई थी माँ

जिस दिन सुना था उसने

बिटिया ने दूसरे जाति

में कर लिया बियाह

दहाड़ रहे थे पिता

मर गई वो हमारे लिए

गरज रहा था भाई

नहीं कर सकती है बहना

ऐसा कुकर्म

लकवा मार गया

बहन को

अब मेरा क्या होगा...

इन सब के बावजूद

अंदर ही अंदर फूट रहे थे

कठोर पहाड़ों के बीच

झरने के कई सोते

हहरते हहरते

काश ! यह सब झूठ होता...



अपने हृदय पर रखे पत्थर

से मैंने एक टूकड़ा उठाया

और फोड़ दिया रिस्तों का सिर

ठठाकर हँस पड़ी मेरी जीत

पिता ने जब मुँह पर दरवाजा

बंद किया

आँखों में आँसू लिए हँसा विद्रोह

रूढ़िवादी मानसिकता के खिलाफ

आज नहीं तो कल अपनाना ही

है, आखिर इन्हीं की तो खून हूँ !!



खून...

खून से याद आया प्रीतम प्यारे का

आखिर वो भी तो किसी

का खून है

उनके भी माँ बाप ने

ऐसा ही किया होगा

दर्द बराबर है, पर

एक-दूजे को संभालते

संभालते

पीपर-पात कबका झहर

चुका है

सूखी हड्डियाँ दिख रहीं हैं

पेड़ पर

सूखी हड्डियों पर भला

बगूले कैसे वास करे

हृदय पर रखे पत्थर से

घुटने लगी हैं साँसें

रिस्तों में नहीं बची कोई

आस

पत्थर पहाड़ बन गया है

खुशियों के सोते बीच

दरारें भी पड़ती हैं

चार जीवन इधर तो

अट्ठारह जीवन उधर

अट्ठारह को कैसे भूल जाये

और कैसे भूलते होंगे

वे लोग

जिन्होंने जीना सीखा

हमें देखकर

मरना जाना

हमसे बिछड़कर



परंपराओं के गलियारे में

संवेदनाओं का आना जाना

गलत तो नहीं

संवेदना की बाहों में

नई रीत-प्रीत का फलना-फूलना

गलत तो नहीं

गलत तो रूढ़ियों का विकृत्त

रूप लेना है

लेकिन विकृत्तियों से भागना !!

उसे समझने के बजाय...

कायरता है



प्रेम विवाह तो हो गया

पर

प्रेम-जाल में फंसे तो वे

रिस्ते हैं

जिसे समाज ने अपनी

गोदी में पनाह दिया

लेकिन...

भूल जाते हैं लोग

समाज में जीवन पलता है

जरूर

लेकिन समाज हमसे ही बनता है

और बनाता है नये-पुराने रीत-प्रीत



किसी का हृदय बार-बार

पत्थरों से

तोड़ चकनाचूर कर

देने से जाति व्यवस्था

तोड़ी नहीं जा सकता

और न ही अंतर्जातीय विवाह

की स्थापना की जा सकती है



विजय पताका तो

तब फहरायेगा

जब हम तुलसी बनेगे

अपने बीज से उपजायेंगे

अनेक तुलसी के पौधे

जीते-जी पूजा की थाल में सजेंगे

या मरते मुख की शोभा

किसी चरणामृत से कम न हो

यह प्रेम जीवन

या आचमन भरे हाथ

सूखकर भी बनें अमृत

अमृत बहे हर जीवन में

रिस्तों में, रीतों में, गीतों में

क्योंकि

पूर्णता में ही खुशी

है, अधूरेपन में नहीं

प्रेम-विवाह का गीत

अधूरा है,

कुछ कर्तव्य अभी बाकी है

विजय तो तब होगी

जब किसी घुसपैठिये की

तरह नहीं

बल्कि तुलसी के पौधे की तरह

प्रेम से आँगन में लगाई जाऊँ

क्योंकि

तुलसी की पूर्णता गंगा से है.

सोमवार, 12 नवंबर 2012

PYAZ

             प्याज


प्याज और औरत का रिस्ता

लगभग एक जैसा होता है

तकलीफ में लगती है झरार

पर होती है दर्द की दवा भी

है हर रिस्तों की जान

आलू गोभी भूजिया

हो या फ्राइड राइस,

दाल तड़का

या फिर नूडल्स ही

कच्चा हो या पक्का

हर रिस्तों में ढ़लना जानती है

प्याज

गुरुवार, 8 नवंबर 2012

Chup Mat Ho Gargi... Ab Tumhara Sir, Koi Dhad Se Alag Nahi Kar Sakta - 2

चुप मत हो गार्गी... अब तुम्हारा सिर, कोई धड़ से अलग नहीं कर सकता - 2



हे धरा !

मैं तुम्हारे अंदर

पल रही बीज की

वह जड़ हूँ

जो सृष्टि को सृष्टि

और सृजन को सृजनयोग्य

बनाती है


मैं तुम्हारी अंश हूँ

तुम्हारी ही वंश

मत उखाड़ फेको मुझे

यदि मैं नहीं, तो

न उगेंगे पौधे

न लगेंगे फल

न होगी बगिया

और न चहकेंगी चिड़िया

न होगी सृष्टि

न होगा सृजन

और न ही होगा कोई सृजनहार…


बोलो धरा

क्या तुम्हें मंजूर है

प्रलय का ताण्डव-नर्तन…

लोगों का क्या

लोग तो तुम्हें

सहनशील धैर्यशील

मानते हैं

पर क्या वे जानते हैं

सहनशीलता की सीमा ?

क्या उन्हीं के कहने पर

मिटाने जा रही हो

अपना ही अस्तित्व ?


कहने को तो

लोग कहते हैं

स्त्री-पुरूष में अंतर नहीं होता

अंतर तो कर्म से बनता है

लेकिन हे धरा

अभी तो मैंने इस

दुनियाँ में कदम भी नहीं रखा

फिर

अभी से कर्म कैसा

और अंतर क्यों

बताओ न...


लोग कहते है

वैदिक काल में

स्त्री-पुरूष में समानता थी

स्वतंत्र थी स्त्रियाँ !!!

फिर क्यों जबरदस्ती

उठाया गया श्वेतकेतु की

माँ को

क्यों सहमति देनी पड़ी

विवाह को

क्यों अहिल्या बनी पत्थर

क्यों परशुराम ने काटी

माँ की जिह्वा

क्यों मिली धमकी

गार्गी को

क्यों गाय के बदले अनेक

हाथों सौंपा गया माधवी को

क्यों खिलौना बना पृथ्वी पर

भेजता रहा इन्द्र

विवश अप्सराओं को

क्यों ऋचाएँ लिखकर भी

नहीं बन सकीं वे विदुषी

क्यों पति के रहते हुए भी

बार-बार जन्मी सति

जन कल्याण हेतु क्यों

हो गई रति विधवा

क्यों दर-दर की ठोकरें

खाती रही शकुन्तला


हे धरा !

क्यों चुना सीता ने

फिर से तेरा ही गर्भ

क्यों नहीं जा सकी

उर्मिला पति संग

क्यों कट गई नाक

सुपर्णखा की

नियोग प्रथा होते हुए भी

क्यों नहीं अपना सकी

कर्ण को कुन्ती

क्यों अम्बा अम्बालिका को

बदलना पड़ा रूप

क्यों खोल न सकी

गांधारी आँखों से पट्टी

क्यों अर्जून की होकर भी

भाईयों में बट गई द्रोपदी

चीर हरण के समय कहाँ

थी पतियों की शक्ति

क्यों विवश थी पति से दूर

रहने हेतु रोहिणी

क्यों भाई की चहेती होकर

भी बंदी बनी देवकी

क्यों उठाया वासुदेव ने

मरने हेतु पुत्र के बदले

यशोदा की पुत्री

क्यों यशोदा पुत्र पालकर

भी रह गई पुत्र-प्रेम से वंचित

क्यों वियोगिनी हुईं गोपियाँ

क्यों राधा हुई आँसूओं से संचित

क्यों मीरा को करना पड़ा

विषपान

कहो धर्म में कितना है

प्राप्त नारी को सम्मान ?


क्यों आश्रमों में बनी

भिक्षुणियाँ भोग-विलास

क्यों जन्मीं कुप्रथा

बाल-विवाह

पर्दा-प्रथा, सति-प्रथा

क्यों प्रेम करने पर बेटियाँ हुईं

ऑनर कीलिंग की शिकार

क्यों मना करने पर फेंका

गया तेजाब

क्यों संविधान में होकर भी

नहीं हुई अधिकार की

भागीदार


हे धरा !

देखो इतिहास के पन्नों

को पलटकर

पन्नों में रह गई

हैं नारियाँ सिमटकर

पवित्रता नैतिकता

मर्यादा के बीच

कितना है उनका जीवट ?


हे धरा !

तुम्हारे विनाश में

स्कैनिंग मशीन

की गलती है

या हमारी सोच की ?

सोचो धरा सोचो

गर्भ में अभिमण्यु

चक्रव्यूह का सातवां द्वार

तोड़ना क्यों नहीं

सीख पाया ?

उस वक्त तुम सो गई थी

पर इस वक्त मत सोना

तुम्हारे ही जागने से

जागेगा संसार

तुम्हारे ही सोने होगा

संसार विरान


हे धरा !

अब तुझे धरा नहीं

बनना होगा गार्गी

जिसने डटकर सामना

किया था याज्ञवल्क्य का

तुम्हें भी सामना करना होगा

रूढ़िवादी समाज का

कह दो इस समाज से

न होगी अब अहिल्या

न मेनका

न माधवी

न ही शकुन्तला

न सीता न उर्मिला

न राधा न गोपियाँ

न कुन्ती न द्रोपदी

अब होगा जन्म सिर्फ

एक मानव का

और दुंगी जन्म

मानवता को…


हे गार्गी !

यदि तू चाहती है

कि मैं इस दुनियाँ

में आऊँ, तो

पूछो हर

याज्ञवल्क्य से

फल से बीज बनता कैसे है

बीज रोपा कहाँ जाता है

नफरत का उल्टा क्या है

ममता का आश्रय कहाँ है

पृथ्वी से सहनशील कौन है

आसमान से ऊँचे ख्वाब किसके हैं

पितृसत्ता और मातृसत्ता का उल्टा क्या है

स्वतंत्रता का मतलब क्या है

समानता होती क्या है

प्रेम बसता कहाँ है

प्रेम निभाता कौन है

प्रेम का परिणाम क्या है

सृजन होता कैसे है

संहार शुरू कहाँ से होता है ???


हे गार्गी !

डर मत

तुम्हारे लिए कदम

तुम्हें ही उठाना होगा

यदि तेरा एक सिर कटेगा

तो लहरायेंगे हजारों हाथ

और तेरा सिर बचा

तो जन्मेंगे हजारों सिर

आज की चुप्पी

प्रश्न-चिन्ह है

तुम्हारे जडों पर

वंश पर, अंश पर

समूल पर, अस्तित्व पर

इसलिए

चुप मत हो गार्गी...

अब तुम्हारा सिर,

कोई धड़ से अलग नहीं कर सकता…