साहित्य नंदिनी, अक्टूबर 2020 अंक में 'चर्चा के बहाने' स्तम्भ में फिल्म 'मॉम' के बहाने...
फिल्म
– मॉम (2017)
लेखक
– रवि उदयवार, गिरिश कोहली एवं कोणा वेंकटराव
निर्देशक
– रवि उदयवार
कलाकार
– श्रीदेवी, अक्षय खन्ना, सजल अलि, अदनान सिद्दीकी, अभिमन्यु सिंह, नवाजुद्दीन
सिद्दीकी.
“गलत और बहुत गलत में चुनना हो तो आप क्या चुनेंगे” ?
इस
फिल्म के ट्रेलर की शुरूआत इसी डायलॉग से होती है । इस वाक्य से सबसे पहले यही समझ
में आता है कि यहाँ चयन सही और गलत के बीच नहीं बल्कि कम गलत और अधिक गलत के बीच
किसी एक गलत को चुनना है । यह प्रश्न किसी कलाकार की भूमिका का नहीं बल्कि पूरे
समाज के सामने है । इस फिल्म में बलात्कार और बलात्कार के बाद के परिणाम के ज्वलंत
मुद्दे को उठाया गया है, जो कि देश में लगातार घट रही
बलात्कार की घटनाएँ और उसके बाद के परिणाम किसी से छुपा नहीं है ।
14
अगस्त, 2005 को एक 15 वर्षीय लड़की के बलात्कार के आरोप में सजा काट रहे धनंजय
चटर्जी को कोलकाता के अलीपुर जेल में फांसी दी गई, 20 मार्च 2020 को तिहाड़ जेल
में निर्भया के आरोपी मुकेश सिंह, विनय शर्मा, अक्षय कुमार सिंह और पवन गुप्ता को
फाँसी के फंदे पर लटका दिया गया । 19 दिसम्बर, 2019 को क्राइम सीन को रिक्रिएट
करते समय एनएच-44 पर हैदराबाद की प्रियंका रेड्डी के बलात्कारी शिवा, नवीन,
केशवुलू और मोहम्मद आरिफ पुलीस एनकाउन्टर में मारे जाते हैं । लेकिन इसके अलावा
आरोपियों का क्या...?
केन्द्रीय
गृह मंत्रालय के अंतर्गत राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (NCRB) भारतीय दंड संहिता और विशेष एवं स्थानीय कानून के तहत देश में अपराध के
आंकडे एकत्रित एवं विश्लेषित करती है । भारत में NCRB के आंकड़ों
के अनुसार सन् 2016 में 38,947, सन् 2017 में 32,559, तथा
2018 में 33,356 बलात्कार के मामले दर्ज हुए हैं । यह ध्यान रखने योग्य बात है कि
यह सिर्फ ‘दर्ज’ मामले हैं । 3
दिसम्बर, 2019 को आजतक के हिन्दी न्यूज़ के अनुसार ‘देश में
हर साल 40 हज़ार, हर रोज 109 और हर घंटे 5 लड़कियों की अस्मत लूट ली जाती है’ । लेकिन इन सबमें में सिर्फ 25 प्रतिशत बलात्कारियों को ही सज़ा मिल पाती
है । समाचार के अनुसार ‘देश की लोकसभा और विधानसभा में बैठे
30 प्रतिशत नेताओं का आपराधिक रिकार्ड है, 51 पर महिलाओं के खिलाफ अपराध किए जाने
के मामले दर्ज हैं और 4 नेताओं पर सीधे बलात्कार का आरोप है’ ।
देखा
जाय तो उपरोक्त तीन घटनाएँ, जिनमें बलात्कारियों को सजा मिली है वे एक आम जनता के
बीच से आये अपराधी हैं । उन्नाव केस में दो बड़ी घटनाएँ, जिसमें से एक पीड़िता का
बलात्कारी एक जाना माना विधायक है (2017) और दूसरी पीड़िता दिल्ली के सफदरगंज
अस्पताल में अपनी जिन्दगी हार गई (2019)... का भी संतोषजनक परिणाम सामने नहीं आया
है । और अब 14 सितम्बर, 2020 को खूंखार दरिन्दों के हाथ आयी हाथरस की निर्भया के
साथ बलात्कार ने पूरे भारत का दिल दहला दिया है, जिसे बलात्कार न साबित करने के
लिए पूरा प्रशासन एकजुट हो गया है । शायद रीढ़ की हड्डी टूटना और जीभ का काट लेना
भी अपराध न माना जाये क्योंकि समाज के तथाकथित ईज़्ज़तदार उच्च वर्ग एवं उच्च पदों
पर आसीन लोग कभी भी ऐसा काम नहीं कर सकते !!
जितनी
कोशिशें इन घटनाओं को छुपाने में या अपराधियों को बचाने में की जाती हैं यदि उससे
भी आधी कोशिश अपराधियों को कड़ी से कड़ी सज़ा देने में की जाती तो शायद आज ऐसी
घटनाएँ न घटतीं । हैरानी की बात यह है अब मानवाधिकार चुप्पी साधे बैठा है, उच्च
वर्ग या जाति अपनी जातिवाद का कार्ड खेल रहे हैं और खेलते रहे हैं और अपराधी सत्ता
की बागडोर सम्भाले बैठे हैं ! हैरानी की बात यह
भी होती है कि एक सरकारी नौकरी के लिए आवेदन करते समय आवेदनकर्ता के ऊपर आपराधिक
मामले न होने की पुष्टि की जाती है लेकिन देश चलाने के लिए ऐसा कोई प्रावधान नहीं
है, जेल में बैठकर भी चुनाव लड़ा जा सकता है ! प्रश्न उठता है
कि उच्च पदों पर आसीन अपराधियों को क्या कभी फांसी की सज़ा हो पायेगी ? क्योंकि अपराधी तो सिर्फ अपराधी है । यदि अपराधी ही सत्ता की बागडोर
संभाले हों तो फिर देश सुरक्षित कैसे हो सकता है ? जब
अपराधियों की आकाएँ उच्च स्तर तक उनकी सुरक्षा की जिम्मेदारी लिए बैठे हों और केस
को मनचाहे रूप से परिवर्तित कर सकते हों तो न्याय की उम्मीद कैसे की जा सकती है ? क्या इसके लिए सिर्फ सत्ता जिम्मेदार है अथवा जनता भी ? क्या जातिवाद और वोट की राजनीति में सत्ता की बागडोर संभालने वाले नेताओं
के लिए भी इस फिल्म के डॉयलॉग की तरह कुछ कम गलत और अधिक गलत के बीच चयन का ही विकल्प
होता है, सही और गलत का नहीं ? यह
सोचने वाली बात है कि कुछ गलत भी तो गलत ही है और जनता की सह पाकर आगे चलकर वह और
अधिक गलत में बढ़ जायेगा, क्या जनता को यह समझ में नहीं आता ? या फिर न्याय की थाली में अविश्वास परोसते हुए इस फिल्म की तरह हर माँ को
स्वयं उठकर खड़ा होना होगा ?
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