साहित्य नंदिनी, जुलाई 2020 अंक में 'चर्चा के बहाने' स्तम्भ में मृत्यु के इन्द्रधनुष पुस्तक के बहाने कुछ बातें...
पुस्तक
- मृत्यु के इन्द्रधनुष
लेखक
– तेजेन्द्र शर्मा
प्रकाशक
- इंडिया नेटबुक, नोएडा
मूल्य
– 300/-
रू.
मौत
पूरी दुनियाँ की आँखों में घूर रही है...
“मौत उसकी आँखों में घूर रही है... उसके शरीर में इतना दर्द है कि गर्दन
मोड़कर मौत से आँखें फिरा भी नहीं सकता”
-
तेजन्द्र शर्मा
कोरोना
समय में एक ओर मौत पूरी दुनियाँ की आँखों में घूर रही है, तो दूसरी ओर लॉकडाउन में
मुझे तेजेन्द्र शर्मा की पुस्तक ‘मृत्यु के
इन्द्रधनुष’ पढ़ने का मौका मिल रहा है । सचमुच मृत्यु एक
इन्द्रधनुष ही तो है ! ईर्ष्या, द्वेष, लोभ, मोह, काम, क्रोध
मौत के अलग-अलग रंग ही तो हैं ! एक तरफ इस महामारी में मृत्यु
प्राप्त करने वालों की संख्या देखकर लोगों के हृदय में मृत्यु का खौफ फैल गया है
तो दूसरी तरफ संक्रमित लोग हर पल मौत से लड़कर उसका सामना कर रहे हैं । एक ओर
संक्रमित होने का खतरा हर किसी को डरा रहा है (डर भी एक मौत है) तो दूसरी ओर
प्रशासन के नियमों को अनदेखी कर लोग मौत को चुनौति देते हुए सड़कों पर निकलने के
लिए आमादा हैं !
घर-बाहर
हर तरफ मृत्यु पसरी हुई है । ऐसे में अत्यधिक संवेदनशीलता, अत्यधिक संवेदनहीनता,
अत्यधिक प्रेम, अत्यधिक नफरत, अत्यधिक आराम, अत्यधिक काम, अत्यधिक भोजन, अत्यधिक
भूख मृत्यु के साथ जुगाली करती हुई नज़र आ रही है ।
यदि
इस समय को अविश्वास का समय कहें तो गलत न होगा । हर कोई मौत को महसूसते हुए एक
दूसरे पर अविश्वास की नज़रों से देख रहा है । जो लोग मौत के मुँह से हमें खींच कर
निकालने का प्रयास करे हैं हम उनपर भी विश्वास नहीं कर पा रहें । इसलिए तो जंग लड़
रहे डॉक्टर्स, नर्स और सिपाहियों पर हमले हो रहे हैं । जो हाथ सुरक्षा के लिए आगे
बढ़ रहे हैं उन्हीं हाथों को काट फेंकने के लिए लोग तत्पर हो चुके हैं । मौत का भय
हर किसी में समाता जा रहा है और मौत आने से पहले ही लोग कई-कई मौतें मरने के लिए
विवश हो रहे हैं । इसका कारण पहले से चली आ रही अशिक्षा, भूख, बेरोजगारी और
अंधविश्वास बहुत बड़ा कारण है लेकिन आग लगने पर कूआँ तो नहीं खोदा जा सकता ! पहले से चली रही वोट की राजनीति आज के समय को कहीं न कहीं असफल बना रही
है वरना आज इस तरह की घटनाएँ नहीं होतीं ।
वर्तमान
समय में एक अच्छी बात यह है कि वोट की राजनीति करने वाले वोट की राजनीति भूलकर एक
साथ खड़ें होकर हरसंभव ‘मनुष्यता’
को विजयी बनाने में जुटे हुए हैं, जो कि सराहनीय है । हालांकि अभी भी पूरी तरह से
ग्राऊंड लेबल पर पहुँच पाना संभव नहीं हो पा रहा क्योंकि वोट की राजनीति में
ग्राउंड लेबल पर पहुँचने की कवायद से अधिक ‘जीतना’ जरूरी होता है । पर इस समय सराहनीय यह है कि पूरी दुनियाँ एक साथ मिल कर
मौत की घूरती आँखों में घूरना चाहते हैं और उसे मात देना चाहते हैं । इसलिए
वर्तमान समय में लेखक की यह बात सार्थक सिद्ध हो सकती है –
“यह केवल एक मध्यांतर है... मौत जिन्दगी का अंत नहीं है…”
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