परकीया
बड़े-बड़े डॉक्टरों ने
रोग बताया लाइलाज़
कुछ ने नखरा
कुछ ने बताया हिस्टीरिया
सारी बिमारियों के नाम के
बावजूद भी
नहीं पहचान पाया कोई वैद्य
नब्ज़
क्यों मुझे चाँद के पलकों
पर आँसू लटके दिखाई देते हैं
क्यों सूरज की तपन भी
सह जाती हूँ शून्य होकर
क्यों बारिश के बाणों से
आग लग जाती है बदन में
क्यों ठंड
ठंड नहीं जगा पाती
तन मन में
क्यों सिंहरन उठती है धूप में
क्यों छाता लेकर खोलना
भूल जाती हूँ खड़ी दोपहर में
क्यों हाथ में चश्मा लेकर
ढ़ूँढ आती हूँ पूरे घर में
क्यों आँसूओं में डूबते हुए
भी खाना ठूँसती हूँ मुँह में
क्यों हो जाती हूँ अकेली
भरी सभा में
क्यों डसती हैं यादें
तन्हाई में
क्यों नंगे पैरों घूम आती हूँ
शहर में
क्यों पैरों में चूभे काँटों के
दर्द लगते हैं कम
क्यों हँसी के पर्दे में
लिखती हूँ तड़पते गीत
क्यों रात भर जाग-जाग कर
रटती रहती हूँ मीत मीत
क्यों जान होकर भी
हो गई हूँ बेजान
क्यों हर वक़्त रहता है
लबों पे उनका ही नाम
क्यों हर साँस में आती जाती है
उनके ही यादों की साँस
साँसों का क्या ?
अंदर आती हैं
प्राणवायु बनकर
और जाते समय
बन जाती हैं
मृत्युवायु
और अब तो
नीम बनकर
पीने लगी हूँ जीते-जी
मृत्युवायु...
क्यों बार-बार सिंदूर
लगाकर पोछ देती हूँ
कि शायद
सिंदूर लगाने से
तुम फिर से मेरे हो जाओ
या फिर पोछ देने से
टूट जाए ये रिस्ता
ताकि मुक्त हो सकूँ
तुम्हारी यादों से
पर...
ऐसा कुछ भी नहीं होता
होता है तो बस यही
कि तुमसे
जितना अलग होना
चाहती हूँ
न जाने कैसे तुम
उतना ही मुझसे
जुड़ते चले जाते हो
और...
तुम जीवन से जाकर भी
हृदय से नहीं जा पाते हो
क्या तुम्हें भी कभी
आती होगी हमारी याद
क्या याद किया होगा कभी
जागकर रात रात
वो वक्त
जो अब जमकर
थक्के बन चूके हैं...
या हमारे याद करने से
क्या आती हैं कभी
तुम्हें भी हिचकियाँ
तुम्हें हिचकियाँ आये
न आये
पर मैं ही याद करती हूँ और
मेरी ही आती हैं हिचकियाँ
शायद किसी याद के भ्रम में
सारी बिमारियों के नाम
के बावजूद भी
नहीं पहचान पाया
कोई वैद्य नब्ज़
जिसकी रगों में बहता है
उनके प्यार का नब्ज़
जिन्होंने अपनी नब्ज़
सौंप दी किसी और की
नब्ज़ को
तुमने सिर्फ मुझसे ही
रिस्ता नहीं तोडा
बल्कि तोड़ा है हमसे जूडे
हर रिस्ते को
मेरे तन को मेरे मन को
और मेरी आत्मा को भी
उन सारे खूबसूरत एहसासों
को, जिन्हें हमने सजाया था
हमारे घर और बगियों में
और देखा था एक छोटा-सा
सपना
जिसमें समा जाती है पूरी
की पूरी पृथ्वी
और...
अब यह पृथ्वी
पृथ्वी न होकर
बन गई है
परकीया...
बड़े-बड़े डॉक्टरों ने
रोग बताया लाइलाज़
कुछ ने नखरा
कुछ ने बताया हिस्टीरिया
सारी बिमारियों के नाम के
बावजूद भी
नहीं पहचान पाया कोई वैद्य
नब्ज़
क्यों मुझे चाँद के पलकों
पर आँसू लटके दिखाई देते हैं
क्यों सूरज की तपन भी
सह जाती हूँ शून्य होकर
क्यों बारिश के बाणों से
आग लग जाती है बदन में
क्यों ठंड
ठंड नहीं जगा पाती
तन मन में
क्यों सिंहरन उठती है धूप में
क्यों छाता लेकर खोलना
भूल जाती हूँ खड़ी दोपहर में
क्यों हाथ में चश्मा लेकर
ढ़ूँढ आती हूँ पूरे घर में
क्यों आँसूओं में डूबते हुए
भी खाना ठूँसती हूँ मुँह में
क्यों हो जाती हूँ अकेली
भरी सभा में
क्यों डसती हैं यादें
तन्हाई में
क्यों नंगे पैरों घूम आती हूँ
शहर में
क्यों पैरों में चूभे काँटों के
दर्द लगते हैं कम
क्यों हँसी के पर्दे में
लिखती हूँ तड़पते गीत
क्यों रात भर जाग-जाग कर
रटती रहती हूँ मीत मीत
क्यों जान होकर भी
हो गई हूँ बेजान
क्यों हर वक़्त रहता है
लबों पे उनका ही नाम
क्यों हर साँस में आती जाती है
उनके ही यादों की साँस
साँसों का क्या ?
अंदर आती हैं
प्राणवायु बनकर
और जाते समय
बन जाती हैं
मृत्युवायु
और अब तो
नीम बनकर
पीने लगी हूँ जीते-जी
मृत्युवायु...
क्यों बार-बार सिंदूर
लगाकर पोछ देती हूँ
कि शायद
सिंदूर लगाने से
तुम फिर से मेरे हो जाओ
या फिर पोछ देने से
टूट जाए ये रिस्ता
ताकि मुक्त हो सकूँ
तुम्हारी यादों से
पर...
ऐसा कुछ भी नहीं होता
होता है तो बस यही
कि तुमसे
जितना अलग होना
चाहती हूँ
न जाने कैसे तुम
उतना ही मुझसे
जुड़ते चले जाते हो
और...
तुम जीवन से जाकर भी
हृदय से नहीं जा पाते हो
क्या तुम्हें भी कभी
आती होगी हमारी याद
क्या याद किया होगा कभी
जागकर रात रात
वो वक्त
जो अब जमकर
थक्के बन चूके हैं...
या हमारे याद करने से
क्या आती हैं कभी
तुम्हें भी हिचकियाँ
तुम्हें हिचकियाँ आये
न आये
पर मैं ही याद करती हूँ और
मेरी ही आती हैं हिचकियाँ
शायद किसी याद के भ्रम में
सारी बिमारियों के नाम
के बावजूद भी
नहीं पहचान पाया
कोई वैद्य नब्ज़
जिसकी रगों में बहता है
उनके प्यार का नब्ज़
जिन्होंने अपनी नब्ज़
सौंप दी किसी और की
नब्ज़ को
तुमने सिर्फ मुझसे ही
रिस्ता नहीं तोडा
बल्कि तोड़ा है हमसे जूडे
हर रिस्ते को
मेरे तन को मेरे मन को
और मेरी आत्मा को भी
उन सारे खूबसूरत एहसासों
को, जिन्हें हमने सजाया था
हमारे घर और बगियों में
और देखा था एक छोटा-सा
सपना
जिसमें समा जाती है पूरी
की पूरी पृथ्वी
और...
अब यह पृथ्वी
पृथ्वी न होकर
बन गई है
परकीया...
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