साहित्य नंदिनी के अगस्त 2020 अंक में 'चर्चा के बहाने' स्तम्भ में प्रकाशित
https://www.abhinavimroz.page/2020/08/3-LceJOL.html
पुस्तक
– हसीनाबाद
लेखक
– गीताश्री
मूल्य
– 395/-
रू.
प्रकाशक
– वाणी प्रकाशन,
नई दिल्ली
राजनीति,
रेड लाइट और हसीनाबाद
“आसक्ति
प्रेम का विस्तार नहीं होती, बल्कि प्रेम को सीमित कर देती है”
यही
कारण है कि सभ्य समाज में बस जाती हैं हसीनाबाद जैसी अनेक बस्तियाँ । आश्चर्य
की बात ऐसी स्थिति में प्रेम मात्र स्त्री के लिए होता है और पुरूष के लिए सामंती
व्यवस्था में का एक सम्मान का प्रतीक और प्रेम की जगह आसक्ति अथवा खेलने के लिए एक
खिलौना । जिसका न तो कोई औचित्य है और न ही तर्क, सिवाय ऐय्याश मानसिकता की नुमाइशकरण
के अलावा ! ऐय्याश
मानसिकता घर और बाहर दोनों जगह अपनी राजसी ठाट-बाट की उपस्थिति दर्ज कराता है
लेकिन ऐय्याश मानसिकता की शिकार शिकारी जानवर उर्फ स्त्री पिंजरे में कैद होकर
असंख्य बेगुनाहों के खून चूसकर बनाये गए उस राजसी ठाट-बाट के मुंह से निकले थूक को
चाटती रह जाती है । किसी एक का खून थूक चाटने से बच कर निकलने की कोशिश करने वाली
महिलाएँ अनेकों का थूक चाटने के लिए पहुँचा दी जाती हैं रेड लाइट एरिया में ।
भारत में प्रमुख पाँच रेड लाइट एरिया शीर्ष स्थानों पर हैं - कोलकाता का
सोनागाची, दिल्ली का जी.बी. रोड़,
मध्यप्रदेश का रेशमपुरा (ग्वालियर), उत्तर-प्रदेश का कबाड़ी बाज़ार (मेरठ), मुंबई
का कामथीपुरा (मायानगरी) । इसके अतिरिक्त वाराणसी में दालमंडी, सहारनपुर में
नक्कास बाज़ार, मुजफ्फरपुर में छतरभुज स्थान तथा नागपुर में गंगा-जमुना आदि का नाम
भी प्रसिद्ध है । ये नाम सीधे-सीधे वेश्यावृत्ति से जुड़ा है लेकिन हसीनाबाद की
तरह गुमनाम बस्तियों का कहीं नाम भी नहीं आता । किंतु दुनियाँ की नज़र में मामूली
लगने वाली बस्तियों में न जाने कितनी ही
मासूमों (जिसमें से कुछ स्वेच्छा से, कुछ अनिच्छा से, कुछ अपहरित तो कुछ विवशतावश
शामिल हैं) की सिसकियाँ दब जाती हैं, घुटती रहती हैं और सदियों-सदियों तक तड़पती
रहती हैं । उनकी अस्मिता तो कोसो दूर होती ही है उनके साथ-साथ उनके बच्चों का
भविष्य भी अंधकारमय होता है, जिनकी कोई सुनवाई नहीं होती ।
लेखिका
गीताश्री ने अपने उपन्यास ‘हसीनाबाद’ में दो मुद्दों को केन्द्र में रखा है, पहला, हसीनाबाद जैसी बस्ती, जो
देश के नक्शे से बाहर है और दूसरा राजनीति में स्त्री, जो राजनीति के दिल से बाहर
है । गोलमी जैसी अनेक संवेदनशील महिलाएँ राजनीति की छद्मी कूटनीतिक चाल से अपने
आपको पीछे खींच लेती हैं । कभी कभी तो वर्षों-बरस तक पूरी तरह से देश के लिए
समर्पित रह कर कार्य करने वाली राजनीतिज्ञ महिला भी राजनैतिक षड़यंत्रों से खुद
बचाने के लिए व्यक्तिगत समस्याओं का बहाना बना अपना हाथ खींच लेती हैं अथवा खुद को
राजनीति से अलग कर लेती हैं । इसमें सुषमा स्वराज का नाम भी शामिल हो तो हैरानी की
बात नहीं होगी । वैसे महिलाएँ राजनीति के जिक्र से ही भागती हुई नज़र जाती हैं,
किंतु जिन्हें जगह मिली होती है वे भी कहाँ वर्चस्ववादी सत्ता की बैशाखी के बिना
चल पाती हैं ? यदि बैशाखी के बिना चलने की कोशिश भी करें तो
कहाँ आखिरी मंजिल तक पहुँच पाती हैं ? कदाचित राजनीति में
अपने परिवार की बलि देने वाली भूतपूर्व प्रधानमंत्री इन्द्रा गाँधी एक अपवाद हैं ।
अन्यथा 17वीं (2019-24) लोक सभा में 107 तथा राज्य सभा में 25 महिला सद्स्यों के
होने के बावजूद भी कोई महिला इन्द्रा गाँधी की भाँति अपनी जगह क्यों नहीं बना पा
रहीं ? राजनीति की संरचना और हसीनाबाद की संरचना में कहीं
कोई समानता तो नहीं ?
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