जान लो, पहचान लो
अटखेलियाँ खेलते बाल बादल से पूछो-
'किस गगन से आ रहे, कहाँ अब वास'.
बाढ़ की चपेट में धान की पुन्गियों से पूछो-
'कैसा लगता है पानी और उसका त्रास'.
बाढ़ गए धुप भरी महामारी से पूछो-
'पानी तो पी लिए अब कौन सी प्यास'.
कुटुंब बह गए ज़िंदा इंसान से पूछो-
'जीवित किसके लिए हो, अब किसकी आस'.
हाथ-पाँव मारते विमर्शियों जान लो, पहचान लो-
'क्षितिज पर लटका है अब भी सवाल'.
सोमवार, 28 जून 2010
शनिवार, 26 जून 2010
Aazaadi
आज़ादी
मैं दुनिया देखना चाहती थी
उन्होंने मेरे ऊपर जाल बिछा दी
तथा आँखों पर आदर्श की पट्टी बाँध दी
और कहा-
देखो... देखो... देखो !!!
मैंने अपने चोंच से जाल को छलनी कर दिया
और पंजों से पट्टी फाड़ दी
मैंने समझा मैं 'उन्मुक्त' हो गई
मै खुले गगन में उड़ना चाहती थी
उन्होंने मेरा पर क़तर दिया
और पिंजड़े से बाहर निकाल कर कहा-
उड़ो... उड़ो... उड़ो !!!
मैंने हौसले का पंख लगाया
पैरों से चलना सीखा
मैंने समझा मैं 'स्वछंद' हो गई.
मैं खुली हवा में चहचहाना चाहती थी
उन्होंने मेरी जिह्वा मरोड़ दी
और मंच पर लाकर कहा-
गाओ... गाओ... गाओ !!!
मैंने बेसुरी राग में अपना दर्द अलापा
और एकता के धुन में झूम उठी
मैंने समझा मैं 'मुक्त' हो गई.
मैं अपने पैरों से सफ़र करना चाहती थी
उन्होंने मुझे सहानुभूति की बैसाखियाँ थमा दी
और उपनिवेश की पगडंडी पर कहा
चलो... चलो... चलो !!!
मैंने सोचा
अब तो हर अंग घायल है
किस बात का डरना,
उन्होंने ही दिखाई थी
आदर्श नारी की प्रतिबिम्ब
उसे सच मान हम बाट जोहते रहे,
अब देखती हूँ
नफ़रत, घृणा, कटुता, प्रतिद्वंदिता
हम समझने लगे
अच्छाई-बुराई में फर्क.
उन्हीं से सीखा था वेद-पुराण
और नितिवचनों की उक्तियाँ, और
उन्हीं से सीखा हिंसक प्रविती,
उन्हीं से समझा था सुविचार
उन्हीं से आया कुविचार.
फिर भी-
उनको देखा आज़ाद घुमते हुए
स्वयं को देखा बेड़ियों में जकडे हुए,
इसके बावजूद भी-
उनको देखा मनुष्यता से गिरते हुए !
और अपना वजूद मिटते हुए !!
अब बचा क्या है बचाने के लिए
वक़्त आ गया आज़ाद होने के लिए,
हम लक्ष्य की ओर टूट पड़े
हमने समझा हम 'आज़ाद' हो गए.
पर समझाने से आज़ादी मिलती नहीं
अभी हम पूर्णतः आज़ाद नहीं,
आज़ादी की ओर अग्रसर हैं.
शुक्रवार, 25 जून 2010
Bhuchaal
भूचाल
एक भूचाल के बाद कई भूचाल आते हैं.
कहर से निकला, हृदय विदीर्ण
पलकें खुलीं, अपलक रह गईं
अपना है कोई तो, है तन्हाई
लगा घन-शावक को तीर
वेदना की बरसात हुई,
तभी उस बच्चे के मन में भूचाल आता है.
ज़र-ज़र ज़रा, क्षीण रोशनी
आँचल पसारे, दुवा मांगती
उंगलिया पकड़कर चलाया जिसे
उस अंधी की लकड़ी को लौटा दे
फिर कंचन से खली हाथ लौटे
तब उस वृद्धावस्था के मन में भूचाल आता है.
भूख से तड़पता सुखी छाती पकड़कर
रोता रहे बीमार बेसुध होकर
एक रोटी जिस उदार में जाए
अतृप्त, अशांत ही रह जाए
निर्धनता बेंधती हर क्षण हीर,
तब उस माँ-बाप के मन में भूचाल आता है.
तारों में अपने चाँद को ढूंढने लगे
मधुर मिलन, प्रेमालिंगन हर पल सताने लगे
बेकरार दर्द को, वही हमदर्द कहाँ से लाये
आग सुलगती रहे, धुँआ नज़र ना आये
विरह छलनी कर दे, दर्द नासूर बन जाए,
तभी दो दिलों के दिल में भूचाल आता है.
व्याध से भयभीत, व्याधि से पीड़ित
कर रहा हो कोई करुण पुकार
वक़्त फिसल जाए, उपाय हो निरुपाय
सुन सकूँ ना समय चीत्कार, तोड़ी उम्मीद
मैंने किसी की या तोड़ी मेरी किसी ने,
तब मेरे भी दिल में भूचाल आता है.
एक भूचाल के बाद कई भूचाल आते हैं.
कहर से निकला, हृदय विदीर्ण
पलकें खुलीं, अपलक रह गईं
अपना है कोई तो, है तन्हाई
लगा घन-शावक को तीर
वेदना की बरसात हुई,
तभी उस बच्चे के मन में भूचाल आता है.
ज़र-ज़र ज़रा, क्षीण रोशनी
आँचल पसारे, दुवा मांगती
उंगलिया पकड़कर चलाया जिसे
उस अंधी की लकड़ी को लौटा दे
फिर कंचन से खली हाथ लौटे
तब उस वृद्धावस्था के मन में भूचाल आता है.
भूख से तड़पता सुखी छाती पकड़कर
रोता रहे बीमार बेसुध होकर
एक रोटी जिस उदार में जाए
अतृप्त, अशांत ही रह जाए
निर्धनता बेंधती हर क्षण हीर,
तब उस माँ-बाप के मन में भूचाल आता है.
तारों में अपने चाँद को ढूंढने लगे
मधुर मिलन, प्रेमालिंगन हर पल सताने लगे
बेकरार दर्द को, वही हमदर्द कहाँ से लाये
आग सुलगती रहे, धुँआ नज़र ना आये
विरह छलनी कर दे, दर्द नासूर बन जाए,
तभी दो दिलों के दिल में भूचाल आता है.
व्याध से भयभीत, व्याधि से पीड़ित
कर रहा हो कोई करुण पुकार
वक़्त फिसल जाए, उपाय हो निरुपाय
सुन सकूँ ना समय चीत्कार, तोड़ी उम्मीद
मैंने किसी की या तोड़ी मेरी किसी ने,
तब मेरे भी दिल में भूचाल आता है.
गुरुवार, 24 जून 2010
Antar
अंतर
वो वक़्त बीत गया
जब एक पत्नी
अपने पति को पत्र में लिखा करती थी-
हे मेरे प्राण आधार,
.................................
........................................
आपके चरणों की दासी.
मैं भी नहीं लिखना चाहती-
हे मेरे चरणों के दास,
....................................
.............................................
आपके के प्राणों की प्यासी.
क्योंकि यदि मैंने लिख दिया
ये बात
तो तुममे मुझमे अंतर क्या रह जाएगा.
वो वक़्त बीत गया
जब एक पत्नी
अपने पति को पत्र में लिखा करती थी-
हे मेरे प्राण आधार,
.................................
........................................
आपके चरणों की दासी.
मैं भी नहीं लिखना चाहती-
हे मेरे चरणों के दास,
....................................
.............................................
आपके के प्राणों की प्यासी.
क्योंकि यदि मैंने लिख दिया
ये बात
तो तुममे मुझमे अंतर क्या रह जाएगा.
Jindagi Ka Sach
ज़िन्दगी का सच
भावों के भंवरजाल में फंसते चले गए,
अपने ही जज्बात में उलझते चले गए.
अंधेरों में उजाले का राज जानना चाहा
इंसान की इंसानियत को पहचानना चाहा,
अँधेरे में दीपक को हम खोते चले गए
और रोशनी के दाग को झेलते चले गए.
नगरों का खिला चेहरा हमने देखना चाहा
सुख-प्यार के कारवां में हमने बहना चाहा,
आंसुओं से घाव को हम धोते चले गए
ग़मों के दरिया में बहते चले गए.
समय का चक्र अपनी धुन में घूमता रहा
रिश्तों को अपनी पाट में पीसता रहा,
हम वक़्त के थपेड़ों को सहते चले गए
काल को नियति मान जीते चले गए.
सपनों को रंगी जाल इंसा बुनता रहा
इक आस लिए जिंदगी भर डोलता रहा,
चंद ठोकरों से सपने यूं टूटते चले गए
हम अपने बिने जाल में फंसते चले गए.
भावों के भंवरजाल में फंसते चले गए,
अपने ही जज्बात में उलझते चले गए.
भावों के भंवरजाल में फंसते चले गए,
अपने ही जज्बात में उलझते चले गए.
अंधेरों में उजाले का राज जानना चाहा
इंसान की इंसानियत को पहचानना चाहा,
अँधेरे में दीपक को हम खोते चले गए
और रोशनी के दाग को झेलते चले गए.
नगरों का खिला चेहरा हमने देखना चाहा
सुख-प्यार के कारवां में हमने बहना चाहा,
आंसुओं से घाव को हम धोते चले गए
ग़मों के दरिया में बहते चले गए.
समय का चक्र अपनी धुन में घूमता रहा
रिश्तों को अपनी पाट में पीसता रहा,
हम वक़्त के थपेड़ों को सहते चले गए
काल को नियति मान जीते चले गए.
सपनों को रंगी जाल इंसा बुनता रहा
इक आस लिए जिंदगी भर डोलता रहा,
चंद ठोकरों से सपने यूं टूटते चले गए
हम अपने बिने जाल में फंसते चले गए.
भावों के भंवरजाल में फंसते चले गए,
अपने ही जज्बात में उलझते चले गए.
मंगलवार, 22 जून 2010
Talaash
तलाश
मैं हर क्षण को इस तरह देखती हूँ
जैसे बस में सफ़र
करते समय
आँखें देखती हैं सीट पर बैठे हुए लोगों को.
लोग हमें इस तरह देखते हैं
देखते हैं जैसे
फटे चीथड़ों में नंगे रुपयों को.
मेरे विषय में चर्चाएँ होती है ऐसे
जैसे चर्चा हो रही हो
गुनाहगारों की.
मेरे प्यार की खबर फैलती है ऐसे
घने अन्धकार में
कोई चीज़ टटोल रही हूँ जैसे.
मैं हर क्षण को इस तरह देखती हूँ
जैसे बस में सफ़र
करते समय
आँखें देखती हैं सीट पर बैठे हुए लोगों को.
लोग हमें इस तरह देखते हैं
देखते हैं जैसे
फटे चीथड़ों में नंगे रुपयों को.
मेरे विषय में चर्चाएँ होती है ऐसे
जैसे चर्चा हो रही हो
गुनाहगारों की.
मेरे प्यार की खबर फैलती है ऐसे
घने अन्धकार में
कोई चीज़ टटोल रही हूँ जैसे.
Main Mukta Hoon
मैं मुक्त हूँ
मैं अब खुली किताब नहीं
एक बंद निधि हूँ.
जिसे न तुम पढ़ सकते हो, और
न ही खर्च कर सकते हो,
जिसे न तुम सहेज सकते हो
और न ही फेंक सकते हो.
वो वक्त बीत चुका,
जब तुम
मुझे पढने के बाद
रद्दी की टोकरी में फेंक देते थे;
अब तुम पढ़ ही नहीं सकते
तो फेंकोगे कहाँ से?
में एक अर्थवान कलमा हूँ
जो अर्थ से परे
छंदबद्धता, अलंकारों से मुक्त
इतिहास के पन्नों पर
स्वर्ण अक्षरों से लिखी
अर्थामृत हूँ.
मैं अब खुली किताब नहीं
एक बंद निधि हूँ.
जिसे न तुम पढ़ सकते हो, और
न ही खर्च कर सकते हो,
जिसे न तुम सहेज सकते हो
और न ही फेंक सकते हो.
वो वक्त बीत चुका,
जब तुम
मुझे पढने के बाद
रद्दी की टोकरी में फेंक देते थे;
अब तुम पढ़ ही नहीं सकते
तो फेंकोगे कहाँ से?
में एक अर्थवान कलमा हूँ
जो अर्थ से परे
छंदबद्धता, अलंकारों से मुक्त
इतिहास के पन्नों पर
स्वर्ण अक्षरों से लिखी
अर्थामृत हूँ.
सोमवार, 21 जून 2010
Meri Nazar se
मेरी नज़र से
दिल में यादें तेरी, नयन शबनमी
मैं श्रद्धा-सुमन अर्पित करती रहूंगी;
प्रीत कि रीत है जाँ से प्यारी सनम
मैं इसे तोड़कर जी ना सकुंगी.
बिन बताये तेरी दुल्हन बन बैठी मैं
श्रृंगार कराती रही अंतर्मन में मैं;
लबों पर तेरा नाम लाती सनम
नाम बदनाम तेरा मैं कर न सकुंगी.
चाहने वाले तुझको बहुत हैं यहाँ
दिल दरिया में बहने को फुरसत कहाँ;
तुम आओ न आओ मेरे गली
मैं पलक-पांवड़े बिछाए रहूंगी.
आइना धुंधला हो जाये जो दिल का मेरे
मैं तेरे प्यार को फीका पड़ने न दूंगी;
तू बरसे न बरसे मेरे सनम
मैं चातक आस लगाए रहूंगी.
मैं वो परवाना नहीं जो जल जाउंगी
तेरी रौशनी से चमकती हूँ मैं;
तारों में चमकते रहना सनम
मैं दिल का दीप जलाए रहूंगी.
धड़कने चुप हो जाए जो पल भर के लिए
मैं तन्हाँ तुमसे मिल तो सकुंगी;
यह धड़के ना धडके मेरे सनम
इश्क में कोई बाधा मैं आने ना दूंगी.
वो खुशबू है तू इस फूल की
मुरझा के भी तुझको उड़ने ना दूंगी;
है अगर दम तो पढ़ले मुझको सनम
दिल चीर के तुझको दिखा ना सकुंगी.
चाँद-तारे, बहारें समेटूं दामन में
भेंट कर दू चाहत को चाहती हूँ यही;
तुम इतने महान हो मेरे प्रीतम
मैं मीरा बनके तुझमे समा ना सकुंगी.
वो प्यार नहीं जिसमे जलन हो, खफ़ा हो
मैं चन्दन लेप लगाती रहूंगी;
मैं कलयुग की राधा हूँ मेरे कन्हैया
मैं तुझपे हक़ जता ना सकुंगी.
मर मिटुगी मैं तुझको दिल में बसाके
एहसास तुझे मैं होने ना दूंगी;
प्रेम करती रहूँ तुझसे जन्मों-जनम
मोक्ष की चाह कभी मैं कर ना सकुंगी.
दिल में यादें तेरी, नयन शबनमी
मैं श्रद्धा-सुमन अर्पित करती रहूंगी;
प्रीत कि रीत है जाँ से प्यारी सनम
मैं इसे तोड़कर जी ना सकुंगी.
बिन बताये तेरी दुल्हन बन बैठी मैं
श्रृंगार कराती रही अंतर्मन में मैं;
लबों पर तेरा नाम लाती सनम
नाम बदनाम तेरा मैं कर न सकुंगी.
चाहने वाले तुझको बहुत हैं यहाँ
दिल दरिया में बहने को फुरसत कहाँ;
तुम आओ न आओ मेरे गली
मैं पलक-पांवड़े बिछाए रहूंगी.
आइना धुंधला हो जाये जो दिल का मेरे
मैं तेरे प्यार को फीका पड़ने न दूंगी;
तू बरसे न बरसे मेरे सनम
मैं चातक आस लगाए रहूंगी.
मैं वो परवाना नहीं जो जल जाउंगी
तेरी रौशनी से चमकती हूँ मैं;
तारों में चमकते रहना सनम
मैं दिल का दीप जलाए रहूंगी.
धड़कने चुप हो जाए जो पल भर के लिए
मैं तन्हाँ तुमसे मिल तो सकुंगी;
यह धड़के ना धडके मेरे सनम
इश्क में कोई बाधा मैं आने ना दूंगी.
वो खुशबू है तू इस फूल की
मुरझा के भी तुझको उड़ने ना दूंगी;
है अगर दम तो पढ़ले मुझको सनम
दिल चीर के तुझको दिखा ना सकुंगी.
चाँद-तारे, बहारें समेटूं दामन में
भेंट कर दू चाहत को चाहती हूँ यही;
तुम इतने महान हो मेरे प्रीतम
मैं मीरा बनके तुझमे समा ना सकुंगी.
वो प्यार नहीं जिसमे जलन हो, खफ़ा हो
मैं चन्दन लेप लगाती रहूंगी;
मैं कलयुग की राधा हूँ मेरे कन्हैया
मैं तुझपे हक़ जता ना सकुंगी.
मर मिटुगी मैं तुझको दिल में बसाके
एहसास तुझे मैं होने ना दूंगी;
प्रेम करती रहूँ तुझसे जन्मों-जनम
मोक्ष की चाह कभी मैं कर ना सकुंगी.
रविवार, 20 जून 2010
Bhukh
भूख
एक बुढ़ा, बेबस, लाचार
हाथ फैलाए घूमता रहा
बाट, घर, बाज़ार,
मागने जाता आस लिए
लौटता निराशा हाथ लिए,
वह सांस ले रहा था
इसी बात का
उसे दुःख था
मुंह का लार
गम बन चुका था
एक-एक घूंट
पानी डालकर सींचता था,
खानाबदोशों को देखता
होटलों में खाते हुए,
एक-टूक निहारता, आह!
ये भूख बड़ी कष्ट देती है.
चल पडा कूड़ेदान की तरफ
जैसे बढे भक्त भगवान की तरफ
वहां लगी थी बाराह की भीड़
सब एक-दुसरे से झपट रहे थे,
उनमे भी वह अकेला वहां बैठा
पड़ी थीं ढेर साड़ी प्लास्टिक की थैलियाँ
मन में एक आशा जगी
कुछ पाने की चाह जगी
थैलियों को जल्दी-जल्दी
खोलना शुरू किया
कुछेक थैलियों में
दो-एक दाने मिलें
जैसे कंचन-थाल मिला
उन दानों को हाथ में उठाया
आँखों में पानी, दिल में उच्छ्वास
फिर भी मुस्कराया
उन दानों को मुंह में डाल
शान्ति का अनुभव किया
परन्तु दो-एक दानों से भूख
मिटी नहीं, और भी भड़क उठी
वह प्लास्टिक की थैलियों को
चाटना शुरू किया
उसमे अब दाना नहीं
सब्जियों का रस लगा हुआ था.
उसी वक्ता वहां से गुजरीं दो माताएं
देखकर एक बोली-
जैसा कर्म वैसा फल
दूसरी ने कहा-
अपना-अपना नसीब है
दो भाई साहब गुजरें, हंसते हुए
बोल पड़े- बेचारा, पागल है, वरना
यहाँ सूअरों के साथ जूठा खाता.
मैं पूछती हूँ भाइयों, दोस्तों
इसमे किसका दोष है,
क्या ये किस्मत का करामात है.
या उसके बच्चों का, जिसने
भीख माँगने के लिए मजबूर कर दिया,
या उन भिखारियों का, जो
भीख मांगकर अपने दलाल मालिकों का
घर भरते हैं,
या इस प्रशासन का, जो
हर दिन
"भुखमरी और गरीबी मिटाओ"
का नारा लगाती है, तथा
दुसरे ही क्षण भूल जाती है,
या उन दलालों का, जो
प्रशासन से
पैसे लेते हैं, और
गरीबों, भिखारियों तक
पहुचाने से पहले ही
अपना ही पेट भर लेते हैं.
कल तक जो भिखारी था
वो, अब पागलों में
गिना जाने लगा
भिखारी ही भिखारी को इतना
बदनाम कर दिया कि
भीख देने से भी जनता डरती है,
प्रशासन और दलालों की
बात ही छोडो, वादे
आज-कल निभाता ही कौन है?
अपने जुबान का
पक्का कौन है?
एक बुढ़ा, बेबस, लाचार
हाथ फैलाए घूमता रहा
बाट, घर, बाज़ार,
मागने जाता आस लिए
लौटता निराशा हाथ लिए,
वह सांस ले रहा था
इसी बात का
उसे दुःख था
मुंह का लार
गम बन चुका था
एक-एक घूंट
पानी डालकर सींचता था,
खानाबदोशों को देखता
होटलों में खाते हुए,
एक-टूक निहारता, आह!
ये भूख बड़ी कष्ट देती है.
चल पडा कूड़ेदान की तरफ
जैसे बढे भक्त भगवान की तरफ
वहां लगी थी बाराह की भीड़
सब एक-दुसरे से झपट रहे थे,
उनमे भी वह अकेला वहां बैठा
पड़ी थीं ढेर साड़ी प्लास्टिक की थैलियाँ
मन में एक आशा जगी
कुछ पाने की चाह जगी
थैलियों को जल्दी-जल्दी
खोलना शुरू किया
कुछेक थैलियों में
दो-एक दाने मिलें
जैसे कंचन-थाल मिला
उन दानों को हाथ में उठाया
आँखों में पानी, दिल में उच्छ्वास
फिर भी मुस्कराया
उन दानों को मुंह में डाल
शान्ति का अनुभव किया
परन्तु दो-एक दानों से भूख
मिटी नहीं, और भी भड़क उठी
वह प्लास्टिक की थैलियों को
चाटना शुरू किया
उसमे अब दाना नहीं
सब्जियों का रस लगा हुआ था.
उसी वक्ता वहां से गुजरीं दो माताएं
देखकर एक बोली-
जैसा कर्म वैसा फल
दूसरी ने कहा-
अपना-अपना नसीब है
दो भाई साहब गुजरें, हंसते हुए
बोल पड़े- बेचारा, पागल है, वरना
यहाँ सूअरों के साथ जूठा खाता.
मैं पूछती हूँ भाइयों, दोस्तों
इसमे किसका दोष है,
क्या ये किस्मत का करामात है.
या उसके बच्चों का, जिसने
भीख माँगने के लिए मजबूर कर दिया,
या उन भिखारियों का, जो
भीख मांगकर अपने दलाल मालिकों का
घर भरते हैं,
या इस प्रशासन का, जो
हर दिन
"भुखमरी और गरीबी मिटाओ"
का नारा लगाती है, तथा
दुसरे ही क्षण भूल जाती है,
या उन दलालों का, जो
प्रशासन से
पैसे लेते हैं, और
गरीबों, भिखारियों तक
पहुचाने से पहले ही
अपना ही पेट भर लेते हैं.
कल तक जो भिखारी था
वो, अब पागलों में
गिना जाने लगा
भिखारी ही भिखारी को इतना
बदनाम कर दिया कि
भीख देने से भी जनता डरती है,
प्रशासन और दलालों की
बात ही छोडो, वादे
आज-कल निभाता ही कौन है?
अपने जुबान का
पक्का कौन है?
Path
पथ
मैं चलूंगी दूर तलक अकेली
परन्तु, अपने पैरों से
घूंघट हटा, सीना ताने, सर उठाये
मैं रास्ता खुद ही परखुंगी
बैसाखियों से तंग आ चुकी हूँ.
क्या मैं इतनी कमजोर हूँ
की अपना रास्ता
स्वयं नहीं तय कर सकती?
मैं खुले कानों से सब सुनूंगी
फिर विचार करुँगी, और तब
उचित रास्ते पर ही
कदम बढ़ौंगी.
क्योकि मेरा रास्ता घर की चौखट
तक ही नहीं,
मेरा रास्ता है
व्यापक संसार और मानवता का पथ.
मैं चलूंगी दूर तलक अकेली
परन्तु, अपने पैरों से
घूंघट हटा, सीना ताने, सर उठाये
मैं रास्ता खुद ही परखुंगी
बैसाखियों से तंग आ चुकी हूँ.
क्या मैं इतनी कमजोर हूँ
की अपना रास्ता
स्वयं नहीं तय कर सकती?
मैं खुले कानों से सब सुनूंगी
फिर विचार करुँगी, और तब
उचित रास्ते पर ही
कदम बढ़ौंगी.
क्योकि मेरा रास्ता घर की चौखट
तक ही नहीं,
मेरा रास्ता है
व्यापक संसार और मानवता का पथ.
शनिवार, 19 जून 2010
Mahaadevi Varmaa Ke Kavya Mein Vednaa Kaa Manovishleshan
पुस्तक- महादेवी वर्मा के काव्य में वेदना का मनोविश्लेषण
लेखिका- रेनू यादव
संस्करण- प्रथम, २०१०
मूल्य- २५० रूपये
प्रकाशक- अन्नपूर्णा प्रकाशन
१२७/११०० w १, साकेत नगर,
कानपुर- 208014.
हे रहस्यमयी करुणामयी तपस्विनी
वेदना से जन्मी और वेदना में ही मिटी.
हृदय तंत्रियाँ थक जातीं
पथ निहार-निहार,
तम के पर्दों में गुंथे
रश्मियों से हार;
अनंत पीड़ा का किया वरण
तू शलभ है चातकी.
नयन के नीर में
प्रेम की नीरजा खिले,
सांध्य कि गीत में
बरस गए अश्रुधार;
तू दुःख की बदली नहीं
है अमर प्रणयिनी.
वेदना से कर श्रृंगार
निस्सीम तरी दीप जला,
चिर नूतन अग्निपथ पर
हो सहस्रार से एकाकार;
वेदना की चरम से है ढली
अब परम आनंदमयी.
हे रहस्यमयी, करुणामयी, तपस्विनी
वेदना से जन्मी और वेदना ही में मिटी.
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