सोमवार, 12 जुलाई 2010

Tujhe Pranaam

           तुझे प्रणाम

जब भी मै देखती हूँ
    बड़ी-बड़ी इमारतें, ऊँचें-ऊँचे महल
         और विस्तृत घर;
तब मेरा मन हर्षित हो
    सपनों का पंख लगा
    पूरी दुनियाँ में
         विचरण करने लगता है.
फुदक-फुदक कर
    इस घर से उस घर
    इस महल से उस इमारत तक
         का, जायजा लेने लगता है.
कि कौन सा भवन
    सबसे ज्यादा अच्छा है
    सुन्दर, साफ़ औ'
         अद्भुत कलाकृतियों से परिपूर्ण है.
जो सबमें सर्वोपरि है
    उससे भी सुन्दर
    एक घर
         मैं बनवाउंगी.

उस घर की रूप-रेखा
    मेरे मन में उमड़ने-घुमड़ने लगती है
    हर कलाकृति संचारियों-सी
         आ-आकर लुप्त हो जाती है.
तब मेरे मन की आवृतियाँ  
   अनवरत घुमड़ने के बाद
         खुलने लगती है परत-दर-परत.

किसने बनाई होंगी ये इमारतें
    किसने रखी होगी पहली नींव
    किसके हाथ और कंधे लौह-सा
         प्रतिक्षण कर्मरत हुए होंगे??
अनुमान भी नहीं लगा सकते
    हम उसका, और उसके
    हाथों की
         अद्भुत विशेषताओं की.
क्योंकि घर को
    घरवाले के नाम से जाना जाता है
    और मजदूरों की मेहनत
         मेहनताना में चली जाती है.

जिनके हाथ  फौलादी बन
    नितकर्मरत रहते हैं
सर स्वयं बज्र बन
    ईंट, गिट्टी, सीमेंट ढ़ोते हैं,
जिनके जीभ यंत्रवत
    एक-दूजे को पुकारा करते हैं
उनमें स्वयं एकता रहे ना रहे
    एक-एक ईंट से
         इमारत बनाया करते हैं.

जिनके बच्चे दिन में
    सबसे ऊँची छत पर
         चढ़कर हर्षित होते है
वही रात में नीचे
    छोटी-सी जगह में सोते हैं.
दिन-रात गालियाँ सुनते-सुनते
    सपनों में भी गाली बकते हैं
आशान्वित हो हर सुबह-शाम
    अपनों से पूछा करते हैं;
कब बन जाएगा ये घर मेरा
    जिसे आप बनाया करते हैं ?
मायूसी औ' निराशा को छुपा
    वे हंसकर चुप हो जाते हैं,
उत्तर क्या दें और क्या कहें
दो गज जमीं मिली है जो अभी
   वो भी
         कल रहे या ना रहे.

जब मालिक से किसी कुमारी का
    छुपते-छुपाते नैन लड़ जाते हैं
तब घर-वर का सपना
    पूरा हो ना हो
    किसी मजदूर से ब्याह रच जाते हैं.
मालिक का सीमेंट औ' सामान 
   अपनी झोपड़ी में रख
   नव-दम्पति बाहर सो जाते हैं.

ऊँचे महलों को छोड़ 
    वे सड़क पर खाना खाते हैं 
गर्मी की तपन, जाड़े की ठिठुरन
    बरसात के थपेड़े दृढ़ता से सहते हैं;
सबकी गालियाँ सुनकर भी 
    हमेशा हंसते रहते हैं.

पैसों का मालिक होता कोई और 
    वे नमक-रोटी पर गुजारा जरते हैं 
जो ईमान से सबका घर बनातें
    लोग उन्हें ही बेईमान कहा करते हैं
सुख चैन से सोती जब दुनियाँ
    वे आहें भरा करते हैं.

सबकी दृष्टि में हैं जो आम
    उनका मात्र कर्म ही
है दुनियाँ, घर, सामान
    अपनी विशालता, दृढ़ता औ' अस्मिता
से हैं वे बहुत महान
ऐ कलाकार ! ऐ सहनशक्ति !
ऐ बज्र देह ! तुझे प्रणाम,
       तुझे प्रणाम...

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें