ऐ मानव !
ऐ मानव !
मंदिर से मस्ज़िद
गुरुद्वारा से गिरजाघर
मत दौड़,
आस्था रख ईश्वर में,
परन्तु विश्वास कर
अपने कर्म में,
हस्तरेखाओं से भाग्य नहीं बदलता
भाग्य बदलता है चिंतन और कर्म से.
ऐ मानव !
दुनियाँ बदलने की ठानी है तुमने,
स्वयं को तुमने बदला कितना है ?
पाने की तुमने गिनती कर रखी,
दुनियाँ को तुमने दिया कितना है ?
गिरा रहे हो किसे किस-किसकी नज़रों में,
गिरते हुए को उठाया कितना है ?
ऐ मानव !
अपने आतंक से डराया सभी को,
तू स्वयं किसी से डरे तो नहीं ?
बदले की भाव से गुजर रहे हो सदा,
तू स्वयं किसी से आहत तो नहीं ?
बन गए क्रूर, निर्दई, हत्यारे
जीवनपथ का यही आख़िरी रास्ता तो नहीं.
ऐ मानव !
दर्पण में नहीं तू खुद में झाँक
सच्चाई नज़र आ जायेगी.
दूसरों को नहीं तू खुद को टटोल
अपूर्णता पूर्ण हो जायेगी.
मानवीय प्रेम में तू श्रद्धा रख
मानवीयता स्वतः स्थापित हो जायेगी.
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