रविवार, 18 जुलाई 2010

Paramparaaon Ki Guhaar

           परम्पराओं की गुहार

परम्पराओं के चेहरों पर झुलती झुर्रियाँ  
व्यथित हैं की वे बांध न सकीं अपने यौवनावस्था को,
लिजलिजी हो वे गुहार लगाती रहीं
       नई पीढ़ी के सामने-
"मुझे मुक्त करो, मुझे मुक्त करो".
"जीते जी अपमान सहना  मुश्किल है,
       इसलिए कम से कम मरते-मरते
दधिची हांड का दे जाए अस्त्र-शस्त्र,
     उसे आदर्श और कल्याण के लिए प्रयोग करना
                         और
     खोखले दकियानूसी राक्षसों का संहार,
जिससे मानवीयता हो गई त्रस्त, अस्त-व्यस्त,
जिससे भारत के इतिहास में लग गया दाग,
       स्त्रियाँ हुईं निर्वस्त्र,
तुम लोग लेकर चलना सदा शाश्वत सत्य".

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