सरोगेट मदर
ब्रह्मचारी हनुमान ने
लाँघा जड़-जंगल, पर्वत-पहाड़
नदियाँ और समुद्र...
न जाने कब गिर गया
तन का एक बूँद
गर्भवती हो गई मत्स्य
पुत्र माता का ही रहा…
नियोग से जन्मे पांडव
कुन्ती के कहलाए
और होकर रह गए माँ के…
देवकी के गर्भ से लुप्त
बलराम रोहिणी के गर्भ
में समा गए
और रोहिणी के हो गए
लेकिन...
लेकिन तुम
क्या मेरे हो…?
मेरे हो
और नहीं भी...
जब किया था फैसला
तुम्हें अपनी गहरी गुफा में
शरण देने का...
तब नहीं पता था
तुम मेरे गुफा के अंग
बन जाओगे
और धड़कोगे
मेरी धड़कने बन...
हमने सोचा था
इस अंधेरी गहरी
गुफा में तुम
जैसे तैसे
समय काटोगे
और चल दोगे
मेहमानो की तरह
बिना पीछे मुड़े...
पर हाय
मैं...
मैं मेज़बान
गलत निकली
अपने मेहमान से ही
दिल लगा बैठी
तुम्हारा बीजारोपण
सहर्ष स्वीकारा मैंने
किसी परखनली से आकर
गिरे मेरे काँच के घड़े में
हँसी थी मैं
बूँद ही तो हो
क्या औकात की डिगा दे
मुझे मेरे लक्ष्य से
पर
इतना जरूर जानती थी
कि तुम सिर्फ जिम्मेदारी ही नहीं
किसी की अमानत भी हो...
बीज से जब तुम अंकूर बनने लगे
मैंने महसूस किया सींचे गये
उगते अंकूरित खेतों की
गंध को
सोंधी हो गयी थी मैं...
तुम्हारी सुगंध इतनी
चढ़ गई
कि दुनिया का कोई सुगंध
रास न आया
उबकाई, जम्हाई, महकाई, महमहाई
के बीच
न जाने कब तुमसे जुड़ने लगी
बोहनी का खेत बन गया गर्भ
कहीं सूख न जाए
खाद डालती थी
कहीं दरक न जाए
पानी से सींचती थी
कहीं गीली न हो जाए
पानी बंद करती थी
कहीं धूप न लग जाए
छाँव देती थी
कहीं ठंड न लग जाए
सेंकती थी
कहीं कोई रोग न लग जाए
दवा छिड़कती थी
खयालों के ख़याल में
मैं नादान....
भूल बैठी
कि खेत तो अपनी है
पर बीज बान्हे का है.
कैसी विडम्बना है
घर में
आये थे तुम
पराए बनकर
रहने लगे मेहमान बनकर
साथ जुड़े प्रेमी बनकर
जाओगे मेरे अपने बनकर
पता है तुम्हें
एक सूई भी अपनी देते हुए
दिल दुखता है
कि पता नहीं
वापस आयेगा कि नहीं
फिर तुम तो मेरे जीवन
का हिस्सा बन गए हो...
जब पहली बार लात मारी
थी तुमने मेरे अंदर
उठा लिया था पूरा आकाश
मैंने सर पर
कोई है मेरे अंदर
जो बाहर की ओर झांकना
चाहता है
तुम मेरे अंदर होते
और बाहर भी
मेरे खाने पर तुम खाते
मेरे सोने से सोते
मेरे नाचने से नाचते
और बतियाने से बतियाते
फिर कैसे हो गए मुझसे अलग
तुम जिन्स किसी और के जरूर हो
पर क्रिया-कलाप,
भाव भंगिमा तो मेरे हो
कुछ तो मिलेगा मुझसे
क्योंकि...
कहते हैं गर्भवती महिलाओं के अंदर
बड़ी शक्ति होती है
वह जैसी होगी
बच्चा वैसा ही होगा
इसलिए तो सलाह
देते हैं डॉक्टर
भला देखो, भला सुनो, भला बोलो
भला खाओ
और बच्चे को दुलराओ...
देखा नहीं था अभिमन्यु को
सुभद्रा की कोख में ही
जान लिया था चक्रव्यूह का भेद
क्या तुम भी जान पाओगे
कभी तुम्हारे चक्रव्यूह को
मुझे गर्व है
तुम बनोगे अपनी
माँ-बाप की तरह
लेकिन सिखोगे वही
जो इस समय
मैं तुम्हें सिखाऊँगी
रोहिणी की तरह...
कुछ नहीं लगोगे मेरे
पर कुछ तो रहोगे मेरे
हाय !
मैं न देवकी बन सकी
न ही यशोदा
क्या कहूँ कि तुम मेरे कौन हो
दुनिया के ताने सुनकर भी
जगह दी तुम्हें
अपने जीवन में...
काश ! तुम विभिषण की तरह
उबटन से बने होते
तो इतना तकलीफ न होता
तुम्हें महसूस किया
अपनी जान बनाकर
तुम्हें चाहा अपनी
शान बनाकर
अब अलग कर रही हूँ
किसी और की पहचान बनाकर
क्या पता कल को तुम
मेरे सामने आओ न आओ
आओ भी तो किस रूप में आओ
बस आखिरी बार चूम लेने दो
मुझे जी भरकर देख लेने दो
मुझे प्यार करने दो
मेरे अजस्र प्रवाहित धारा को पी लो
एक बार मुझे माँ कह दो
बस एक बार मुझे माँ कह दो
कम से कम... एक बार मुझे माँ...
ब्रह्मचारी हनुमान ने
लाँघा जड़-जंगल, पर्वत-पहाड़
नदियाँ और समुद्र...
न जाने कब गिर गया
तन का एक बूँद
गर्भवती हो गई मत्स्य
पुत्र माता का ही रहा…
नियोग से जन्मे पांडव
कुन्ती के कहलाए
और होकर रह गए माँ के…
देवकी के गर्भ से लुप्त
बलराम रोहिणी के गर्भ
में समा गए
और रोहिणी के हो गए
लेकिन...
लेकिन तुम
क्या मेरे हो…?
मेरे हो
और नहीं भी...
जब किया था फैसला
तुम्हें अपनी गहरी गुफा में
शरण देने का...
तब नहीं पता था
तुम मेरे गुफा के अंग
बन जाओगे
और धड़कोगे
मेरी धड़कने बन...
हमने सोचा था
इस अंधेरी गहरी
गुफा में तुम
जैसे तैसे
समय काटोगे
और चल दोगे
मेहमानो की तरह
बिना पीछे मुड़े...
पर हाय
मैं...
मैं मेज़बान
गलत निकली
अपने मेहमान से ही
दिल लगा बैठी
तुम्हारा बीजारोपण
सहर्ष स्वीकारा मैंने
किसी परखनली से आकर
गिरे मेरे काँच के घड़े में
हँसी थी मैं
बूँद ही तो हो
क्या औकात की डिगा दे
मुझे मेरे लक्ष्य से
पर
इतना जरूर जानती थी
कि तुम सिर्फ जिम्मेदारी ही नहीं
किसी की अमानत भी हो...
बीज से जब तुम अंकूर बनने लगे
मैंने महसूस किया सींचे गये
उगते अंकूरित खेतों की
गंध को
सोंधी हो गयी थी मैं...
तुम्हारी सुगंध इतनी
चढ़ गई
कि दुनिया का कोई सुगंध
रास न आया
उबकाई, जम्हाई, महकाई, महमहाई
के बीच
न जाने कब तुमसे जुड़ने लगी
बोहनी का खेत बन गया गर्भ
कहीं सूख न जाए
खाद डालती थी
कहीं दरक न जाए
पानी से सींचती थी
कहीं गीली न हो जाए
पानी बंद करती थी
कहीं धूप न लग जाए
छाँव देती थी
कहीं ठंड न लग जाए
सेंकती थी
कहीं कोई रोग न लग जाए
दवा छिड़कती थी
खयालों के ख़याल में
मैं नादान....
भूल बैठी
कि खेत तो अपनी है
पर बीज बान्हे का है.
कैसी विडम्बना है
घर में
आये थे तुम
पराए बनकर
रहने लगे मेहमान बनकर
साथ जुड़े प्रेमी बनकर
जाओगे मेरे अपने बनकर
पता है तुम्हें
एक सूई भी अपनी देते हुए
दिल दुखता है
कि पता नहीं
वापस आयेगा कि नहीं
फिर तुम तो मेरे जीवन
का हिस्सा बन गए हो...
जब पहली बार लात मारी
थी तुमने मेरे अंदर
उठा लिया था पूरा आकाश
मैंने सर पर
कोई है मेरे अंदर
जो बाहर की ओर झांकना
चाहता है
तुम मेरे अंदर होते
और बाहर भी
मेरे खाने पर तुम खाते
मेरे सोने से सोते
मेरे नाचने से नाचते
और बतियाने से बतियाते
फिर कैसे हो गए मुझसे अलग
तुम जिन्स किसी और के जरूर हो
पर क्रिया-कलाप,
भाव भंगिमा तो मेरे हो
कुछ तो मिलेगा मुझसे
क्योंकि...
कहते हैं गर्भवती महिलाओं के अंदर
बड़ी शक्ति होती है
वह जैसी होगी
बच्चा वैसा ही होगा
इसलिए तो सलाह
देते हैं डॉक्टर
भला देखो, भला सुनो, भला बोलो
भला खाओ
और बच्चे को दुलराओ...
देखा नहीं था अभिमन्यु को
सुभद्रा की कोख में ही
जान लिया था चक्रव्यूह का भेद
क्या तुम भी जान पाओगे
कभी तुम्हारे चक्रव्यूह को
मुझे गर्व है
तुम बनोगे अपनी
माँ-बाप की तरह
लेकिन सिखोगे वही
जो इस समय
मैं तुम्हें सिखाऊँगी
रोहिणी की तरह...
कुछ नहीं लगोगे मेरे
पर कुछ तो रहोगे मेरे
हाय !
मैं न देवकी बन सकी
न ही यशोदा
क्या कहूँ कि तुम मेरे कौन हो
दुनिया के ताने सुनकर भी
जगह दी तुम्हें
अपने जीवन में...
काश ! तुम विभिषण की तरह
उबटन से बने होते
तो इतना तकलीफ न होता
तुम्हें महसूस किया
अपनी जान बनाकर
तुम्हें चाहा अपनी
शान बनाकर
अब अलग कर रही हूँ
किसी और की पहचान बनाकर
क्या पता कल को तुम
मेरे सामने आओ न आओ
आओ भी तो किस रूप में आओ
बस आखिरी बार चूम लेने दो
मुझे जी भरकर देख लेने दो
मुझे प्यार करने दो
मेरे अजस्र प्रवाहित धारा को पी लो
एक बार मुझे माँ कह दो
बस एक बार मुझे माँ कह दो
कम से कम... एक बार मुझे माँ...
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