साठोत्तरी कविता के जलते चूल्हे पर स्त्री-भाषा
“यह कविता नहीं
मेरे एकान्त का प्रवेश द्वार है
यहीं आकर सुस्ताती हूँ मैं
टिकाती हूँ यहीं अपना सिर
जिन्दगी की भाग दौड़ से थक-हारकर
जब भी लौटती हूँ यहाँ
आहिस्ता से खुलता है
इसके भीतर एक द्वार
जिसमें धीरे से प्रवेश करती मैं
तलाशती हूँ अपना निजी एकान्त
यहीं मैं वह होती हूँ
जिसे होने के लिए मुझे
कोई प्रयास नहीं करना पड़ता
पूरी दुनिया से छिटककर
अपनी नाभि जुड़ती हूँ यहीं”
-(पुतुल, निर्मला. नगाड़े की तरह बजते शब्द. अनु, अशोक सिंह. पृ.88.)
निर्मला पुतुल का यह वाक्य अक्षरश: सत्य है। स्त्री घर की चहारदीवारी के बीच दिन-रात यांत्रिक गति से चलती-फिरती थकी-हारी कभी सोच भी नहीं सकती कि उसे अपने पति, बच्चों के अतिरिक्त और क्या चाहिए? प्रेम की चाह भी उसकी मानसिकता की कढ़ाई में लगी हल्दी की भाँति होती है, जो घिस-घिसकर साफ करने से भी नहीं छुटती। रात को रसोईघर साफ करने के साथ-साथ बिस्तर पर नोच-खरोच के अलावा भी मन को शुकून देने की एक व्याकुलता बनी रहती है और वह पति-बच्चों को सुलाने के पश्चात् आधी रात उठकर पति और बच्चों के शक से दूर अपने जीवन-डायरी के गोंजे हुए पन्नों पर अपनी व्यथा लिख-लिखकर मन को विश्राम देती है । वहीं से उभरती है स्त्री की वास्तविक मनोदशा, जो पति, प्रेमी, पुत्र और परिवार अथवा किसी अंतरंग सहेली की समझ से परे है।
वैदिक ऋचाएँ, थेरीगाथाएँ, मीरा की भक्ति, महादेवी का प्रणय,सुभद्रा कुमारी चौहान की राष्ट्रभक्ति, कीर्ति चौधरी और शकुन्त माथुर का सप्ततार से होते हुए काव्य की अविच्छिन धारा प्रवाहित होते हुए भी साहित्येतिहास में गहरी चुप्पी छायी रही।
सन् 1960 तक आते-आते महिलाओं कि चुप्पी टूटी और अनेक कवयित्रियों ने अपनी समस्याओं पर खुलकर अभिव्यक्ति दी। साठोत्तरी कवयित्रियों में प्रमुख कवयित्रियाँ एवं उनके काव्यों के नाम इस प्रकार हैं-
अनामिका –(बीजाक्षर, अनुष्टुप, खुरदुरी हथेलियाँ), अनीता वर्मा – (एक जन्म में सब), अमिता शर्मा –(हमारे झूठ भी हमारे नहीं), आशारानी व्होरा – (लहर-लहर गिनते हुए), इन्दु वशिष्ठ – (धूप के रंग, टुकड़े-टुकड़े जिन्दगी), उषाराजे सक्सेना – (इन्द्रधनुष की तलाश में), कमल कुमार – (गवाह), कविता वाचक्नवी – (मैं चल तो दूँ), कात्यायनी – (सात भाईयों के बीच चम्पा, इस पौरुषपूर्ण समय में, जादू नहीं कविता), कान्ता नलिनी – (जकड़े रिश्ते उखड़े पाँव), गगन गिल – (एक दिन लौटेगी लड़की, थपक थपक दिल थपक थपक), निर्मला गर्ग – (कबाड़ी का तराजू), निर्मला पुतुल – (अपने घर की तलाश में, नगाड़े की तरह बजते शब्द),
नीलेश रघुवंशी – (घर निकासी, पानी का स्वाद), नेहा शरद – (ख़ुदा से ख़ुदा तक), प्रभा खेतान – (अपरिचित उजाले, सीढ़ियाँ चढ़ती हुई मैं), ममता कालिया – (खाँटी घरेलू औरत), रंजना जायसवाल – (मछलियाँ देखती हैं सपने), रमणिका गुप्ता – (खूंटे, मैं आज़ाद हुई हूँ), रमा द्विवेदी – (दे दो आकाश), रेखा – (चिंदी-चिंदी सुख, अपने हिस्से का सूरज), वीणा घाणेकर – (पता है और नहीं भी), सविता सिंह – अपने जैसा जीवन, नींद थी और रात थी), संध्या गुप्ता – (बना लिया मैंने भी घोसला), सुनीता जैन – (हो जाने दो मुक्त, कौन सा आकाश),
सुनीता बुद्धिराजा – (अनुत्तर), सुमन राजे – (उगे हुए हाथों के जंगल, यात्रादंश), सुशीला टाकभौरे – (यह तुम भी जानो, तुमने उसे कब पहचाना), सुशीला मिश्रा – (मोती पलकों के)।
इनके लिए तकिए के नीचे रखकर काव्य पढ़ना भले ही पुराना हो पर काव्य-लेखन नया क्षेत्र रहा, फिर भी इन्होंने बड़े ही साहस के साथ अपने जीवन के अंतरंगता को बिना किसी लाग लपेट के सीधे सच्चे शब्दों में व्यक्त किया। इन कवियित्रियों के अभिव्यक्ति की भाषा-शैली भले ही अलग-अलग रही हो किन्तु भाव एक ही है। इनकी ऊबड़-खाबड़ जीवन की भाँति उनकी कविता की भाषा भी ऊबड़-खाबड़ किन्तु विचारात्मक रही। निर्मला पुतुल के अनुसार-
“बिना किसी लाग लपेट के
तुम्हें अच्छा लगे, ना लगे, तुम जानो
चिकनी-चुपड़ी भाषा की उम्मीद न करो मुझसे
जीवन के ऊबड़-खाबड़ रास्ते पर चलते
मेरी भाषा भी रुखड़ी हो गयी है
मैं नही जानती कविता की परिभाषा
छन्द, लय, तुक का कोई ज्ञान नहीं मुझे
और न ही शब्दों और भाषाओं में है मेरी पकड़”
-(पुतुल, निर्मला. नगाड़े की तरह बजते शब्द.अनु, अशोक सिंह. पृ. 94)
भाषा की परिभाषा भी महिलाओं ने पुरूष की परिभाषा से भिन्न अपने ही अंदाज में दिया है। स्त्री-विमर्शी कवियित्री अनामिका ने बड़े सरल शब्दों में कह दिया है- “भाषा का सार है संवाद, भाषण नहीं। दोनो होठों की अस्मिता बरकरार रखने का नाम है भाषा” । -(अनामिका. कविता में औरत. पृ.28)
जूलिया क्रिस्तेबा भाषा को परिभाषित करते हुए कहती हैं- “भाषा एक रलगल प्रक्रिया (जैनरेटव प्रॉसेस) है, अर्थविन्यास का अटल ढाँचा नहीं। मातृसत्तात्मक प्राक-एड़ीपसीय संवेदनाओं की (सिमिऑटिक) लय और पितृसत्तात्मक सामाजिक विनियमितताओं (सिंबॉलिक) के बीच का संवाद है भाषा”। -(अनामिका. कविता में औरत. पृ.44)
इरिगेरे ने यौन संवेदनाओं का सीधा संबंध भाषिक संवेदनाओं से माना है तो सिक्सू ने शब्दों की मितव्ययिताओं का संबंध ‘लिबिडनल इकोनॉमी’ से माना है कि पुरुष संग्रह प्रवृत्ति के कारण शब्दों का संग्रह करता है और स्त्री समेटती भी है, खर्च भी करती है और दान भी करती है। -(अनामिका. कविता में औरत. पृ.44)
काव्य का सामाजिक अध्ययन करने से स्पष्ट होता है कि काव्य-भाषा देश-काल और वातावरण से प्रभावित होता है। चूंकि कवयित्रियाँ स्वयं को कवि मानने से इंकार करती हैं तथा इनके लिए काव्य-क्षेत्र नया-नया है इसलिए ये अपने काव्य का मूल्यांकन सार्वभौमिक स्तर पर करने की माँग करती हैं। यदि इनके काव्य का सार्वभौमिक स्तर पर मूल्यांकन किया जाए तो इनकी भाषा का दो रूप सामने आता है-
1. स्वाभाविक भाषा
2. मनोसामाजिक संरचना पर आधारित भाषा
जिस भाषा को कवि या लेखक अपने परिवार, समाज, क्षेत्र तथा परिवेश से अनायास ही ग्रहण कर लेता है अथवा उसे ग्रहण करने में विशेष प्रयत्न नही करना पड़ता और वह भाषा शब्द –सम्पदा, मुहावरा, लोकोक्ति, लोकगीतों तथा मिथक आदि के रूप में स्वत: व्यवहृत होने लगती है, उसे स्वाभाविक भाषा कहते है। जैसे- बिस्तर की चादर मुचकना, कोख, खिचड़ी, सब्र, आबरू, आँचल, लाज, आज़ादी, करधनी, फूलदान, कचनार, बिरवा, लीपना, मेंहदी, कुहुकना, सिंगारदान, लालसाड़ी, घूँघट, कैसेरॉल, रोटी, चोटी, चटनी, टिकूली, अँगिया, नेलपॉलिश, चौकी, बेलन, सिंगारदान, मसखरा, सुहागसेज, जच्चाघर, भात, महुआ, गोबर आदि।
मनोसामाजिक संरचना पर आधारित भाषा के अंतरगत वे भाषाएँ आती हैं, जिसमें देश, काल, परिवेश तथा कवि की मानसिकता के अनुसार कुछ विशिष्ट शब्द-सम्पदा का चयन होता है, जिसे चाहकर भी कवि स्वयं से अलग नहीं कर पाता तथा भाषा उसकी शैली के साथ समन्वित हो कर विशिष्ट बन जाती है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण गगन गिल, रमणिका गुप्ता, अनामिका, निर्मला पुतुल, सुशीला टाकभौरे, नेहा शरद आदि कवयित्रियों के काव्य में देखा जा सकता है। इनकी भाषा जमीन से जुड़ने के कारण अत्यंत जीवंत होती हैं। जिसका प्रथम आधार समाज होता है, जहाँ स्त्री को दोयम दर्जे का समझा जाता है। समाजभाषावैज्ञानिकों ने स्त्री का वस्तूगत मूल्यांकन एवं दोयम दर्जे का समझा जाना ही उनकी एवं पुरूष की भाषा में भिन्नता का प्रमुख कारण माना है। डॉ ऋषभदेव शर्मा के अनुसार उनकी पारंपरिक भाषा विनम्रता पूर्वक थी, वे आलोचना नहीं कर सकती थीं, प्रश्न नहीं कर सकती थीं, आदेश नहीं दे सकती थीं, किन्तु अब वे इस कटघरे से बाहर निकल आई हैं।अब वे नि:संकोच अपना आक्रोश व्यक्त करती हैं, प्रश्न पूछती हैं, आदेश भी देती हैं। इनकी भाषा अधिकतर सांकेतिक होती हैं, जिसे देह की भाषा भी कहते हैं। इनका प्रयुक्ति क्षेत्र घरेलू है, इसलिए ये घरेलू शब्दावली जैसे चौका, बर्तन, रोटी, झाड़ू, बूहारू, कूर्सी, मेज, किचन, सुपेली आदि के साथ-साथ अपनी व्यक्तिगत अनुभूति जैसे मासिक-धर्म, प्रेम, पीड़ा, सहवास, बलत्कार, प्रसव, वैधव्य, सुहाग, मातृत्व आदि विषयों पर लिखना शुरू की हैं, जिससे पुरूष वर्ग सदैव बचना चाहता है। किंतु कवियित्रयों ने अपनी जीवनाभूति एवं घरेलू हथियार से पूरे साहित्य जगत् को चुनौती दी है तथा पांड़ित्य-प्रदर्शन को कटघरे खड़ा कर दिया है। उदाहरण के लिए कवियित्री अनामिका का ‘प्रथम स्राव’ नामक कविता देख सकते हैं, जिसमें प्रथम माहवारी के समय एक लड़की की मानसिक ऊहा-पोह के विषय में बड़ी ही सुन्दर अभिव्यक्ति है-
“उसकी सफेद फ्रॉक / और जाँघिए पर / किस परी माँ ने काढ़ दिए हैं / कत्थई गुलाब रात-भर में ? / और कहानी के वे सात बौने / क्यों गुत्थम-गुत्थी / मचा रहे हैं / उसके पेट में ?/ अनहद-सी बज रही है लड़की / काँपती हुई। / लगातार झंकृत हैं / उसकी जंघाओं में इकतारे।/ चक्रों सी नाच रही है वह / एक महीयसी मुद्रा में / गोद में छुपाए हुए / सृष्टि के प्रथम सूर्य सा, लाल-लाल तकिया”। (अनामिका. अनुष्टुप. पृ.28-29)
पेट में गुत्थम-गुत्थी मचाना, अनहद नाद सी बजना, जंघाओं के बीच झंकृत होना एक औरत ही समझ सकती है, क्योंकि यह मात्र औरत का क्षेत्र है। अनामिका की भाषा जलते चूल्हे पर सिंकती रोटी की सोंधी खुशबू की तरह उड़कर आसमान को भी पढ़ने हेतु ललचा देती है। इनकी कविता बोलचाल की भाषा का वह विलुप्त रूप प्रस्तुत करता है, जिसका लेखन में बहुत कम प्रयोग होता है। जैसे – पुकूर-पुकूर, थकियाई, पारना, कजरौटा, चुटूर-पुटूर, अकर-बकर, खुदूर-बुदूर, चुकूमुकू, बुक्का, पट्ट, छनकाह, कछमछ, गमागम, टुईयाँ, पतुरिया, चकत्ता, कठुआ, दिठौना, बोरसिया, सीवान, तोपन, दूधकट्टू आदि। इनकी कविता में एक लय और ताल प्रवाहित होता है, इसलिए इनकी भाषा को संगीतात्मक भाषा कह सकते हैं।
“कोई ऐसी बात जिससे बदल जाए
जीवन का नक्शा,
रेती पर झम-झम-झमक-झम कुछ बरसे...”
-(अनामिका. खुरदुरी हथेलियाँ. पृ. 29)
कवयित्रियों ने पुरूष-सत्ता की रूढ़ियों, नियम कानूनों, कूरीतियों के विरोध में निषेधात्मक भाषा का भी प्रयोग किया है। जैसे-“क्षमा नहीं मांगूंगी... झुकूंगी नहीं... मैं अब सीता नहीं बनूँगी... रूप नहीं वरूँगी”। -(गुप्ता, रमणिका. खूँटे. पृ.47)
रमणिका गुप्ता ने प्रेम और सेक्स की कविताओं को खूले मन से नि:संकोच लिखा है, प्रेम उनकी हिम्मत है तो सेक्स उनके प्रेम का चर्मोत्कर्ष। उन्होंने कभी भी पुरूषों के आगे सर नहीं झुकाया बल्कि उन्हें झुकने के लिए सदैव मजबूर किया है। उन्होंने पुरूषवर्चस्ववाद के विरूद्ध प्रहारक भाषा का प्रयोग किया है, नोच दूंगी, खरोच दूंगी, उधेड़ दूंगी, रगेद दूंगी आदि आक्रोशमयी शब्द यत्र-तत्र पाये जाते हैं। इसलिए इनकी भाषा को लट्ठमार भाषा भी कह सकते हैं। रमणिका के विचारों का आंगन लीपकर समतल बना सुनीता जैन पुरूष का विरोध पतीली में सींझते चावल की खदबदाहट की तरह करती हैं। इनका विरोध न उफनकर गीरता है और न ही शांत होता है।
“वह अभी तक वहीं बैठी है
जिसके संग
माँ ने बचपन में
भाँवर फेरी थी,
नहीं ! नाक में
नकेल गेरी थी”।
-(जैन, सुनीता. सुनीता जैन : अब तक 6, कविता 4. पृ.14. (सीधी कलम सधे न))
इनकी भाषा को खदबदाती भाषा भी कह सकते हैं।
सुशीला टाकभौरे की जमीनी समस्याएँ आसमान तक कौंधती हैं। सहज बोलचाल की भाषा विश्वास, आस्था, चरित्र, ओट, घूँघट, सूरज आग का गोला, झोपड़ा, कपाट, निरीह, तिमिरघनकूप, कनक, कामिनी, कुलबुलाना आदि इनकी शब्द सम्पदाएं ही इनकी भाषा को विशिष्ट बनाती हैं। इनकी कौंधती भाषा की व्यंगात्मकता पाठक के दिलों-दिमाग में कौंधती रहती हैं। सुशीला कौंधती और कड़कती हैं तो निर्मला आसमान से ज्वाला बनकर बरस जाती हैं।
निर्मला पुतुल आदिवासी कवयित्री होते हुए भी आदिवासी स्त्री की व्यथा के साथ-साथ समस्त स्त्री-भावनाओं को अत्यंत कोमलता से उभारती हैं, किन्तु पुरूषसत्ता तथा अत्याचार के विरूद्ध ज्वालामुखी की तरह फूट पड़ती हैं।
“पर याद रहे/ नहीं टूटूँगी इस बार/ बिखरूँगी नहीं तिनके की भाँति/ तुम्हारे भय की आँधी से
अबकी फूटेगा नहीं मेरा सिर/ चकनाचूर हो जाएँगे बल्कि / तुम्हारे हाथ के पत्थर”
-(पुतुल, निर्मला. नगाड़े की तरह बजते शब्द. अनु. अशोक सिंह. पृ. 90-91)
कात्यायनी का प्रेम और विरोध दोनों ही दो टूक भाषा में प्रकट करती हैं। संस्कृतनिष्ठ शब्दावली और शब्दों की मितव्ययिता के कारण इनकी भाषा काफी क्लिष्ट जान पड़ती है, किंतु गद्यात्मक शैली में लिखा काव्य अत्यंत सहज और सरल हैं। कविता को खारे जल में धोती कविता वाचक्नवी खनखनाती भाषा का प्रयोग करती हैं तो नेहा शरद अपनी मृदुता के साथ ही विरोध और प्यार दोनों व्यक्त करती हैं । अत: अनामिका कहती हैं- “हाशिए पर रहने वालों की भाषा हमेशा ही अधिक जीवंत, रंग-रंगीली और ठस्सेदार होती है। जो भी वर्ग-वर्ण, लिंग- एक श्रोता की स्थिति में विधेय स्थान पर, अवरूद्ध और उपभोग होते हैं- पता नहीं किन स्रोतों से, क्षतिपूर्ति सिद्धांत के अनुकूल उनकी भाषा में एक अलग तरह की रवानी, तेजस्विता और अनुगूंज खचाखच समा जाती है”।
-(अनामिका. कविता में औरत. पृ.28)
जिस प्रकार आलोचकों ने कवियित्रियों की भाषा को अपरिपक्व कहकर विलगा दिया था, उसी प्रकार लगता है कि कवियित्रियों ने अपनी स्त्रीत्व को शक्ति बना स्त्री-भाषा से ही भाषा के प्रति एक आंदोलन खड़ा कर दिया है। विलगाओ... देखे कहाँ तक विलगाते हो..? हम तुम्हारा मूँह तोड़कर नहीं बल्कि अपने दायरे में रहकर और अपने औरतपने से ही लड़ेंगे। जैसे इन्होंने हठ ठान ली हो औरतपन को गाली बनाने को बजाय शक्ति बनायेंगी। देखते हैं दुनियाँ अब और कौन सी नई गाली रचती है..? जलते चूल्हे को कितना बुझाओगे, बुझने के बाद अपनी भाषा गरमी से गोईठा भी सेंक सकती है। और अगर बुझ गई तो तुम लोग अपना भात भी किस पर पकाओगे ?... सोचो और सोचते रहो...।
निष्कर्षत: कह सकते हैं कि साठोत्तरी कवयित्रियों की एक अलग ही भाषा-संसार है, जिसमें भाव है, प्रेम है, दर्द है, ललकार भी है। समस्या है और समस्या से मुक्ति पाने का रास्ता भी है, जीवन है, प्रकृति है, प्यास है, आस है, एहसास है, आभास है, दुख का रोना रोया किंतु दुख से उबरने की हिम्मत भी है, ज़मीन रहते हुए आसमान में उड़ने की चाहत भी है। गर्भ से लेकर बिस्तर तक, चौका से लेकर चौखट तक, चौखट से लेकर भूमंडलीकरण तक और हासिए लेकर मुख्यधारा तक स्त्री-भाषा अपनी प्रकृतिगत कोमलता के साथ-साथ लहलहाती ज्वलंत भाषा है।
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