सोचा...
सलाम लिख दूँ
सोचा... सलाम लिख दूँ.
आगे गहन अंधेरा, कोई मिलने वाला मेरा
इंसानी फितरत, पीछे मुड़कर देखा
रिस्ते चले आ रहे पास, पर नहीं कोई साथ
नहीं पकड़ना चाहता, कोई खाली हाथ
मैं बुद्घ या खुसरो तो नहीं
सोता छोड़ कर चल दूँ
कुछ कर सकता तो, दिल का बयान लिख दूँ
सोचा... सलाम लिख दूँ.
कोई पलकें बिछाए बैठा है, इंतज़ार में
आतूर है पनाह पाने को, या फिर मेरे प्यार में
खींच रहें लोग मुझे मोह-रश्मियों से
भटकता है मन कहीं व्यर्थ कस्तियों में
दो राहे पर कदम डगमगाए, लौटाना सम्भव नहीं
वक्त आगे बढ़ता है, पीछे नहीं
क्यों न हाथों को जुम्बिश दूँ, और उनका ही कलाम लिख दूँ
सोचा... सलाम लिख दूँ.
लम्बी कतार, साँसे हैं कम
शुक्र है ऐ दाता, है मुझमें अभी दम
फर्ज़ अदा न कर सका ज़िन्दगी का
मुँह छिपाए सफ़र पूरा किया मुफ्लिसी का
अब और एहसान मत करो, ऐ अपनों !!
करने दो ज़रा दीदार दाता-ए-बन्दगी का
इस कलमकस को पहले, अलविदा-ए-शाम लिख दूँ
सोचा... सलाम लिख दूँ.
जिस आँगन में, दहलीज़ पर
पैदा हुआ, जवान हुआ
शिक्षा पाई, संस्कार मिला
प्यार मिला, बेईमान हुआ
कुछ कर्ज़ है मिट्टी का
कुछ फर्ज़ है मेरा
कल के ऊपर छोड़ दिया
वक़्त गुजरा, मुँह मोड़ लिया
आज देखो ये हालत
मेरे जहान वालों !
उस मिट्टी ने ही मुझको छोड़ दिया
रिसता है दर्द जुदाई का, अभी भी फटे कलेजे से
क्यों न सारी ताकत से, उसकी ही दास्तान लिख दूँ
सोचा... सलाम लिख दूँ.
मजबूरियाँ अंग बन गईं जीवन की
देती हैं ठोकरें दर-ब-दर की
मगर इतनी भी बेरूखी क्यों, ऐ दाता !
मुहलत भी नहीं दी, सफाई का
माँगा था हमने भी ऐसा क्या
तुमसे ऐ रहमों करम !
दे नहीं सका, दे दिया भरम
चाँद ही गर वादा था, कोई बात न थी
दरिया का रूख मोड़ देता
पहाड़ों का सीना चीर देता
बहता जब पसीना आदमी का
मजबूर कर देता तेरी ख़ुदाई को
तू ख़ुद ही चाँद-सितारे झोली में डाल देता
वक़्त ने बदला रूख किस बेरूखी से
दोहराया वही इतिहास, तोड़ा गुरूर किस बेवफाई से
तड़पाया बहुत मेरी रूहानी मजबूरियों को
गिला क्या करूँ, कैसे ख़ुद की जुदाई से
क्यों न, सारी दुनियाँ का एहसान अपने ही नाम लिख दूँ
सोचा... सलाम लिख दूँ.
मुकम्मल जहाँ क्या, छोटी सी दुनियाँ भी न बसा सका
मिलते गए हमसफर, सफर चलता रहा
कुछ मुझसे छूट गए, कुछ ने मुझको छोड़ दिया
एक छलावा था, तमन्ना-ए-दिल हक़ीकत न बन सकी
मजबूर थे हम, लोग भी बेबस रहे होंगे
जिनसे हाथ मिलाकर चला, निगाहें न मिल सकीं
ऐसी मुफ्लिसी भी क्या, ऐ दोनो जहाँ के मालीक
हमारी उजरत तेरी इबादत न बन सकी
ऐसी शिकस्त, कलेजा फट जाए बन्दे का
क्यों न दर्द-ए-ग़म कुछ तेरे भी नाम लिख दूँ
सोचा... सलाम लिख दूँ.
मैं एक मुसाफिर हूँ दुनियाँ के मयखाने का
जीवन मदिरा पी गया तब रंग चढ़ा दीवाने का
अब और नहीं है बाकी, कुछ इल्म करो साकी
दिल अभी भरा नहीं, दीवाना अभी मरा नहीं
ऐसी हालत थी कभी, तेरी चाहत की कभी
काबा से गुज़रता कोई सोचा काफिर लगता है
सरेआम मुँह छिपा चला जिनसे
क्यों न उनको ही बदनाम लिख दूँ
सोचा... सलाम लिख दूँ.
आने लगे हैं घने साए, आहट होने लगी है
रोशनी में भी अंधेरा है, साँसों की ठंडक खोने लगी है
कुछ याद नहीं अब, मयकशी परवान होने लगी है
पैग़ाम उनका आया है, शायद वे करीब ही हैं
बेताब धड़कते दिल की, मेहनत साकार होने लगी है
इन्तज़ार जिसका करता रहा, सारा आलम ता-उम्र
उस महबूब की आहट मिलने लगी है
शाम-ए-इन्तज़ार होने
लगी है
अनोखा होगा हमारा मिलन, जरा उनको आदाब लिख दूँ
सोचा... सलाम लिख दूँ.
देखा मंज़र, गुलिस्ताँ, डूब जाने के बाद
थम सका न बारिस का शोर, रूख्सत हो जाने के बाद
करम था उनका, फ़क़त कुछ वक़्त पहले
शुक्रगुज़ार हैं हम, कुछ शबनमें रक्त के बदले
मत उदास हो ऐ दिल ! सिला गर ये ही था
ता-उम्र कोशिश के बदले
दो-चार बूँदे ज़हर जैसी, जो टपकती हैं सीने में
एहसान-ए-ख़ुदा के अहले
आखिर कब बदलेंगे रास्ते मंज़िल का
साँसें कमज़ोर हो रहीं, टूट रहा भरोसा इस दिल का
इससे पहले कि पड़ जाए मेरे नहले पर ख़ुदाई-दहले
क्यों न अपनी शिकस्त का एहतराम लिख दूँ
सोचा... सलाम लिख दूँ.
बावक़्त सब ठीक है, सुनाने को तूती नक्क़ार खत्ने में
गुजस्तां वक्त की दास्तान, नवासाए मुशरफ के जमाने में
करिश्में आज आम हो जायेंगे, बेपरदा सरेआम हो जायेंगे
ख़ुदाई ख़ौफ न खाएगा, बन्दे बदनाम हो जायेंगे
रू-ब-रू न कर ऐ मालीक ! अपनी उस नवाज़िश से
दिल को पड़ेगा थामना कलेजे चाक हो जायेंगे
बड़ी शिद्दत से चाहा था तुझे, मायूस न कर
अंधेरा गुज़र जाए तो, मंजील-ए-मकसूद न कर
मंज़ूर है तेरा हर सितम, रक्त रंजित सीने पर
गौर से रखना उस पार गर, बह जाए इक बूँद पसीने पर
तौहिन होगी तेरी, ज़रा ठहर ऐ मालीक !
तुझे कस्म-ए-क़ुरान लिख दूँ
सोचा... सलाम लिख दूँ.
-बलभद्र प्रसाद यादव
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