गुरु-वन्दना
अंधेरों में रौशनी, चांदनी की शीतलता,
तूफानों में भी मन की शांति चाहते हैं.
बरसात होती रहे कृपा और ज्ञान की,
गुरु के चरणों में ऐसा ठौर चाहते हैं.
कंटकाकीर्ण राहों से कांटे आप खुद ना हटाएं,
कांटे हटाते हैं कैसे.. आप हमको सिखाएं,
हम ऐसा पथप्रदर्शक चाहते हैं.
आपकी चरण-रेनू सहृदय लेकर चलें हम,
सफलता का ऐसा पुनर्जनम चाहते हैं.
मंगलवार, 7 दिसंबर 2010
मंगलवार, 19 अक्टूबर 2010
Vyathaa
व्यथा
सखी,
काश ! मैं व्यथा की कथा सुना पाती.
स्वतन्त्र जगत की परतंत्र कहानी
कुटुंब निति कह पाती,
काश! मैं व्यथा की कथा सुना पाती.
चूड़ी कंगन पायल झूमके, बाँध गए इहलोक
सिंदूर बिंदी मंगलसूत्र, बन गए परलोक
सास श्वसुर ननद जिठानी
बन गया दिनचर्या
पति विपत्ति बन बैठा
जिस समय से परिणय हुआ.
प्रहरी बन गए गृह निवासी
अछूत हो गए जेष्ठ पुरुष जन
देवर बालक बन गया भाभी का
पति चला देश दुरन.
चौकठ लाँघ सके ना घर की
मुरझाई फूल बन उपवन की
कठपुतली बन नाचे दुल्हन
दुषः दिन हुए विरहिन की,
परम्पराएं बन गईं रोगिणी
उसूल हो गया जाली
संवेदनाएं यांत्रिक हो गईं
रस्में हो गईं दिवाली
प्रेम दिखावा बन बैठा
ह्रदय हो गया खाली,
जी ऐसा जल गया सखी अब
घाव न भर पाए,
मंगलसूत्र से अच्छा फंदा
पर्दे से अच्छा कालकोठरी
ब्याह से अच्छा आजीवन
कारावास चुन लेती,
सखी,
काश ! मैं व्यथा की कथा सुना पाती.
सखी,
काश ! मैं व्यथा की कथा सुना पाती.
स्वतन्त्र जगत की परतंत्र कहानी
कुटुंब निति कह पाती,
काश! मैं व्यथा की कथा सुना पाती.
चूड़ी कंगन पायल झूमके, बाँध गए इहलोक
सिंदूर बिंदी मंगलसूत्र, बन गए परलोक
सास श्वसुर ननद जिठानी
बन गया दिनचर्या
पति विपत्ति बन बैठा
जिस समय से परिणय हुआ.
प्रहरी बन गए गृह निवासी
अछूत हो गए जेष्ठ पुरुष जन
देवर बालक बन गया भाभी का
पति चला देश दुरन.
चौकठ लाँघ सके ना घर की
मुरझाई फूल बन उपवन की
कठपुतली बन नाचे दुल्हन
दुषः दिन हुए विरहिन की,
परम्पराएं बन गईं रोगिणी
उसूल हो गया जाली
संवेदनाएं यांत्रिक हो गईं
रस्में हो गईं दिवाली
प्रेम दिखावा बन बैठा
ह्रदय हो गया खाली,
जी ऐसा जल गया सखी अब
घाव न भर पाए,
मंगलसूत्र से अच्छा फंदा
पर्दे से अच्छा कालकोठरी
ब्याह से अच्छा आजीवन
कारावास चुन लेती,
सखी,
काश ! मैं व्यथा की कथा सुना पाती.
सोमवार, 30 अगस्त 2010
Stree-Vimarsh Aur Ramnika gupta ka bold lekhan
स्त्री-विमर्श और रमणिका गुप्ता का बोल्ड-लेखन
साहित्य-जगत में सदियों से स्त्रियों की दबी-दबी आवाज जब मुखर हुई, तो सर्वप्रथम अपनी व्यथा-कथा से भड़की. स्त्रियों ने स्त्रियों की स्थिति तथा स्त्री का स्त्रीकरण कैसे हो गया, के विषय में सोचना शुरू किया तो विपक्ष में पुरुषवर्चस्ववादी सत्ता का नया रूप सामने आया. वह अपने शुभचिंतकों के हाथों ठगी गई थी, जो अब उसे स्वीकार्य नहीं था. इसलिए उसने पुरुषवर्चस्ववादी सत्ता का विरोध किया और स्त्री-विमर्श अर्थात नारीवादी आन्दोलन का सहारा लिया.
'स्त्री सम्बन्धी विषयों पर विचार करना' ही स्त्री-विमर्श है. स्त्री-विमर्श को परिभाषित करते हुए कहा जा सकता है स्त्री के विषय में उसके सुख-सुविधाओं से लेकर प्रत्येक समस्या के परिप्रेक्ष्य में ऐतिहासिक, सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और मनोवैज्ञानिक दृष्टि से सूक्ष्म से सूक्ष्मतम चिंतन-मनन कर अस्वस्थ दृष्टिकोणों को अस्वस्थता प्रदान करना ही स्त्री-विमर्श है.
पुरुषवर्चस्ववादी साहित्य में स्त्री-विमर्शी लेखिकाएं और कवयित्रियों ने शुरू-शुरू में अपरिपक्वता के साथ डर-डर कर कदम रखा, किन्तु बाद में उनकी निर्भीकता ने समस्त साहित्यकारों और आलोचकों को आश्चर्यचकित कर दिया. वे मात्र अपनी व्यथा-कथा तक ही सीमित न रही बल्कि सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी बोलना शुरू कर दीं. उनकी निर्भीकता और सीधे-सपाट बेधड़क बोलने और लिखने की शैली को बोल्ड-लेखन का नाम दे दिया गया. बोल्ड अर्थात निर्भीक अथवा साहसी.
स्त्री-विमर्शी बोल्ड लेखिकाओं व कवयित्रियों जैसे कृष्णा सोबती, प्रभा खेतान, मैत्रेयी पुष्पा, मन्नू भंडारी, उषा प्रियंवदा, अमृता प्रीतम में से रमणिका गुप्ता का भी नाम प्रसिद्द है. कुछ समय से लेखिकाओं के आत्मकथाओं को ध्यान में रखते हुए बोल्ड-लेखन का अर्थ निर्भीकता के बजाय प्रेम-प्रसंगों से लिया जाने लगा है किन्तु प्रेम-प्रसंग हो या अपने अधिकारों की मांग, स्वभावतः बोल्ड-लेखन के लिए लेखकों को भी बोल्ड अर्थात धृष्ट, प्रगल्भ बनना ही पडेगा. शेर की मंद में डर-डरकर जीने वाली औरतों ने शेर के विरुद्ध आवाज उठाई, यह धृष्टता ही उनकी बोल्डनेस है.
साहित्य के रण-क्षेत्र में अन्य लेखिकाओं की भांति रमणिका गुप्ता भी अस्त्र-शस्त्रों के साथ कूदीं और अब तक आम आदमियों के लिए युद्धरत हैं. आदिवासी, दलित तथा स्त्री-विमर्श इनके लेखन का प्रमुख क्षेत्र है. अब तक इनकी गद्य और पद्य की ३२ पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है तथा इन्होने २४ पुस्तकों का संपादन किया है, साथ ही वर्त्तमान में इनकी छः पुस्तकें प्रकाशनाधीन है. गद्य में 'सीता', 'मौसी' उपन्यास , 'बहुजुठाई' कहानी-संग्रह, 'निज घरे परदेसी' 'दलित सपनों का भारत और यथार्थ', 'स्त्री-विमर्श: कलम और कुदाल के बहाने' तथा 'लहरों की लय', निबंधात्मक, आलोचनात्मक और यात्रा-वृत्तांत तथा 'हादसे' आत्मकथात्मक पुस्तकें हैं. शीघ्र ही इनकी दूसरी आत्मकथा 'आपहुदरी' प्रकाशित होने वाली है. 'सीता', 'मौसी' उपन्यास तथा 'बहुजुठाई' कहानी-संग्रह इनकी आँखों देखा हाल है, जिसमे इनकी नायिकाएं कोलियरी खदानों में अपने हक़ के लिए संघर्षरत हैं. गद्य-साहित्य में अपने बोल्डनेस के कारण इनकी सबसे अधिक चर्चित कृति आत्मकथा 'हादसे' और प्रकाशनाधीन 'आपहुदरी' है.
बचपन से ही लेखिका निर्भीक एवं साहसी रहीं. परिवार में सामंतवाद, नौकरशाही, जातिवाद तथा पर्दा-प्रथा का विरोध, छिप-छिपकर राजनीति में भाग लेना, जाति एवं परम्परा तोड़कर विवाह करना इनके साहस का परिचायक है. रमणिका जी के कथनानुसार भारत और चीन की लड़ाई में इनका गीत जन-जन के मुख पर था-
"रंग-बिरंगी तोड़ चूड़ियाँ,
हाथों में तलवार गहूंगी
मैं भी तुम्हारे संग चलूंगी
मैं भी तुम्हारे साथ चलूंगी."
'हादसे' इनकी राजनैतिक-संघर्ष की दास्तान है तो 'आपहुदरी' प्रेम-प्रसंगों की. जहाँ समाज में अपमानित होने के भय से व्यक्तिगत-प्रेम के विषय में महिलाओं ने चुप्पी साधी थी, वही रमणिका जी किसी अपमान की चिंता किये बिना खुलकर अपने प्रेम प्रसंगों पर चर्चा करती हैं. जिसपर जारकर्म कहकर आलोचकों की मार भी पड़ी. किन्तु अपने लक्ष्य पर अडिग लेखिका व कवयित्री की एक ही पंक्ति सारे सवालों पर भारी पड़ती है-
"आज गंगा को अवतरित करने के लिए-
शंकर की दरकार नहीं है.
गंगा खुद उतर आएगी धरती पर".
पद्य में 'गीत-अगीत', 'अब और तब', 'खूंटे', 'प्रकृति युद्धरत है', 'कैसे करोगे बंटवारा इतिहास का', 'पूर्वांचल एक कविता यात्रा', 'विज्ञापन बनाता कवि', आदिम से आदमी तक', भला मैं कैसे मरती', 'अब मुरख नहीं बनेंगे हम', 'मैं आज़ाद हुई हूँ', 'तिल-तिल नूतन', 'तुम कौन', 'भीड़ सतर में चलने लगी है' तथा 'पातियाँ प्रेम की' नामक काव्य-संग्रह प्रकाशित है.
स्त्री-विमर्श से सम्बंधित इनकी दो काव्य-संग्रह महत्वपूर्ण हैं- 'खूंटे' और 'मैं आज़ाद हुई हूँ'. इनका काव्य-संग्रह इनकी स्वछंद विचारधारा और प्रहारक भाषा-शैली के कारण प्रसिद्ध है. इनके स्त्री-विमर्श की खास विशेषता है की स्वयं के सन्दर्भ में इन्होने कभी भी पुरुष को अपने प्रेम और शोषण के लिए दोषी ठहराया. इन्हें न तो अपनी सफलता के लिए पुरुष रूपी वृक्ष पर लता बनकर चढ़ना पसंद था और न ही पुरुष के अस्तित्व को ख़ारिज किया, क्योंकि स्त्री-पुरुष संसार के सबसे बड़े सत्य हैं तथा दोनों के सह्योग से सृष्टि संचालित होगा. अतः इन्होने स्त्री-पुरुष के बीच प्रेम को स्वाभाविक माना. 'एनी मेरी लिंडवर्ग' के इन पंक्तियों - "मैं/ जिससे प्रेम करती हूँ/ मैं चाहती हूँ/ कि/ वह मुक्त रहे/ यहाँ तक कि/ मुझसे भी" को इन्होने अपने जीवन में उतारा तथा सीधे सरल शब्दों में कह देती है-
"मैं प्यार करने लगी हूँ तुमसे.
इसलिए की
'तुम' - तुम हो.
तुम्हारे विशेषणों की मुझे चिंता नहीं.
मैं तुम्हारे 'तुम' से प्यार करती हूँ."
ये स्वयं भी नहीं चाहती की कोई इन्हें इनकी मजबूरियों को या इनके रूप से प्यार करे, इसलिए कहती हैं-
"तरस खाकर मेरी झोली में
प्यार की भीख मत डाल.
मेरे तन को नहीं,
मुझे प्यार कर
नहीं तो मेरा मन
गौड़ हो जाएगा."
ये प्रेम करने को विद्रोह मानते हुए कहती है- "वर्चस्व सत्ता की प्रवृति है तो प्रेम विद्रोह व प्रतिरोध का पर्याय. केवल विद्रोही ही कर सकता है प्रेम. प्रेम परम्परा को तोड़ता है और कायम करता है अपनी नई राह- नई दिशा." क्योंकि भारत में प्रेम करने की मनाही रही. 'पातियाँ प्रेम की' नामक काव्य-संग्रह में ये लिखती हैं- "प्रेम ही बदल सकता है समाज. जो प्रेम करना नहीं जानता वह जीना भी नहीं जानता. हम जीने के लिए ही नहीं जीते बस. कोई न कोई मकसद होता है जीने का- और वह मकसद है प्यार-जिंदगी से प्यार. प्रायः हर व्यक्ति करता है जिंदगी से प्यार! वह उसके लिए आख़िरी दम तक जद्दोजहद करता है ! मैंने जिंदगी को दम भर प्यार किया है, इसलिए मेरी कोशिश रही की जिंदगी कभी हारे नहीं- मैं भले हार जाऊं ! प्यार जीतता रहे ! प्यार बरकरार रहे !"
प्रेम के साथ ये यौनेच्छा को नैसर्गिक मानती हैं. जो 'स्व' और 'पर' के बीच प्रेम को चरमोत्कर्ष पर पहुंचाता है. ये कहती हैं- "'स्व' से समष्टि तक इस अबाध यात्रा में देह का महत्वपूर्ण योगदान होता है. 'स्व' और 'पर दो कायाओं का बोध कराते हैं. 'स्व' से 'परकाया' में प्रवेश इसी प्रेम के सहारे करता है. लेखक का कवि, चूँकि संवेदना और प्रेम का अन्योन्याश्रित रिश्ता है. संवेदना के सहारे दो प्रेमियों के बीच यह रिश्ता आकर्षण की आँखों में पनपता है. 'स्व' से 'समूह' तक की यात्रा संकल्प के दृढ कन्धों पर चढ़ कर तय करता है प्रेम ! लेकिन इसके विपरीत समूह का व्यक्ति-प्रेम विश्वास की बलिष्ठ बाहों से होता हुआ मुठ्ठियों में बंधकर हवा में हिलोरे लेने लगता है! "
प्रेम को शक्ति मानते हुए दार्शनिक ओशो कहते है- "प्रेम शक्तियों का निकास बनता है. प्रेम बहाव है. क्रियेशन, सृजनात्मक है प्रेम, इसलिए वह बहता है और एक तृप्ति लाता है. वह तृप्ति सेक्स की तृप्ति से बहुत ज्यादा और गहरी है. जिसे वह तृप्ति मिल गई- वह कंकण पत्थर नहीं बीनता, जिसे हीरे-जवाहरात मिलने शुरू हो जाते है." कदाचित इनके उन्मुक्त प्रेम का ही फल है की इन्होने बड़े से बड़े समस्याओं का सामना आसानी से कर लिया.
प्रेम में ये कोई भी कीमत चुकाने के लिए तैयार है किन्तु अपनी अस्मिता और स्वतंत्रता से कोई समझौता नहीं कर सकतीं. प्रेम में रोक-टोक, अधिकार ज़माना इन्हें बिल्कुल पसंद नहीं. विवेकहीन प्यार की कोई उम्र नहीं होती, इसलिए प्यार है अथवा नहीं है तो उसे स्वीकार करने की क्षमता होनी चाहिए. स्त्री प्रेमवश पुरुष को अपने सारे अधिकार सौंप देती है, और अनजाने में पुरुष की गुलाम बन जाती है. इसलिए कवयित्री कहती हैं-
"मैं ही उसे राजा बनाती हूँ
और बनती हूँ उसकी रानी
यहीं से शुरू होती है
मेरी गुलामी की दास्तान
और इकरार की कहानी."
स्त्री की जब आँखें खुली तब उसे समझ में आया-
"पर तुम तो पिंजरा बन गए
मेरे पंख और डैने बांध
सुनते मेरी गुटरगूं
मुझे रात-रात भर जगाते
सुनते
मेरी फड़फड़ाहट-छटपटाहट
चारा फेंक कर
जाल बिछा कर !"
------------------
"तुम तो
खूंटा बन गए
जिसे देख रूह कांपती है मेरी
इसलिए
मैं रुकती नहीं कभी
कहीं भी !"
सम्पति की अवधारणा के साथ ही स्त्री भी पुरुष की सम्पति बन गई. उसके सारे फैसले पुरुष लेने लगा. वह उसे सम्पति की भांति सजाने-सवाने और संभालने लगा. धीरे-धीरे वह उसी मानसिकता से ग्रसित होने लगी और पुरुषवर्चस्ववादीसत्ता की जकड़न में जकड गई. किन्तु जब उसे साजिश समझ में आई और वहां से निकलना चाहि तब तक रिश्तों की परिभाषा बदल चुकी थी. परिवार, परम्परा और संस्कृति की पाबंदियों से निकालना इतना आसान नहीं था. घर की चौखट लांघना और अचानक पुरुष के क्षेत्र में ही जाकर नौकरी करना उसके लिए मुश्किल ही नहीं मधुमक्खी के छत्ते में हाथ डालने जैसा था. तत्पश्चात वह आर्थिक रूप से निर्भर हुई, उसकी आर्थिक निर्भरता ने ही उसका आत्मविश्वास वापस लौटाया और उसने मात्र जमीन पर ही नहीं बल्कि अंतरिक्ष में भी विचरण करना शुरू कर दिया. वह किसी पुरुष पर अवलंबित होने के बजाय अपना जीवन-निर्वाह स्वयं करने लगी, किसी पुरुष का अत्याचार सहने के बजाय अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाने लगी. वह अपने सारे फैसले स्वयं करने लगी. रमणिका गुप्ता इस बात की प्रत्यक्ष उदाहरण हैं. उन्हें पुरुष द्वारा मंदिर में स्थापित की गई देवी अथवा कुलटा या माया,ठगिनी कहलाना पसंद नहीं . उनके अनुसार यदि औरत औरत होने की हीन ग्रंथि से मुक्त हो जाए तो उसे कोई नीचा नहीं दिखा सकता. वह सर उठाकर जी सकती है. इस सिद्धांत को मानते हुए कवयित्री 'पंखों में होंगे निश्चय' नामक कविता में कहती हैं-
"मुक्त होने दो हमें
अपने आप से
मन की गाँठ
आँचल की आबरू
आँखों की लाज और
अपनी ही गिरफ्त से
जुल्म अपने आप बंद हो जायेंगे"
लेकिन स्त्री की आत्मनिर्भरता से उसका श्रम दोहरा हो गया. वह घर और ऑफिस दोनों संभालने लगी. भूमंडलीकरण के दौर में अतिव्यस्तता के कारण वह परिवार में कुछ कम समय देने लगी. इसलिए उसके विषय में रूढ़ हो गया है की औरतों ने परिवार को नकारना शुरू कर दिया है, जिससे परिवार टूट रहा है- किन्तु रमणिका जी कहती हैं-
"मैंने कब तोड़े हैं रिश्ते ?
कब तोड़े हैं नेह के धागे ?
मैंने तो तोड़ी है सदियों से सीखी चुप्पी"
यह सत्य है की स्त्री के विषय में उसके जन्म से लेकर मृत्यु तक, विवाह से लेकर प्रजनन तक के सारे फैसले पुरुष ही लेता था तथा हिंसा, उत्पीडन, बलात्कार जैसी समस्याएं आम बात हो गई थी इसलिए क्षुब्ध होकर स्त्री-विमर्शियों ने विवाह करने से इंकार कर दिया, और तो और सुलामिथ फायरस्टोन ने गर्भाशय को काटकर फेंकने की बात कर डाली. किन्तु स्त्री-विमर्श के तीसरे दौर ने मातृत्व को अपनी शक्ति माना. मातृशक्ति औरत की सबसे बड़ी शक्ति है. उन्होंने स्पष्ट किया है उन्हें मातृत्व से नहीं बल्कि स्त्री का स्त्रीकरण से इंकार है. अतः रमणिका एक ऐसे सूरज को जन्म देना चाहती हैं, जो कभी अस्त न हो. 'मैं आजाद हुई हूँ' नामक काव्य संग्रह में वे कहती हैं-
"खिड़कियाँ खोल दी है
कि सूरज आ सके अन्दर
मेरी कोख से जन्म ले ले
एक नया दिन
दिन-
जो सदियों से नहीं आया था
दिन-
जो कभी छिपेगा नहीं सांझ में सूरज के साथ
क्योंकि सूरज को मैं अपनी कोख में
भर लिया हैं!"
इसलिए रमणिका जी ने स्त्रियों के विषय में पुरुषों द्वारा बनाए गए नियमों के विपक्ष में 'न' कहने का संकल्प कर लिया हैं. यदि पुरुष वर्ग समाज में अपने शक्ति का झंडा लहरा सकता है तो स्त्री क्यों नहीं? स्त्री को पुरुष की नक़ल करके नहीं बल्कि स्त्री रहकर ही अपनी शक्ति का परिचय देना होगा. तभी सही अर्थों में औरत की सही अस्मिता स्थापित हो सकती है-
"मेरे होने के इजहार के लिए-
विकल्प
वजूद का मिटना ही है
तो मिटूँगी मैं
पर चाकुओं को हवा में तैरने से-
रोकूंगी मैं ! रोकूंगी मैं !! रोकूंगी मैं !!!"
स्त्री विमर्शियों ने यह चुनौती पुरुष दिखाने के लिए नहीं बल्कि पुरुषवर्चस्ववादी सत्ता से मुक्ति पाने के लिए और स्वयं को इंसान की श्रेणी में गिने जाने लिए दी है. क्योंकि "संस्कृति से ऊपर है मनुष्यता, जो स्त्री को अब तक उप्लब्ध नहीं हो सकी है. यदि होती तो दुनियाँ में इतना आतंक नहीं फैलता. स्त्री तो मनुष्य बनने की प्रक्रिया में है, उस और अग्रसर है". इसलिए सदियों से निर्धारित मूल्यों में कवयित्रियों ने परिवर्तन कर मानव मात्र के हितोपयोगी मूल्यों को ही अपनाया. रमणिका गुप्ता के शब्दों में-
"आज मैं मूल्य बदल दिए हैं-- फिर से
भले दुनियाँ ने उन्हें नहीं माना.
मैंने रिश्ते तोड़ दिए हैं
ताकि नारीपन की ग्रंथि से मुक्ति पा सकूँ.
इंसान बन सकूँ."
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि स्त्री-विमर्श कवयित्रियों ने अपने निर्भीक लेखन और कविताओं में प्रजातांत्रिक मूल्यों समता, समानता और भाईचारा के माध्यम से मानव को मानव समझाने कि मांग की है. उनके सुख-दुःख की अभिव्यक्ति मात्र उनकी नहीं बल्कि समस्त पीड़ित एवं शोषित वर्गों कि है तथा उनकी 'मैं' शैली विश्व कि समस्त स्त्रियों कि व्यथा को एकता के सूत्र बांधती है. उनकी आत्मनिर्भरता ही उनकी स्वतंत्रतता कि पहली सीधी है, जिसके माध्यम से वे किसी भी तूफ़ान का सामना कर सकती हैं. जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण रमणिका गुप्ता हैं. स्वच्छंद विचारों वाली, यायावर , मजदूरों कि मसीहा, समाज-सेविका, स्त्री-विमर्शी कवयित्री, लेखिका, समीक्षक रमणिका गुप्ता समस्त नारी के लिए प्रेरणा स्रोत हैं.
साहित्य-जगत में सदियों से स्त्रियों की दबी-दबी आवाज जब मुखर हुई, तो सर्वप्रथम अपनी व्यथा-कथा से भड़की. स्त्रियों ने स्त्रियों की स्थिति तथा स्त्री का स्त्रीकरण कैसे हो गया, के विषय में सोचना शुरू किया तो विपक्ष में पुरुषवर्चस्ववादी सत्ता का नया रूप सामने आया. वह अपने शुभचिंतकों के हाथों ठगी गई थी, जो अब उसे स्वीकार्य नहीं था. इसलिए उसने पुरुषवर्चस्ववादी सत्ता का विरोध किया और स्त्री-विमर्श अर्थात नारीवादी आन्दोलन का सहारा लिया.
'स्त्री सम्बन्धी विषयों पर विचार करना' ही स्त्री-विमर्श है. स्त्री-विमर्श को परिभाषित करते हुए कहा जा सकता है स्त्री के विषय में उसके सुख-सुविधाओं से लेकर प्रत्येक समस्या के परिप्रेक्ष्य में ऐतिहासिक, सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और मनोवैज्ञानिक दृष्टि से सूक्ष्म से सूक्ष्मतम चिंतन-मनन कर अस्वस्थ दृष्टिकोणों को अस्वस्थता प्रदान करना ही स्त्री-विमर्श है.
पुरुषवर्चस्ववादी साहित्य में स्त्री-विमर्शी लेखिकाएं और कवयित्रियों ने शुरू-शुरू में अपरिपक्वता के साथ डर-डर कर कदम रखा, किन्तु बाद में उनकी निर्भीकता ने समस्त साहित्यकारों और आलोचकों को आश्चर्यचकित कर दिया. वे मात्र अपनी व्यथा-कथा तक ही सीमित न रही बल्कि सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी बोलना शुरू कर दीं. उनकी निर्भीकता और सीधे-सपाट बेधड़क बोलने और लिखने की शैली को बोल्ड-लेखन का नाम दे दिया गया. बोल्ड अर्थात निर्भीक अथवा साहसी.
स्त्री-विमर्शी बोल्ड लेखिकाओं व कवयित्रियों जैसे कृष्णा सोबती, प्रभा खेतान, मैत्रेयी पुष्पा, मन्नू भंडारी, उषा प्रियंवदा, अमृता प्रीतम में से रमणिका गुप्ता का भी नाम प्रसिद्द है. कुछ समय से लेखिकाओं के आत्मकथाओं को ध्यान में रखते हुए बोल्ड-लेखन का अर्थ निर्भीकता के बजाय प्रेम-प्रसंगों से लिया जाने लगा है किन्तु प्रेम-प्रसंग हो या अपने अधिकारों की मांग, स्वभावतः बोल्ड-लेखन के लिए लेखकों को भी बोल्ड अर्थात धृष्ट, प्रगल्भ बनना ही पडेगा. शेर की मंद में डर-डरकर जीने वाली औरतों ने शेर के विरुद्ध आवाज उठाई, यह धृष्टता ही उनकी बोल्डनेस है.
साहित्य के रण-क्षेत्र में अन्य लेखिकाओं की भांति रमणिका गुप्ता भी अस्त्र-शस्त्रों के साथ कूदीं और अब तक आम आदमियों के लिए युद्धरत हैं. आदिवासी, दलित तथा स्त्री-विमर्श इनके लेखन का प्रमुख क्षेत्र है. अब तक इनकी गद्य और पद्य की ३२ पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है तथा इन्होने २४ पुस्तकों का संपादन किया है, साथ ही वर्त्तमान में इनकी छः पुस्तकें प्रकाशनाधीन है. गद्य में 'सीता', 'मौसी' उपन्यास , 'बहुजुठाई' कहानी-संग्रह, 'निज घरे परदेसी' 'दलित सपनों का भारत और यथार्थ', 'स्त्री-विमर्श: कलम और कुदाल के बहाने' तथा 'लहरों की लय', निबंधात्मक, आलोचनात्मक और यात्रा-वृत्तांत तथा 'हादसे' आत्मकथात्मक पुस्तकें हैं. शीघ्र ही इनकी दूसरी आत्मकथा 'आपहुदरी' प्रकाशित होने वाली है. 'सीता', 'मौसी' उपन्यास तथा 'बहुजुठाई' कहानी-संग्रह इनकी आँखों देखा हाल है, जिसमे इनकी नायिकाएं कोलियरी खदानों में अपने हक़ के लिए संघर्षरत हैं. गद्य-साहित्य में अपने बोल्डनेस के कारण इनकी सबसे अधिक चर्चित कृति आत्मकथा 'हादसे' और प्रकाशनाधीन 'आपहुदरी' है.
बचपन से ही लेखिका निर्भीक एवं साहसी रहीं. परिवार में सामंतवाद, नौकरशाही, जातिवाद तथा पर्दा-प्रथा का विरोध, छिप-छिपकर राजनीति में भाग लेना, जाति एवं परम्परा तोड़कर विवाह करना इनके साहस का परिचायक है. रमणिका जी के कथनानुसार भारत और चीन की लड़ाई में इनका गीत जन-जन के मुख पर था-
"रंग-बिरंगी तोड़ चूड़ियाँ,
हाथों में तलवार गहूंगी
मैं भी तुम्हारे संग चलूंगी
मैं भी तुम्हारे साथ चलूंगी."
'हादसे' इनकी राजनैतिक-संघर्ष की दास्तान है तो 'आपहुदरी' प्रेम-प्रसंगों की. जहाँ समाज में अपमानित होने के भय से व्यक्तिगत-प्रेम के विषय में महिलाओं ने चुप्पी साधी थी, वही रमणिका जी किसी अपमान की चिंता किये बिना खुलकर अपने प्रेम प्रसंगों पर चर्चा करती हैं. जिसपर जारकर्म कहकर आलोचकों की मार भी पड़ी. किन्तु अपने लक्ष्य पर अडिग लेखिका व कवयित्री की एक ही पंक्ति सारे सवालों पर भारी पड़ती है-
"आज गंगा को अवतरित करने के लिए-
शंकर की दरकार नहीं है.
गंगा खुद उतर आएगी धरती पर".
पद्य में 'गीत-अगीत', 'अब और तब', 'खूंटे', 'प्रकृति युद्धरत है', 'कैसे करोगे बंटवारा इतिहास का', 'पूर्वांचल एक कविता यात्रा', 'विज्ञापन बनाता कवि', आदिम से आदमी तक', भला मैं कैसे मरती', 'अब मुरख नहीं बनेंगे हम', 'मैं आज़ाद हुई हूँ', 'तिल-तिल नूतन', 'तुम कौन', 'भीड़ सतर में चलने लगी है' तथा 'पातियाँ प्रेम की' नामक काव्य-संग्रह प्रकाशित है.
स्त्री-विमर्श से सम्बंधित इनकी दो काव्य-संग्रह महत्वपूर्ण हैं- 'खूंटे' और 'मैं आज़ाद हुई हूँ'. इनका काव्य-संग्रह इनकी स्वछंद विचारधारा और प्रहारक भाषा-शैली के कारण प्रसिद्ध है. इनके स्त्री-विमर्श की खास विशेषता है की स्वयं के सन्दर्भ में इन्होने कभी भी पुरुष को अपने प्रेम और शोषण के लिए दोषी ठहराया. इन्हें न तो अपनी सफलता के लिए पुरुष रूपी वृक्ष पर लता बनकर चढ़ना पसंद था और न ही पुरुष के अस्तित्व को ख़ारिज किया, क्योंकि स्त्री-पुरुष संसार के सबसे बड़े सत्य हैं तथा दोनों के सह्योग से सृष्टि संचालित होगा. अतः इन्होने स्त्री-पुरुष के बीच प्रेम को स्वाभाविक माना. 'एनी मेरी लिंडवर्ग' के इन पंक्तियों - "मैं/ जिससे प्रेम करती हूँ/ मैं चाहती हूँ/ कि/ वह मुक्त रहे/ यहाँ तक कि/ मुझसे भी" को इन्होने अपने जीवन में उतारा तथा सीधे सरल शब्दों में कह देती है-
"मैं प्यार करने लगी हूँ तुमसे.
इसलिए की
'तुम' - तुम हो.
तुम्हारे विशेषणों की मुझे चिंता नहीं.
मैं तुम्हारे 'तुम' से प्यार करती हूँ."
ये स्वयं भी नहीं चाहती की कोई इन्हें इनकी मजबूरियों को या इनके रूप से प्यार करे, इसलिए कहती हैं-
"तरस खाकर मेरी झोली में
प्यार की भीख मत डाल.
मेरे तन को नहीं,
मुझे प्यार कर
नहीं तो मेरा मन
गौड़ हो जाएगा."
ये प्रेम करने को विद्रोह मानते हुए कहती है- "वर्चस्व सत्ता की प्रवृति है तो प्रेम विद्रोह व प्रतिरोध का पर्याय. केवल विद्रोही ही कर सकता है प्रेम. प्रेम परम्परा को तोड़ता है और कायम करता है अपनी नई राह- नई दिशा." क्योंकि भारत में प्रेम करने की मनाही रही. 'पातियाँ प्रेम की' नामक काव्य-संग्रह में ये लिखती हैं- "प्रेम ही बदल सकता है समाज. जो प्रेम करना नहीं जानता वह जीना भी नहीं जानता. हम जीने के लिए ही नहीं जीते बस. कोई न कोई मकसद होता है जीने का- और वह मकसद है प्यार-जिंदगी से प्यार. प्रायः हर व्यक्ति करता है जिंदगी से प्यार! वह उसके लिए आख़िरी दम तक जद्दोजहद करता है ! मैंने जिंदगी को दम भर प्यार किया है, इसलिए मेरी कोशिश रही की जिंदगी कभी हारे नहीं- मैं भले हार जाऊं ! प्यार जीतता रहे ! प्यार बरकरार रहे !"
प्रेम के साथ ये यौनेच्छा को नैसर्गिक मानती हैं. जो 'स्व' और 'पर' के बीच प्रेम को चरमोत्कर्ष पर पहुंचाता है. ये कहती हैं- "'स्व' से समष्टि तक इस अबाध यात्रा में देह का महत्वपूर्ण योगदान होता है. 'स्व' और 'पर दो कायाओं का बोध कराते हैं. 'स्व' से 'परकाया' में प्रवेश इसी प्रेम के सहारे करता है. लेखक का कवि, चूँकि संवेदना और प्रेम का अन्योन्याश्रित रिश्ता है. संवेदना के सहारे दो प्रेमियों के बीच यह रिश्ता आकर्षण की आँखों में पनपता है. 'स्व' से 'समूह' तक की यात्रा संकल्प के दृढ कन्धों पर चढ़ कर तय करता है प्रेम ! लेकिन इसके विपरीत समूह का व्यक्ति-प्रेम विश्वास की बलिष्ठ बाहों से होता हुआ मुठ्ठियों में बंधकर हवा में हिलोरे लेने लगता है! "
प्रेम को शक्ति मानते हुए दार्शनिक ओशो कहते है- "प्रेम शक्तियों का निकास बनता है. प्रेम बहाव है. क्रियेशन, सृजनात्मक है प्रेम, इसलिए वह बहता है और एक तृप्ति लाता है. वह तृप्ति सेक्स की तृप्ति से बहुत ज्यादा और गहरी है. जिसे वह तृप्ति मिल गई- वह कंकण पत्थर नहीं बीनता, जिसे हीरे-जवाहरात मिलने शुरू हो जाते है." कदाचित इनके उन्मुक्त प्रेम का ही फल है की इन्होने बड़े से बड़े समस्याओं का सामना आसानी से कर लिया.
प्रेम में ये कोई भी कीमत चुकाने के लिए तैयार है किन्तु अपनी अस्मिता और स्वतंत्रता से कोई समझौता नहीं कर सकतीं. प्रेम में रोक-टोक, अधिकार ज़माना इन्हें बिल्कुल पसंद नहीं. विवेकहीन प्यार की कोई उम्र नहीं होती, इसलिए प्यार है अथवा नहीं है तो उसे स्वीकार करने की क्षमता होनी चाहिए. स्त्री प्रेमवश पुरुष को अपने सारे अधिकार सौंप देती है, और अनजाने में पुरुष की गुलाम बन जाती है. इसलिए कवयित्री कहती हैं-
"मैं ही उसे राजा बनाती हूँ
और बनती हूँ उसकी रानी
यहीं से शुरू होती है
मेरी गुलामी की दास्तान
और इकरार की कहानी."
स्त्री की जब आँखें खुली तब उसे समझ में आया-
"पर तुम तो पिंजरा बन गए
मेरे पंख और डैने बांध
सुनते मेरी गुटरगूं
मुझे रात-रात भर जगाते
सुनते
मेरी फड़फड़ाहट-छटपटाहट
चारा फेंक कर
जाल बिछा कर !"
------------------
"तुम तो
खूंटा बन गए
जिसे देख रूह कांपती है मेरी
इसलिए
मैं रुकती नहीं कभी
कहीं भी !"
सम्पति की अवधारणा के साथ ही स्त्री भी पुरुष की सम्पति बन गई. उसके सारे फैसले पुरुष लेने लगा. वह उसे सम्पति की भांति सजाने-सवाने और संभालने लगा. धीरे-धीरे वह उसी मानसिकता से ग्रसित होने लगी और पुरुषवर्चस्ववादीसत्ता की जकड़न में जकड गई. किन्तु जब उसे साजिश समझ में आई और वहां से निकलना चाहि तब तक रिश्तों की परिभाषा बदल चुकी थी. परिवार, परम्परा और संस्कृति की पाबंदियों से निकालना इतना आसान नहीं था. घर की चौखट लांघना और अचानक पुरुष के क्षेत्र में ही जाकर नौकरी करना उसके लिए मुश्किल ही नहीं मधुमक्खी के छत्ते में हाथ डालने जैसा था. तत्पश्चात वह आर्थिक रूप से निर्भर हुई, उसकी आर्थिक निर्भरता ने ही उसका आत्मविश्वास वापस लौटाया और उसने मात्र जमीन पर ही नहीं बल्कि अंतरिक्ष में भी विचरण करना शुरू कर दिया. वह किसी पुरुष पर अवलंबित होने के बजाय अपना जीवन-निर्वाह स्वयं करने लगी, किसी पुरुष का अत्याचार सहने के बजाय अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाने लगी. वह अपने सारे फैसले स्वयं करने लगी. रमणिका गुप्ता इस बात की प्रत्यक्ष उदाहरण हैं. उन्हें पुरुष द्वारा मंदिर में स्थापित की गई देवी अथवा कुलटा या माया,ठगिनी कहलाना पसंद नहीं . उनके अनुसार यदि औरत औरत होने की हीन ग्रंथि से मुक्त हो जाए तो उसे कोई नीचा नहीं दिखा सकता. वह सर उठाकर जी सकती है. इस सिद्धांत को मानते हुए कवयित्री 'पंखों में होंगे निश्चय' नामक कविता में कहती हैं-
"मुक्त होने दो हमें
अपने आप से
मन की गाँठ
आँचल की आबरू
आँखों की लाज और
अपनी ही गिरफ्त से
जुल्म अपने आप बंद हो जायेंगे"
लेकिन स्त्री की आत्मनिर्भरता से उसका श्रम दोहरा हो गया. वह घर और ऑफिस दोनों संभालने लगी. भूमंडलीकरण के दौर में अतिव्यस्तता के कारण वह परिवार में कुछ कम समय देने लगी. इसलिए उसके विषय में रूढ़ हो गया है की औरतों ने परिवार को नकारना शुरू कर दिया है, जिससे परिवार टूट रहा है- किन्तु रमणिका जी कहती हैं-
"मैंने कब तोड़े हैं रिश्ते ?
कब तोड़े हैं नेह के धागे ?
मैंने तो तोड़ी है सदियों से सीखी चुप्पी"
यह सत्य है की स्त्री के विषय में उसके जन्म से लेकर मृत्यु तक, विवाह से लेकर प्रजनन तक के सारे फैसले पुरुष ही लेता था तथा हिंसा, उत्पीडन, बलात्कार जैसी समस्याएं आम बात हो गई थी इसलिए क्षुब्ध होकर स्त्री-विमर्शियों ने विवाह करने से इंकार कर दिया, और तो और सुलामिथ फायरस्टोन ने गर्भाशय को काटकर फेंकने की बात कर डाली. किन्तु स्त्री-विमर्श के तीसरे दौर ने मातृत्व को अपनी शक्ति माना. मातृशक्ति औरत की सबसे बड़ी शक्ति है. उन्होंने स्पष्ट किया है उन्हें मातृत्व से नहीं बल्कि स्त्री का स्त्रीकरण से इंकार है. अतः रमणिका एक ऐसे सूरज को जन्म देना चाहती हैं, जो कभी अस्त न हो. 'मैं आजाद हुई हूँ' नामक काव्य संग्रह में वे कहती हैं-
"खिड़कियाँ खोल दी है
कि सूरज आ सके अन्दर
मेरी कोख से जन्म ले ले
एक नया दिन
दिन-
जो सदियों से नहीं आया था
दिन-
जो कभी छिपेगा नहीं सांझ में सूरज के साथ
क्योंकि सूरज को मैं अपनी कोख में
भर लिया हैं!"
इसलिए रमणिका जी ने स्त्रियों के विषय में पुरुषों द्वारा बनाए गए नियमों के विपक्ष में 'न' कहने का संकल्प कर लिया हैं. यदि पुरुष वर्ग समाज में अपने शक्ति का झंडा लहरा सकता है तो स्त्री क्यों नहीं? स्त्री को पुरुष की नक़ल करके नहीं बल्कि स्त्री रहकर ही अपनी शक्ति का परिचय देना होगा. तभी सही अर्थों में औरत की सही अस्मिता स्थापित हो सकती है-
"मेरे होने के इजहार के लिए-
विकल्प
वजूद का मिटना ही है
तो मिटूँगी मैं
पर चाकुओं को हवा में तैरने से-
रोकूंगी मैं ! रोकूंगी मैं !! रोकूंगी मैं !!!"
स्त्री विमर्शियों ने यह चुनौती पुरुष दिखाने के लिए नहीं बल्कि पुरुषवर्चस्ववादी सत्ता से मुक्ति पाने के लिए और स्वयं को इंसान की श्रेणी में गिने जाने लिए दी है. क्योंकि "संस्कृति से ऊपर है मनुष्यता, जो स्त्री को अब तक उप्लब्ध नहीं हो सकी है. यदि होती तो दुनियाँ में इतना आतंक नहीं फैलता. स्त्री तो मनुष्य बनने की प्रक्रिया में है, उस और अग्रसर है". इसलिए सदियों से निर्धारित मूल्यों में कवयित्रियों ने परिवर्तन कर मानव मात्र के हितोपयोगी मूल्यों को ही अपनाया. रमणिका गुप्ता के शब्दों में-
"आज मैं मूल्य बदल दिए हैं-- फिर से
भले दुनियाँ ने उन्हें नहीं माना.
मैंने रिश्ते तोड़ दिए हैं
ताकि नारीपन की ग्रंथि से मुक्ति पा सकूँ.
इंसान बन सकूँ."
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि स्त्री-विमर्श कवयित्रियों ने अपने निर्भीक लेखन और कविताओं में प्रजातांत्रिक मूल्यों समता, समानता और भाईचारा के माध्यम से मानव को मानव समझाने कि मांग की है. उनके सुख-दुःख की अभिव्यक्ति मात्र उनकी नहीं बल्कि समस्त पीड़ित एवं शोषित वर्गों कि है तथा उनकी 'मैं' शैली विश्व कि समस्त स्त्रियों कि व्यथा को एकता के सूत्र बांधती है. उनकी आत्मनिर्भरता ही उनकी स्वतंत्रतता कि पहली सीधी है, जिसके माध्यम से वे किसी भी तूफ़ान का सामना कर सकती हैं. जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण रमणिका गुप्ता हैं. स्वच्छंद विचारों वाली, यायावर , मजदूरों कि मसीहा, समाज-सेविका, स्त्री-विमर्शी कवयित्री, लेखिका, समीक्षक रमणिका गुप्ता समस्त नारी के लिए प्रेरणा स्रोत हैं.
बुधवार, 18 अगस्त 2010
Kaash !!!
काश !!!
तड़पती आहों का सैलाब, उमड़ता है हिय में
काश ! तुम आ जाते फिर से मेरे जीवन में.
सपनों का वो संसार, हक़ीकत का प्यार
रस्म-ओ-दुनियाँ की दरकार, ओ मेरे राजकुमार
मृदुभाश बन निकलते, मेरे इन लबों से
काश ! तुम आ जाते, फिर से मेरे जीवन में.
आँखों का अन्धकार मिटा, बन जाते तुम प्रकाश
लक्ष्य का तू ध्रुवीकरण, जीवन का उजास
प्रगति-कज्जल बन, समा जाते मेरे इन नैनन में
काश ! तुम आ जाते, फिर से मेरे जीवन में.
दिनों के देवता, जीवन का अधिकार
समाज को दे ममता, ले लेखनी की तलवार
विचार बन आते, मेरे लेख-उपवन में
काश ! तुम आ जाते फिर से मेरे जीवन में.
तड़पती आहों का सैलाब, उमड़ता है हिय में
काश ! तुम आ जाते फिर से मेरे जीवन में.
सपनों का वो संसार, हक़ीकत का प्यार
रस्म-ओ-दुनियाँ की दरकार, ओ मेरे राजकुमार
मृदुभाश बन निकलते, मेरे इन लबों से
काश ! तुम आ जाते, फिर से मेरे जीवन में.
आँखों का अन्धकार मिटा, बन जाते तुम प्रकाश
लक्ष्य का तू ध्रुवीकरण, जीवन का उजास
प्रगति-कज्जल बन, समा जाते मेरे इन नैनन में
काश ! तुम आ जाते, फिर से मेरे जीवन में.
दिनों के देवता, जीवन का अधिकार
समाज को दे ममता, ले लेखनी की तलवार
विचार बन आते, मेरे लेख-उपवन में
काश ! तुम आ जाते फिर से मेरे जीवन में.
Bachpan
बचपन
बीती यादों का सैलाब, उमड़ता है हिय में
काश ! वो दिन आ जाता फिर से मेरे जीवन में.
हंसी, ख़ुशी, उमंग, लड़कपन
खेलना-कूदना, उछालना
वो कबड्डी, सुटुर, लुका-छिपी
रोना-धोना, पतंग बनाना
बारिश में भीगना, गड्ढों में नाव चलाना
कागज़ के फूल, बांगों के झूले, रेत के टीले
घास की बाली, गोबर की मेहंदी
मिटटी के बर्तन, तलवे का दर्पण
मंदिर की घंटी, गुड्डे-गुड़ियों की शादी
गिनती पहाडा रटना, रटना औ' भूल जाना
माँ के हांथों का खाना , पिता का समझाना
राख के ऊपर दादा जी का लिखना सिखाना
न लिख पाने पर थप्पड़ खाना
रोने पर चोटहवा गट्टा और लमचुस खाना
नरकट की कलम, दुद्धी दवात
पटरी भूल खेलने लग जाना
निश्छलता से सबके संग मिल
सपनों का प्लेन उड़ाना
मित्र मंडली में लड़-झगड़कर
"सारे जहान से अच्छा, हिन्दोस्ताँ हमारा" गाना
एकता का नारा औ' एक हो जाना.
मन विह्वल हो जाता है सोचकर
दुःख है की नहीं आता वो लौटकर
वो निष्कपटता, मानवीयता, प्रेमपरकता
यदि इस उम्र में भी आ जाता, तो
मानव-मानव बन जाता.
माना की बुद्धि परिपक्व है, पर
उतनी ही जन्मी हैवानियत है
नेपथ्य अटल है, पर ह्रदय विकल है
सपने सजोती हूँ पीढ़ी-दर-पीढ़ी आँखों में
काश ! वो दिन आ जाता फिर से मेरे जीवन में.
बीती यादों का सैलाब, उमड़ता है हिय में
काश ! वो दिन आ जाता फिर से मेरे जीवन में.
हंसी, ख़ुशी, उमंग, लड़कपन
खेलना-कूदना, उछालना
वो कबड्डी, सुटुर, लुका-छिपी
रोना-धोना, पतंग बनाना
बारिश में भीगना, गड्ढों में नाव चलाना
कागज़ के फूल, बांगों के झूले, रेत के टीले
घास की बाली, गोबर की मेहंदी
मिटटी के बर्तन, तलवे का दर्पण
मंदिर की घंटी, गुड्डे-गुड़ियों की शादी
गिनती पहाडा रटना, रटना औ' भूल जाना
माँ के हांथों का खाना , पिता का समझाना
राख के ऊपर दादा जी का लिखना सिखाना
न लिख पाने पर थप्पड़ खाना
रोने पर चोटहवा गट्टा और लमचुस खाना
नरकट की कलम, दुद्धी दवात
पटरी भूल खेलने लग जाना
निश्छलता से सबके संग मिल
सपनों का प्लेन उड़ाना
मित्र मंडली में लड़-झगड़कर
"सारे जहान से अच्छा, हिन्दोस्ताँ हमारा" गाना
एकता का नारा औ' एक हो जाना.
मन विह्वल हो जाता है सोचकर
दुःख है की नहीं आता वो लौटकर
वो निष्कपटता, मानवीयता, प्रेमपरकता
यदि इस उम्र में भी आ जाता, तो
मानव-मानव बन जाता.
माना की बुद्धि परिपक्व है, पर
उतनी ही जन्मी हैवानियत है
नेपथ्य अटल है, पर ह्रदय विकल है
सपने सजोती हूँ पीढ़ी-दर-पीढ़ी आँखों में
काश ! वो दिन आ जाता फिर से मेरे जीवन में.
गुरुवार, 12 अगस्त 2010
Kaash ! Koi Mujhe Chaahe
काश ! कोई मुझे चाहे
काश ! कोई मुझे चाहे.
नयन के मसखरे, गालों का गुलाबी रंग
होंठ की लाली, बाली की सुर्ख छनक
सादगी के सामने हो जाए बेकार,
कृत्रिमता छोड़ मेरी बदसूरती को दुलराये
काश ! कोई मुझे चाहे.
गर्दन सुराहीदार, पालिश का संसार
नागिन से बाल, मतवाली चाल
शीलता के आगे हो जाए अवसाद;
एक अक्स ऐसा बने
जो रेत, पानी पर भी ठहर जाए
काश ! कोई मुझे चाहे.
कंठ की सुरीली आवाज, फैशन का आगाज़
रंगीन दुनियाँ की तंग परिधान, दौलत बेसुमार
सब भूल ज्ञान-दीप जलाए;
मेरी देह छोड़ मन को सराहे
काश ! कोई मुझे चाहे.
काश ! कोई मुझे चाहे.
नयन के मसखरे, गालों का गुलाबी रंग
होंठ की लाली, बाली की सुर्ख छनक
सादगी के सामने हो जाए बेकार,
कृत्रिमता छोड़ मेरी बदसूरती को दुलराये
काश ! कोई मुझे चाहे.
गर्दन सुराहीदार, पालिश का संसार
नागिन से बाल, मतवाली चाल
शीलता के आगे हो जाए अवसाद;
एक अक्स ऐसा बने
जो रेत, पानी पर भी ठहर जाए
काश ! कोई मुझे चाहे.
कंठ की सुरीली आवाज, फैशन का आगाज़
रंगीन दुनियाँ की तंग परिधान, दौलत बेसुमार
सब भूल ज्ञान-दीप जलाए;
मेरी देह छोड़ मन को सराहे
काश ! कोई मुझे चाहे.
रविवार, 1 अगस्त 2010
Manu Ne Kahaa Hai... Aur Ham ?
मनु ने कहा है... और हम ?
मनु ने मनुस्मृति में लिखा है-
पत्नी के भरण-पोषण कि जिम्मेदारी पति पर है.
परन्तु मनु ने यह नहीं बताया कि
यदि भरण-पोषण करते हुए पति
पत्नी को नित-प्रति ताना मारे
तो पत्नी पैसा कहाँ से लाये ?
मनु ने मनुस्मृति में लिखा है-
पति को खाना खिलाकर ही पत्नी खाए.
परन्तु मनु ने यह नहीं बताया कि
पत्नी को पति से पहले भूख लग जाए
तो वह क्या खाकर भूख मिटाए ?
मनु ने मनुस्मृति में लिखा है-
स्त्री सदैव किसी न किसी पुरुष के आधीन रहे.
किन्तु उन्होंने यह नहीं बताया कि
जब रक्षक ही भक्षक बन जाए
तब वह किसके सामने गूहार लगाए ?
हे महर्षि मनु !
हम साधारण नारी हैं
हमें 'पैसों की भूखी' ताना सुनाए पर
बहुत तकलीफ़ होती है
मेरा स्वाभिमान खंड-खंड बिखरता है
तब मन करता है
कहीं से भी पैसा लाकर
उसके मुंह पर दे मारूँ
और अपने स्वाभिमान को बिखरने से बचा लूं.
हे महर्षि मनु !
मैं भी मनुष्य हूँ
मुझे भी भूख लगती है
वह रात-बिरात बाहर से खाकर आये
और मैं भूखी सो जाती हूँ
तब मैं ही नहीं मेरी आत्मा भी
नींद में भूख से बिलबिलाती है
तब मन करता है
छोड़ दूं पतिव्रता का ढोंग
और बिस्तर के बजाय
रोटी का हुस्न चखूँ.
हे महर्षि मनु !
मैं भी उसी की जैसी हाड-मांस से बनी हूँ
फिर उसे आज़ादी औ' मुझे यह बंदगी क्यों
अपराधी खुलेआम घुमे और
मैं ही जेल में कैद रहूँ
उसका जब मन करे तब वह
मुझे नोच-खरोच कर चला जाए
और मैं अपने घाव का सबूत देती फिरूँ
नहीं...
मेरा भी मन करता है
मैं भी पुर ब्रम्हांड में स्वछंद विचरण करूँ
और अपना घाव सेंककर फौलाद बनाऊं
सारे अपराधियों को एक साथ सजा दे सकूँ
ताकि दुबारा कोई न कर सके किसी को
बिना उसकी ईजाजत के
और हम बना सकें खुद को संपूर्ण.
मनु ने मनुस्मृति में लिखा है-
पत्नी के भरण-पोषण कि जिम्मेदारी पति पर है.
परन्तु मनु ने यह नहीं बताया कि
यदि भरण-पोषण करते हुए पति
पत्नी को नित-प्रति ताना मारे
तो पत्नी पैसा कहाँ से लाये ?
मनु ने मनुस्मृति में लिखा है-
पति को खाना खिलाकर ही पत्नी खाए.
परन्तु मनु ने यह नहीं बताया कि
पत्नी को पति से पहले भूख लग जाए
तो वह क्या खाकर भूख मिटाए ?
मनु ने मनुस्मृति में लिखा है-
स्त्री सदैव किसी न किसी पुरुष के आधीन रहे.
किन्तु उन्होंने यह नहीं बताया कि
जब रक्षक ही भक्षक बन जाए
तब वह किसके सामने गूहार लगाए ?
हे महर्षि मनु !
हम साधारण नारी हैं
हमें 'पैसों की भूखी' ताना सुनाए पर
बहुत तकलीफ़ होती है
मेरा स्वाभिमान खंड-खंड बिखरता है
तब मन करता है
कहीं से भी पैसा लाकर
उसके मुंह पर दे मारूँ
और अपने स्वाभिमान को बिखरने से बचा लूं.
हे महर्षि मनु !
मैं भी मनुष्य हूँ
मुझे भी भूख लगती है
वह रात-बिरात बाहर से खाकर आये
और मैं भूखी सो जाती हूँ
तब मैं ही नहीं मेरी आत्मा भी
नींद में भूख से बिलबिलाती है
तब मन करता है
छोड़ दूं पतिव्रता का ढोंग
और बिस्तर के बजाय
रोटी का हुस्न चखूँ.
हे महर्षि मनु !
मैं भी उसी की जैसी हाड-मांस से बनी हूँ
फिर उसे आज़ादी औ' मुझे यह बंदगी क्यों
अपराधी खुलेआम घुमे और
मैं ही जेल में कैद रहूँ
उसका जब मन करे तब वह
मुझे नोच-खरोच कर चला जाए
और मैं अपने घाव का सबूत देती फिरूँ
नहीं...
मेरा भी मन करता है
मैं भी पुर ब्रम्हांड में स्वछंद विचरण करूँ
और अपना घाव सेंककर फौलाद बनाऊं
सारे अपराधियों को एक साथ सजा दे सकूँ
ताकि दुबारा कोई न कर सके किसी को
बिना उसकी ईजाजत के
और हम बना सकें खुद को संपूर्ण.
गुरुवार, 29 जुलाई 2010
Hamne Sochaa ki...
हमने सोचा कि...
सोचा की तुम्हें भूल जायेंगे हम,
तुम चाहो तो भी न पास आयेंगे हम.
जितना सताया है तुमने हमें,
उतना ही तुम्हें भी सतायेंगे हम.
मगर ये पागल दिल है यारों,
तुम्हें तड़पाकर खुद तड़प जाएँ हम.
सोचा की इस बार बात करलें,
अगली बार रूठ जायेंगे हम.
गर दिल नहीं है दिल में तुम्हारे,
रेत से पानी निचोड़ लायेंगे हम.
सोचा की तुम्हें भूल जायेंगे हम,
तुम चाहो तो भी न पास आयेंगे हम.
जितना सताया है तुमने हमें,
उतना ही तुम्हें भी सतायेंगे हम.
मगर ये पागल दिल है यारों,
तुम्हें तड़पाकर खुद तड़प जाएँ हम.
सोचा की इस बार बात करलें,
अगली बार रूठ जायेंगे हम.
गर दिल नहीं है दिल में तुम्हारे,
रेत से पानी निचोड़ लायेंगे हम.
Har Aadami
हर आदमी
हर आदमी
औरत के सामने
नंगा होना चाहता है.
पर सज्ज़नता का
जामा पहन
इज्ज़तदार बन जाता है.
हर आदमी
औरत के सामने
नंगा होना चाहता है.
पर सज्ज़नता का
जामा पहन
इज्ज़तदार बन जाता है.
Do Saheliyaan
दो सहेलियाँ
दो सहेलियाँ
आपस में
बात करतीं
अपने घर, परिवार
सपनों की दुनियाँ के
बारे में,
पर
नहीं कर पातीं
अपने
प्यार के
बारे में.
दो सहेलियाँ
आपस में
बात करतीं
भावनाओं, समस्याओं
लक्ष्य के बारे में,
पर
नहीं आश्वस्त
हो पातीं
अपने
जीवन के
बारे में.
दो सहेलियाँ
आपस में
बात करतीं
अपने घर, परिवार
सपनों की दुनियाँ के
बारे में,
पर
नहीं कर पातीं
अपने
प्यार के
बारे में.
दो सहेलियाँ
आपस में
बात करतीं
भावनाओं, समस्याओं
लक्ष्य के बारे में,
पर
नहीं आश्वस्त
हो पातीं
अपने
जीवन के
बारे में.
रविवार, 25 जुलाई 2010
site !
सीते !
सीते, तू क्यों हार गई ?
तू देवी है, तू माता है
तू आराध्य, जगमाता है.
तू समस्त नारियों की अभिमान
तेरे पगचिन्हों पर चले जहान,
तू आदर्श पुत्री, तू पत्नी है
तू आदर्श बहू औ' रानी है
दुनियाँ की ये इच्छा है
तुझ जैसी सबको सती मिले.
फिर ऐ पतिव्रता,
तू क्यों हुई लहुलुहान
अंततः दे दी क्यों जाँ गवां
तू सतियों में सती नारी है.
हर समाज में प्यारी है.
ऐ सुकुमारी, क्या तुझे पता ?
जब चली तू पति-प्रेम हेतु वनवास
उर पति भी तेरे संग चला
उर नहीं जा सकी पिय के संग
वो खड़ी रही एक पग, दीप जला
उस मर्म को तुने कितना समझा ?
वो शिखा संग जलती रही
पिया की राह तकती रही,
तू पिया संग निश्चिन्त रही
लक्ष्मण रक्षा हेतु जगे बन प्रहरी
उर आंसू पीकर मौन रही
विरह-अग्नि में तपती रही,
जब लगा लक्ष्मण को नागपाश
मुर्छित भ्रात्रु का तुझे नहीं आभास
उर समझ गई वह प्रचंड काल
वह साधना में तल्लीन हुई
लक्ष्मण को मिला जीवनदान
प्रिय-प्रेम में वह विजयी हुई.
ऐ पतिव्रता, क्या तुझे पता ?
तेरी बहन मांडवी की वेदना,
भरत भ्रात्रु-प्रेम में बन गए सन्यासी
वो प्यारी खजाने में भी खाली
दूर पति हो तो सह ले जुदाई
गर पास हो तो कैसे सहे
उसका हिय कैसे बना कठोर
क्या उसके दर्द का है कोई ओर-छोर ?
ऐ महारानी, राम की रानी !
क्या तुझे पता, श्रुतिकेतु की महानता ?
जब सबने ले लिया अवकाश
तब श्रुति ने ही सम्भाला पिय संग राज्य
वह डटी रही पर हटी नहीं
वह जगी रही पर सोई नहीं
पिय संग हो या दूर हो
वह रोई सही पर घबराई नहीं.
ऐ जानकी ! तेरी बहनें थीं
धैर्यवान, बलवान और महान
वे खामोश सही पर डरी नहीं
वे तन्हाँ सही पर अडिग रहीं
वे हारकर मरी नहीं.
ऐ सीते, क्या तुझे पता है
आत्महत्या कौन करता है ?
...................................
........ तू डरती रही
पति,समाज और दुनियाँ से
माना की पति का दिया साथ
वन में चल दी ले हांथों में हाथ
कष्ट सहती रही दिन औ' रात,
सूना है, तुझमें थी बड़ी शक्ति
सृष्टि पर है तेरी हस्ती
फिर भी
'किडनैप' हो गई रावण के हाथ.
सूना है, यदि रावण तुझे छू देता, तो
वह जलकर भष्म हो जाता
फिर क्यों नहीं जलाकर भाग आई
तू अपने राम के पास !!
क्यों होने दिया नरसंहार
क्या नहीं समझ पाई थी
कुटुम्बी जनों का प्यार,
क्या सुनाई नहीं देता था
अशोक-वाटिका में
माताओं, विधवाओं का चीत्कार,
क्यों नहीं तोड़ा तुने कारागार
क्यों करती रही अबला की भांति
अपने राम का इंतज़ार.
उस राम का, जिसने
वापस आते ही ली अग्नि-परीक्षा
क्या तुझपर न था तनिक भी विश्वास
पर इतना बता जानकी-
'विश्वास बिना प्रेम संभव कैसे ?
विश्वास तो प्रेम का बीजारोपण है'!
सूना है, ये सब खेल था
राम ने तुझे पहले ही
अग्नि को सौप दिया था
क्योकि उन्हें पता था
रावण तुझे ले जाएगा
ब्रम्हा जो थे !!!
अपहृत सीता तो तेरी छाया थी
उन्होंने मात्र अग्नी से तुम्हे वापस लिया था .
क्या करूँ सीते, मेरा मन नहीं मानता
क्योकि औरत के साथ हुए
प्रत्येक जुर्म को
खेल ही समझा जाता है.
पुरुष खेलता है,
क्योंकि औरत खिलौना जो है !!
मैंने तो यहाँ तक सूना है की
नेपथ्य में रावण तुझे
माता कहकर पूजता था,
क्या ये सत्य है सीते !
प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष का चलचित्र
एक ओर माता और
दूसरी ओर हवस की इच्छा,
फिर इतना बता दो जनकदुलारी !
'किस समाज की ओर
संकेत करता है ये छद्म' ?
वापसी का भी क्या फ़ायदा सीते
एक धोबी के व्यंग से
कर दिया गया तेरा परित्याग
राम जिसे पहचानते तक न थे
उसके व्यंग को पहचान गए
तू सहचरी बन प्रतिपल रही साथ
पर तेरी पहचान से वे रहे अनजान
अपमान की आशंका से
छोड़ दिया तेरा हाथ
वह भी उस समय
जब थी गर्भवती तू, और
उन्हें रहना था तेरे पास !
कहाँ गया था उस समय
लक्ष्मण का मात्रु-प्रेम
क्या जंगल में था
मात्र भ्रात्रु-प्रेम !
क्या नहीं था खानदान
में कोई शेष
जो कुचल सके ऐसे राज्य का
छद्मी वेश !
क्या सोचा था कभी, तुने बाद में
क्यों तेरी बहनों ने
चुप्पी साध ली थी ?
जबकि जनकपुरी की सभी लड़कियां
एक साथ अयोध्या में ब्याही गई थीं !
तुम उनकी मार्गदर्शिका होकर भी
झेलती रही अत्याचार
क्या नहीं हो सकता था लंका के बाद
कोई और व्याभिचार
होती रही तेरे सतीत्व की परीक्षा
राजा राम बने रहें सदाचार !
सुना है, राम-राज्य में
ये राम की विवशता थी,
जिसका सपना
प्रत्येक भारतीय देखता है.
वो राज्य,जहाँ पत्नी को
बेसहारा जंगल में छोड़ दिया जाता है
कसूर मात्र शक और व्यंग्य !!
ऐ सीते, क्यों नहीं लड़ी तू हक़ के लिए
आत्महत्या कर ली कर मात्र शक के लिए,
क्या कुछ भी नहीं सीखा
अपनी बहनों से
जो हिम्मत के साथ
घर में अटल रहीं,
तू रानी बनकर भी
विकल रही .
सुना है, राम तुझे बचाने के लिए दौड़े थे
पर तबतक तू धरती में समा चुकी थी ,
और ये भी सुना है राम भगवान थे, औ'
तुझे प्यार भी बहुत करते थे,
जब तू जंगलों में बेसहारा भटक रही थी
तब तेरी प्रतिमा से पूजा सम्पन्न हुई थी,
वे बहुत शक्तिशाली भी थे
लंका नगरी से बचाकर तुझे लाये थे
अपने सामने तिल-तिलकर मरने के लिए.
सुना है, उनके लिए कुछ भी असंभव न था
परन्तु तुम्हे बचाना उनके लिए संभव न हो सका
तू काल के गर्त में समाती गई
और वे तेरे बाल नोचकर 'सीते-सीते' चिल्लाते रहे.
सीते ! समझ में नहीं आता
मैं क्या कहूँ,
दुनियाँ की भाँती मैं भी तुझे पूजूं
अथवा तेरी दयनीय दशा पर
आंसू बहाऊं.
समय बदल गया, पर
ये छद्मी संसार न बदला
राम के निकालने पर
यदि तू घर से न गई होती
अत्याचारों से क्षुब्ध हो
यदि आत्महत्या न की होती
तो आज अपनी बहनों की तरह
तू इस दुनियाँ में नहीं जानी जाती.
तू कठपुतली बन नाचती रही
संवेदनहीन बन
प्रत्येक जुर्म सहती गई
मुर्दे की भाँती
हर खेल का अंग बनती गई
इसलिए तू आज
देवी है, पूजनीय है,
प्रेयसी है, पत्नी है.
क्या तुझे पता है, आज के युग में भी
जो औरत खामोश है
वह सुशील, अच्छी और संस्कारी कहलाती है.
जो अन्याय के विरुद्ध बोलती है
वह मानसिक विकृति की शिकार कहलाती है.
औरतों का बोलना तो फूटे ढोल को भी नहीं सुहाता
फिर पुरुष को..............?
यदि रामराज्य का एक अंक यही है, तो
इस देश के भविष्य का क्या होगा ?
सीते, तू क्यों हार गई ?
तू देवी है, तू माता है
तू आराध्य, जगमाता है.
तू समस्त नारियों की अभिमान
तेरे पगचिन्हों पर चले जहान,
तू आदर्श पुत्री, तू पत्नी है
तू आदर्श बहू औ' रानी है
दुनियाँ की ये इच्छा है
तुझ जैसी सबको सती मिले.
फिर ऐ पतिव्रता,
तू क्यों हुई लहुलुहान
अंततः दे दी क्यों जाँ गवां
तू सतियों में सती नारी है.
हर समाज में प्यारी है.
ऐ सुकुमारी, क्या तुझे पता ?
जब चली तू पति-प्रेम हेतु वनवास
उर पति भी तेरे संग चला
उर नहीं जा सकी पिय के संग
वो खड़ी रही एक पग, दीप जला
उस मर्म को तुने कितना समझा ?
वो शिखा संग जलती रही
पिया की राह तकती रही,
तू पिया संग निश्चिन्त रही
लक्ष्मण रक्षा हेतु जगे बन प्रहरी
उर आंसू पीकर मौन रही
विरह-अग्नि में तपती रही,
जब लगा लक्ष्मण को नागपाश
मुर्छित भ्रात्रु का तुझे नहीं आभास
उर समझ गई वह प्रचंड काल
वह साधना में तल्लीन हुई
लक्ष्मण को मिला जीवनदान
प्रिय-प्रेम में वह विजयी हुई.
ऐ पतिव्रता, क्या तुझे पता ?
तेरी बहन मांडवी की वेदना,
भरत भ्रात्रु-प्रेम में बन गए सन्यासी
वो प्यारी खजाने में भी खाली
दूर पति हो तो सह ले जुदाई
गर पास हो तो कैसे सहे
उसका हिय कैसे बना कठोर
क्या उसके दर्द का है कोई ओर-छोर ?
ऐ महारानी, राम की रानी !
क्या तुझे पता, श्रुतिकेतु की महानता ?
जब सबने ले लिया अवकाश
तब श्रुति ने ही सम्भाला पिय संग राज्य
वह डटी रही पर हटी नहीं
वह जगी रही पर सोई नहीं
पिय संग हो या दूर हो
वह रोई सही पर घबराई नहीं.
ऐ जानकी ! तेरी बहनें थीं
धैर्यवान, बलवान और महान
वे खामोश सही पर डरी नहीं
वे तन्हाँ सही पर अडिग रहीं
वे हारकर मरी नहीं.
ऐ सीते, क्या तुझे पता है
आत्महत्या कौन करता है ?
...................................
........ तू डरती रही
पति,समाज और दुनियाँ से
माना की पति का दिया साथ
वन में चल दी ले हांथों में हाथ
कष्ट सहती रही दिन औ' रात,
सूना है, तुझमें थी बड़ी शक्ति
सृष्टि पर है तेरी हस्ती
फिर भी
'किडनैप' हो गई रावण के हाथ.
सूना है, यदि रावण तुझे छू देता, तो
वह जलकर भष्म हो जाता
फिर क्यों नहीं जलाकर भाग आई
तू अपने राम के पास !!
क्यों होने दिया नरसंहार
क्या नहीं समझ पाई थी
कुटुम्बी जनों का प्यार,
क्या सुनाई नहीं देता था
अशोक-वाटिका में
माताओं, विधवाओं का चीत्कार,
क्यों नहीं तोड़ा तुने कारागार
क्यों करती रही अबला की भांति
अपने राम का इंतज़ार.
उस राम का, जिसने
वापस आते ही ली अग्नि-परीक्षा
क्या तुझपर न था तनिक भी विश्वास
पर इतना बता जानकी-
'विश्वास बिना प्रेम संभव कैसे ?
विश्वास तो प्रेम का बीजारोपण है'!
सूना है, ये सब खेल था
राम ने तुझे पहले ही
अग्नि को सौप दिया था
क्योकि उन्हें पता था
रावण तुझे ले जाएगा
ब्रम्हा जो थे !!!
अपहृत सीता तो तेरी छाया थी
उन्होंने मात्र अग्नी से तुम्हे वापस लिया था .
क्या करूँ सीते, मेरा मन नहीं मानता
क्योकि औरत के साथ हुए
प्रत्येक जुर्म को
खेल ही समझा जाता है.
पुरुष खेलता है,
क्योंकि औरत खिलौना जो है !!
मैंने तो यहाँ तक सूना है की
नेपथ्य में रावण तुझे
माता कहकर पूजता था,
क्या ये सत्य है सीते !
प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष का चलचित्र
एक ओर माता और
दूसरी ओर हवस की इच्छा,
फिर इतना बता दो जनकदुलारी !
'किस समाज की ओर
संकेत करता है ये छद्म' ?
वापसी का भी क्या फ़ायदा सीते
एक धोबी के व्यंग से
कर दिया गया तेरा परित्याग
राम जिसे पहचानते तक न थे
उसके व्यंग को पहचान गए
तू सहचरी बन प्रतिपल रही साथ
पर तेरी पहचान से वे रहे अनजान
अपमान की आशंका से
छोड़ दिया तेरा हाथ
वह भी उस समय
जब थी गर्भवती तू, और
उन्हें रहना था तेरे पास !
कहाँ गया था उस समय
लक्ष्मण का मात्रु-प्रेम
क्या जंगल में था
मात्र भ्रात्रु-प्रेम !
क्या नहीं था खानदान
में कोई शेष
जो कुचल सके ऐसे राज्य का
छद्मी वेश !
क्या सोचा था कभी, तुने बाद में
क्यों तेरी बहनों ने
चुप्पी साध ली थी ?
जबकि जनकपुरी की सभी लड़कियां
एक साथ अयोध्या में ब्याही गई थीं !
तुम उनकी मार्गदर्शिका होकर भी
झेलती रही अत्याचार
क्या नहीं हो सकता था लंका के बाद
कोई और व्याभिचार
होती रही तेरे सतीत्व की परीक्षा
राजा राम बने रहें सदाचार !
सुना है, राम-राज्य में
ये राम की विवशता थी,
जिसका सपना
प्रत्येक भारतीय देखता है.
वो राज्य,जहाँ पत्नी को
बेसहारा जंगल में छोड़ दिया जाता है
कसूर मात्र शक और व्यंग्य !!
ऐ सीते, क्यों नहीं लड़ी तू हक़ के लिए
आत्महत्या कर ली कर मात्र शक के लिए,
क्या कुछ भी नहीं सीखा
अपनी बहनों से
जो हिम्मत के साथ
घर में अटल रहीं,
तू रानी बनकर भी
विकल रही .
सुना है, राम तुझे बचाने के लिए दौड़े थे
पर तबतक तू धरती में समा चुकी थी ,
और ये भी सुना है राम भगवान थे, औ'
तुझे प्यार भी बहुत करते थे,
जब तू जंगलों में बेसहारा भटक रही थी
तब तेरी प्रतिमा से पूजा सम्पन्न हुई थी,
वे बहुत शक्तिशाली भी थे
लंका नगरी से बचाकर तुझे लाये थे
अपने सामने तिल-तिलकर मरने के लिए.
सुना है, उनके लिए कुछ भी असंभव न था
परन्तु तुम्हे बचाना उनके लिए संभव न हो सका
तू काल के गर्त में समाती गई
और वे तेरे बाल नोचकर 'सीते-सीते' चिल्लाते रहे.
सीते ! समझ में नहीं आता
मैं क्या कहूँ,
दुनियाँ की भाँती मैं भी तुझे पूजूं
अथवा तेरी दयनीय दशा पर
आंसू बहाऊं.
समय बदल गया, पर
ये छद्मी संसार न बदला
राम के निकालने पर
यदि तू घर से न गई होती
अत्याचारों से क्षुब्ध हो
यदि आत्महत्या न की होती
तो आज अपनी बहनों की तरह
तू इस दुनियाँ में नहीं जानी जाती.
तू कठपुतली बन नाचती रही
संवेदनहीन बन
प्रत्येक जुर्म सहती गई
मुर्दे की भाँती
हर खेल का अंग बनती गई
इसलिए तू आज
देवी है, पूजनीय है,
प्रेयसी है, पत्नी है.
क्या तुझे पता है, आज के युग में भी
जो औरत खामोश है
वह सुशील, अच्छी और संस्कारी कहलाती है.
जो अन्याय के विरुद्ध बोलती है
वह मानसिक विकृति की शिकार कहलाती है.
औरतों का बोलना तो फूटे ढोल को भी नहीं सुहाता
फिर पुरुष को..............?
यदि रामराज्य का एक अंक यही है, तो
इस देश के भविष्य का क्या होगा ?
शनिवार, 24 जुलाई 2010
Badnaam aurat
बदनाम औरत
रौरव नरक में भी क्या
ऐसी सज़ा मिलती होगी,
जैसी मिलती है यहाँ
प्रेम करने वाली लड़कियों को
रर रर कर मरने की.
घर की चक्की छूटे समय हो गया,
पर घरर-घरर
करते हैं हम रोज यहाँ.
छूरी, कतरनी हाथों से
भले छुट जाए,
पर दांतों से हमें कतरना
उनका रोज का काम है.
घिरनी से पानी निकालते हैं
खेत सींचने के लिए,
पर वो पानी निकालते हैं
हमें मिटाने के लिए.
जुआठे में लगे बैल की भाँती
हमें हांकते हैं,
जैसे वो चाहे दहिने, बाएं
घुमा देंगे.
सूखी धरती की भाँती
बर्राने के बाद
जब हम बोलने के लिए
मजबूर हो जाते हैं,
तब वो नाम रख देते हैं
मर्दमार औरत.
मर्दमार होने की अगर आदत पड़ जाए
तो नहीं रोक पाता कोई
बदनाम औरत होने से.
रौरव नरक में भी क्या
ऐसी सज़ा मिलती होगी,
जैसी मिलती है यहाँ
प्रेम करने वाली लड़कियों को
रर रर कर मरने की.
घर की चक्की छूटे समय हो गया,
पर घरर-घरर
करते हैं हम रोज यहाँ.
छूरी, कतरनी हाथों से
भले छुट जाए,
पर दांतों से हमें कतरना
उनका रोज का काम है.
घिरनी से पानी निकालते हैं
खेत सींचने के लिए,
पर वो पानी निकालते हैं
हमें मिटाने के लिए.
जुआठे में लगे बैल की भाँती
हमें हांकते हैं,
जैसे वो चाहे दहिने, बाएं
घुमा देंगे.
सूखी धरती की भाँती
बर्राने के बाद
जब हम बोलने के लिए
मजबूर हो जाते हैं,
तब वो नाम रख देते हैं
मर्दमार औरत.
मर्दमार होने की अगर आदत पड़ जाए
तो नहीं रोक पाता कोई
बदनाम औरत होने से.
रविवार, 18 जुलाई 2010
Paramparaaon Ki Guhaar
परम्पराओं की गुहार
परम्पराओं के चेहरों पर झुलती झुर्रियाँ
व्यथित हैं की वे बांध न सकीं अपने यौवनावस्था को,
लिजलिजी हो वे गुहार लगाती रहीं
नई पीढ़ी के सामने-
"मुझे मुक्त करो, मुझे मुक्त करो".
"जीते जी अपमान सहना मुश्किल है,
इसलिए कम से कम मरते-मरते
दधिची हांड का दे जाए अस्त्र-शस्त्र,
उसे आदर्श और कल्याण के लिए प्रयोग करना
और
खोखले दकियानूसी राक्षसों का संहार,
जिससे मानवीयता हो गई त्रस्त, अस्त-व्यस्त,
जिससे भारत के इतिहास में लग गया दाग,
स्त्रियाँ हुईं निर्वस्त्र,
तुम लोग लेकर चलना सदा शाश्वत सत्य".
परम्पराओं के चेहरों पर झुलती झुर्रियाँ
व्यथित हैं की वे बांध न सकीं अपने यौवनावस्था को,
लिजलिजी हो वे गुहार लगाती रहीं
नई पीढ़ी के सामने-
"मुझे मुक्त करो, मुझे मुक्त करो".
"जीते जी अपमान सहना मुश्किल है,
इसलिए कम से कम मरते-मरते
दधिची हांड का दे जाए अस्त्र-शस्त्र,
उसे आदर्श और कल्याण के लिए प्रयोग करना
और
खोखले दकियानूसी राक्षसों का संहार,
जिससे मानवीयता हो गई त्रस्त, अस्त-व्यस्त,
जिससे भारत के इतिहास में लग गया दाग,
स्त्रियाँ हुईं निर्वस्त्र,
तुम लोग लेकर चलना सदा शाश्वत सत्य".
शुक्रवार, 16 जुलाई 2010
Jindagi Wah Nahi, Jo Dikhti Hai
ज़िन्दगी वह नहीं, जो दिखती है,
ज़िन्दगी वह, नहीं जो दिखती है.
इच्छाएँ वह नहीं, जो इच्छा है,
इच्छाएँ वह, नहीं जो इच्छा है.
प्यार वह नहीं, जो प्यार है,
प्यार वह, नहीं जो प्यार है.
मंजिलें वह नहीं, जो मंजील है,
मंजिलें वह, नहीं जो मंजील है.
रास्ते वह नहीं, जो रासता है,
रास्ते वह, नहीं जो रासता है.
ख़ुदाई वह नहीं, जो ख़ुद है,
ख़ुदाई वह, नहीं जो ख़ुद है.
ज़िन्दगी वह, नहीं जो दिखती है.
इच्छाएँ वह नहीं, जो इच्छा है,
इच्छाएँ वह, नहीं जो इच्छा है.
प्यार वह नहीं, जो प्यार है,
प्यार वह, नहीं जो प्यार है.
मंजिलें वह नहीं, जो मंजील है,
मंजिलें वह, नहीं जो मंजील है.
रास्ते वह नहीं, जो रासता है,
रास्ते वह, नहीं जो रासता है.
ख़ुदाई वह नहीं, जो ख़ुद है,
ख़ुदाई वह, नहीं जो ख़ुद है.
सोमवार, 12 जुलाई 2010
Tujhe Pranaam
तुझे प्रणाम
जब भी मै देखती हूँ
बड़ी-बड़ी इमारतें, ऊँचें-ऊँचे महल
और विस्तृत घर;
तब मेरा मन हर्षित हो
सपनों का पंख लगा
पूरी दुनियाँ में
विचरण करने लगता है.
फुदक-फुदक कर
इस घर से उस घर
इस महल से उस इमारत तक
का, जायजा लेने लगता है.
कि कौन सा भवन
सबसे ज्यादा अच्छा है
सुन्दर, साफ़ औ'
अद्भुत कलाकृतियों से परिपूर्ण है.
जो सबमें सर्वोपरि है
उससे भी सुन्दर
एक घर
मैं बनवाउंगी.
उस घर की रूप-रेखा
मेरे मन में उमड़ने-घुमड़ने लगती है
हर कलाकृति संचारियों-सी
आ-आकर लुप्त हो जाती है.
तब मेरे मन की आवृतियाँ
अनवरत घुमड़ने के बाद
खुलने लगती है परत-दर-परत.
किसने बनाई होंगी ये इमारतें
किसने रखी होगी पहली नींव
किसके हाथ और कंधे लौह-सा
प्रतिक्षण कर्मरत हुए होंगे??
अनुमान भी नहीं लगा सकते
हम उसका, और उसके
हाथों की
अद्भुत विशेषताओं की.
क्योंकि घर को
घरवाले के नाम से जाना जाता है
और मजदूरों की मेहनत
मेहनताना में चली जाती है.
जिनके हाथ फौलादी बन
नितकर्मरत रहते हैं
सर स्वयं बज्र बन
ईंट, गिट्टी, सीमेंट ढ़ोते हैं,
जिनके जीभ यंत्रवत
एक-दूजे को पुकारा करते हैं
उनमें स्वयं एकता रहे ना रहे
एक-एक ईंट से
इमारत बनाया करते हैं.
जिनके बच्चे दिन में
सबसे ऊँची छत पर
चढ़कर हर्षित होते है
वही रात में नीचे
छोटी-सी जगह में सोते हैं.
दिन-रात गालियाँ सुनते-सुनते
सपनों में भी गाली बकते हैं
आशान्वित हो हर सुबह-शाम
अपनों से पूछा करते हैं;
कब बन जाएगा ये घर मेरा
जिसे आप बनाया करते हैं ?
मायूसी औ' निराशा को छुपा
वे हंसकर चुप हो जाते हैं,
उत्तर क्या दें और क्या कहें
दो गज जमीं मिली है जो अभी
वो भी
कल रहे या ना रहे.
जब मालिक से किसी कुमारी का
छुपते-छुपाते नैन लड़ जाते हैं
तब घर-वर का सपना
पूरा हो ना हो
किसी मजदूर से ब्याह रच जाते हैं.
मालिक का सीमेंट औ' सामान
अपनी झोपड़ी में रख
नव-दम्पति बाहर सो जाते हैं.
ऊँचे महलों को छोड़
वे सड़क पर खाना खाते हैं
गर्मी की तपन, जाड़े की ठिठुरन
बरसात के थपेड़े दृढ़ता से सहते हैं;
सबकी गालियाँ सुनकर भी
हमेशा हंसते रहते हैं.
पैसों का मालिक होता कोई और
वे नमक-रोटी पर गुजारा जरते हैं
जो ईमान से सबका घर बनातें
लोग उन्हें ही बेईमान कहा करते हैं
सुख चैन से सोती जब दुनियाँ
वे आहें भरा करते हैं.
सबकी दृष्टि में हैं जो आम
उनका मात्र कर्म ही
है दुनियाँ, घर, सामान
अपनी विशालता, दृढ़ता औ' अस्मिता
से हैं वे बहुत महान
ऐ कलाकार ! ऐ सहनशक्ति !
ऐ बज्र देह ! तुझे प्रणाम,
तुझे प्रणाम...
जब भी मै देखती हूँ
बड़ी-बड़ी इमारतें, ऊँचें-ऊँचे महल
और विस्तृत घर;
तब मेरा मन हर्षित हो
सपनों का पंख लगा
पूरी दुनियाँ में
विचरण करने लगता है.
फुदक-फुदक कर
इस घर से उस घर
इस महल से उस इमारत तक
का, जायजा लेने लगता है.
कि कौन सा भवन
सबसे ज्यादा अच्छा है
सुन्दर, साफ़ औ'
अद्भुत कलाकृतियों से परिपूर्ण है.
जो सबमें सर्वोपरि है
उससे भी सुन्दर
एक घर
मैं बनवाउंगी.
उस घर की रूप-रेखा
मेरे मन में उमड़ने-घुमड़ने लगती है
हर कलाकृति संचारियों-सी
आ-आकर लुप्त हो जाती है.
तब मेरे मन की आवृतियाँ
अनवरत घुमड़ने के बाद
खुलने लगती है परत-दर-परत.
किसने बनाई होंगी ये इमारतें
किसने रखी होगी पहली नींव
किसके हाथ और कंधे लौह-सा
प्रतिक्षण कर्मरत हुए होंगे??
अनुमान भी नहीं लगा सकते
हम उसका, और उसके
हाथों की
अद्भुत विशेषताओं की.
क्योंकि घर को
घरवाले के नाम से जाना जाता है
और मजदूरों की मेहनत
मेहनताना में चली जाती है.
जिनके हाथ फौलादी बन
नितकर्मरत रहते हैं
सर स्वयं बज्र बन
ईंट, गिट्टी, सीमेंट ढ़ोते हैं,
जिनके जीभ यंत्रवत
एक-दूजे को पुकारा करते हैं
उनमें स्वयं एकता रहे ना रहे
एक-एक ईंट से
इमारत बनाया करते हैं.
जिनके बच्चे दिन में
सबसे ऊँची छत पर
चढ़कर हर्षित होते है
वही रात में नीचे
छोटी-सी जगह में सोते हैं.
दिन-रात गालियाँ सुनते-सुनते
सपनों में भी गाली बकते हैं
आशान्वित हो हर सुबह-शाम
अपनों से पूछा करते हैं;
कब बन जाएगा ये घर मेरा
जिसे आप बनाया करते हैं ?
मायूसी औ' निराशा को छुपा
वे हंसकर चुप हो जाते हैं,
उत्तर क्या दें और क्या कहें
दो गज जमीं मिली है जो अभी
वो भी
कल रहे या ना रहे.
जब मालिक से किसी कुमारी का
छुपते-छुपाते नैन लड़ जाते हैं
तब घर-वर का सपना
पूरा हो ना हो
किसी मजदूर से ब्याह रच जाते हैं.
मालिक का सीमेंट औ' सामान
अपनी झोपड़ी में रख
नव-दम्पति बाहर सो जाते हैं.
ऊँचे महलों को छोड़
वे सड़क पर खाना खाते हैं
गर्मी की तपन, जाड़े की ठिठुरन
बरसात के थपेड़े दृढ़ता से सहते हैं;
सबकी गालियाँ सुनकर भी
हमेशा हंसते रहते हैं.
पैसों का मालिक होता कोई और
वे नमक-रोटी पर गुजारा जरते हैं
जो ईमान से सबका घर बनातें
लोग उन्हें ही बेईमान कहा करते हैं
सुख चैन से सोती जब दुनियाँ
वे आहें भरा करते हैं.
सबकी दृष्टि में हैं जो आम
उनका मात्र कर्म ही
है दुनियाँ, घर, सामान
अपनी विशालता, दृढ़ता औ' अस्मिता
से हैं वे बहुत महान
ऐ कलाकार ! ऐ सहनशक्ति !
ऐ बज्र देह ! तुझे प्रणाम,
तुझे प्रणाम...
रविवार, 4 जुलाई 2010
Ae Maanav
ऐ मानव !
ऐ मानव !
मंदिर से मस्ज़िद
गुरुद्वारा से गिरजाघर
मत दौड़,
आस्था रख ईश्वर में,
परन्तु विश्वास कर
अपने कर्म में,
हस्तरेखाओं से भाग्य नहीं बदलता
भाग्य बदलता है चिंतन और कर्म से.
ऐ मानव !
दुनियाँ बदलने की ठानी है तुमने,
स्वयं को तुमने बदला कितना है ?
पाने की तुमने गिनती कर रखी,
दुनियाँ को तुमने दिया कितना है ?
गिरा रहे हो किसे किस-किसकी नज़रों में,
गिरते हुए को उठाया कितना है ?
ऐ मानव !
अपने आतंक से डराया सभी को,
तू स्वयं किसी से डरे तो नहीं ?
बदले की भाव से गुजर रहे हो सदा,
तू स्वयं किसी से आहत तो नहीं ?
बन गए क्रूर, निर्दई, हत्यारे
जीवनपथ का यही आख़िरी रास्ता तो नहीं.
ऐ मानव !
दर्पण में नहीं तू खुद में झाँक
सच्चाई नज़र आ जायेगी.
दूसरों को नहीं तू खुद को टटोल
अपूर्णता पूर्ण हो जायेगी.
मानवीय प्रेम में तू श्रद्धा रख
मानवीयता स्वतः स्थापित हो जायेगी.
ऐ मानव !
मंदिर से मस्ज़िद
गुरुद्वारा से गिरजाघर
मत दौड़,
आस्था रख ईश्वर में,
परन्तु विश्वास कर
अपने कर्म में,
हस्तरेखाओं से भाग्य नहीं बदलता
भाग्य बदलता है चिंतन और कर्म से.
ऐ मानव !
दुनियाँ बदलने की ठानी है तुमने,
स्वयं को तुमने बदला कितना है ?
पाने की तुमने गिनती कर रखी,
दुनियाँ को तुमने दिया कितना है ?
गिरा रहे हो किसे किस-किसकी नज़रों में,
गिरते हुए को उठाया कितना है ?
ऐ मानव !
अपने आतंक से डराया सभी को,
तू स्वयं किसी से डरे तो नहीं ?
बदले की भाव से गुजर रहे हो सदा,
तू स्वयं किसी से आहत तो नहीं ?
बन गए क्रूर, निर्दई, हत्यारे
जीवनपथ का यही आख़िरी रास्ता तो नहीं.
ऐ मानव !
दर्पण में नहीं तू खुद में झाँक
सच्चाई नज़र आ जायेगी.
दूसरों को नहीं तू खुद को टटोल
अपूर्णता पूर्ण हो जायेगी.
मानवीय प्रेम में तू श्रद्धा रख
मानवीयता स्वतः स्थापित हो जायेगी.
Dil Kholkar Karo
दिल खोलकर करो
आँखें मूंद लेने से
सच्चाई बदल नहीं जाती,
होंठ भींच लेने से
गाली दब नहीं जाती,
मुट्ठी बाँध लेने से
थप्पड़ लगाने की टीस कम नहीं हो जाती,
पैर पटक देने से
दौड़ने का उत्साह कम नहीं हो जाता,
सो जाने से
दिमाग सोचना बंद नहीं कर देता,
लिखना बंद कर देने से
घटनाएँ और उद्वेलन बंद नहीं हो जाती;
करो, सब करो
दिल खोलकर करो,
परन्तु
अपने दायरे में रहकर करो,
जिससे दूसरों को
न हो तकलीफ,
और तुम भी
न बन सको कुंठित.
आँखें मूंद लेने से
सच्चाई बदल नहीं जाती,
होंठ भींच लेने से
गाली दब नहीं जाती,
मुट्ठी बाँध लेने से
थप्पड़ लगाने की टीस कम नहीं हो जाती,
पैर पटक देने से
दौड़ने का उत्साह कम नहीं हो जाता,
सो जाने से
दिमाग सोचना बंद नहीं कर देता,
लिखना बंद कर देने से
घटनाएँ और उद्वेलन बंद नहीं हो जाती;
करो, सब करो
दिल खोलकर करो,
परन्तु
अपने दायरे में रहकर करो,
जिससे दूसरों को
न हो तकलीफ,
और तुम भी
न बन सको कुंठित.
सोमवार, 28 जून 2010
Jaan Lo, Pahchaan Lo
जान लो, पहचान लो
अटखेलियाँ खेलते बाल बादल से पूछो-
'किस गगन से आ रहे, कहाँ अब वास'.
बाढ़ की चपेट में धान की पुन्गियों से पूछो-
'कैसा लगता है पानी और उसका त्रास'.
बाढ़ गए धुप भरी महामारी से पूछो-
'पानी तो पी लिए अब कौन सी प्यास'.
कुटुंब बह गए ज़िंदा इंसान से पूछो-
'जीवित किसके लिए हो, अब किसकी आस'.
हाथ-पाँव मारते विमर्शियों जान लो, पहचान लो-
'क्षितिज पर लटका है अब भी सवाल'.
अटखेलियाँ खेलते बाल बादल से पूछो-
'किस गगन से आ रहे, कहाँ अब वास'.
बाढ़ की चपेट में धान की पुन्गियों से पूछो-
'कैसा लगता है पानी और उसका त्रास'.
बाढ़ गए धुप भरी महामारी से पूछो-
'पानी तो पी लिए अब कौन सी प्यास'.
कुटुंब बह गए ज़िंदा इंसान से पूछो-
'जीवित किसके लिए हो, अब किसकी आस'.
हाथ-पाँव मारते विमर्शियों जान लो, पहचान लो-
'क्षितिज पर लटका है अब भी सवाल'.
शनिवार, 26 जून 2010
Aazaadi
आज़ादी
मैं दुनिया देखना चाहती थी
उन्होंने मेरे ऊपर जाल बिछा दी
तथा आँखों पर आदर्श की पट्टी बाँध दी
और कहा-
देखो... देखो... देखो !!!
मैंने अपने चोंच से जाल को छलनी कर दिया
और पंजों से पट्टी फाड़ दी
मैंने समझा मैं 'उन्मुक्त' हो गई
मै खुले गगन में उड़ना चाहती थी
उन्होंने मेरा पर क़तर दिया
और पिंजड़े से बाहर निकाल कर कहा-
उड़ो... उड़ो... उड़ो !!!
मैंने हौसले का पंख लगाया
पैरों से चलना सीखा
मैंने समझा मैं 'स्वछंद' हो गई.
मैं खुली हवा में चहचहाना चाहती थी
उन्होंने मेरी जिह्वा मरोड़ दी
और मंच पर लाकर कहा-
गाओ... गाओ... गाओ !!!
मैंने बेसुरी राग में अपना दर्द अलापा
और एकता के धुन में झूम उठी
मैंने समझा मैं 'मुक्त' हो गई.
मैं अपने पैरों से सफ़र करना चाहती थी
उन्होंने मुझे सहानुभूति की बैसाखियाँ थमा दी
और उपनिवेश की पगडंडी पर कहा
चलो... चलो... चलो !!!
मैंने सोचा
अब तो हर अंग घायल है
किस बात का डरना,
उन्होंने ही दिखाई थी
आदर्श नारी की प्रतिबिम्ब
उसे सच मान हम बाट जोहते रहे,
अब देखती हूँ
नफ़रत, घृणा, कटुता, प्रतिद्वंदिता
हम समझने लगे
अच्छाई-बुराई में फर्क.
उन्हीं से सीखा था वेद-पुराण
और नितिवचनों की उक्तियाँ, और
उन्हीं से सीखा हिंसक प्रविती,
उन्हीं से समझा था सुविचार
उन्हीं से आया कुविचार.
फिर भी-
उनको देखा आज़ाद घुमते हुए
स्वयं को देखा बेड़ियों में जकडे हुए,
इसके बावजूद भी-
उनको देखा मनुष्यता से गिरते हुए !
और अपना वजूद मिटते हुए !!
अब बचा क्या है बचाने के लिए
वक़्त आ गया आज़ाद होने के लिए,
हम लक्ष्य की ओर टूट पड़े
हमने समझा हम 'आज़ाद' हो गए.
पर समझाने से आज़ादी मिलती नहीं
अभी हम पूर्णतः आज़ाद नहीं,
आज़ादी की ओर अग्रसर हैं.
शुक्रवार, 25 जून 2010
Bhuchaal
भूचाल
एक भूचाल के बाद कई भूचाल आते हैं.
कहर से निकला, हृदय विदीर्ण
पलकें खुलीं, अपलक रह गईं
अपना है कोई तो, है तन्हाई
लगा घन-शावक को तीर
वेदना की बरसात हुई,
तभी उस बच्चे के मन में भूचाल आता है.
ज़र-ज़र ज़रा, क्षीण रोशनी
आँचल पसारे, दुवा मांगती
उंगलिया पकड़कर चलाया जिसे
उस अंधी की लकड़ी को लौटा दे
फिर कंचन से खली हाथ लौटे
तब उस वृद्धावस्था के मन में भूचाल आता है.
भूख से तड़पता सुखी छाती पकड़कर
रोता रहे बीमार बेसुध होकर
एक रोटी जिस उदार में जाए
अतृप्त, अशांत ही रह जाए
निर्धनता बेंधती हर क्षण हीर,
तब उस माँ-बाप के मन में भूचाल आता है.
तारों में अपने चाँद को ढूंढने लगे
मधुर मिलन, प्रेमालिंगन हर पल सताने लगे
बेकरार दर्द को, वही हमदर्द कहाँ से लाये
आग सुलगती रहे, धुँआ नज़र ना आये
विरह छलनी कर दे, दर्द नासूर बन जाए,
तभी दो दिलों के दिल में भूचाल आता है.
व्याध से भयभीत, व्याधि से पीड़ित
कर रहा हो कोई करुण पुकार
वक़्त फिसल जाए, उपाय हो निरुपाय
सुन सकूँ ना समय चीत्कार, तोड़ी उम्मीद
मैंने किसी की या तोड़ी मेरी किसी ने,
तब मेरे भी दिल में भूचाल आता है.
एक भूचाल के बाद कई भूचाल आते हैं.
कहर से निकला, हृदय विदीर्ण
पलकें खुलीं, अपलक रह गईं
अपना है कोई तो, है तन्हाई
लगा घन-शावक को तीर
वेदना की बरसात हुई,
तभी उस बच्चे के मन में भूचाल आता है.
ज़र-ज़र ज़रा, क्षीण रोशनी
आँचल पसारे, दुवा मांगती
उंगलिया पकड़कर चलाया जिसे
उस अंधी की लकड़ी को लौटा दे
फिर कंचन से खली हाथ लौटे
तब उस वृद्धावस्था के मन में भूचाल आता है.
भूख से तड़पता सुखी छाती पकड़कर
रोता रहे बीमार बेसुध होकर
एक रोटी जिस उदार में जाए
अतृप्त, अशांत ही रह जाए
निर्धनता बेंधती हर क्षण हीर,
तब उस माँ-बाप के मन में भूचाल आता है.
तारों में अपने चाँद को ढूंढने लगे
मधुर मिलन, प्रेमालिंगन हर पल सताने लगे
बेकरार दर्द को, वही हमदर्द कहाँ से लाये
आग सुलगती रहे, धुँआ नज़र ना आये
विरह छलनी कर दे, दर्द नासूर बन जाए,
तभी दो दिलों के दिल में भूचाल आता है.
व्याध से भयभीत, व्याधि से पीड़ित
कर रहा हो कोई करुण पुकार
वक़्त फिसल जाए, उपाय हो निरुपाय
सुन सकूँ ना समय चीत्कार, तोड़ी उम्मीद
मैंने किसी की या तोड़ी मेरी किसी ने,
तब मेरे भी दिल में भूचाल आता है.
गुरुवार, 24 जून 2010
Antar
अंतर
वो वक़्त बीत गया
जब एक पत्नी
अपने पति को पत्र में लिखा करती थी-
हे मेरे प्राण आधार,
.................................
........................................
आपके चरणों की दासी.
मैं भी नहीं लिखना चाहती-
हे मेरे चरणों के दास,
....................................
.............................................
आपके के प्राणों की प्यासी.
क्योंकि यदि मैंने लिख दिया
ये बात
तो तुममे मुझमे अंतर क्या रह जाएगा.
वो वक़्त बीत गया
जब एक पत्नी
अपने पति को पत्र में लिखा करती थी-
हे मेरे प्राण आधार,
.................................
........................................
आपके चरणों की दासी.
मैं भी नहीं लिखना चाहती-
हे मेरे चरणों के दास,
....................................
.............................................
आपके के प्राणों की प्यासी.
क्योंकि यदि मैंने लिख दिया
ये बात
तो तुममे मुझमे अंतर क्या रह जाएगा.
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