बुधवार, 30 अक्तूबर 2019

Is Dipawali

इस दीपावली से दो दिन पहले अनायास ही उभरी कविता -

इस दीपावली


इस तरह जलना...
तुम्हारी नियति तो नहीं !
साँझ-सकारे थके-हारे
दीप-दीप कर
बुझ-बुझ कर जलती रहो
अपनी ही आग में... !

आग...
जो तुम्हारे अंदर
धधक रही है
लोहे की गरम सलाखें बनकर
परिजनों के मृत्यु की
चिता बनकर
आत्मा में बजबजाते
घाव बनकर
औरत होने की
सज़ा बनकर...

उठो,
जलना ही है, तो
जलो उस दीये की तरह
जो चीर देती है
अंधकार की छाती...
जिसकी लपटों में आकर
मर जाते कितनेही
पतिंगे...
जिसकी लपलपाती लौ
से जल सकता है
पूरा का पूरा संसार....

उठो,
दिये से दिया
मिला कर
पसार दो अपने
अंतःकरण के उजास को... 
पसर जाओ
पुरी धरती पर
पूरे आसमान में
समा जाओ सुगन्ध बनकर
हवाओं में
फैल जाओ दीपावली की
दिये की तरह
और तोड़ दो उनके
सूरज होने का दंभ...

(उन्नाव रेप केस की पीड़िता के साथ-साथ ऐसी तमाम लड़कियों को संबोधित, जिनके जीवन में अभी भी रोशनी आनी बाकी है)

- रेनू यादव

मंगलवार, 21 मई 2019

Stree Kavitaaon Mein Abhivyakt Stree-Muddhe

महिला उत्कर्ष एवं बाल विकास : दशा एवं दिशा पुस्तक में प्रकाशित -

स्त्री कविताओं में अभिव्यक्त स्त्री-मुद्दे


             जहाँ पुरूष मौन हो जाता है वहाँ जन्म लेता है महिला-लेखन(राजे, सुमन. हिन्दी साहित्य का आधा इतिहास. पृ. 30.) हिन्दी साहित्य के इतिहास में महिला लेखन पर चुप्पी बार बार यह प्रश्न उठाता है कि क्या मीराबाई, महादेवी वर्मा, सुभद्रा कुमारी चौहान के अलावा पूरे साहित्य में महिलाओं ने कहीं कुछ लिखा ही नहीं ? इतिहास में महिलाओं के लिए इतना अंधकार क्यों है ? यदि लिखा तो उन्हें एक सिरे से खारिज क्यों कर दिया गया ?  
             अनेक ऐसे सवाल जिस पर साहित्य में पुरूष समाज चुप ही रहा और उसका जवाब स्त्रियों के साहित्य में मिला । स्त्रियों के जातीय स्मृतियों पर आधारित रचनाओं को महत्व ही नहीं दिया गया । वैदिक काल से लेकर अब तक महिलाओं ने अपनी समस्याओं को लिपिबद्ध किया है परंतु उसे सदैव दरकिनार कर दिया गया है । वैदिक काल में रोमशा लोपामुद्रा, ममता, अपाला, विश्ववारा, पौलोमी शची, घोषा, सूर्या, आदिकाल में खेमा, सुमना, धीरा, मित्रा, रोहिणी, सुन्दरी, शुभा, चन्दा, उत्तमा, अनोपमा, अडढकासी, अभयमाता, विमला, अम्बपाली, विज्जका, शीलाभट्टारिका, इन्दुलेखा, मारूला, विकटनितम्बा मध्यकाल में लल्लद्येद,  मीरा, झीमा, चन्द्रसखी, चम्पादे, रूपमती, प्रवीणराय पातुर, छत्र कुँवरि बाई, गबरी बाई, सहजो, दयाबाई आधुनिक युग में सुभद्राकुमारी चौहान, महादेवी वर्मा, विद्यावती कोकिल, सुमित्रा कुमारी सिन्हा, शकुन्त माथुर, कीर्ति चौधरी, इन्दु जैन, स्नेहमयी चौधरी, सुनीता जैन, मणिका मोहिनी, मोना गुलाटी, गगन गिल, अनामिका, कात्यायनी, रमणिका गुप्ता, निर्मला पुतुल आदि कवयित्रियों के काव्य को देखें तो प्रमुख रूप से पाँच मुद्दे सामने आते हैं –1. पितृसत्ता और प्रजनन, 2. प्रेम और देह, 3. धर्म और नैतिकता, 4. श्रम और अर्थ, 5. लेखन ।
            यह ध्यातव्य है कि पितृसत्ता ने धर्म के साथ जुगाली करके अर्थ की भट्टी पर अपनी सुविधानुसार स्त्री के प्रेम, देह, नैतिकता और श्रम को सेंका है और दुनिया को बताया कि यही सत्य है !! धर्म ने एक तरफ बताया कि यत्र नार्यस्तु पुज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।(मनु. 3/46) अर्थात् जहाँ स्त्रियों का आदर किया जाता है, वहाँ देवता रमण करते हैं । - (गोयन्दका, जयदयाल. स्त्रियों के कर्तव्यशिक्षा. पृ. 128.)  तो दूसरी ओर इसके विपरीत नारदपारिव्राजकोपनिषद् में संन्यासियों को शिक्षा देते हुए कहा गया है –
न संभाषेत् स्त्रियं कञ्चित् पूर्वद्रष्टां च न स्मरेत् ।
कथां च वर्जयेत्तासां न पश्येल्लिखितामपि ।।
एतच्चतुष्टयं मोहात स्त्रीणामाचरतो यतेः ।
चिंत विक्रियतेsवश्यं तद्धिकारात् प्रणश्यति ।। (4/3-4)
अर्थात् संन्यासी किसी स्त्री से बातचीत न करे । पहले की देखी हुई किसी स्त्री का स्मरण तक न करे । स्त्रियों की चर्चा से भी दूर रहे तथा स्त्रियों का चित्र भी न देखे । सम्भाषण, स्मरण, चर्चा तथा चित्र-दर्शन, स्त्री-संबंधी इन चार बातों का जो मोहवश आचरण करता है, उस संन्यासी के चित्त में अवश्य विकार उत्पन्न होता है और उस विकार से वह धर्मभ्रष्ट होने के कारण नष्ट हो जाता है- (पोद्दार, हनुमान प्रसाद. व्यवहार और परमार्थ. पृ. 143-144.)
मनुस्मृति के अनुसार - स्त्री बचपन में पिता के, जवानी में पति के और पति के मर जाने पर बुढ़ापे में पुत्र के वश में रहे (मनु. महर्षि. मनुस्मृति. पृ. 95.) तो श्रीमद्भागवत् में स्त्री को पूर्व जन्म के पापों का फल बताया गया – मां ही पार्थ व्यापाश्रित्य येsपि स्युः पायोनम- (पाण्डेय, डॉ. दर्शन. नारी अस्मिता की परख. पृ. 11. (महाभारत – महर्षि व्यास, [भिष्म पर्व, 33/32].)  मनुस्मृति के अनुसार पुरूष के लिए धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष अनिवार्य है तो स्त्री का एक मात्र कर्तव्य पति सेवा ही होना चाहिए (मनु.4/155) (पोद्दार, हनुमान प्रसाद. व्यवहार और परमार्थ. पृ. 226.) चाहे पति कितनाहुँ दुराचारी क्यों न हो । (मनु. 5/154) (गोयन्दका, जयदयाल. नारी धर्म. पृ. 29.)
              ऐसे अनेक उदाहरण हमारे ग्रंथों में भरे पड़े हैं जिससे यह ज्ञात होता है कि स्त्री को जन्म से लेकर मृत्यु तक धर्म की आड़ में नैतिकता की बेडियों में बाँध दिया गया और सकल ताड़ना के अधिकारी (सुन्दरकाण्ड, 58/3) (तुलसीदास. श्रीरामचरितमानस. टीकाकार – हनुमानप्रसाद पोद्दार. पृ. 705.)  के हवाले कर दिया गया । लेकिन अब इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि स्त्री ने मनुस्मृति सहित समस्त धार्मिक एवं पौराणिक ग्रंथों की शिक्षाओं को न सिर्फ एक छिटे में रखकर ओसाया है बल्कि समस्त अवधारणाओं का पूनर्मूल्यांकन भी किया है । सकल ताड़ना के अधिकारी होने के बजाय अपनी सशक्त सकल से सबको आश्चर्यचकित कर दिया है और अब तक की बनी बनायी परिपाटी को न सिर्फ तोड़ रही है बल्कि मुखर होकर आवाज भी बुलंद कर रही है । अपने दर्द को न सिर्फ स्वर प्रदान कर रही है बल्कि धर्म तथा इतिहास में महिमामंडित हुई नायिकाओं को चूनौति देते हुए अपनी नयी इमेज तैयार कर रही है । अब न तो सीता, सति, शकुन्तला बनकर जीना चाहती है और न ही छायावादी कवियों की उपमाओं में बंधी कमनीय नायिका का रूप धारण करना चाहती है । आज द्रोपदी की भाँति बदले की भावना से अपने पतियों में चिन्गारी उत्पन्न नहीं करना चाहती बल्कि विरोधियों को अपनी सबलता से परास्त करने में विश्वास रखती है । अच्छी-बुरी, कुलटा-कुल्छिनी, सति-सावित्री की इमेज की परवाह न करके मानवीय संवेदनाओं-संभावनाओं से युक्त मानव बनना और कहलाना चाहती है ।  अब कबीर का वाक्य नारी की झाँई परत अंधा होत भुजंग (शर्मा, डॉ. शिव कुमार. हिन्दी साहित्यः युग और प्रवृत्तियाँ. पृ. 138.) की अवधारणा को खारिज करते हुए भुजंग के विष को चुनौती दे रही है । तेरी पाँच फुटी देह तेरी है दुश्मन / फैसला हर बात का बिस्तर पर ही होना है- (कालिया, ममता. खाँटी घरेलू औरत. पृ. 91.)  अथवा प्यार शब्द घिसते घिसते / चपटा हो गया है, / अब हमारी समझ में / सहवास आता है (कालिया, ममता. खाँटी घरेलू औरत. पृ. 96.) आदि कविताओं के माध्यम से यह समाज को जतला रही है कि अंधा हो रहे हो तो हो जाओ, हमें तो हमारा अधिकार चाहिए । वह जानती है और समझती भी है कि तुम / मेरे शरीर को / भोग्य ही मानते हो / सार्थक नहीं / उपयोगी नहीं- (गुप्ता, रमणिका. खूंटे. पृ. 19.)  फिर भी कभी भविष्य में सुधार की उम्मीद में प्रेम का विष पी रही होती है तो कभी विवशतावश । बिस्तर और घर की जटिलताओं को अपने आँचल में बाँधे छुप-छुप कर आँसू पोछते हुए अपने एकांत को बयान करती है -  
बँधा-बँधाया-सा हिसाब है जिन्दगी का
मन मिले ना मिले
                                रोटी के लिए
ये तन तो देना होगा
इच्छा हो या ना हो
साथ सोना मजबूरी है  - (शरद, नेहा. ख़ुदा से ख़ुद तक. पृ. 30)
            ये विवशता एक तरह की नहीं है बल्कि आत्मसम्मान की लड़ाई, वर का चयन, संतानोत्पत्ति का फैसला, जमीन-जायदाद-घर में हिस्सा, अर्थात् व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, राजनैतिक आदि कई स्तरों पर चली आ रही है और एक-एक करके स्त्री को इन सबसे जूझना पड़ता है । संविधान में औरतों के हक़ में कई कानून हैं पर व्यावहारिक जीवन में वर्चस्ववादी सत्ता के हाथों कठपूतली ही बनी रह गयी है ।
 पैदा होते ही
मेरी मैंमर जाती है
और रह जाती है एक लाश
एक नारी ।                      - (गुप्ता, रमणिका. खूंटे. पृ. 44.)
जैसी पंक्तियाँ यह चीख-चीख कर कह रही हैं कि अभी भी पितृसत्ता और लैंगिक वर्चस्व का बोल-बाला समाप्त नहीं हुआ है । आज के समय में समाज के एक तबके की स्त्री को भले ही ओखली मुसल और कुबड़े पति या परिवार से मुक्ति मिल गयी हो परंतु आधी आबादी के समस्त महिलाओं को खुला आकाश और अपने हिस्से की धूप अभी भी नहीं मिला है । इसलिए अब वह विवशताओं का घुँघट उतारकर फेंक देना चाहती है -  
                                औरत नहीं है मज़बूर
मजबूरियाँ हैं रीतियाँ
ढोते हुए अपना सलीब
अब यह थक गयी है    - (टाकभौरे, सुशीला. तुमने उसे कब पहचाना. पृ. 37.)
इस थकान को वह मानवता के धरातल पर स्वतंत्रता, समानता और सद्भावना जैसे प्रजातांत्रिक मूल्यों के साथ मिटाना चाहती है, इसलिए अनामिका कहती हैं –
एक दिन हमने कहा
हम भी इंसान हैं –
हमें कायदे से पढ़ो एक-एक अक्षर
जैसे पढ़ा होगा बी ए के बाद
नौकरी का पहला विज्ञापन!
....
सुनो हमें अनहद की तरह
और समझो जैसे समझी जाती हैं
नई-नई सीखी हुई भाषा !           - (अनामिका, खुरदुरी हथेलियाँ. पृ. 14.)

इतना कहते ही उसे खायी-पीयी-अघायी और बदचलन औरतों की संज्ञा दे दी गयी । उनकी कविताओं में ढूँढा जाने लगा उनकी देह और नकारा जाने लगा उनकी रचनाओं को, रचनाओं की मौलिकता पर बार बार प्रश्न उठाया जाने लगा । निर्मला पुतुल के शब्दों में कहें तो - ये वे लोग हैं / जो मेरी कविताओं में भी तलाशते हैं / मेरी देह” !  - (पुतुल, निर्मला. नगाड़े की तरह बजते शब्द. अनु. अशोक सिंह. पृ. 54.)
            देह का देह तो देखा परंतु देह के भीतर के दर्द को नहीं देखा बल्कि उस पर प्रश्न ही उठाया । पाखी के फरवरी 2012 के स्त्री लेखन विशेषांक में वनिता टोपो को निवेदित करते हुए ब्रेस्ट कैंसर पर लिखित अनामिका की कविता (दुनिया की सारी स्मृतियों को /दूध पिलाया मैंने ,/ हां, बहा दीं दूध की नदियां! / तब जाकर / मेरे इन उन्‍नत पहाड़ों की / गहरी गुफाओं में /जाले लगे! )  पर एक लम्बी बहस चली, उनके पुरस्कार प्राप्ति को वदचलनी का परिणाम बताया गया । अनेक ऐसी प्रतिष्ठित लेखिकाएँ हैं जिनके लेखन पर बार-बार प्रश्न चिन्ह लगाया जाता है । शायद इसीलिए वे कहती हैं -   
कौन-सी जगह होती है ऐसी
जो छूट जाने पर
औरत हो जाती है
कटे हुए नाखूनों,
कंघी में फँसकर बाहर आए केशों-सी
एकदम से बुहार दी जाने वाली ? – (अनामिका, खुरदुरी हथेलियाँ. पृ. 16.)
            अब बहुत हो चुका धर्म-नैतिकता को सूप में लेकर फटकते हुए, वर्चस्ववादियों का मन माँजते हुए, अपने श्रम के अनुसार अर्थोपार्जन का गुहार लगाते हुए, अब आवश्यकता है व्यापक जीवन-दृष्टि का, सम्यक् संसृष्टि का । अब समय है घर की चौखट से निकल कर नग्नता-अर्द्धनग्नता के बाज़ार में फँसने के बजाय आत्ममंथन एवं चिंतन का, स्वतंत्र-चेतना का । सुशीला टाकभौरे के शब्दों में -
आज जानकी सब जान गयी है
अब वह धरती में नहीं
आकाश में जाना चाहती है
देवकी की कन्या की तरह
बिजली-सी चमक कर
संदेश देना चाहती है    -  (टाकभौरे, सुशीला. तुमने उसे कब पहचाना. पृ. 24.)

               समय के साथ साथ संदर्भ बदलें लेकिन दर्द नहीं, रहन सहन बदला लेकिन अत्याचार नहीं, लोगों की नज़र बदली लेकिन नज़रिया नहीं, व्यवहार बदला बदसलूकी नहीं । ज्यादा से ज्यादा फर्क यही आया कि पहले स्त्रियों की अभिव्यक्ति अपने होने के दुख से भरी होती थी, उदाहरणस्वरूप अत्यधिक रोमों के कारण पति से परित्यक्त होने के पश्चात् दुख, ओखली, मुसल और पति से मुक्ति की कामना अथवा प्रताड़ित करने वाले ससुराल से मुक्ति की कामना अथवा भगवत्भक्ति के मार्ग में आने वाले बाधक व्यक्तियों, परिवार से मुक्ति की कामना तक सीमित थी किंतु आधुनिक युग में प्रेम, सेक्स, माहवारी, बलात्कार, ब्रेस्ट कैंसर, सेनेटरी नैपकिन, सरोगेसी आदि वर्जित विषयों पर भी खुलकर बोलने लगीं । एक दिन लौटेगी लड़की, थपक थपक दिल थपक थपक (गगन गिल), कबाड़ी का तराजू (निर्मला गर्ग), बीजाक्षर, अनुष्टुप, खुरदुरी हथेलियाँ (अनामिका), मैं चल तो दूँ (कविता वाचकनवी), सात भाइयों के बीच चम्पा, जादू नहीं कविता, इस पौरूषपूर्ण समय में’ (कात्यायनी), ख़ुदा से ख़ुद तक’ (नेहा शरद), घर निकासी, पानी का स्वाद (नीलेश रघुवंशी), नगाड़े की तरह बजते शब्द’ (निर्मला पुतुल), अपरिचित उजाले, सीढ़ियाँ चढ़ते हुई मैं’ (प्रभा खेतान), खाँटी घरेलू औरत’ (ममता कालिया), मैं आज़ाद हुई हूँ, खूँटे’ (रमणिका गुप्ता), पूरा गलत पाठ, अपने खिलाफ’ (स्नेहमयी चौधरी), अपने जैसा जीवन, नींद थी और रात थी’ (सविता सिंह), हो जाने दो मुक्त, कौन-सा आकाश, चौखट पर व उठो माधवी’ (सुनीता जैन), अनुत्तर’ (सुनीता बुद्धिराजा), तुमने उसे कब पहचाना, यह तुम भी जानो’ (सुशीला टाकभौरे) आदि काव्य-संग्रहों में घर की चौखट से लेकर बाजारवाद की दुनियाँ में अनेक ऐसे मुद्दे हैं जो स्त्री की नितांत निजी अनुभूति है, जिस पर वह बिना किसी लाग-लपेट के सहज, सरल तरिके से खुलकर बोलने लगी है तथा काव्य जगत में बनी-बनायी परिपाटी को तोड़कर पर्सनल इज पॉलिटिक्स की अवधारणा को मजबूत कर रही है ।

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संदर्भ-ग्रंथ –
1.    राजे, सुमन. हिन्दी साहित्य का आधा इतिहास. प्रकाः भारतीय ज्ञानपीठ, 18, लोदी रोड, नई दिल्ली – 03, सं. तीसरा, 2006.
2.    शर्मा, डॉ. शिव कुमार. हिन्दी साहित्यः युग और प्रवृत्तियाँ. प्रकाः  अशोक प्रकाशन, दिल्ली – 6. सं. अठरहवाँ 2003.
3.    तुलसीदास. श्रीरामचरितमानस. टीकाकार – हनुमानप्रसाद पोद्दार. प्रकाः गीताप्रेस, गोरखपुर. सं. प्रथम 10000.
4.    गोयन्दका, जयदयाल. स्त्रियों के कर्तव्यशिक्षा. प्रकाः गीताप्रेस, गोरखपुर. सं. अट्ठानवाँ, 2064, पुनर्मुद्रण.
5.    गोयन्दका, जयदयाल. नारी धर्म. प्रकाः गीताप्रेस, गोरखपुर. सं. सड़सठवाँ, 2064, 10000.
6.    पोद्दार, हनुमान प्रसाद. व्यवहार और परमार्थ. प्रकाः गीताप्रेस, गोरखपुर. सं. आठवाँ 2060.
7.    मनु. महर्षि. मनुस्मृति. प्रकाः साधना पॉकेट बुक्स, जवाहर नगर, दिल्ली – 07. सं. 1999.
8.    पाण्डेय, डॉ. दर्शन. नारी अस्मिता की परख. प्रकाः संजय प्रकाशन, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली – 02, सं. प्रथम 2004.
9.    कालिया, ममता. खाँटी घरेलू औरत. प्रकाः वाणी प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली – 02. सं. 2004.
10. गुप्ता, रमणिका. खूंटे. प्रकाः पराग प्रकाशन, शाहदरा, दिल्ली – 32. सं. प्रथम, 1980.
11. शरद, नेहा. ख़ुदा से ख़ुद तक. प्रकाः वाणी प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली – 02. सं. 2001.
12. टाकभौरे, सुशीला. तुमने उसे कब पहचाना. प्रकाः शरद प्रकाशन, नागपुर – 24. सं. प्रथम, 1995.
13. अनामिका, खुरदुरी हथेलियाँ. राधाकृष्ण प्रकाशन प्रा.लि., दरियागंज, नई दिल्ली -2. सं. प्रथम, 2005.
14. पुतुल, निर्मला. नगाड़े की तरह बजते शब्द. अनु. अशोक सिंह. प्रकाः भारतीय ज्ञानपीठ, लोदी रोड, नई दिल्ली – 3. सं. प्रथम, 2005.


मंगलवार, 14 मई 2019

Use To Rone Ki Aadat Hai...

स्त्रीकाल में प्रकाशित

                                              उसे तो रोने की आदत है... !


रोना क्या इतना बुरा है अम्मा !
जो रोज खड़ी कर दी जाऊँ चौराहे पर ?

राधा और सीता के रोने
पर लिखे गए कितने ग्रंथ
अहिल्या, सेवरी, यशोधरा
यशोदा शकुन्तला को क्यों किया
जाता है याद
द्रोपदी भी तो रोयी थी
भरी सभा में अम्मा
कुन्ती रोती रही आजीवन

इतना ही बुरा था उनका रोना
फिर वे ही आदर्श क्यों हैं अम्मा !

नानी को देखा रोते हुए
तुम कभी हँसी नहीं
क्या जिन्दगी का जंग लड़ने से
पहले रोना जरूरी होता है अम्मा !

मैं भी रो रही हूँ
झाडियों में चीखती आवाजों से
तेजाब से झुलस रहा है बदन
अपनों से खार खायी
अधूरे प्रेम की दास्तान से
और सबसे अधिक
नानी और तुम्हें रोता देखकर !
फिर मेरा मजाक क्यों उड़ाया
जाता है अम्मा !
कोई सामने से
कोई खींसे निपोरकर
कोई मुँह छुपाकर
कोई तमाचा मारकर
सब कहते हैं इनसे उनसे
उसे तो रोने की आदत है” !
    

    ******

Amrapaali - 2

स्त्रीकाल में प्रकाशित -
http://streekaal.com/2019/05/poetry-by-renu-yadav/

आम्रपाली – 2

मस्तक गिरवी पैर पंगू
छटपटाता धड़ हवा में
      त्रिशंकू भी क्या
लटके होंगें इसी तरह शून्य में ?
रक्तीले बेबस आँखों से
     क्या देखते होंगे इसी तरह
दो कदम रखने के खातीर
जमीन को ?
और जमीन मिलते मिलते
फिसल जाती होगी तलवों से
हो जाती होगी उतनी ही दूर
जितनी करीब होगी कभी
       ख्वाबों में
तमाम कोशिश के बाद भी

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Amrapaali - 1

स्त्रीकाल में प्रकाशित -

http://streekaal.com/2019/05/poetry-by-renu-yadav/





आम्रपाली - 1

नहीं चुनतीं अपनी
जिन्दगी की डोर
बना दी जाती हैं पतंग...
जिन्हें उड़ाया जाता है
अलग-अलग छतों पर
आँधियों में झंझोड़कर
तीलियों में फंसा कर
चीर दी जाती हैं
बिहरा दी जाती हैं
करके तार तार...
और खींच लीं जाती हैं
झटके से
गोल रोल बनाकर
रख दिया जाता उन्हें
अंधेरे घुप्प कमरें में
बार बार उधेड़ने के लिए...

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रविवार, 12 मई 2019

Bhartiya Prampraagat Sanskaaron Ka Punarpath Kartin Anamika Ki Striyaan


डॉ. संगीता वर्मा द्वारा सम्पादित पुस्तक 'समकालीन साहित्य और भारतीय संस्कृति' में प्रकाशित । पृ. 13-21 । 



भारतीय परम्परागत संस्कारों का पुनर्पाठ करतीं अनामिका की स्त्रियाँ
(कवि ने कहा : अनामिका काव्य-संग्रह के विशेष संदर्भ में)


क्या नदी का पहला पाप है विह्वलता ?(कवि ने कहा: अनामिका – अनामिका, पृ.106) अनामिका का यह प्रश्न समस्त वर्चस्ववादी सत्ता के साथ इस जिज्ञासा से है कि नदी की सीमाएँ क्या बिना विह्वलता के होनी चाहिए ? आखिर विह्वलता विशेषता ही तो है, तभी तो कोई भी जड़, चेतन कहलाएगा । विह्वलता न हो तो नदी सागर से कभी नहीं मिल पायेगी, कोई दिशा नहीं चुन पायेगी, यदि चुन भी ले तो पारंपरिक लीक से हटकर कभी कोई अन्य राह नहीं बना पायेगी !
अनामिका की कविताएँ उस भावबोध को जन्मदेती हैं जहाँ स्त्रियाँ परम्परागत संस्कारों के कारण परिवार और समाज में रह सह लेने की स्थिति में कहीं गहरी चुप्पी साध लेती हैं । कुछ भी नहीं कहना जान गई हैं, / रहना, चुप रहना जान गई हैं(कवि ने कहा: अनामिका – अनामिका, पृ.119) लेकिन यह चुप्पी चुप्पी न होकर शब्दों के जंगल में / चुप्पी का एक शेर रहता है” (कवि ने कहा: अनामिका – अनामिका, पृ.119) और यह शेर दहाड़ता नहीं बल्कि सदियों से अर्जित संस्कारों के विपरीत जंगल में तुफान ले आने की क्षमता भी रखता है । समाजशास्त्रियों के अनुसार, संस्कार धर्म पर आधारित वे पद्धतियाँ हैं, जिनके द्वारा व्यक्ति के जीवन का परिशुद्ध व पवित्र बनाने का प्रयत्न किया जाता है, जिससे कि वह मुक्ति या मोक्ष की दिशा में अधिक अग्रसर हो सकें(अग्रवाल, जे.के., डॉ. अरविन्द कुमार, आर.सी.तिवारी. समाजशास्त्र गाइड. पृ.43)
डॉ. राजबली पाण्डेय संस्कार को परिभाषित करते हुए कहते हैं, संस्कार का अभिप्राय शुद्धि की धार्मिक क्रियाओं तथा व्यक्ति के शारीरिक मानसिक तथा बौद्धिक परिष्कार के लिए किये जाने वाले अनुष्ठानों से है, जिससे वह समाज का पूर्ण विकसित सदस्य हो सके   (अग्रवाल, जे.के., डॉ. अरविन्द कुमार, आर.सी.तिवारी. समाजशास्त्र गाइड. पृ.42)
तंत्रवार्तिक के अनुसार, संस्कार वे क्रियाएं तथा रीतियां हैं, जो योग्यता प्रदान करती हैं – योग्यतां चादधानाः क्रियाः संस्कारा इत्युच्यन्ते । यह योग्यता दो प्रकार की होती है – 1. पापमोचन से उत्पन्न योग्यता, 2. नवीन गुणों से उत्पन्न योग्यता । संस्कारों से नवीन गुणों की प्राप्ति होती है, तथा तप से पापों या दोषों का मार्जन होता है
(अग्रवाल, जे.के., डॉ. अरविन्द कुमार, आर.सी.तिवारी. समाजशास्त्र गाइड. पृ.44)
           संस्कारों का उद्देश्य जीवन को शुद्द आरचण के माध्यम से उन्नत पथ पर ले जाना है और किसी व्यक्ति को संस्कारित करने में संस्कृति का सबसे बड़ा योगदान होता है । महादेवी वर्मा के अनुसार बुद्धि और हृदय मानव-चेतना में एक संस्कार जगत् का निर्माण करते रहते हैं, इससे रस पाकर मनुष्य की स्मृति, अनुमान, कल्पना, भावना आदि समाज, दर्शन, साहित्य आदि में परिणत होकर जिस जीवन-पद्धति का निर्माण करते हैं, हम उसी को संस्कृति की संज्ञा देते हैं
                                                                       (चतुर्वेदी, जगदीश्वर, सुधा सिंह. स्त्री अस्मिताः साहित्य और विचारधारा. पृ.76.)
          समाजशास्त्री सर्वश्री मैकाइवर और पेज (Maclver and Page) संस्कृति को परिभाषित करते हुए कहते हैं, हमारे रहने तथा सोचने के तरीकों में, प्रतिदिन के आपसी समागमों में, कला में, साहित्य में, धर्म में, मनोरंजन तथा आमोद-प्रमोद में अभिव्यक्त हमारी प्रकृति ही संस्कृति है
-        (मुकर्जी, आर.एन., भरत अग्रवाल. प्रारंभिक समाजशास्त्र. पृ. 142.)

दरअसल अनामिका की भारतीय संस्कृति में इतनी गहरी पैठ है कि वे उसकी बुनियाद तक जा कर स्त्रियों का मनोविज्ञान समझते हुए उन्हें बाहर निकालने का प्रयास करती हैं । वे जानती हैं कि स्त्रियाँ भारतीय संस्कृति द्वारा प्रदत्त संस्कारों में इस प्रकार रची बसी हैं कि उन्हें अपने ही संस्कारों का लेखा-जोखा रखते हुए उसे तोड़ने में खुद से ही काफी जद्दोजहद करनी पड़ती है । इसीलिए तो सूली ऊपर सेज पिया कीकविता में टू बी ऑर नॉट टू बी प्रश्न पूछते हुए फाँसी का फंदा लगाने से पहले घर के सारे काम सूझ जाते हैं, बच्चे याद आ जाते हैं और फंदा लगाने का निर्णय बदल जाता है कि यदि ये नहीं रहीं तो इनके परिवार का काम-काज कौन सम्भालेगा, पहले सम्भाल लें, फिर मर जायें... । फासी का फंदा लगाना अर्थात् आत्महत्या करने से बचना एक उदाहरण हो सकता है लेकिन साथ ही पतिव्रता कविता में विवाहित स्त्री का पति से प्रताड़ित होने पर भी उन्हीं के विषय में सोचते रहना भी हमारे संस्कार ही तो हैं कि स्त्रियाँ अपने इच्छाओं संभावनाओं और सपनों को ताक पर रखते हुए पहले अपने पति, बच्चे और परिवार का कल्याण चाहती हैं । पूरे घर में कभी उत्तरदायित्त्वों के रूप में, कभी करूणा के रूप में, तो कभी ममता के रूप में पसरे रहने पर भी वह कहीं नहीं होती टू बी ऑर नॉट टू बी दैट इज द क्वेश्चन’? (कवि ने कहा: अनामिका – अनामिका, पृ.21)
सच तो यह है कि संस्कृति धर्म और नैतिकता से गलबहियाँ डाले समाज में व्यक्ति को आदर्श तथा सत्चरित्र बनाने हेतु निर्णायक भूमिका अदा करती है । चूंकि स्त्री संस्कृति की संवाहक है, इसलिए उसकी भूमिका जमीनी स्तर से मजबूती के साथ जुड़ी रहती है । स्त्री न सिर्फ संस्कृति की सूक्ष्म समझ रखती है बल्कि परंपराओं में उसे ढ़ालते हुए पीढ़ी-दर-पीढ़ी अग्रसारित भी करती है । किंतु संस्कृति और परंपरा में वर्चस्ववादी राजनैतिक षड़यंत्र के कारण उसे धर्म-नैतिकता, पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक की शिक्षा के माध्यम से हाशिए पर रखने की पूरी कोशिश की जाती है । वह संस्कृति और परंपरा को सुरक्षित रखने एवं उसके निर्माण के लिए संस्कारों का लेप लगाकर ईंट के ऊपर ईंट चढ़ाती तो है परंतु उसने ईंट नहीं रखा यह साबित करने के लिए पुनः धर्म-नैतिकता, पाप-पुण्य, स्वर्ग नरक आदि अदृश्य षड़यंत्रों का संबंध चरित्रिक-पतन से जोड़ दिया जाता है । इसलिए तो अपनी जगह से गिरकर / कहीं के नहीं रहते / केश, औरतें और नाखून” (कवि ने कहा: अनामिका – अनामिका, पृ.11)
परंतु क्या यह ग्राह्य कर लेना इतनी आसान बात है कि आधी आबादी जिसकी भूमिका घर, परिवार, समाज, राष्ट्र में बराबर की है उसकी कोई जगह ही नहीं !!
जिनका कोई घर नहीं होता-
उनकी होती है भला कौन-सी जगह ?
कौन-सी जगह होती है ऐसी
जो छूट जाने पर
औरत हो जाती है
कटे हुए नाखूनों,
कंघी में फँसकर बाहर आए केशों-सी
एकदम से बुहार दी जाने वाली ?”
                                                                     - (कवि ने कहा: अनामिका – अनामिका, पृ.11-12)
ऐसी स्त्रियों के विषय में अनामिका कवि ने कहा: अनामिका पुस्तक के आत्मकथ्य में कहती हैं, “वास्तविक जीवन-जगत् के चरित्र हों या क्लासिकलों के चरित्र – मेरी कल्पना के स्थायी नागरिक वही बनते जिन्हें कभी न्याय नहीं मिला, जो हमेशा लोगों की गलतफहमी का शिकार हुए, दुनिया ने जिन्हें कभी न प्रेम दिया, न मान । भीतर से वे जितने अगाध होते, उतने ही अकेले” !
(कवि ने कहा: अनामिका – अनामिका, पृ.5)
अकेले हो भी क्यों न, जिन्हें धर्म ग्रंथों में अपना अस्तित्व स्थापित करने के लिए नरअर्थात् पुरूष का ही सहारा लेना पड़ता है । विवाह के समय कन्यादान, पाणिग्रहण के नारी शब्द का प्रयोग सबसे पहले किया जाता है । नारी नर के संसर्ग में आने पर ही नारीत्व को प्राप्त करती है । नारीत्व’ को प्राप्त करते ही वह दो आदर्श अपने सामने अपने ही वचन में जीवन के लिए रखती है – 1. आयुष्मानस्तु मे पतिः 2. एधन्तां ज्ञातयो मम। मेरा पति पूर्ण आयुसम्पन्न हो और मेरी जाति (समाज) की अभिवृद्धि हो । नारी होने के बाद ही इसे ‘सौभाग्य की प्राप्ति होती है (अ.14/1/38, पा.गृ.1/8/9)”
-        (गीता प्रेस. कल्याण वेद-कथांक. गोरखपुर. पृ. 484. (नारी और वेद))
महाभारत के शांतिपर्व में महर्षि वेदव्यास ने लिखा है –
सा भार्या या गृहे दक्षा सा भार्या या प्रजावती ।
सा भार्या या प्रतिप्राणा सा भार्या या पतिव्रताः ।।
-       (पाण्डेय. डॉ. दर्शन. नारी अस्मिता की परख. पृ. 14. (महाभारत (शांतिपर्व), 47/10)
अर्थात् गृहकार्य में दक्ष, सन्तानवती पतिप्रिया पत्नी ही पतिव्रता नारी हो सकती है ।
पतिव्रता की हक़ीकत यह है कि पत्नी पत्नी न होकर कोई रोबोट हो गयी जो अपने पति के इच्छानुसार जिए और जीती चली जाये । वह पति का चप्पल जूते कपड़ों के साथ परिवार रिश्तेदार सम्भालते जाये, तर्क-कुतर्क करने के बजाय पति-परमेश्वर के लिए कल्याणकारी भावना ही रखे । रेती पर झम-झम-झमक-झम कुछ बरसने की आशा अर्थात् प्रेम (एक काल्पनिक शब्द) की चाहत लिए रूठना और मनुहार न होने पर खुद ही धीरे-धीरे बासी रोटियाँ निकाल कर खाने पर विवश हो जाय, किसी सज़ा से कम नहीं तो क्या ?
स्त्री-विमर्श के क्षेत्र में अनामिका वह कवयित्री हैं, जो कभी अपनी नायिकाओं से स्वयं संवाद करती नज़र आती हैं तो कभी इनकी नायिकाएँ धर्म संस्कृति और परंपरा से बतिकही करती हुई दृष्टिगत होती हैं । फर्नीचर साफ करती, बच्चों का इंतजार करती, पति के प्रेम के लिए तड़पती पतिव्रता नायिका हो अथवा एक दूसरे के सर में जूँए हेरती, अम्मागिरी करती चाची-मौसी हों, बच्चे को सफलता की राह दिखाती माँ हो अथवा धरती का नमक बनी या राहगीरों से भी आत्मीयता रखने की आश लगायी वृद्धाएँ हों, कुंकुंम रंग की क्रूरता से कराहती चकलाघर की वेश्या हो अथवा रिफ्रेशर कोर्स में एक बेंच पर बैठने वाले सहकर्मी से अन्जाना अनकहा वियोग पाले पढ़ी-लिखी प्रेमिका हो... ये सभी अपने अंदर अथाह आदिम स्मृतियों का भंडार समेटे जीवन को एक नयी राह दिखाने वाली स्त्रियाँ किसी जीवनदर्शन से कम नहीं । यदि जातीय स्मृत्तियों पर आधारित रचना का उदाहरण देना है तो अनामिका जी की कविताएँ अग्रणी पंक्तियों में आयेंगी । जो भारतीय संस्कारों का ही नहीं बल्कि भारतीय संस्कृति का दस्तावेज प्रस्तुत करती हैं । उदाहरण के लिए सार्वजनिक चौकानामक कविता देख सकते हैं -
औरत नहीं थी, वह इंद्रधनुष थी !
लाल नेलपॉलिश, पीली साड़ी,
नीली अँगिया और चूड़ियाँ हरी,
लौंग झक सफेद और चमकीली हँसुली,
भूरी चमड़ी, टिकुली बैगनी –
इंद्रधनुष तक से कुछ ज्यादा रंगीन
थे उसके सपने भी !”
-       (अनामिका – कवि ने कहा, पृ. 99)
नेलपॉलिश का लाल होना, पीली साड़ी, हरी चूड़ियाँ, लौंग झक सफेद, चमकीली हँसुली आदि सुहागन स्त्री के लिए रूढ़ है । किंतु इतने रंगीन वेश-भूषा के बावजूद भी सपनों का इंद्रधनुष से अधिक रंगीन होना उसके लिए खालीपन ही तो है ! यह कविता खेसारी की साग की कचरी-घुघनी बेचने वाली रमावती नाइन पर लिखी गयी है। जो हर रोज अन्य घरों में महिलाओं को सुबह – सुबह तेल, उबटन, मेहँदी लगाने जाया करती है और उनके दुःख-दर्द का राज अपने हृदय में संजोये आती है, लेकिन उसके लिए विवादों का चुल्हा एक पति, प्रेमी पाँच, बच्चे छः कहकर जलाया जाता है । लीक से हटकर सपने देखने वाली स्त्रियों के लिए कुलटा, कुल्छिनी, माया, ठगिनी (माया ठगिनी कबीर ने भी संबोधित किया है) आदि चारित्रिक-पतन का व्यंग्य आखिर नैतिकता ही निर्धारित करती है । डॉ.सुधा सिंह स्त्री की पराधीनतानामक लेख में लिखती हैं, “सारी नैतिकता उन्हें बताती है कि यह महिलाओं का कर्तव्य है और सभी मौजूदा भावनाओं के अनुसार यह उनका स्वभाव है कि वे दूसरों के लिए जिये, पूर्ण आत्मत्याग करें और अपने स्नेह संबंधों के अतिरिक्त उनका अपना कोई जीवन न हो । स्नेह संबंधों से तात्पर्य सिर्फ इन संबंधों से है जिनकी उन्हें इजाजत है –वे पुरूष जिनसे स्त्री संबंधित हो या वे बच्चे जो पुरूष व उनमें एक अटूट व अतिरिक्त बंधन होते हैं
-       (चतुर्वेदी, जगदीश्वर, सुधा सिंह. संपा. स्त्री अस्मिता – साहित्य और विचारधारा. पृ.17)
समय बदलता है, प्रकृति बदलती है और इनके साथ साथ धर्म, नैतिकता, परंपरा और संस्कृति के नाम पर संस्कारित किए जाने वाले मानदंड़ भी बदलते हैं । स्त्रियों ने उन निर्धारित मानदंड़ों का पुनर्पाठ करके एक ही घर में अलग-अलग प्रदान किए जाने वाले संस्कार राम, आ पाठशाला जा ! / राधा, आ खाना पका ! / राम, आ बताशा खा ! / राधा, आ झाड़ू लगा(कवि ने कहा: अनामिका – अनामिका, पृ.11) अपने प्रति हो रहे षडयंत्रों को विफल करने का प्रयास किया है ।  क्योंकि ये समझ चुकी हैं कि स्त्री को स्त्रित्व स्थापित करने के लिए ऐसे संस्कारों (दया, क्षमा, करूणा, ममता, धैर्य, सहनशीलता, शीलता, गंभीरता, कौमार्यता तथा प्रेम में एकनिष्ठता आदि) के कारण मानसिक रूप से बधियापन ही उन्हें अपराध सहन करने के लिए विवश करते हैं । आँखों के नीचे / गहरी गुफा की / हहाती हुई एक साँझ उतर आई है !” (अनामिका. कवि ने कहा : अनामिका. पृ. 75) को वे चुपचाप सहन कर लेती हैं । किंतु कविताओं के माध्यम से कहें तो
“खुल जाती है ऋतुसंभोग से बंदीशाला,
छा जाता है अंधकार, सार्थवाह,
लेकिन उस मेघायित अंधकार में भी
कुछ द्युतियाँ तो होती हैं ही निराकार !
-       (अनामिका. कवि ने कहा : अनामिका. पृ. 106)
            ये द्युतियाँ ही उन्हें चमकने के लिए विवश करती हैं और उनमें जन्म लेती है एक नयी स्त्री और उसमें जुझने की क्षमता । वैसे स्त्रियाँ तो होती ही हैं ऊपजाऊँ ! फिर उन्हें कैसे रोका जा सकता है ? जब जब वे अपने अस्मिता के प्रति सचेत हुई है तब तब वर्चस्ववादी सत्ता को चुनौती दी हैं । गार्गी का तर्क करना, मैत्रेयी का अपने पति द्वारा प्राप्त धन का ठुकराना, सीता का राम के पास पुनः न लौटने का निश्चय, स्वाभिमानी राधा का कृष्ण से न मिलने जाना, रज़िया सुल्ताना का सामंती व्यवस्था को तोड़ते हुए स्वयं राजा बनना, रानी लक्ष्मीबाई का अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष करना, मीरा का परंपराओं को तोड़ते हुए कृष्ण के लिए समर्पित होना, महादेवी वर्मा का विवाहित होते हुए पति को अस्वीकारते हुए एकाकी जीवन गुजारना आदि यूँ ही तो नहीं ? परंपरागत संस्कारों को समझना, तर्क करना और उससे बाहर निकलने की अथवा बदलने की कोशिश करना ही तो पुनर्पाठ है । समाज चाहे कितनाहूँ रंगीन अफवाहें / चीखती हुई चीं-चीं / दुश्चरित्र महिलाएँ, दुश्चरित्र महिलाएँ(कवि ने कहा: अनामिका – अनामिका, पृ. 10) का आरोप लगाता रहे, परिवर्तन के लिए दुश्चरित्र होना अतिआवश्यक है, क्योंकि चरित्र की परिभाषा नदी की विह्वलता के विपरीत जाती है । अतः चरित्र का पुनर्पाठ करती नज़र आती हैं अनामिका की स्त्रियाँ । किसी ने सच ही कहा है, अनामिका समाज के सबसे पिछली पाँत के इनसानों के साथ खड़ी नज़र आती हैं । वे उनके दुखों, पीड़ाओं व त्रासदियों से व्यथित ही नहीं होतीं, बल्कि उसे अपनी कलम की धार से तराश कर इतना तीखा व पैना कर देती हैं कि वे तीर की तरह सीधे मर्म में उतरती चली आती हैं”।
(रूस्तगी, मंजु. अनामिका का काव्य. पृ.53. (प्रकाशन समाचार, सितम्बर 2008, पृ. 20))
अनामिका की कविताओं के सारांश के रूप में कहें तो अब वे किसी चोरी-छुपे कुहनियाने के खिलाफ टी.वी. के विज्ञापनों में काम करती हैं,सार्वजनिक चूल्हा जलाती हैं, घर में मार खाकर रोती नहीं बल्कि चुपचाप पार्लर में बर्फ से सिंकायी करवाकर होठों पर हँसी का घुँघट डाल अपनी मंजिल की ओर बढ़ जाती हैं । वह प्रेम करने से पहले क्या प्रेम में पड़ना खटाई में पड़ना है, अम्मा ?” (अनामिका. कवि ने कहा : अनामिका. पृ. 95) प्रश्न करना सीख गयी हैं  । ब्युटीमिथ को चैलेंज देने के लिए तैयार हैं
किसकी नूरजहाँ हूँ मैं
इस अँधियारे कमरे में यों
टीन खुरचती आटे की”?
-       (अनामिका. कवि ने कहा : अनामिका. पृ. 94)
वे अपने आपको पाने के लिए अपनी पड़ोसन खुद बनना चाहती हैं, स्वयं को ईज्ज़त देना चाहती हैं और अपने कर्मों के लिए स्वयं को धन्यवाद करना चाहती हैं । वे मिथक पात्रों पर प्रश्नचिन्ह लगाने लगीं हैं कि ईसा मसीह यदि स्त्री होते तो क्या उन्हें मरने की फुरसत होती क्या वे अत्याचार के शिकार नहीं होते, जिस प्रकार सीता को? वे केश, औरतें और नाखून के गिरने का अन्वय परंपरा से हटकर करने लगीं है, नयी-नयी सीखी हुई भाषा की तरह खुद को समझने की चाह रखती हैं, स्वयं को किसी दैहिक वस्तु की तरह नहीं बल्कि ठिठुरते हुए दूर से किसी आग की महत्पूर्ण होना चाहती हैं और अनहद नाद की तरह ध्वनि बनकर हृदय-पटल पर अविस्मरणिय बन जाना चाहती हैं ।
आईना कहता है, बदल गया है मेरा चेहरा,
उतर गया है मेरे चेहरे का सारा नमक
नमक से नमक धुल गया है (आँखों से चेहरे का !)”
-       (अनामिका. कवि ने कहा : अनामिका. पृ. 75)
ऐसी पंक्ति तड़पती पीड़ा के संस्कार से ही संभव हो सकता है । अब वह अधूरे अभंग पदों में एक नया सौंदर्य ढ़ूँढ़ती है, आखिर अनगढ़ता भी एक सौंदर्य तो है ही । वे अपनी खुरदुरी हथेलियों में अपनी खुदरा उदासियों का रहस्य ढूँढ ली है, अब वे साँप के सूँघने से पट्ट नहीं लेटेंगी, बल्कि चैतन्य होंगी । इसलिए वे कहती हैं –
अंतिम उजास की छिटकी हुई किर्चियाँ
पल-भर में भर देंगी
सारा-का-सारा स्पेस
और फिर उसका अनुवाद
अंतरिक्षनहीं, ‘विस्तारकरूँगी मैं-
केवल विस्तार !”
-       (अनामिका. कवि ने कहा : अनामिका. पृ. 125)
अनामिका की कविताएँ सांस्कृतिक, सामाजिक, ऐतिहासिक, मिथकिय एवं मनोवैज्ञानिक आदि परतों को अपने अंतःगर्भ में छिपाये मल्टीडाइमेंशलन होती हैं । इनमें देशज शब्दों की गहरी समझ होने के साथ-साथ ग्रामीण स्त्री को जानना आवश्यक है, तो अंग्रेजी के साथ शहरी लड़की का रहस्य भी । मिथकिय पात्रों के साथ उनके कहानियों की उधेड़-बुन करना जरूरी है तो ऐतिहासिक चरित्रों के गाथाओं को खँगालना भी । संस्कृति पर कविता शुरू होकर कब इतिहास में पहुँच जाये और कब इतिहास से गुजरते हुए मिथक में समा जाये, मिथक आधुनिकता उत्तरआधुनिकता के दर्पण में कब कड़वी सच्चाई को दर्शा दे और उस सच्चाई में स्त्री के समस्त संवेदनाएँ एक साथ उभरकर सामने आ जाये... यह स्वप्न और यथार्थ का संगम मुक्तिबोध के पश्चात् अनामिका के काव्य में ही दिखायी देती हैं । यदि इन कविताओं को नदी की विह्वलता की संज्ञा देते हैं तो अतिशयोक्ति नहीं होगी । और यही विह्वलता दिखायी देती है उनकी स्त्रियों में भी, जो भारतीय परम्परागत संस्कारों में रची-बसी होने के बावजूद भी परंपरा, संस्कृति, धर्म, नैतिकता, इतिहास और मिथकों का पुनर्पाठ करती हुई दृष्टिगत होती हैं । वे नदी की भाँति बहती हैं, राह बनाती हैं, जीवन देती हैं, सागर में मिल जाती हैं और सागर में समाकर भी अपनी एक अलग पहचान बनाते हुए वर्चस्ववादी सत्ता से प्रश्न करती हैं-
क्यों होना चाहिए कुछ भी किसी का
उसकी मर्जी के खिलाफ ?”
-       (कवि ने कहा: अनामिका – अनामिका, पृ.107)


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संदर्भ-ग्रंथ –
1.    अनामिका. कवि ने कहा : अनामिका. किताबघर प्रकाशन, दरियागंज, नयी दिल्ली. सं. 2008.
2.    अग्रवाल, जे.के., डॉ. अरविन्द कुमार, आर.सी.तिवारी. समाजशास्त्र गाइड. विद्यार्थी पुस्तक भंडार, गोरखपुर. सं. 1997.
3.    मुकर्जी, आर.एन., भरत अग्रवाल. प्रारंभिक समाजशास्त्र. शिवलाल अग्रवाल एंड कंपनी, आगरा-3. सं. अट्ठआइसवाँ, 1999.
4.    चतुर्वेदी, जगदीश्वर, सुधा सिंह. संपा. स्त्री अस्मिता – साहित्य और विचारधारा.
5.    रूस्तगी, मंजु. अनामिका का काव्य. वाणी प्रकाशन, दरियागंज, नयी दिल्ली. सं. प्रथम, 2015.
6.    गीता प्रेस. कल्याण वेद-कथांक. गोरखपुर. सं. प्रथम.
7.    पाण्डेय. डॉ. दर्शन. नारी अस्मिता की परख. संजय प्रकाशन, नई दिल्ली. सं. प्रथम, 2004.