सोमवार, 25 नवंबर 2013
सोमवार, 22 जुलाई 2013
Rishte
रिश्ते - 1
रिश्ते समुद्र की तरह होना चाहिए
जिसमें समा जाए कोई भी नदी
रिश्ते नहीं होना चाहिए गड्ढ़े या
तालब की तरह
जो बारिश के साथ भर जाए, अन्यथा सूख
जाए
रिश्ते - 2
रिश्ते खुले आसमान की तरह होना
चाहिए
जिसमें समा जाए पूरी पृथ्वी और
बह्माण्ड भी
रिश्ते नहीं होने चाहिए तारों की
तरह
जो किसी और की रोशनी से टिमटिमाए
रिश्ते - 3
रिश्ते बसन्त ऋतु की तरह होने चाहिए
जिसमें सूखे पत्ते भी खिले-खिले लगे
रिश्ते नहीं होने चाहिए पतझड़ की
तरह
जिसमें खिले फूल भी मुरझाये लगे
मंगलवार, 30 अप्रैल 2013
Gulaab
गुलाब
गुलाब...
एक रोज दिए थे तुमने
इज़हार-ए-दोस्ती की खातीर
वो आज किसी फेकीं हुई
रद्दी की किताबों में मिली
जिसकी खुशबू आज भी बरकरार है
और तुम्हारा चेहरा धूँधला
हो चुका है...
सोमवार, 1 अप्रैल 2013
बुधवार, 23 जनवरी 2013
Shahid
शहीद
संसार के हवन कुंड के सामने
जब बंधी थी हमारे रिस्तों
की गांठ
तब फेरे लिए थे हमने
रीति-रिवाजों के साथ
शहनाइयों के सुर में सुर मिलाकर
सुरीला लग रहा था हमारा जीवन
पर सुर को बेसुरा कर
चले गए तुम उसी रात
देश-सेवा हेतु
हेतु तो मेरे जीवन का
बस यही रह गया
तुम और तुम्हारा परिवार
तुम्हारे रिस्ते, तुम्हारी परंपराएँ...
तुम्हारे ड्यूटी में दुन्दुभी
बजती थी
और मेरा जीवन हर समय
था एक रणक्षेत्र
और मैं सुनती रहती थी
हर रोज एक नयी नई दुन्दुभी
की आवाज़
आवाज़... जो घर कर गई हैं
मेरे हृदय में
कि एक दिन तुम आओगे और
मुझे आवाज़ दोगे
पर...
ऐसा न हुआ
हुआ तो बस इतना कि
तुम आये
लौट आये बजती बिगुल के
साथ, तिरंगे के आवरण में
ताबूत को अपना कवच बना
कवच तो बना लिया था मैंने
भी तुम्हारे प्यार को
एहसास को, यादों को
तुम न होते हुए भी
होते थे हर पल मेरे साथ
साथ... जो होते हुए भी
कभी न था
सिंदुर बिन्दी और बिछुए
की सौगात के अलावा
जिससे मैं तुमसे जुडी थी
और तुम मुझसे
मुझसे तो बहुत कुछ
जुड़ गया था...
तुम्हारी प्रतीक्षा का दर्द
अपने होने न होने का एहसास
धनयुक्त निर्धन होने का आभास
परिवार के प्रति कर्तव्य का भास
कर्तव्य...
तुम बखूबी निभा रहे थे
देश के लिए
लेकिन क्या मेरे प्रति भी
तुम्हारा कोई कर्तव्य था
या अपने परिवार के प्रति
जिम्मेदारियों का एहसास
सिवाय साल में ढ़ाई महिने
की छुट्टी के अलावा ?
अलावे पर तो हर रोज
जल रही थी मैं
दिल में तुम्हारे प्यार की
ज्योति जलाए
कि कभी तुम भी रहोगे
हमारे साथ
चाहे बीस साल बाद ही सही
तुफानों को भी झेल गई
सुखमय जीवन की चाह में
सुखमय जीवन की चाह जब
पूरी होने को आई
तभी तुम छोड़ गए मेरा साथ
बीच भंवर में डूब गई नईया
देश का सफ़र तो निभा चूके
पर भूल गए कि तुम हो
मेरे भी हमसफ़र हो
हमसफ़र...
तुम तो शहीद कहलाओगे,
नवाजे जाओगे
वीरता के पुरस्कार से
पर मैं...
मैं क्या कहलाऊँगी
मेरा तो पूरा जीवन शहीद
हुआ है तुम पर
जीऊँगी मैं हर पर
तिल-तिलकर
सिर्फ मैं ही नहीं तुम्हारे
माता-पिता
और तुम्हारे परिवार के साथ-साथ
समस्त रिस्तेदार भी
शहीद हैं
हे शहीद ! बोलो...
इस शहीद पत्नी और परिवार को
कौन सा नाम दोगे
बोलो...
कौन से रत्न से हमें नवाजोगे
और कौन सा निभाओगे हमारे
लिए कर्तव्य
कर्तव्य निभाने की जिम्मेदारी
क्या सिर्फ मेरा है ?
नहीं…
मैं तो सीता भी नहीं बन सकी
कि तुम्हारे साथ जा सकूँ वन में
न ही हूँ कैकेयी या सत्यभामा
जो लड़ सकूँ तुम्हारे साथ युद्ध
नहीं है फूरसत मुझे
कि जौहर कर सकूँ
नहीं...
मैं नहीं हूँ इतनी महान
जो तुम्हारे जाने पर
न गिराऊँ एक बूँद भी आँसू
मुझे गर्व है तुम पर
पर मैं हूँ एक साधारण नारी
और मेरा जीवन भी
हुआ है शहीद...
हे शहीद...
बोलो...
अब कौन सा
वाद्ययंत्र मेरे शहीद
होने पर बजाओगे
और कौन से रत्न से
हमें नवाजोगे
या संसार के हवन-कुंड
में अब कौन सी
अग्नि जलाओगे...
संसार के हवन कुंड के सामने
जब बंधी थी हमारे रिस्तों
की गांठ
तब फेरे लिए थे हमने
रीति-रिवाजों के साथ
शहनाइयों के सुर में सुर मिलाकर
सुरीला लग रहा था हमारा जीवन
पर सुर को बेसुरा कर
चले गए तुम उसी रात
देश-सेवा हेतु
हेतु तो मेरे जीवन का
बस यही रह गया
तुम और तुम्हारा परिवार
तुम्हारे रिस्ते, तुम्हारी परंपराएँ...
तुम्हारे ड्यूटी में दुन्दुभी
बजती थी
और मेरा जीवन हर समय
था एक रणक्षेत्र
और मैं सुनती रहती थी
हर रोज एक नयी नई दुन्दुभी
की आवाज़
आवाज़... जो घर कर गई हैं
मेरे हृदय में
कि एक दिन तुम आओगे और
मुझे आवाज़ दोगे
पर...
ऐसा न हुआ
हुआ तो बस इतना कि
तुम आये
लौट आये बजती बिगुल के
साथ, तिरंगे के आवरण में
ताबूत को अपना कवच बना
कवच तो बना लिया था मैंने
भी तुम्हारे प्यार को
एहसास को, यादों को
तुम न होते हुए भी
होते थे हर पल मेरे साथ
साथ... जो होते हुए भी
कभी न था
सिंदुर बिन्दी और बिछुए
की सौगात के अलावा
जिससे मैं तुमसे जुडी थी
और तुम मुझसे
मुझसे तो बहुत कुछ
जुड़ गया था...
तुम्हारी प्रतीक्षा का दर्द
अपने होने न होने का एहसास
धनयुक्त निर्धन होने का आभास
परिवार के प्रति कर्तव्य का भास
कर्तव्य...
तुम बखूबी निभा रहे थे
देश के लिए
लेकिन क्या मेरे प्रति भी
तुम्हारा कोई कर्तव्य था
या अपने परिवार के प्रति
जिम्मेदारियों का एहसास
सिवाय साल में ढ़ाई महिने
की छुट्टी के अलावा ?
अलावे पर तो हर रोज
जल रही थी मैं
दिल में तुम्हारे प्यार की
ज्योति जलाए
कि कभी तुम भी रहोगे
हमारे साथ
चाहे बीस साल बाद ही सही
तुफानों को भी झेल गई
सुखमय जीवन की चाह में
सुखमय जीवन की चाह जब
पूरी होने को आई
तभी तुम छोड़ गए मेरा साथ
बीच भंवर में डूब गई नईया
देश का सफ़र तो निभा चूके
पर भूल गए कि तुम हो
मेरे भी हमसफ़र हो
हमसफ़र...
तुम तो शहीद कहलाओगे,
नवाजे जाओगे
वीरता के पुरस्कार से
पर मैं...
मैं क्या कहलाऊँगी
मेरा तो पूरा जीवन शहीद
हुआ है तुम पर
जीऊँगी मैं हर पर
तिल-तिलकर
सिर्फ मैं ही नहीं तुम्हारे
माता-पिता
और तुम्हारे परिवार के साथ-साथ
समस्त रिस्तेदार भी
शहीद हैं
हे शहीद ! बोलो...
इस शहीद पत्नी और परिवार को
कौन सा नाम दोगे
बोलो...
कौन से रत्न से हमें नवाजोगे
और कौन सा निभाओगे हमारे
लिए कर्तव्य
कर्तव्य निभाने की जिम्मेदारी
क्या सिर्फ मेरा है ?
नहीं…
मैं तो सीता भी नहीं बन सकी
कि तुम्हारे साथ जा सकूँ वन में
न ही हूँ कैकेयी या सत्यभामा
जो लड़ सकूँ तुम्हारे साथ युद्ध
नहीं है फूरसत मुझे
कि जौहर कर सकूँ
नहीं...
मैं नहीं हूँ इतनी महान
जो तुम्हारे जाने पर
न गिराऊँ एक बूँद भी आँसू
मुझे गर्व है तुम पर
पर मैं हूँ एक साधारण नारी
और मेरा जीवन भी
हुआ है शहीद...
हे शहीद...
बोलो...
अब कौन सा
वाद्ययंत्र मेरे शहीद
होने पर बजाओगे
और कौन से रत्न से
हमें नवाजोगे
या संसार के हवन-कुंड
में अब कौन सी
अग्नि जलाओगे...
बुधवार, 9 जनवरी 2013
BEMATLAB
बेमतलब
बेमतलब लगती हैं इनकी हरपल पनीली स्वप्नीली आँखें
बेमतलब लगता है इनका हरपल बड़बड़बड़ाना
बेमतलब होता है इनका इस घर से उस घर तक झाँक आना
बेमतलब होता है कभी भी अपनों के नाम पर हाथ पसारना
पर, हर बेमतलब के पीछे
होता है कोई न कोई खास मतलब
मतलब पूरा करते करते ये स्वयं
प्रायः रह जाती हैं बेमतलब.
बेमतलब लगती हैं इनकी हरपल पनीली स्वप्नीली आँखें
बेमतलब लगता है इनका हरपल बड़बड़बड़ाना
बेमतलब होता है इनका इस घर से उस घर तक झाँक आना
बेमतलब होता है कभी भी अपनों के नाम पर हाथ पसारना
पर, हर बेमतलब के पीछे
होता है कोई न कोई खास मतलब
मतलब पूरा करते करते ये स्वयं
प्रायः रह जाती हैं बेमतलब.
सोमवार, 7 जनवरी 2013
Parkiya
परकीया
बड़े-बड़े डॉक्टरों ने
रोग बताया लाइलाज़
कुछ ने नखरा
कुछ ने बताया हिस्टीरिया
सारी बिमारियों के नाम के
बावजूद भी
नहीं पहचान पाया कोई वैद्य
नब्ज़
क्यों मुझे चाँद के पलकों
पर आँसू लटके दिखाई देते हैं
क्यों सूरज की तपन भी
सह जाती हूँ शून्य होकर
क्यों बारिश के बाणों से
आग लग जाती है बदन में
क्यों ठंड
ठंड नहीं जगा पाती
तन मन में
क्यों सिंहरन उठती है धूप में
क्यों छाता लेकर खोलना
भूल जाती हूँ खड़ी दोपहर में
क्यों हाथ में चश्मा लेकर
ढ़ूँढ आती हूँ पूरे घर में
क्यों आँसूओं में डूबते हुए
भी खाना ठूँसती हूँ मुँह में
क्यों हो जाती हूँ अकेली
भरी सभा में
क्यों डसती हैं यादें
तन्हाई में
क्यों नंगे पैरों घूम आती हूँ
शहर में
क्यों पैरों में चूभे काँटों के
दर्द लगते हैं कम
क्यों हँसी के पर्दे में
लिखती हूँ तड़पते गीत
क्यों रात भर जाग-जाग कर
रटती रहती हूँ मीत मीत
क्यों जान होकर भी
हो गई हूँ बेजान
क्यों हर वक़्त रहता है
लबों पे उनका ही नाम
क्यों हर साँस में आती जाती है
उनके ही यादों की साँस
साँसों का क्या ?
अंदर आती हैं
प्राणवायु बनकर
और जाते समय
बन जाती हैं
मृत्युवायु
और अब तो
नीम बनकर
पीने लगी हूँ जीते-जी
मृत्युवायु...
क्यों बार-बार सिंदूर
लगाकर पोछ देती हूँ
कि शायद
सिंदूर लगाने से
तुम फिर से मेरे हो जाओ
या फिर पोछ देने से
टूट जाए ये रिस्ता
ताकि मुक्त हो सकूँ
तुम्हारी यादों से
पर...
ऐसा कुछ भी नहीं होता
होता है तो बस यही
कि तुमसे
जितना अलग होना
चाहती हूँ
न जाने कैसे तुम
उतना ही मुझसे
जुड़ते चले जाते हो
और...
तुम जीवन से जाकर भी
हृदय से नहीं जा पाते हो
क्या तुम्हें भी कभी
आती होगी हमारी याद
क्या याद किया होगा कभी
जागकर रात रात
वो वक्त
जो अब जमकर
थक्के बन चूके हैं...
या हमारे याद करने से
क्या आती हैं कभी
तुम्हें भी हिचकियाँ
तुम्हें हिचकियाँ आये
न आये
पर मैं ही याद करती हूँ और
मेरी ही आती हैं हिचकियाँ
शायद किसी याद के भ्रम में
सारी बिमारियों के नाम
के बावजूद भी
नहीं पहचान पाया
कोई वैद्य नब्ज़
जिसकी रगों में बहता है
उनके प्यार का नब्ज़
जिन्होंने अपनी नब्ज़
सौंप दी किसी और की
नब्ज़ को
तुमने सिर्फ मुझसे ही
रिस्ता नहीं तोडा
बल्कि तोड़ा है हमसे जूडे
हर रिस्ते को
मेरे तन को मेरे मन को
और मेरी आत्मा को भी
उन सारे खूबसूरत एहसासों
को, जिन्हें हमने सजाया था
हमारे घर और बगियों में
और देखा था एक छोटा-सा
सपना
जिसमें समा जाती है पूरी
की पूरी पृथ्वी
और...
अब यह पृथ्वी
पृथ्वी न होकर
बन गई है
परकीया...
बड़े-बड़े डॉक्टरों ने
रोग बताया लाइलाज़
कुछ ने नखरा
कुछ ने बताया हिस्टीरिया
सारी बिमारियों के नाम के
बावजूद भी
नहीं पहचान पाया कोई वैद्य
नब्ज़
क्यों मुझे चाँद के पलकों
पर आँसू लटके दिखाई देते हैं
क्यों सूरज की तपन भी
सह जाती हूँ शून्य होकर
क्यों बारिश के बाणों से
आग लग जाती है बदन में
क्यों ठंड
ठंड नहीं जगा पाती
तन मन में
क्यों सिंहरन उठती है धूप में
क्यों छाता लेकर खोलना
भूल जाती हूँ खड़ी दोपहर में
क्यों हाथ में चश्मा लेकर
ढ़ूँढ आती हूँ पूरे घर में
क्यों आँसूओं में डूबते हुए
भी खाना ठूँसती हूँ मुँह में
क्यों हो जाती हूँ अकेली
भरी सभा में
क्यों डसती हैं यादें
तन्हाई में
क्यों नंगे पैरों घूम आती हूँ
शहर में
क्यों पैरों में चूभे काँटों के
दर्द लगते हैं कम
क्यों हँसी के पर्दे में
लिखती हूँ तड़पते गीत
क्यों रात भर जाग-जाग कर
रटती रहती हूँ मीत मीत
क्यों जान होकर भी
हो गई हूँ बेजान
क्यों हर वक़्त रहता है
लबों पे उनका ही नाम
क्यों हर साँस में आती जाती है
उनके ही यादों की साँस
साँसों का क्या ?
अंदर आती हैं
प्राणवायु बनकर
और जाते समय
बन जाती हैं
मृत्युवायु
और अब तो
नीम बनकर
पीने लगी हूँ जीते-जी
मृत्युवायु...
क्यों बार-बार सिंदूर
लगाकर पोछ देती हूँ
कि शायद
सिंदूर लगाने से
तुम फिर से मेरे हो जाओ
या फिर पोछ देने से
टूट जाए ये रिस्ता
ताकि मुक्त हो सकूँ
तुम्हारी यादों से
पर...
ऐसा कुछ भी नहीं होता
होता है तो बस यही
कि तुमसे
जितना अलग होना
चाहती हूँ
न जाने कैसे तुम
उतना ही मुझसे
जुड़ते चले जाते हो
और...
तुम जीवन से जाकर भी
हृदय से नहीं जा पाते हो
क्या तुम्हें भी कभी
आती होगी हमारी याद
क्या याद किया होगा कभी
जागकर रात रात
वो वक्त
जो अब जमकर
थक्के बन चूके हैं...
या हमारे याद करने से
क्या आती हैं कभी
तुम्हें भी हिचकियाँ
तुम्हें हिचकियाँ आये
न आये
पर मैं ही याद करती हूँ और
मेरी ही आती हैं हिचकियाँ
शायद किसी याद के भ्रम में
सारी बिमारियों के नाम
के बावजूद भी
नहीं पहचान पाया
कोई वैद्य नब्ज़
जिसकी रगों में बहता है
उनके प्यार का नब्ज़
जिन्होंने अपनी नब्ज़
सौंप दी किसी और की
नब्ज़ को
तुमने सिर्फ मुझसे ही
रिस्ता नहीं तोडा
बल्कि तोड़ा है हमसे जूडे
हर रिस्ते को
मेरे तन को मेरे मन को
और मेरी आत्मा को भी
उन सारे खूबसूरत एहसासों
को, जिन्हें हमने सजाया था
हमारे घर और बगियों में
और देखा था एक छोटा-सा
सपना
जिसमें समा जाती है पूरी
की पूरी पृथ्वी
और...
अब यह पृथ्वी
पृथ्वी न होकर
बन गई है
परकीया...
सदस्यता लें
संदेश (Atom)