साहित्य नंदिनी, दिसम्बर, 2020 अंक में चर्चा के बहाने स्तम्भ में आलेख 'जिसके निशान नहीं दीखते... यानी मानसिक प्रताड़ना के ख़िलाफ' के बहाने कुछ और बातें...
पुस्तक
– एक औरत की नोटबुक
लेखिका
– सुधा अरोड़ा
मूल्य
– 300
प्रकाशन
– राजकमल प्रकाशन प्रा. लि., नई दिल्ली
आलेख
– जिसके निशान नहीं दीखते... यानी मानसिक प्रताड़ना के ख़िलाफ
“उपेक्षा, संवादहीनता या चुप्पी भी एक तरह की हिंसा ही है जिसे मैं चुप्पी की हिंसा या
सायलेंट वॉयलेंस का नाम दे रही हूँ और इसे भी कन्फ्रंट या कॉर्नर करने – सामना
करने या घेरने की ज़रूरत है” - सुधा
अरोड़ा
वैसे
तो ‘एक औरत की नोटबुक’ कहानी की रचना-प्रक्रिया की नोटबुक
कही जा सकती है लेकिन इस पुस्तक में लेखिका का लेख ‘जिसके
निशान नहीं दीखते... यानी मानसिक प्रताड़ना के ख़िलाफ’
पितृसत्तात्मक व्यवस्था में एक सुसभ्य किंतु चुप्प रहने वाले पति की मानसिक संरचना
का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण है । ऐसा नहीं है कि समाज में सभी शांत एवं चुप रहने
वाले व्यक्ति एक जैसे होते हैं बल्कि कुछ चुप्पी की मार आत्मा तक को घायल कर जाती
हैं । प्रायः चुप्पी की हिंसा को हिंसा नहीं माना जाता, क्योंकि शरीर पर पड़े लाल-नीले
निशान ही हिंसा की पहचान होते हैं । मन पर पड़े निशान अथवा मन का लहूलुहान होना
किसी को दिखाई नहीं देता अथवा दिखाई भी दे जाए तो क्या फर्क पड़ता है ? आखिर औरतों का मन भी कोई मन होता है क्या !!
यह
लेख वैवाहिक जीवन में आदर्श दम्पत्ति के बीच घुसपैठ करते हुए व्यावहारिक
अभिव्यंजना पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करता है, जिसमें प्रायः स्त्रियाँ चुप रहकर भी
कटघरे में होती हैं और बोलकर भी ! चुप रहने के लिए तो
परिवार या समाज या संस्कार विवश करता है ! कभी पति तो कभी
परिवार, कभी ईज़्ज़त तो कभी समाज के नाम पर खामोश रहकर आज नहीं तो एक बेहतर कल की
उम्मीद में वह अपने ही द्वारा निरंतर कटघरे खड़ी होती हैं क्योंकि किसी भी प्रकार
का दबाव मन के सांत्वना का विकल्प नहीं हो सकता । यदि वह आवाज़ उठाना शुरू करती है
तो सबसे पहला सवाल उसका खुद से होता है कि न दिखने वाले घाव को कहें तो कैसे कहें,
जायें तो किसके पास जायें और कोई समझेगा भी अथवा नहीं ! अंततः
वह सदियों से संचित मन में थक्के पड़े लहू को ज़बान देती है पर सदियों से जमा लहू
का थक्का एक ही बार में कैसे पिघल कर लोगों के सामने पसर कर दिखायेगा कि वह किन
किन हालातों में कभी आँसू बनकर, कभी रेत बनकर, कभी पसीज कर तो कभी जल-भुनकर थक्का
बना । सबसे पहले तो वह थक्के जमने की प्रक्रिया को समझाने में ही असफल हो जाती है
और यदि कुछ हद तक समझा भी दे तो मनमोहक मुस्कान लिए पति के सुसभ्य शांत व्यवहार के
आगे उसकी बात को एकसिरे से खारीज कर दिया जाता है ! हो भी
क्यों न ? उस व्यक्ति का दूसरों के साथ हँसमुख, जिंदादिल,
कर्तव्यपरायण व्यवहार के प्रभाव के आगे पत्नी ही शकी, बदचलन और स्वार्थी नज़र आने
लगती है ! आखिर में लोगों को सबूत चाहिए और सबूत के अभाव में
वह ‘साँप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे’ के विषय में वह क्या कहे ? कैसे कहे कि वह धीरे-धीरे
‘श्लो डेथ’ की ओर धकेली जा रही है अथवा
वह ‘इमोशनल रेप’ से भी और आगे भयानक चक्रव्युह
में फँस चुकी है ! जिसकी अभिव्यक्ति के वाक्य सटिक नहीं
बैठते क्योंकि ‘श्लो-डेथ’ की पीड़ा को
सिर्फ महसूस किया जा सकता है शब्द नहीं दिया जा सकता । श्लो-डेथ की ओर धकेलने वाले
पतियों के व्यक्तित्व के विषय में लेखिका कहती हैं, “यों तो हर
व्यक्ति के भीतरी और बाहरी दो रूप होते हैं लेकिन किसी के व्यक्तित्व के इन दो रूपों
में बहुत फ़ासला होता है – इतना कि अगर दोनों को सामने रख
दिया जाए तो आप पहचान भी न सकें कि ये एक ही व्यक्ति के दो रूप हैं” ।
ऐसा
व्यक्तित्व उस व्यक्ति की ‘नारसिस्टिक
पर्सेनेलेटी डिसऑर्डर’ हो अथवा जानबुझ कर किसी कारणवश किए
जाने वाला व्यवहार...। लेकिन सच तो यही है कि ‘घायल की गति
घायल जाने’ की अवस्था में भी महिलाएँ एक दूसरे के घाव पर
मलहम पट्टी कर उसी अवस्था रह-सह लेने के लिए विवश हैं क्योंकि उनके पास दिखाने के
लिए घाव नहीं है । उसकी पीड़ा के शुभचिंतक भी उसकी विवशता, व्याकुलता और छटपटाहट
को उसके भारी भरकम लदे-फँदें गहनों-कपड़ों तथा रोजमर्रा के जीवन में चकाचौंध की
खुशियों से लौतने में भी नहीं हिचकते । उसके गहने-कपड़े और घुमक्कड़ीपन की चाह
जैसी ‘कोपिंग मैनेजमेंट’ लोगों की समझ
से परे होती है । उसकी खुशियाँ तौल दी जाती हैं उन सलीके से रह-रही नौकरीपेशा औरतों
के काम काज से अथवा मनमर्जी से घूमती शॉपिंग सेन्टर में उसकी खरीदारी से अथवा
बात-बेबात पर ज़ोर-ज़ोर से ठठाकर हँसने से अथवा कुछ फूहड़ से या ऊल-जलूल काम करने
या बतियाने से । नहीं ध्यान दिया जाता तो उसके सलीकेदार रहन-सहन के पीछे बदरंग
जीवन को छुपा कर रखने की चाह अथवा खरीदारी से क्षण भर के लिए सही, मन को शांत करने
की ललक अथवा ठठाकर हँसने के पीछे की रूदन अथवा फूहड़पन के बहाने सामने वाले के फूहड़पन
को सामने ले आने की एक बेवकूफी भरी हरकत... ।
भारत
में ऐसी अनगिनत महिलाएँ हैं जो इस तरह की हिंसा से जूझ रही हैं, लेकिन उनकी कहीं
कोई सुनवायी नहीं । यह स्थिति सिर्फ गाँव-देहात में अनपढ़ महिलाओं की ही नहीं
बल्कि पढ़ी-लिखी महिलाओं की भी है । विमर्श के झंड़े तले लहूलुहान मन को सम्भालने
और एक-दूसरे से छुपाने के बीच महिलाओं (कुछ अपवादों को छोड़कर) ने मान लिया है कि
इस मर्ज की कोई दवा नहीं ! यदि चुप्पी की
हिंसा का सर्वे किया जाये तो हर तीसरी-चौथी महिला इस हिंसा की शिकार पायी जायेगी ।
सुधा अरोड़ा कहती हैं, “वह जिस दिन अपने पति के इंगित से
परिचालित होना बंद कर देगी और अपना एक स्वतंत्र दायरा- जिसकी पहली शर्त आर्थिक
आत्मनिर्भरता है – गढ़ लेगी, जिस दिन वह अपने मन पर सिर्फ़ अपना नियंत्रण स्वीकार
करेगी, स्थितियाँ ऊर्ध्वमुखी होने लगेंगी” ।
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- रेनू यादव