गुरुवार, 17 दिसंबर 2020

जिसके निशान नहीं दीखते... यानी मानसिक प्रताड़ना के ख़िलाफ

 साहित्य नंदिनी, दिसम्बर, 2020 अंक में चर्चा के बहाने स्तम्भ में आलेख 'जिसके निशान नहीं दीखते... यानी मानसिक प्रताड़ना के ख़िलाफ' के बहाने कुछ और बातें...


पुस्तक – एक औरत की नोटबुक

लेखिका – सुधा अरोड़ा

मूल्य – 300

प्रकाशन – राजकमल प्रकाशन प्रा. लि., नई दिल्ली

 

आलेख – जिसके निशान नहीं दीखते... यानी मानसिक प्रताड़ना के ख़िलाफ

 

 उपेक्षा, संवादहीनता या चुप्पी भी एक तरह की हिंसा ही है जिसे मैं चुप्पी की हिंसा या सायलेंट वॉयलेंस का नाम दे रही हूँ और इसे भी कन्फ्रंट या कॉर्नर करने – सामना करने या घेरने की ज़रूरत है - सुधा अरोड़ा

 

वैसे तो एक औरत की नोटबुक कहानी की रचना-प्रक्रिया की नोटबुक कही जा सकती है लेकिन इस पुस्तक में लेखिका का लेख जिसके निशान नहीं दीखते... यानी मानसिक प्रताड़ना के ख़िलाफ पितृसत्तात्मक व्यवस्था में एक सुसभ्य किंतु चुप्प रहने वाले पति की मानसिक संरचना का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण है । ऐसा नहीं है कि समाज में सभी शांत एवं चुप रहने वाले व्यक्ति एक जैसे होते हैं बल्कि कुछ चुप्पी की मार आत्मा तक को घायल कर जाती हैं । प्रायः चुप्पी की हिंसा को हिंसा नहीं माना जाता, क्योंकि शरीर पर पड़े लाल-नीले निशान ही हिंसा की पहचान होते हैं । मन पर पड़े निशान अथवा मन का लहूलुहान होना किसी को दिखाई नहीं देता अथवा दिखाई भी दे जाए तो क्या फर्क पड़ता है ? आखिर औरतों का मन भी कोई मन होता है क्या !!

यह लेख वैवाहिक जीवन में आदर्श दम्पत्ति के बीच घुसपैठ करते हुए व्यावहारिक अभिव्यंजना पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करता है, जिसमें प्रायः स्त्रियाँ चुप रहकर भी कटघरे में होती हैं और बोलकर भी ! चुप रहने के लिए तो परिवार या समाज या संस्कार विवश करता है ! कभी पति तो कभी परिवार, कभी ईज़्ज़त तो कभी समाज के नाम पर खामोश रहकर आज नहीं तो एक बेहतर कल की उम्मीद में वह अपने ही द्वारा निरंतर कटघरे खड़ी होती हैं क्योंकि किसी भी प्रकार का दबाव मन के सांत्वना का विकल्प नहीं हो सकता । यदि वह आवाज़ उठाना शुरू करती है तो सबसे पहला सवाल उसका खुद से होता है कि न दिखने वाले घाव को कहें तो कैसे कहें, जायें तो किसके पास जायें और कोई समझेगा भी अथवा नहीं ! अंततः वह सदियों से संचित मन में थक्के पड़े लहू को ज़बान देती है पर सदियों से जमा लहू का थक्का एक ही बार में कैसे पिघल कर लोगों के सामने पसर कर दिखायेगा कि वह किन किन हालातों में कभी आँसू बनकर, कभी रेत बनकर, कभी पसीज कर तो कभी जल-भुनकर थक्का बना । सबसे पहले तो वह थक्के जमने की प्रक्रिया को समझाने में ही असफल हो जाती है और यदि कुछ हद तक समझा भी दे तो मनमोहक मुस्कान लिए पति के सुसभ्य शांत व्यवहार के आगे उसकी बात को एकसिरे से खारीज कर दिया जाता है ! हो भी क्यों न ? उस व्यक्ति का दूसरों के साथ हँसमुख, जिंदादिल, कर्तव्यपरायण व्यवहार के प्रभाव के आगे पत्नी ही शकी, बदचलन और स्वार्थी नज़र आने लगती है ! आखिर में लोगों को सबूत चाहिए और सबूत के अभाव में वह साँप भी मर जाये और लाठी भी न टूटेके विषय में वह क्या कहे ? कैसे कहे कि वह धीरे-धीरे श्लो डेथकी ओर धकेली जा रही है अथवा वह इमोशनल रेपसे भी और आगे भयानक चक्रव्युह में फँस चुकी है ! जिसकी अभिव्यक्ति के वाक्य सटिक नहीं बैठते क्योंकि श्लो-डेथ’ की पीड़ा को सिर्फ महसूस किया जा सकता है शब्द नहीं दिया जा सकता । श्लो-डेथ की ओर धकेलने वाले पतियों के व्यक्तित्व के विषय में लेखिका कहती हैं, यों तो हर व्यक्ति के भीतरी और बाहरी दो रूप होते हैं लेकिन किसी के व्यक्तित्व के इन दो रूपों में बहुत फ़ासला होता हैइतना कि अगर दोनों को सामने रख दिया जाए तो आप पहचान भी न सकें कि ये एक ही व्यक्ति के दो रूप हैं

ऐसा व्यक्तित्व उस व्यक्ति की नारसिस्टिक पर्सेनेलेटी डिसऑर्डर हो अथवा जानबुझ कर किसी कारणवश किए जाने वाला व्यवहार...। लेकिन सच तो यही है कि घायल की गति घायल जाने की अवस्था में भी महिलाएँ एक दूसरे के घाव पर मलहम पट्टी कर उसी अवस्था रह-सह लेने के लिए विवश हैं क्योंकि उनके पास दिखाने के लिए घाव नहीं है । उसकी पीड़ा के शुभचिंतक भी उसकी विवशता, व्याकुलता और छटपटाहट को उसके भारी भरकम लदे-फँदें गहनों-कपड़ों तथा रोजमर्रा के जीवन में चकाचौंध की खुशियों से लौतने में भी नहीं हिचकते । उसके गहने-कपड़े और घुमक्कड़ीपन की चाह जैसी कोपिंग मैनेजमेंट लोगों की समझ से परे होती है । उसकी खुशियाँ तौल दी जाती हैं उन सलीके से रह-रही नौकरीपेशा औरतों के काम काज से अथवा मनमर्जी से घूमती शॉपिंग सेन्टर में उसकी खरीदारी से अथवा बात-बेबात पर ज़ोर-ज़ोर से ठठाकर हँसने से अथवा कुछ फूहड़ से या ऊल-जलूल काम करने या बतियाने से । नहीं ध्यान दिया जाता तो उसके सलीकेदार रहन-सहन के पीछे बदरंग जीवन को छुपा कर रखने की चाह अथवा खरीदारी से क्षण भर के लिए सही, मन को शांत करने की ललक अथवा ठठाकर हँसने के पीछे की रूदन अथवा फूहड़पन के बहाने सामने वाले के फूहड़पन को सामने ले आने की एक बेवकूफी भरी हरकत... ।      

भारत में ऐसी अनगिनत महिलाएँ हैं जो इस तरह की हिंसा से जूझ रही हैं, लेकिन उनकी कहीं कोई सुनवायी नहीं । यह स्थिति सिर्फ गाँव-देहात में अनपढ़ महिलाओं की ही नहीं बल्कि पढ़ी-लिखी महिलाओं की भी है । विमर्श के झंड़े तले लहूलुहान मन को सम्भालने और एक-दूसरे से छुपाने के बीच महिलाओं (कुछ अपवादों को छोड़कर) ने मान लिया है कि इस मर्ज की कोई दवा नहीं ! यदि चुप्पी की हिंसा का सर्वे किया जाये तो हर तीसरी-चौथी महिला इस हिंसा की शिकार पायी जायेगी । सुधा अरोड़ा कहती हैं, वह जिस दिन अपने पति के इंगित से परिचालित होना बंद कर देगी और अपना एक स्वतंत्र दायरा- जिसकी पहली शर्त आर्थिक आत्मनिर्भरता है – गढ़ लेगी, जिस दिन वह अपने मन पर सिर्फ़ अपना नियंत्रण स्वीकार करेगी, स्थितियाँ ऊर्ध्वमुखी होने लगेंगी

 

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                                        - रेनू यादव

यीशू की कीलें

 साहित्य नंदिनी, नवम्बर, 2020 अंक में 'चर्चा के बहाने' स्तम्भ में प्रकाशित...



पुस्तक - यीशू की कीलें

लेखक – किरण सिंह

प्रथम संस्करण – 2016

मूल्य – 300

प्रकाशक – आधार प्रकाशन प्रा. लि., पंचकूला

 

मैं ज़िन्दों की बगल में रखा हुआ मुर्दा हूँ

 

यह वाक्य ब्रह्म बाघ का नाच दिखाने वाले उस व्यक्ति का है जिसे जीते-जी महानता के नाम पर मुर्दा बनने के विवश कर दिया जाता है । अंधविश्वास से भरी जनता की आँखें सिर्फ नाच देखती हैं और उसमें अपना हित तलाशती हैं ! नहीं देखतीं हैं तो नाचने वाले की पीड़ा और संत्रास ! प्रश्न उठता है कि नाच दिखाने वाला मुर्दा है अथवा देखने वाला अर्थात् दोनों में से ज़िन्दा कौन है ?

इस संग्रह की आठ कहानियों में लेखिका ने हाशिए पर खड़े समाज को यीशू की तरह कील के सहारे लटकते हुए दिखाया है । वर्चस्ववादी सत्ता ने सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, नैतिक तथा आर्थिक रूप से हर जगह अपनी कीलें गाड़ रखी हैं और हाशिए पर खड़ा समाज उन कीलों से लहूलुहान होकर लटका पड़ा है । कहानियों की पीक द्रौपदी पीकमें द्रौपदी पीक को छूने की जिद्द में वेश्या की लड़की घूँघरू अथवा नागाओं के शिष्य पुरूषोत्तम, कथा सावित्री सत्यवान की’ में अपने पति को बचाने के लिए रेनू चौधरी का षड़यंत्रकारियों के चंगुल में फंसकर उन्हीं को फँसाना, ब्रह्म बाघ का नाच में अपनी आजीविका चलाने की खातीर बरमबाघ का नाच दिखाने वाले नरसिम्हा का भगवान बन कर निष्क्रिय हो जाना, जो इसे जब पढ़े में अपना-अपना बखरा माँगने वाले गाँव के लड़कों के खिलाफ जंग छेड़ने वाली सुभावती हो, यीशू की कीलेंकहानी में राजनीतिज्ञों के षड़यंत्रों में फंसी भारती हो, हत्या’ कहानी में नकारे और शकी पति के प्रतिरोध में अपने अजन्मे बच्चे की हत्या करना, देश-देश की चुड़ैलेंमें स्त्रियों के प्रति लोगों का नज़रिया हो अथवा संझाकहानी में थर्ड जेण्डर को अपनी पहचान छुपा कर रखने की विवशता...  सभी पात्र यीशू के समान कीलों पर लटके कराहते हुए अपना-अपना जीवन जीने को विवश हैं । फ़र्क यह है कि यीशू संघर्ष करने के बाद ईश्वर पद पर आसीन हो गयें लेकिन इन मनुष्यों को सदैव कीलों पर ही लटके रहना होगा ।  

आज समाज में हाशिए पर खड़े लोग सत्ता के द्वारा ठोके गए कीलों को उखाड़ने के लिए संघर्षरत् हैं किंतु जाति, लिंगभेद, गरीबी, अशिक्षा आदि कीलों की जड़ें इतनी गहरे तक धँसी हैं कि वे झकझोरने के बाद भी हिल तक नहीं रहीं । शिक्षा से वंचित लोग कीलों में जीना सीख गये हैं और हाशिए से उठकर शिक्षीत हुए उच्च पदों पर आसीन महानुभाव वर्चस्ववादी सत्ता के साथ हाथ मिलाते नज़र आते हैं अथवा वे भी वही करने लगते हैं, जो उनके साथ हुआ है ! बदलाव की कड़ी में बदलाव करने के नाम पर भौकाल मचाते दिखते हैं, न कि बदलाव करते हुए । कुछ दिखते हैं संवेदनशील भी, जिन्हें मीडिया के साथ मिल कर बहस में शामिल हो चीख-चिल्ला कर घर बैठना होता है अथवा सारा आंदोलन फेसबुक, ट्वीटर तथा सोशल मीडिया पर शुरू होकर वहीं पर समाप्त हो जाता है । ऐसे लोग प्रतिष्ठित समाज अथवा अंधभक्तों में प्रतिष्ठा प्राप्त कर लहालोट हो जाते हैं और कीलों पर लटकी जनता अब भी रंक्तरंजित हो कीलों पर ही लटकी रहती है ।  उनके पास कील ठोकने वालों के खिलाफ कोई सबूत नहीं होता और उनकी भावनाएँ किसी के लिए कोई महत्त्व नहीं रखतीं । ऐसे में प्रश्न है कि क्या कीलों पर लटके लोग सदैव ऐसे ही कीलों पर लटके रह जायेंगे...?

 

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                                                                                                         - रेनू यादव

मॉम (2017)

साहित्य नंदिनी, अक्टूबर 2020 अंक में 'चर्चा के बहाने' स्तम्भ में फिल्म 'मॉम' के बहाने...


फिल्म – मॉम (2017)

लेखक – रवि उदयवार, गिरिश कोहली एवं कोणा वेंकटराव

निर्देशक – रवि उदयवार

कलाकार – श्रीदेवी, अक्षय खन्ना, सजल अलि, अदनान सिद्दीकी, अभिमन्यु सिंह, नवाजुद्दीन सिद्दीकी.

 

गलत और बहुत गलत में चुनना हो तो आप क्या चुनेंगे ?

 

इस फिल्म के ट्रेलर की शुरूआत इसी डायलॉग से होती है । इस वाक्य से सबसे पहले यही समझ में आता है कि यहाँ चयन सही और गलत के बीच नहीं बल्कि कम गलत और अधिक गलत के बीच किसी एक गलत को चुनना है । यह प्रश्न किसी कलाकार की भूमिका का नहीं बल्कि पूरे समाज के सामने है । इस फिल्म में बलात्कार और बलात्कार के बाद के परिणाम के ज्वलंत मुद्दे को उठाया गया है, जो कि देश में लगातार घट रही बलात्कार की घटनाएँ और उसके बाद के परिणाम किसी से छुपा नहीं है ।

14 अगस्त, 2005 को एक 15 वर्षीय लड़की के बलात्कार के आरोप में सजा काट रहे धनंजय चटर्जी को कोलकाता के अलीपुर जेल में फांसी दी गई, 20 मार्च 2020 को तिहाड़ जेल में निर्भया के आरोपी मुकेश सिंह, विनय शर्मा, अक्षय कुमार सिंह और पवन गुप्ता को फाँसी के फंदे पर लटका दिया गया । 19 दिसम्बर, 2019 को क्राइम सीन को रिक्रिएट करते समय एनएच-44 पर हैदराबाद की प्रियंका रेड्डी के बलात्कारी शिवा, नवीन, केशवुलू और मोहम्मद आरिफ पुलीस एनकाउन्टर में मारे जाते हैं । लेकिन इसके अलावा आरोपियों का क्या...?   

केन्द्रीय गृह मंत्रालय के अंतर्गत राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (NCRB) भारतीय दंड संहिता और विशेष एवं स्थानीय कानून के तहत देश में अपराध के आंकडे एकत्रित एवं विश्लेषित करती है । भारत में NCRB के आंकड़ों के अनुसार सन् 2016 में 38,947, सन् 2017 में 32,559, तथा 2018 में 33,356 बलात्कार के मामले दर्ज हुए हैं । यह ध्यान रखने योग्य बात है कि यह सिर्फ दर्ज मामले हैं । 3 दिसम्बर, 2019 को आजतक के हिन्दी न्यूज़ के अनुसार देश में हर साल 40 हज़ार, हर रोज 109 और हर घंटे 5 लड़कियों की अस्मत लूट ली जाती है । लेकिन इन सबमें में सिर्फ 25 प्रतिशत बलात्कारियों को ही सज़ा मिल पाती है । समाचार के अनुसार देश की लोकसभा और विधानसभा में बैठे 30 प्रतिशत नेताओं का आपराधिक रिकार्ड है, 51 पर महिलाओं के खिलाफ अपराध किए जाने के मामले दर्ज हैं और 4 नेताओं पर सीधे बलात्कार का आरोप है 

देखा जाय तो उपरोक्त तीन घटनाएँ, जिनमें बलात्कारियों को सजा मिली है वे एक आम जनता के बीच से आये अपराधी हैं । उन्नाव केस में दो बड़ी घटनाएँ, जिसमें से एक पीड़िता का बलात्कारी एक जाना माना विधायक है (2017) और दूसरी पीड़िता दिल्ली के सफदरगंज अस्पताल में अपनी जिन्दगी हार गई (2019)... का भी संतोषजनक परिणाम सामने नहीं आया है । और अब 14 सितम्बर, 2020 को खूंखार दरिन्दों के हाथ आयी हाथरस की निर्भया के साथ बलात्कार ने पूरे भारत का दिल दहला दिया है, जिसे बलात्कार न साबित करने के लिए पूरा प्रशासन एकजुट हो गया है । शायद रीढ़ की हड्डी टूटना और जीभ का काट लेना भी अपराध न माना जाये क्योंकि समाज के तथाकथित ईज़्ज़तदार उच्च वर्ग एवं उच्च पदों पर आसीन लोग कभी भी ऐसा काम नहीं कर सकते !!

जितनी कोशिशें इन घटनाओं को छुपाने में या अपराधियों को बचाने में की जाती हैं यदि उससे भी आधी कोशिश अपराधियों को कड़ी से कड़ी सज़ा देने में की जाती तो शायद आज ऐसी घटनाएँ न घटतीं । हैरानी की बात यह है अब मानवाधिकार चुप्पी साधे बैठा है, उच्च वर्ग या जाति अपनी जातिवाद का कार्ड खेल रहे हैं और खेलते रहे हैं और अपराधी सत्ता की बागडोर सम्भाले बैठे हैं ! हैरानी की बात यह भी होती है कि एक सरकारी नौकरी के लिए आवेदन करते समय आवेदनकर्ता के ऊपर आपराधिक मामले न होने की पुष्टि की जाती है लेकिन देश चलाने के लिए ऐसा कोई प्रावधान नहीं है, जेल में बैठकर भी चुनाव लड़ा जा सकता है ! प्रश्न उठता है कि उच्च पदों पर आसीन अपराधियों को क्या कभी फांसी की सज़ा हो पायेगी ? क्योंकि अपराधी तो सिर्फ अपराधी है । यदि अपराधी ही सत्ता की बागडोर संभाले हों तो फिर देश सुरक्षित कैसे हो सकता है ? जब अपराधियों की आकाएँ उच्च स्तर तक उनकी सुरक्षा की जिम्मेदारी लिए बैठे हों और केस को मनचाहे रूप से परिवर्तित कर सकते हों तो न्याय की उम्मीद कैसे की जा सकती है ? क्या इसके लिए सिर्फ सत्ता जिम्मेदार है अथवा जनता भी ? क्या जातिवाद और वोट की राजनीति में सत्ता की बागडोर संभालने वाले नेताओं के लिए भी इस फिल्म के डॉयलॉग की तरह कुछ कम गलत और अधिक गलत के बीच चयन का ही विकल्प होता है, सही और गलत का नहीं ? यह सोचने वाली बात है कि कुछ गलत भी तो गलत ही है और जनता की सह पाकर आगे चलकर वह और अधिक गलत में बढ़ जायेगा, क्या जनता को यह समझ में नहीं आता ? या फिर न्याय की थाली में अविश्वास परोसते हुए इस फिल्म की तरह हर माँ को स्वयं उठकर खड़ा होना होगा ?  

 

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Rough Book (2016)

साहित्य नंदिनी, सितम्बर 2020 अंक में 'चर्चा के बहाने' स्तम्भ में फिल्म रफबुक के बहाने कुछ बातें... 


फिल्म – Rough Book (2016)

लेखक – संजय चौहान, अनंत नारायण महादेवन

निर्देशक – अनंत नारायण महादेवन

नायक – तनीशा चटर्जी, मुकेश हरियावाला, अमान एफ. ख़ान

प्रोडक्शन – एन आकाश चौधरी प्रोडक्शन

 

आई फेल्ड यू एज ए टीचर । तुम्हें हारना नहीं सिखा पायी

 

लघु फिल्म रफबुक में नायिका संतोषी की माँ का संतोषी से संवाद है । यह सिर्फ एक संवाद नहीं बल्कि जीवन का वह सत्य है जिसे कोई भी माँ अपने बच्चे को शायद ही सिखाती हो ! जीतना तो हर कोई सिखाता है लेकिन हारना..?

जीवन में जीतने के लिए हारना सीखना और हार को सकारात्मक रूप से स्वीकृत्ति देने की सीख अतिआवश्यक है । जो हारना नहीं जानता, उसे जीतने का पूर्ण अनुभव, पूर्ण खुशी प्राप्त नहीं होती । हजार गलतियों के बाद भी जीतने के लिए बार बार हार कर आगे बढ़ते जाना ही जीवन है । आज के समय में यह सभी को, खासकर छात्रों को सीखने की जरूरत है । इस फिल्म में नायिका की माँ कहती है, कोशिश करो, हन्ड्रेड परसेन्ट, और अगर फेल भी हो गई तो हम सेलिब्रेट करेंगे    

यदि हर माँ-बाप अपने बच्चों को ऐसी शिक्षा देते तो शायद कोई छात्र असफल होने के डर से या असफलता के पश्चात् आत्महत्या नहीं करता । भारत में छात्रों की बढ़ती आत्महत्या की दर देखते हुए आज के समय में शिक्षा व्यवस्था में जो परिस्थितियाँ उत्पन्न हो रही हैं उसमें छात्रों को जीतने के हौसला के साथ-साथ हार को एक चुनौति मानकर आगे बढ़ने की सीख देनी होगी, अन्यथा यदि देश का भविष्य आत्महत्या करने से बच भी जाता है तो निराशा-भग्नाशा का शिकार रहेगा ।  

यदि किसी भी देश को बरबाद करना हो, तो सबसे पहले वहाँ की शिक्षा व्यवस्था को ध्वस्त करो । जब आम जनता का दिमाग पंगू होगा तो लोग आश्रीत पिछलग्गू बनकर आपके काले कारनामों में आपका साथ देंगे । उन्हें लम्बे लम्बे भाषणों के जाल में फंसाकर अंधा, गूंगा, बहरा बनाना होगा ताकि वे सोचने समझने देखने में असमर्थ हो जायें और फिर उनके हाथों में रोजगार के नाम पर कटोरा और बांसूरी थमाने की बात की जाये, जैसा कि कुछ महिने पहले एक विश्वविद्यालय के कुलपति ने अपने भाषण में कटोरा लेकर ट्रेन में भीख माँगने को रोज़गार का नाम दिया था !

यदि यही रोज़गार है, तो समझ सकते हैं कि देश में विकास किस स्तर तक विकास कर सकेगा और युवा वर्ग शिक्षा की छद्मी राजनीति के जाल में फंसकर किस हद तक फदफदाता रहेगा ? वर्तमान समय में शिक्षा व्यवस्था को ध्वस्त करने के लिए प्रमुख दो तरिके दिखाई दे रहे हैं – पहला, शिक्षण संस्थानों में अलग-अलग तरिके से टारगेट कर छात्रों को देशद्रोही साबित कर दिया जाय औरे दूसरा, शिक्षण संस्थानों का नीजिकरण कर उनकी फीस में इतनी बढ़ोत्तरी कर दिया जाय कि आम जनता शिक्षा से वंचित रह जाये ।  

शिक्षण संस्थान पहले से ही शिक्षकों के अभाव में दमा के बीमारी से फूल-पचक रहा था, अब नीजिकरण के कारण मनमाने तरिके से शिक्षकों को डिमाण्ड एवं सप्लाई की नीति के तरह स्वार्थ सिद्धी करना तथा चमचमाते स्कूल के चमचमाते ड्रेस कोड के बीच मरती आत्माओं की चीख को प्राइवेट ट्यूशन के नीचे दबा देना बेहद आसान हो गया है और होता जा रहा है । सच तो यही है कि चाहे जितना भी शिक्षा नीतियों में बदलाव किया जाय, जब तक शिक्षा को स्वार्थ सिद्धी हेतु राजनीतिकरण एवं उसका व्यावसायीकरण किया जाता रहेगा तब तक शिक्षा का स्तर नीचे गिरता रहेगा । इस छोटी सी फिल्म में नायिका संतोषी पाठ्यक्रमों को पूरा करने के दबाव पर कहती है, हम लोग टीचर्स हैं, सेल्समैन नहीं जिन्हें अपना टारगेट पूरा करना है

इस बात को नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता कि शिक्षण संस्थानों में शिक्षकों को सेल्समैन बनने के लिए बाध्य किया जाता है । निःसंदेह समय से पाठ्यक्रम पूरा करना एक अच्छे शिक्षक की निशानी है, लेकिन शिक्षा ग्राह्य होना न होना ये शिक्षण संस्थानों की जिम्मेदारी से बाहर होता जा रहा है , अपने नीजि हितों तथा बेहतर रिजल्ट दिखाने के चक्कर में छात्रों को पास करने के लिए शिक्षकों पर अलग-अलग तरिके से दबाव बनाना उन्होंने अपनी नैतिक जिम्मेदारी बना ली है । इस प्रक्रिया में छात्रों का हित-अहित उनके लिए कोई महत्त्व नहीं रखता । शिक्षण संस्थानों का नीजिकरण, शिक्षकों का अभाव, पाठ्यक्रम तथा फीस की संरचना तथा रोज़गार के प्रति बदलता नज़रिया संबंधि बाध्यता चाहे सरकार द्वारा ज़ारी हो अथवा प्रशासन द्वारा अथवा शिक्षक के स्वयं की नौकरी में असुरक्षा की भावना ? ये सभी कारक न सिर्फ युवा वर्ग को बल्कि देश के भविष्य को भी अंधेरे में रख रहे होते हैं । आज युवा वर्ग शिक्षा, व्यवसाय और खुद अपने जीवन के मामले में भी अंधकार से जूझ रहा हैं, रोशनी की चाह में तड़फड़ा रहा है । ऐसे में शिक्षा के लिए आवाज़ उठाती इस फिल्म का यह डायलॉग छात्रों की हौसला बढ़ाने में सहायता प्रदान कर सकता है -

जुगनू की लाइफ सिर्फ कुछ दिनों की होती है, लेकिन वे एक भी रात अँधेरे नहीं जाने देते (A Firefly only lives for a few days. But that doesn’t stop them from illuminating every night.”

 

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मौत पूरी दुनियाँ की आँखों में घूर रही है...

 साहित्य नंदिनी, जुलाई 2020 अंक में 'चर्चा के बहाने' स्तम्भ में मृत्यु के इन्द्रधनुष पुस्तक के बहाने कुछ बातें...


पुस्तक - मृत्यु के इन्द्रधनुष

लेखक – तेजेन्द्र शर्मा

प्रकाशक - इंडिया नेटबुक, नोएडा

मूल्य – 300/- रू.

 

मौत पूरी दुनियाँ की आँखों में घूर रही है...

 

मौत उसकी आँखों में घूर रही है... उसके शरीर में इतना दर्द है कि गर्दन मोड़कर मौत से आँखें फिरा भी नहीं सकता”  

-       तेजन्द्र शर्मा                     

 

कोरोना समय में एक ओर मौत पूरी दुनियाँ की आँखों में घूर रही है, तो दूसरी ओर लॉकडाउन में मुझे तेजेन्द्र शर्मा की पुस्तक मृत्यु के इन्द्रधनुष पढ़ने का मौका मिल रहा है । सचमुच मृत्यु एक इन्द्रधनुष ही तो है ! ईर्ष्या, द्वेष, लोभ, मोह, काम, क्रोध मौत के अलग-अलग रंग ही तो हैं ! एक तरफ इस महामारी में मृत्यु प्राप्त करने वालों की संख्या देखकर लोगों के हृदय में मृत्यु का खौफ फैल गया है तो दूसरी तरफ संक्रमित लोग हर पल मौत से लड़कर उसका सामना कर रहे हैं । एक ओर संक्रमित होने का खतरा हर किसी को डरा रहा है (डर भी एक मौत है) तो दूसरी ओर प्रशासन के नियमों को अनदेखी कर लोग मौत को चुनौति देते हुए सड़कों पर निकलने के लिए आमादा हैं !

घर-बाहर हर तरफ मृत्यु पसरी हुई है । ऐसे में अत्यधिक संवेदनशीलता, अत्यधिक संवेदनहीनता, अत्यधिक प्रेम, अत्यधिक नफरत, अत्यधिक आराम, अत्यधिक काम, अत्यधिक भोजन, अत्यधिक भूख मृत्यु के साथ जुगाली करती हुई नज़र आ रही है ।     

यदि इस समय को अविश्वास का समय कहें तो गलत न होगा । हर कोई मौत को महसूसते हुए एक दूसरे पर अविश्वास की नज़रों से देख रहा है । जो लोग मौत के मुँह से हमें खींच कर निकालने का प्रयास करे हैं हम उनपर भी विश्वास नहीं कर पा रहें । इसलिए तो जंग लड़ रहे डॉक्टर्स, नर्स और सिपाहियों पर हमले हो रहे हैं । जो हाथ सुरक्षा के लिए आगे बढ़ रहे हैं उन्हीं हाथों को काट फेंकने के लिए लोग तत्पर हो चुके हैं । मौत का भय हर किसी में समाता जा रहा है और मौत आने से पहले ही लोग कई-कई मौतें मरने के लिए विवश हो रहे हैं । इसका कारण पहले से चली आ रही अशिक्षा, भूख, बेरोजगारी और अंधविश्वास बहुत बड़ा कारण है लेकिन आग लगने पर कूआँ तो नहीं खोदा जा सकता ! पहले से चली रही वोट की राजनीति आज के समय को कहीं न कहीं असफल बना रही है वरना आज इस तरह की घटनाएँ नहीं होतीं ।

वर्तमान समय में एक अच्छी बात यह है कि वोट की राजनीति करने वाले वोट की राजनीति भूलकर एक साथ खड़ें होकर हरसंभव मनुष्यता को विजयी बनाने में जुटे हुए हैं, जो कि सराहनीय है । हालांकि अभी भी पूरी तरह से ग्राऊंड लेबल पर पहुँच पाना संभव नहीं हो पा रहा क्योंकि वोट की राजनीति में ग्राउंड लेबल पर पहुँचने की कवायद से अधिक जीतना जरूरी होता है । पर इस समय सराहनीय यह है कि पूरी दुनियाँ एक साथ मिल कर मौत की घूरती आँखों में घूरना चाहते हैं और उसे मात देना चाहते हैं । इसलिए वर्तमान समय में लेखक की यह बात सार्थक सिद्ध हो सकती है –

यह केवल एक मध्यांतर है... मौत जिन्दगी का अंत नहीं है…”

 

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राजनीति, रेड लाइट और हसीनाबाद

साहित्य नंदिनी के अगस्त 2020 अंक में 'चर्चा के बहाने' स्तम्भ में प्रकाशित

https://www.abhinavimroz.page/2020/08/3-LceJOL.html 

  

पुस्तक – हसीनाबाद

लेखक – गीताश्री

मूल्य – 395/- रू.

प्रकाशक – वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली

राजनीति, रेड लाइट और हसीनाबाद

 

आसक्ति प्रेम का विस्तार नहीं होती, बल्कि प्रेम को सीमित कर देती है

 

यही कारण है कि सभ्य समाज में बस जाती हैं हसीनाबाद जैसी अनेक बस्तियाँ । आश्चर्य की बात ऐसी स्थिति में प्रेम मात्र स्त्री के लिए होता है और पुरूष के लिए सामंती व्यवस्था में का एक सम्मान का प्रतीक और प्रेम की जगह आसक्ति अथवा खेलने के लिए एक खिलौना । जिसका न तो कोई औचित्य है और न ही तर्क, सिवाय ऐय्याश मानसिकता की नुमाइशकरण के अलावा ! ऐय्याश मानसिकता घर और बाहर दोनों जगह अपनी राजसी ठाट-बाट की उपस्थिति दर्ज कराता है लेकिन ऐय्याश मानसिकता की शिकार शिकारी जानवर उर्फ स्त्री पिंजरे में कैद होकर असंख्य बेगुनाहों के खून चूसकर बनाये गए उस राजसी ठाट-बाट के मुंह से निकले थूक को चाटती रह जाती है । किसी एक का खून थूक चाटने से बच कर निकलने की कोशिश करने वाली महिलाएँ अनेकों का थूक चाटने के लिए पहुँचा दी जाती हैं रेड लाइट एरिया में । भारत में प्रमुख पाँच रेड लाइट एरिया शीर्ष स्थानों पर हैं - कोलकाता का सोनागाची,  दिल्ली का जी.बी. रोड़, मध्यप्रदेश का रेशमपुरा (ग्वालियर), उत्तर-प्रदेश का कबाड़ी बाज़ार (मेरठ), मुंबई का कामथीपुरा (मायानगरी) । इसके अतिरिक्त वाराणसी में दालमंडी, सहारनपुर में नक्कास बाज़ार, मुजफ्फरपुर में छतरभुज स्थान तथा नागपुर में गंगा-जमुना आदि का नाम भी प्रसिद्ध है । ये नाम सीधे-सीधे वेश्यावृत्ति से जुड़ा है लेकिन हसीनाबाद की तरह गुमनाम बस्तियों का कहीं नाम भी नहीं आता । किंतु दुनियाँ की नज़र में मामूली लगने वाली बस्तियों में न जाने कितनी ही मासूमों (जिसमें से कुछ स्वेच्छा से, कुछ अनिच्छा से, कुछ अपहरित तो कुछ विवशतावश शामिल हैं) की सिसकियाँ दब जाती हैं, घुटती रहती हैं और सदियों-सदियों तक तड़पती रहती हैं । उनकी अस्मिता तो कोसो दूर होती ही है उनके साथ-साथ उनके बच्चों का भविष्य भी अंधकारमय होता है, जिनकी कोई सुनवाई नहीं होती ।

 

लेखिका गीताश्री ने अपने उपन्यास हसीनाबाद में दो मुद्दों को केन्द्र में रखा है, पहला, हसीनाबाद जैसी बस्ती, जो देश के नक्शे से बाहर है और दूसरा राजनीति में स्त्री, जो राजनीति के दिल से बाहर है । गोलमी जैसी अनेक संवेदनशील महिलाएँ राजनीति की छद्मी कूटनीतिक चाल से अपने आपको पीछे खींच लेती हैं । कभी कभी तो वर्षों-बरस तक पूरी तरह से देश के लिए समर्पित रह कर कार्य करने वाली राजनीतिज्ञ महिला भी राजनैतिक षड़यंत्रों से खुद बचाने के लिए व्यक्तिगत समस्याओं का बहाना बना अपना हाथ खींच लेती हैं अथवा खुद को राजनीति से अलग कर लेती हैं । इसमें सुषमा स्वराज का नाम भी शामिल हो तो हैरानी की बात नहीं होगी । वैसे महिलाएँ राजनीति के जिक्र से ही भागती हुई नज़र जाती हैं, किंतु जिन्हें जगह मिली होती है वे भी कहाँ वर्चस्ववादी सत्ता की बैशाखी के बिना चल पाती हैं ? यदि बैशाखी के बिना चलने की कोशिश भी करें तो कहाँ आखिरी मंजिल तक पहुँच पाती हैं ? कदाचित राजनीति में अपने परिवार की बलि देने वाली भूतपूर्व प्रधानमंत्री इन्द्रा गाँधी एक अपवाद हैं । अन्यथा 17वीं (2019-24) लोक सभा में 107 तथा राज्य सभा में 25 महिला सद्स्यों के होने के बावजूद भी कोई महिला इन्द्रा गाँधी की भाँति अपनी जगह क्यों नहीं बना पा रहीं ? राजनीति की संरचना और हसीनाबाद की संरचना में कहीं कोई समानता तो नहीं ?

 

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                                                                                            - रेनू यादव