शुक्रवार, 25 नवंबर 2011

Vikshipt

             विक्षिप्त 

लाल रंग
प्यार का प्रतीक माना जाता है।
मैं भी दीवानी थी
   लाल रंग की
      बचपन से ही
बढ़ती उम्र के साथ-साथ
लाल रंग में होती गई लाल
पर..
लोगों के डर से कभी
   अपना न पाई
      रंग लाल
क्योंकि लोग कहेंगे
लड़की बिगड़ गई है।

फिर तुम...
मेरे जीवन में आए
मेरी मांग में सजाए
सुनहरा लाल
सजा दिया मेरा तन मन
समय हो गया नारंगी लाल
लजा गई मैं होकर
शूर्ख लाल

जब तुमने मुझे प्यार के
लाल रंग में रंग दिया था
तब जीवन में दिखने लगा था
हर रंग सूवर्ण लाल
तब सफेद रंग शांत
   होते हुए भी
      लगता था कड़वा
क्योंकि मैं थी टहाटह लाल

लेकिन...
आज सफेद रंग में भी अशांत हूँ
मन ढूँढ़ता है तुम्हारी ही लालिमा
यत्र-तत्र-अन्यत्र, और फिर....
निराश हो लौट आता है अपने
बेरंग घोसले में

याद है.. जब तुमने मेरी गोदी में
डाला था हमारा लाल
तब हमारा जीवन हो गया था
खुशनुमा लाल
उसकी हँसी किलकारी से हुआ था
आंगन प्यारा लाल
और तुम...

और तुम...
उस लाल आंगन, लाल जीवन
और हमें तथा हमारे प्यारे लाल को
न जाने किसके सहारे छोड़ गए
कभी न वापस आने के लिए

तू ही बता... कि तेरी याद में मैं
कैसे भरूँ रंग लाल
जीवन का सूनापन मिटता ही नहीं
मिट जाती है दुनियाँ

एक रात...
दुनियाँ से छिपकर
तुम्हारी याद में मैंने कभी
पहन ली थी लाल साड़ी,
लाल चूड़ी और लाल बिन्दी के
साथ-साथ लाल सिन्दूर भी
मैं पूरी तरह से तुम्हारी लालिमा में
खो गई थी उस रात
तुम्हारा प्यार, दुलार, स्पर्श और नोंक-झोंक
के लाल साये में लिपट गई थी उस रात
किंतु...
साथ ही याद आया तुम्हारे जाने के बाद
मेरी लाल भावनाओं की चूड़ियों का
बेरहमी से तोड़ दिया जाना
मेरे सुनहरे लाल सिन्दूर का
मेरी मांग के साथ-साथ
मेरे जीवन से भी धो डालना
मुझे मेरे लाल जोड़े से
अनावृत कर देना
..............
..............
मैं तार-तार होती गई
घाट पर नहाते हुए उन दस दिनों में
जब मेरे लाल जोड़े के साथ-साथ
मेरे बदन से हर तार उतारकर
नहलाया था गाँव की औरतों ने
न लाज, न हया, न ही ईज़्जत बची
................
................

क्या तुम्हारे जाने के साथ ही मेरी
ईज़्जत भी चली गई ?
क्या तुम्हारे जाने के साथ-साथ
मेरा जीवन भी ख़त्म हो गया ?
बोलो न...

यही सोच रोती-तड़पती रही
रात भर
उमड़ती- घुमड़ती रही और
ढूँढ़ती रही ओर-छोर ज़िन्दगी की
और...
न जाने कब..
सूरज सिर चढ़ आया
और मैं...
क्रूर समाज के हवाले कर दी गई
लोगों ने मुझे कुलटा, कूलच्छिनी, बदचलन
और न जाने क्या-क्या कहा
फिर मुझे सभ्य समाज ने
बहिष्कृत कर देना चाहा

अब तुम्हीं बताओ...
क्या तुम्हारे जाने से
इच्छाएँ भी मर जाती हैं
या मर जाता है मान-सम्मान
या मनुष्य की प्राकृतिक चेतनाएँ ?

तुम्हारा स्पर्श नहीं रहा, पर
सिंहरन अभी भी सिंहरती हैं
तुम्हारा संसर्ग नहीं रहा, पर
स्पन्दन अभी भी जीवित हैं
तुम्हारा साथ छूट गया, पर
मन के व्याकुल सागर में
लहरें अभी भी मचलती हैं

अब तुम्हीं बताओ... कैसे रोकूँ
इन स्पन्दनों, सिंहरनों और
आलोड़ित मचलनों को ?
बोलो न..
अगर मैं छोड़ गई होती तुम्हें, तो
क्या तुम अपने मन पर अंकुश
लगा पाते ?
या फिर मेरे रीते आहट का
जीवन भर इंतज़ार करते ?
बोलो न...
पत्नी के मरने से पति की इच्छा, आकांक्षा
जीजिविषा सब जीवित रहती है
फिर पति के गुजरने से पत्नी
जीते-जी क्यों मर जाती है ?

क्यों नहीं उबर पाती मैं
तुम्हारी वेदना से, या फिर
क्यों नहीं चाहता समाज
कि मैं
तुम्हारा ग़म भूलूँ ?
क्यों नहीं चाहती दुनियाँ
कि मैं इस ग़मगीन रंग से बाहर निकलूँ ?

मैं भी औरों की तरह जीना चाहती हूँ
खुश रहना चाहती हूँ, एक अच्छी
जिम्मेदार पत्नी की तरह
घर सम्भालना चाहती हूँ
फिर क्यों होती है हरदम रोकटोक
क्यों डालते हैं लोग मुझपर कूदृष्टि
क्यों है जीवन में घनघोर वृष्टि
क्यों देखते हैं लोग बगूले की नज़र से
क्यों पास आते हैं लोग  भूखे भेड़िये से
हमारे बेरंग जीवन में पुन:
लाल रंग भरने के बहाने
क्यों छीन लेना चाहते हैं हमारी
जीजिविषा हमारे जीवन से ?

अब तुम्ही बताओ...
कैसे जीऊँ मैं
क्या सति-प्रथा समाप्त होने के बाद भी
सति करने की प्रथा इस रूप में जीवित नहीं
क्या चिता पर जलाने के बजाय
रोज तिल-तिल कर जलाने की प्रथा
अब भी प्रचलित नहीं ?
कैसे बताऊँ तुझे... मैं हर रोज जलकर
हो गई हूँ काली लाल
दुखियारी लाल

दुनियाँ... अब मुझे पागल कहती है
पर मुझे पता है,
मैं पागल नहीं....
      'विक्षिप्त' हूँ
अब सभी रंग गड्डमड्ड हो चूके हैं
नहीं बचा है जीवन में कोई
रंग लाल।

सोमवार, 10 अक्तूबर 2011

Reteeli aankhen...

      रेतीली आँखें...
आँखों के गुलाब ओस की नमी लिये
झांक रही हैं दूसरी रेतीली आँखों में
क्यों हो जाती हैं ये इतनी गरम
.......... टहाटह................. लाल
क्या कभी यहाँ बारिश नहीं हुई थी
या बारिश के बाद धूप उनमें ही समा गई
या फिर गुलाबी आँखों की नमी सूखकर
बन गई रेतीली ठर्रक लाल
रेतीली आँखों के बाल सीधे-सीधे दुनियाँ
में पसरकर झपट्टा दिया करते हैं, किंतु
गुलाबी आँखों की लटें हर फूलों और कांटों में
 उलझी ही रह जाती हैं
रेतीली आँखों के लिए प्रसिद्ध कथन है
"ये तो यूँ ही जली-भूनी रहती हैं
............हमेशा............. हरदम
एकतरफा आँखें हैं ये
व्यथा के साथ यथा कहाँ है???"
जबकि गुलाबी आँखों में हरपल
ओस की बूँदें छायी रहती हैं
ये कभी विरोध ही नहीं कर पातीं..
व्यथा भी खारे मोती सा लुढ़कता है औ'
ये हो जाती हैं 'बेचारी'...
और तब इन बेचारी आँखों की भी
व्यथा लेकर लड़ा करती हैं ये
'रेतीली आँखें'

मंगलवार, 13 सितंबर 2011

Vaqt

         वक़्त

वक़्त की आँखें
     कमज़ोर हो गई हैं,
जिसे हम
     दिखाई नहीं देते
अथवा हमारा
     दृष्टिकोण संकुचित
जिसे हम
     पहचान नहीं पाते।
क्यों न हम उसके
     चश्में को पोंछ दें
और अपने मन को
     गंगाजल से धो दें,
गंगाजल ?
      ..................
गंगा भी तो अब 
     मैली हो चुकी है
तथा अनैतिकता 
     सार्वजनिक केन्द्र।
तुलसीदास अब
     असीघाट पर
चन्दन घिसने से 
     घबरायेंगे
कि यहाँ राम तक 
     पहुँचेंगे भी या नहीं
पर रावण, पता नहीं
     कब धमक जाये,
सुना था हनुमान
     अमर हैं, 
पर हनुमान ! क्या
     बचाने आयेंगे शिवनगरी ?
बेचारी सति ! आज की
     सतियों के साथ
अपना दर्द भी 
     नहीं बाँट सकतीं,
उन्हें 'मॉडलिंग'
     जो नहीं आती!
सीता तो पहले ही 
     आत्महत्या कर चुकी हैं
अपने प्रिय पति 
     राम की कृपा से,
और राधा को 
     अपने मोहन के 
इंतज़ार के अलावा 
     कुछ सुझता ही नहीं
सभी अपने अपने प्रेम
     की दुहाई देंगे !!
प्रेम तो आज लोगों को 
     ख़ुद से भी नहीं रहा;
ख़ुद को खोकर लोग 
     सृजन, सृजनहार
और संहारक
     सब पा लेते हैं,
पर ख़ुद को पाकर 
     सुविधाओं से 
वंचित होना
     मंजूर नहीं।
वक़्त अपने धुधले 
     चश्में से 
हमें देख 
     परख सकता है,
पर हम 
     भविष्य के गर्भ में 
छुपे वक़्त को 
     पहचानना नहीं चाहतें।

रविवार, 7 अगस्त 2011

JEE KARATAA HAI...

                 जी करता है...
जी करता है..
बादल बन पर्वतों को आगोश में भर लूं
बाहों में भर लूं आज़ाद हवाओं को
चाँद को डोर से बाँध जमीं पर उतारूँ
बादलों के बिस्तर पर लेट जाऊं औ'
खेलूं अटखेलियाँ उसके रुई से फाहों पे
हरियाली ओढ़ सो जाऊं
क्षितिज को गले लगा मिलन का गीत गुनगुनाऊं
आकाश को मुट्ठी में बाँध...
                                   विराट शुन्य में उड़ जाऊं
और कहूं...
                मैं हूँ, मैं भी हूँ
                इसी दुनिया में...

शुक्रवार, 22 जुलाई 2011

JUTE

                     जूते
एक दिन कहा उन्होंने तमककर--
     "तुम मेरे पैरों की जूती बराबर भी नहीं हो.."

सहम गई लीला
सपटकर किसी कोने की सीलन भरी दीवार से
सोचती रही रात भर
  'क्या सचमुच मैं जुती बराबर भी नहीं हूँ?'
  पति-परमेश्वर मान  
जब भी
पोछती हूँ अपने आँचल से जूते
कभी नहीं ख़याल आया
कि मैं भी इन जूतों की तरह हूँ
या इनसे कुछ कम?

थके-मादें ऑफिस से जब आतें
जूते पहने ही सो जातें
नींद खुल जाने के डर से
हलके हाथों जूते निकालते समय
नहीं ख़याल आया कभी
'मैं अपना ही अस्तित्व निकाल रही हूँ?'

अगर तुम्हारे लिए ये सच है
तो यही सही-
पर सुनो न----
    क्या जूते पावों की शोभा नहीं होते?
    क्या जूतों से मनुष्य की औकात नहीं नापी जाती?
    क्या जूते मनुष्य की इज्जत का हिस्सा नहीं होते?
अगर नहीं--
तो कभी जाओ बिना जूता पहने
 या फटा जूता पहन कर
सड़क पर, ऑफिस में, बाज़ार,
रिश्तेदारों या मित्रों के घर,
या फिर कोई उत्सव-त्यौहार मनाने,
या अपनी बहन-बेटी का रिश्ता लेकर
या खुद की शादी में..
देखो क्या इज्जत रहती है तुम्हारी?
     हर कंकड़- पत्थर, कांटे-कीचड़,
     तपती धरती से बचाते हैं जूते
     खुद घिस जाते हैं पर तुम्हारे पावों
     पर आंच नहीं आने देतें..

       बस एक सवाल है मेरा--
जूते सिर्फ पैरो के लिए है
पर मैं तुम्हारे सर से लेकर
पाँव तक लिपटी कवच की तरह
दिन-रात तुम्हे सुरक्षित रखने की कोशिश
करती हूँ.
फिर भी मुझमें ऐसी क्या कमी है
कि मैं तुम्हारे जूतों के बराबर भी नहीं?????


 



मंगलवार, 14 जून 2011

Ak Safar Kavyitri Ramnika Gupta Ji Ke Saath...

                        एक सफ़र कवयित्री रमणिका गुप्ता जी के साथ...





अगर जिजीविषा हो.... तो इंसान हार नहीं सकता,  इसका सशक्त उदाहरण रमणिका गुप्ता जी हैं....

शुक्रवार, 22 अप्रैल 2011

Yaaden

                 यादें
पुराने फटे जर-जर कपड़ों की तरह 
     तुमने मुझे उतार फेंका 
फिर भी तुम्हारी
     गंध बची रह गई मुझमें,
लोगों ने दूर से ही
    महक दरकिनार कर लिया
मैं तड़पती रही
   अपनी खूबसूरत  नाकामी पर,
तुम्हें कभी मेरा रूप रंग बनावट
इतना पसंद था... कि
एकपल के लिए बिसराना
गवारा न था,  
आज तुम्हारे सामने पोछा बनकर
पोंछ रही हूँ...
    तुम्हारे पैरों के नीचे ज़मीन,
क्योंकि मैं तुम्हें बचाना चाहती हूँ  
धुल-धक्कड़ से.
पर...
तुम मुझे पोछे का कपड़ा समझकर
     लांघ जाते हो
ताकि तुम मुझमें सने
    गंदले पानी से बचे रह सको,
और...
मैं देखती रह जाती हूँ
जर जर रेशों के बीच से
तुम्हारे फटे हुए प्यार को
महकती हूँ तुम्हारे गंध को
जो पहले की तरह नहीं महकती 
और...
     वह सुखमय एहसास 
     तुम्हारी यादें, तुम्हारे वादें
     मुझे ख़ुशी देने के बजाय  
          कर जाते हैं
              और भी दु:खी.... 

बुधवार, 6 अप्रैल 2011

PYAAR

           प्यार
तुम मुझे...  बार- बार
गन्ने की तरह
चूसकर फेंक देते हो
फिर भी मुझमें
बचा रह जाता है
कुछ रस
मक्खियों और च्युटों के लिए.

मैं तुम्हारी यादों में
धीरे-धीरे सूखती हूँ
रसबिहीन  होकर
याद करती हूँ तुम्हारा
प्रथम स्पर्श, रसास्वादन से पहले की
तुम्हारी ललचाई आँखें
जिसे मैं प्यार समझ बैठी थी
तुम्हारा मुझे जड़ों से उखाड़ना औ'
शनै: शनै: सहलाना
मैं रोमांचित हो उठी थी
मेरा सर धड से अलग करना
जिसे मैं समर्पण कहती थी
और चूस जाना
जिसे मैं एकाकार कहने लगी.

परन्तु अब....
अब क्या कहूँ मैं
उन सारी सुखानुभूतियों को
अब तो मैं चूल्हे की लवना
बन चुकी हूँ.
क्या... इसे ही प्यार कहते हैं???


रविवार, 13 फ़रवरी 2011

svabhaav

         स्वभाव
मर्द झेलता है,
औरत सहती है.
     मर्द कहता है,
     औरत करती है.
मर्द कमाता है,
औरत सहेजती है.
     मर्द प्यार करता है,
     औरत श्रद्धा रखती है.
मर्द फैसला लेता है,
 औरत सोचती है.
     मर्द हंसता है,
     औरत हंसाती है.
मर्द रुलाता है,
औरत रोती है.
     मर्द वादा करता है,
     औरत निभाती है.
मर्द थोपता है,
औरत ढोती है.
     मर्द घुटता है,
    औरत विफरती है.
मर्द इंसानों में गिना जाता है,
औरत इंसान होती है.
     मर्द का अहम् झुकने नहीं देता,
     औरत बार-बार झुकती है.
मर्द विश्वास दिलाता है,
औरत विश्वास पर अड़ी रहती है.
     मर्द तन्हा होता है,
    औरत तन्हाई होती है.
मर्द जिन्दगी होता है,
औरत जीवन होती है.
     मर्द रूठने पर रूठ जाता है,
     औरत आख़िरी दम तक मनाती है.
मर्द लूटकर चला जाता है,
औरत लुट कर भी जीती है.
     मर्द बिछड़ कर जी लेता है,
     औरत कुहुकती है.
मर्द औरत बदल देता है,
औरत उम्मीद तक इंतज़ार करती है.
      मर्द समय होता है,
     औरत युग होती है.





सोमवार, 10 जनवरी 2011

Astitva

                   अस्तित्व
क्या तुम मुझे रोटी पर लगे पैथन समझते हो?
जब चाहा मेरे नाम की मुहर लगा
खुद अच्छे बन गए !
                    शायद, तुम्हें नहीं पता
                    जब लोई पैथन में लपेटकर
                                   बेली जाती है
                    तब सबसे अधिक दर्द
                                   पैथन को ही होती है
                   जो बेलन से गींज दी जाती है
                   फिर वह झड़कर 
                            चौकी के चारो ओर
                                   बिखर जाती है
                  और तुम्हें तुम्हारा अस्तित्व दे जाती है.
शायद, तुम्हें नहीं पता
जब पैथन झड़ने से बच जाती है
वह तवे पर रोटी से पहले
                    जलती है.
और तुम्हें जलाने से बचाती है.
                   शायद, तुम्हें नहीं पता 
                   रोटी से पेट भर जाता है
                   लेकिन पैथन 
                          बूहार कर फेंक दी जाती है.
सच सच बताना...
       क्या तुम  मुझे.... पैथन ही समझते हो?
             

शुक्रवार, 7 जनवरी 2011

Aashiyaana

            आशियाना
चलो एक आशियाना बनाया जाए 
और खुद को इंसान बनाया जाए, 
न फूलों से, न चाँद-तारों से 
इसे हर पल खुशियों से सजाया जाए.