शनिवार, 26 जून 2010

Aazaadi


                आज़ादी
मैं दुनिया देखना चाहती थी
उन्होंने मेरे ऊपर जाल बिछा दी
तथा आँखों पर आदर्श की पट्टी बाँध दी
        और कहा-
  देखो... देखो... देखो !!!
मैंने अपने चोंच से जाल को छलनी कर दिया
और पंजों से पट्टी फाड़ दी
मैंने समझा मैं 'उन्मुक्त' हो गई

मै खुले गगन में उड़ना चाहती थी
उन्होंने मेरा पर क़तर दिया
और पिंजड़े से बाहर निकाल कर कहा-
   उड़ो... उड़ो... उड़ो !!!
मैंने हौसले का पंख लगाया
पैरों से चलना सीखा
मैंने समझा मैं 'स्वछंद' हो गई.

मैं खुली हवा में चहचहाना चाहती थी
उन्होंने मेरी जिह्वा मरोड़ दी
और मंच पर लाकर कहा-
  गाओ... गाओ... गाओ !!!
मैंने बेसुरी राग में अपना दर्द अलापा
और एकता के धुन में झूम उठी
मैंने समझा मैं 'मुक्त' हो गई.

मैं अपने पैरों से सफ़र करना चाहती थी
उन्होंने मुझे सहानुभूति की बैसाखियाँ थमा दी
और उपनिवेश की पगडंडी पर कहा
  चलो... चलो... चलो !!!
मैंने सोचा
     अब तो हर अंग घायल है
किस बात का डरना,

उन्होंने ही दिखाई थी
      आदर्श नारी की प्रतिबिम्ब
उसे सच मान हम बाट जोहते रहे,
अब देखती हूँ
     नफ़रत, घृणा, कटुता, प्रतिद्वंदिता
हम समझने लगे
    अच्छाई-बुराई में फर्क.

उन्हीं से सीखा था वेद-पुराण
     और नितिवचनों की उक्तियाँ, और
उन्हीं से सीखा हिंसक प्रविती,
उन्हीं से समझा था सुविचार
     उन्हीं से आया कुविचार.

     फिर भी-
उनको देखा आज़ाद घुमते हुए
    स्वयं को देखा बेड़ियों में जकडे हुए,
    इसके बावजूद भी-
उनको देखा मनुष्यता से गिरते हुए !
    और अपना वजूद मिटते हुए !!

अब बचा क्या है बचाने के लिए
    वक़्त आ गया आज़ाद होने के लिए,
हम लक्ष्य की ओर टूट पड़े
    हमने समझा हम 'आज़ाद' हो गए.

पर समझाने से आज़ादी मिलती नहीं
    अभी हम पूर्णतः आज़ाद नहीं,
    आज़ादी की ओर अग्रसर हैं.




कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें