संपादक आदरणीय सुधा ओम ढ़ींगरा तथा अतिथि संपादक डॉ. सुशील सिद्धार्थ द्वारा संपादित हिन्दी-चेतना (अक्टूबर-दिसम्बर 2014) के 'कथा आलोचना विशेषांक' में मेरा यह लेख प्रकाशित हुआ है -
प्रवासी कथाओं में स्त्री-विमर्श
हिन्दी साहित्य के आँचल में जहाँ एक ओर स्त्री-विमर्श, दलित-विमर्श, आदिवासी विमर्श,
अल्पसंख्यक विमर्श आदि के बेल-बूटे दिखाई दे रहे हैं, वहीं प्रवासी विमर्श भी उभर कर चमकने लगा है। अपनी
चमक के साथ ही प्रवासी साहित्य के लिए प्रवासी कहलाने और न कहलाने पर बहस छिड़ गई
है। प्रवास में लिखा गया साहित्य प्रवासी साहित्य है, जिसे
मुख्य धारा का साहित्य अपने में कहीं- कहीं से चुन कर सम्मिलित कर लेता है,
और प्रायः उसे मुख्यधारा का साहित्य समझ लिया जाता है। किन्तु सत्य
तो यह है कि प्रवासी साहित्य आज व्यापक रूप धारण कर चुका है और उनमें से कुछेक
रचनाओं का मुख्यधारा में शामिल हो जाना पूरे प्रवासी साहित्य का प्रतिनिधित्व नहीं
कर सकता। इसलिए प्रवासी को पहले प्रवासी बनकर ही संघर्ष करना होगा, तत्पश्चात् मुख्यधारा के साहित्य में सम्मिलित
होने के लिए हाशिए को मिटाना होगा, जो अचानक संभव नहीं। यह
भी ध्यातव्य है कि मुख्य धारा का साहित्य अपने माँ-बाप के घर अर्थात् हिन्दी
क्षेत्रों में पला-बढ़ा है और प्रवासी साहित्य अनाथ की तरह। इसलिए भाषिक
शुद्धता-अशुद्धता का प्रश्न भी निरर्थक है। जिस प्रकार अन्य विमर्शों ने अपनी-अपनी
पहचान बनाने के लिए अपने नाम के साथ अधिकारों की माँग कर रहे हैं, उसी प्रकार प्रवासी को प्रवासी कहना और उनका अधिकार माँगना अनुचित नहीं
होगा और अधिकार प्राप्ति के बाद हाशिए की लकीर प्रवासी नाम संभवतः खत्म भी हो जाए।
प्रवासी साहित्य की खास विशेषता है कि प्रत्येक सुख-सुविधाओं के साथ-साथ विदेशी भूमि पर देशी चूल्हा जलने से घर की रोटी की सुगंध आती है तथा यह भी ध्यान रखने योग्य बात है कि परायी भूमि को कर्मक्षेत्र बना लेने से न तो घर की रोटी की सुगंध भूली जा सकती है और न ही पराया समाज और संस्कृति अपना लेने से अपनी मातृभूमि के प्रति प्रेम समाप्त हो सकता है एवं न ही अपनी देशी आत्मा विदेशी में परिवर्तित हो सकती है। इसलिए बार-बार इन साहित्य पर नॉस्टेल्जिया का आरोप भी लगता रहा है। कदाचित् यहीं से शुरू होती है मूल्यों की टकराहट और उससे उत्पन्न होने लगती हैं सामाजिक-सांस्कृतिक समस्याएँ; जिससे आहत होने लगती हैं संवेदनाएँ। इसीलिए स्वच्छंद पाश्चात्य के खुली छतरी के नीचे भारतीय संवेदनाएँ अपना पर फैलाने से पहले ही स्वयं में सिकुड़ जाती हैं। इससे तीन स्थितियाँ उत्पन्न होती हैं :– पहला – पाश्चात्य संस्कृति के अनुरूप ढल जाना, जिससे पूर्व मूल्यों का विघटन और नए मूल्यों का निर्माण होता है। दूसरा – भारतीय एवं पाश्चात्य संस्कृति और मूल्यों में सामंजस्य बनाकर आगे बढ़ना; जिससे जीना आसान हो जाए और तीसरा – पाश्चात्य मूल्यों को स्वीकार न कर पाना, जिससे निराशाजनक स्थिति से तंग आकर भग्नाशा का शिकार हो जाना; जो कि विकृत्त रूप धारण कर लेता है अथवा विद्रोही बन जाना; ताकि परिस्थितियाँ बदल सकें। और ये तीनों ही स्थितियाँ प्रवासी साहित्य में दृष्टिगत होती हैं।
प्रवासी साहित्य की सबसे विशिष्ट बात यह है कि वहाँ महिला साहित्यकारों की भागीदारी पुरुष साहित्यकारों से अधिक है तथा वह भारतीय महिला लेखन की भाँति हाशिए पर नहीं खड़ा है, और न ही किसी एक बनी-बनायी परिपाटी को लेकर चल रहा है, बल्कि अपनी विषय वैविध्यता के कारण मुख्यधारा में सम्मिलित है। यह मात्र स्त्री संवेदना को ही व्यक्त नहीं करता बल्कि पाश्चात्य परिवेश में जूझ रहे प्रत्येक व्यक्ति की संवेदना को स्वर प्रदान करता है, इनमें बच्चे, बूढ़े, पुरुष, समलैंगिंक, अंतर्नस्लीय, उच्चवर्गीय, मध्यवर्गीय व्यक्ति एवं परिवार तथा मस्तमौले विदेशी भिखारी भी परिवेशगत स्थान पाते हैं। भारत में महिला-लेखन अभी चौखट पार कर रहा है, किंतु प्रवास में महिला लेखन भूमंडल में टहल रहा है । वह देख रहा है वहाँ के सच्चाइयों को, मूल्यों को, यथार्थ को और ढ़ूँढ़ रहा है संवेदना का अंतःसूत्र ।
प्रवासी महिला कथाओं में अनेक रचनाकारों के नाम हैं –
अमेरिका से – सुषम बेदी, सुदर्शन प्रियदर्शिनी, अनिल प्रभा कुमार, सुधा ओम ढींगरा, रेनूराजवंशी गुप्ता, पुष्पा सक्सेना, प्रतिभा सक्सेना, इला प्रसाद, रचना श्रीवास्तव एवं आस्था नवल।
कैनेडा से – शैलजा सक्सेना, रीनू पुरोहित।
ब्रिटेन से – ज़किया ज़ुबैरी, दिव्या माथुर, उषा राजे सक्सेना, अचला शर्मा, शैल अग्रवाल, नीना पॉल, उषा वर्मा, कादम्बरी मेहरा, कविता वाचक्नवी एवं नीरा त्यागी।
संयुक्त अरब अमीरात से – पूर्णिमा वर्मन।
कुवैत से – दीपिका जोशी।
डेनमार्क से – अर्चना पेन्यूली।
फ्रांस से – सुचिता भट्ट।
ऑस्ट्रेलिया से- रेखा राजवंशी।
प्रवासी साहित्य की खास विशेषता है कि प्रत्येक सुख-सुविधाओं के साथ-साथ विदेशी भूमि पर देशी चूल्हा जलने से घर की रोटी की सुगंध आती है तथा यह भी ध्यान रखने योग्य बात है कि परायी भूमि को कर्मक्षेत्र बना लेने से न तो घर की रोटी की सुगंध भूली जा सकती है और न ही पराया समाज और संस्कृति अपना लेने से अपनी मातृभूमि के प्रति प्रेम समाप्त हो सकता है एवं न ही अपनी देशी आत्मा विदेशी में परिवर्तित हो सकती है। इसलिए बार-बार इन साहित्य पर नॉस्टेल्जिया का आरोप भी लगता रहा है। कदाचित् यहीं से शुरू होती है मूल्यों की टकराहट और उससे उत्पन्न होने लगती हैं सामाजिक-सांस्कृतिक समस्याएँ; जिससे आहत होने लगती हैं संवेदनाएँ। इसीलिए स्वच्छंद पाश्चात्य के खुली छतरी के नीचे भारतीय संवेदनाएँ अपना पर फैलाने से पहले ही स्वयं में सिकुड़ जाती हैं। इससे तीन स्थितियाँ उत्पन्न होती हैं :– पहला – पाश्चात्य संस्कृति के अनुरूप ढल जाना, जिससे पूर्व मूल्यों का विघटन और नए मूल्यों का निर्माण होता है। दूसरा – भारतीय एवं पाश्चात्य संस्कृति और मूल्यों में सामंजस्य बनाकर आगे बढ़ना; जिससे जीना आसान हो जाए और तीसरा – पाश्चात्य मूल्यों को स्वीकार न कर पाना, जिससे निराशाजनक स्थिति से तंग आकर भग्नाशा का शिकार हो जाना; जो कि विकृत्त रूप धारण कर लेता है अथवा विद्रोही बन जाना; ताकि परिस्थितियाँ बदल सकें। और ये तीनों ही स्थितियाँ प्रवासी साहित्य में दृष्टिगत होती हैं।
प्रवासी साहित्य की सबसे विशिष्ट बात यह है कि वहाँ महिला साहित्यकारों की भागीदारी पुरुष साहित्यकारों से अधिक है तथा वह भारतीय महिला लेखन की भाँति हाशिए पर नहीं खड़ा है, और न ही किसी एक बनी-बनायी परिपाटी को लेकर चल रहा है, बल्कि अपनी विषय वैविध्यता के कारण मुख्यधारा में सम्मिलित है। यह मात्र स्त्री संवेदना को ही व्यक्त नहीं करता बल्कि पाश्चात्य परिवेश में जूझ रहे प्रत्येक व्यक्ति की संवेदना को स्वर प्रदान करता है, इनमें बच्चे, बूढ़े, पुरुष, समलैंगिंक, अंतर्नस्लीय, उच्चवर्गीय, मध्यवर्गीय व्यक्ति एवं परिवार तथा मस्तमौले विदेशी भिखारी भी परिवेशगत स्थान पाते हैं। भारत में महिला-लेखन अभी चौखट पार कर रहा है, किंतु प्रवास में महिला लेखन भूमंडल में टहल रहा है । वह देख रहा है वहाँ के सच्चाइयों को, मूल्यों को, यथार्थ को और ढ़ूँढ़ रहा है संवेदना का अंतःसूत्र ।
प्रवासी महिला कथाओं में अनेक रचनाकारों के नाम हैं –
अमेरिका से – सुषम बेदी, सुदर्शन प्रियदर्शिनी, अनिल प्रभा कुमार, सुधा ओम ढींगरा, रेनूराजवंशी गुप्ता, पुष्पा सक्सेना, प्रतिभा सक्सेना, इला प्रसाद, रचना श्रीवास्तव एवं आस्था नवल।
कैनेडा से – शैलजा सक्सेना, रीनू पुरोहित।
ब्रिटेन से – ज़किया ज़ुबैरी, दिव्या माथुर, उषा राजे सक्सेना, अचला शर्मा, शैल अग्रवाल, नीना पॉल, उषा वर्मा, कादम्बरी मेहरा, कविता वाचक्नवी एवं नीरा त्यागी।
संयुक्त अरब अमीरात से – पूर्णिमा वर्मन।
कुवैत से – दीपिका जोशी।
डेनमार्क से – अर्चना पेन्यूली।
फ्रांस से – सुचिता भट्ट।
ऑस्ट्रेलिया से- रेखा राजवंशी।
नीदरलैंड-
पुष्पिता अवस्थी।
चीन- अनीता
शर्मा।
इन लेखिकाओं के साहित्य का अध्ययन करने से स्पष्ट होता है कि भूमंडलीकरण के हाहाकार में बढ़ती यांत्रिकता और मनुष्य की संवेदनहीनता ने इन्हें अंदर से झकझोर दिया है, जिससे इन्होंने अपनी जड़ों को मज़बूत बनाते हुए मन की अथाह गुफा में भारतीय मूल्यों का पुनर्मूल्यांकन एवं पुनर्स्थापित किया है । विषय-वैविध्यता तथा एक ही विषय में संवेदना की वैविध्यता का उदाहरण इनकी कहानियों में साफ़-सुथरा एवं सुन्दर ढंग से प्रस्तुत हुआ है । सुदर्शन प्रियदर्शिनी की कहानी ‘अखबारवाला’, सुषम बेदी की ‘अवसान’ अथवा सुधा ओम ढींगरा की ‘कमरा नं. 103’, तीनों ही कहानियों का संदर्भ अलग है पर विषय मृत्यु है। भारत के गाँव-घर में अचानक किसी के घर आटा-दाल माँगने के बहाने पहुँचना और घंटों बैठकर पड़ोसियों के साथ गलचऊर कर लेना अथवा जाड़े की रातों में आग के अलाव के सामने बैठकर बतिकही कर लेना एक सामान्य सी बात है, किंतु विदेश में फ़ोन किए बिना, वह भी उनकी प्राइवेसी को बिना नुकसान पहुँचाए, किसी के घर जाना संभव नहीं । भारत में अपने बेटे से मार खाकर पड़ोसी के घर में जाकर रो आना और सहानुभूति के तौर पर खाना भी खा लेना एक सामान्य सी बात है, परंतु ‘कमरा नं. 103’ की मिसेज वर्मा परदेश में एकदम अकेली हो जाती हैं क्योंकि बेटा-बहु घर में लगे जाले की तरह उन्हें उतार फेंकते हैं, जिससे उनके जीवन का उद्देश्य समाप्त हो गया । भाषा की भीषण परेशानी तो बिना बात किए खत्म हो ही नहीं सकती और बिमारी की हालत में बार्नज अस्पताल में पहुँचा दी जाती हैं। उनकी जिन्दगी की सुरक्षा कोमा जैसी बिमारी करती है, अस्पताल में नर्सें ही उनकी अपनी हैं। बेटा-बहु तो कभी उनकी सलामती जानने भी नहीं आते। ‘अवसान’ कहानी में मृतक के इच्छा का अवसान है तो ‘अखबारवाला’ की कहानी भारतीय संस्कारों से बिल्कुल ही भिन्न। भारत में त्योहार उत्सवों की भाँति मृत्यु संस्कार में पास-पड़ोस के लोग ही नहीं बल्कि गाँव-गड़ा सब एक साथ रोते-धोते हैं । यही नहीं तेरहवीं तक मृतक के परिवार वालों का खयाल पास-पड़ोस और रिश्तेदार रखा करते हैं । किन्तु ‘अखबारवाला’ कहानी में मृतक का मरना भी पर्सनल प्रॉबलम है । ये कहानियाँ स्वतः ही अभिमन्यु अनत की कहानी ‘मातम पुरसी’ तथा तेजेन्द्र शर्मा की कहानी ‘पासपोर्ट के रंग’ और ‘क़ब्र का मुनाफ़ा’ का स्मरण करा जाती हैं। 'मातम पुरसी' और 'क़ब्र का मुनाफ़ा' कहानियों में मृत्यु एक घटना है, मृत्यु में भी फायदा नुकसान देखा जा सकता है।
इन लेखिकाओं के साहित्य का अध्ययन करने से स्पष्ट होता है कि भूमंडलीकरण के हाहाकार में बढ़ती यांत्रिकता और मनुष्य की संवेदनहीनता ने इन्हें अंदर से झकझोर दिया है, जिससे इन्होंने अपनी जड़ों को मज़बूत बनाते हुए मन की अथाह गुफा में भारतीय मूल्यों का पुनर्मूल्यांकन एवं पुनर्स्थापित किया है । विषय-वैविध्यता तथा एक ही विषय में संवेदना की वैविध्यता का उदाहरण इनकी कहानियों में साफ़-सुथरा एवं सुन्दर ढंग से प्रस्तुत हुआ है । सुदर्शन प्रियदर्शिनी की कहानी ‘अखबारवाला’, सुषम बेदी की ‘अवसान’ अथवा सुधा ओम ढींगरा की ‘कमरा नं. 103’, तीनों ही कहानियों का संदर्भ अलग है पर विषय मृत्यु है। भारत के गाँव-घर में अचानक किसी के घर आटा-दाल माँगने के बहाने पहुँचना और घंटों बैठकर पड़ोसियों के साथ गलचऊर कर लेना अथवा जाड़े की रातों में आग के अलाव के सामने बैठकर बतिकही कर लेना एक सामान्य सी बात है, किंतु विदेश में फ़ोन किए बिना, वह भी उनकी प्राइवेसी को बिना नुकसान पहुँचाए, किसी के घर जाना संभव नहीं । भारत में अपने बेटे से मार खाकर पड़ोसी के घर में जाकर रो आना और सहानुभूति के तौर पर खाना भी खा लेना एक सामान्य सी बात है, परंतु ‘कमरा नं. 103’ की मिसेज वर्मा परदेश में एकदम अकेली हो जाती हैं क्योंकि बेटा-बहु घर में लगे जाले की तरह उन्हें उतार फेंकते हैं, जिससे उनके जीवन का उद्देश्य समाप्त हो गया । भाषा की भीषण परेशानी तो बिना बात किए खत्म हो ही नहीं सकती और बिमारी की हालत में बार्नज अस्पताल में पहुँचा दी जाती हैं। उनकी जिन्दगी की सुरक्षा कोमा जैसी बिमारी करती है, अस्पताल में नर्सें ही उनकी अपनी हैं। बेटा-बहु तो कभी उनकी सलामती जानने भी नहीं आते। ‘अवसान’ कहानी में मृतक के इच्छा का अवसान है तो ‘अखबारवाला’ की कहानी भारतीय संस्कारों से बिल्कुल ही भिन्न। भारत में त्योहार उत्सवों की भाँति मृत्यु संस्कार में पास-पड़ोस के लोग ही नहीं बल्कि गाँव-गड़ा सब एक साथ रोते-धोते हैं । यही नहीं तेरहवीं तक मृतक के परिवार वालों का खयाल पास-पड़ोस और रिश्तेदार रखा करते हैं । किन्तु ‘अखबारवाला’ कहानी में मृतक का मरना भी पर्सनल प्रॉबलम है । ये कहानियाँ स्वतः ही अभिमन्यु अनत की कहानी ‘मातम पुरसी’ तथा तेजेन्द्र शर्मा की कहानी ‘पासपोर्ट के रंग’ और ‘क़ब्र का मुनाफ़ा’ का स्मरण करा जाती हैं। 'मातम पुरसी' और 'क़ब्र का मुनाफ़ा' कहानियों में मृत्यु एक घटना है, मृत्यु में भी फायदा नुकसान देखा जा सकता है।
इला प्रसाद की कहानी ‘ई-मेल’
और ‘एक अधूरी प्रेमकथा’ अपने
आप में संचार और हॉस्टल की कहानी को समेटते हुए आधुनिक युग की क्षणिक अनुभूति की
कहानी है । सुधा ओम ढींगरा की ‘और बाड़ बन गई’ तथा ‘कौन सी ज़मीन अपनी’ प्रवासी
संवेदना को समेटती है तो ‘वह कोई और थी’ में पुरुष-विमर्श, ‘दृश्य भ्रम’ में अपराध बोध से भरे पुरुष की संवेदना को दर्शाती है। पूर्णिमा वर्मन की
कहानी ‘उड़ान’ उत्तर-आधुनिक परिवेश को
दर्शाती है।
किंतु यदि मात्र स्त्री-विमर्श को ध्यान में रखा जाए तो प्रवासी साहित्य में स्वानुभूति और सहानुभूतिपरक साहित्य समान रूप दृष्टिगत होता है । सहानुभूतिपरक साहित्य में तेजेन्द्र शर्मा की कहानी ‘देह की कीमत’, गौतम सचदेव की ‘आकाश की बेटी’, सुमन कुमार घई की ‘सुबह साढ़े सात से पहले’ आदि कहानी तथा स्वानुभूतिपरक साहित्य में सुषम वेदी का उपन्यास ‘हवन’, ‘लौटना’, सुदर्शन ‘प्रियदर्शिनी’ का उपन्यास ‘न भेज्यो बिदेस’ आदि तथा कहानियों में ज़किया जुबैरी की कहानी ‘सांकल’, ‘मेरे हिस्से की धूप’, सुधा ओम ढींगरा की कहानी ‘आग में गर्मी कम क्यों है’?, ‘टारनेडो’, ‘क्षितिज से परे…’, ‘बेघर सच’, सुषम बेदी की ‘काला लिबास’, ‘तीसरी दुनिया का मसीहा’, ‘सड़क की लय’, उषा वर्मा की ‘सलमा’, अनिल प्रभा कुमारी की ‘घर’, पुष्पा सक्सेना का ‘विकल्प कोई नहीं’, सुदर्शन प्रियदर्शिनी की ‘धूप’, अचला शर्मा की ‘चौथी ऋतु’, नीरा त्यागी की ‘माँ की यात्रा’, दिव्या माथुर की ‘सफ़रनामा’ आदि प्रमुख हैं।
इन कहानियों में स्त्री का यथार्थ प्रमुख रूप से तीन रूपों में सामने उभर कर आया है –
• भारतीय संस्कारों का आत्मसातीकरण
• मानवीय संवेदना और मानवीय मूल्यों की खोज
• अस्मिता के प्रति जागरूक
किंतु यदि मात्र स्त्री-विमर्श को ध्यान में रखा जाए तो प्रवासी साहित्य में स्वानुभूति और सहानुभूतिपरक साहित्य समान रूप दृष्टिगत होता है । सहानुभूतिपरक साहित्य में तेजेन्द्र शर्मा की कहानी ‘देह की कीमत’, गौतम सचदेव की ‘आकाश की बेटी’, सुमन कुमार घई की ‘सुबह साढ़े सात से पहले’ आदि कहानी तथा स्वानुभूतिपरक साहित्य में सुषम वेदी का उपन्यास ‘हवन’, ‘लौटना’, सुदर्शन ‘प्रियदर्शिनी’ का उपन्यास ‘न भेज्यो बिदेस’ आदि तथा कहानियों में ज़किया जुबैरी की कहानी ‘सांकल’, ‘मेरे हिस्से की धूप’, सुधा ओम ढींगरा की कहानी ‘आग में गर्मी कम क्यों है’?, ‘टारनेडो’, ‘क्षितिज से परे…’, ‘बेघर सच’, सुषम बेदी की ‘काला लिबास’, ‘तीसरी दुनिया का मसीहा’, ‘सड़क की लय’, उषा वर्मा की ‘सलमा’, अनिल प्रभा कुमारी की ‘घर’, पुष्पा सक्सेना का ‘विकल्प कोई नहीं’, सुदर्शन प्रियदर्शिनी की ‘धूप’, अचला शर्मा की ‘चौथी ऋतु’, नीरा त्यागी की ‘माँ की यात्रा’, दिव्या माथुर की ‘सफ़रनामा’ आदि प्रमुख हैं।
इन कहानियों में स्त्री का यथार्थ प्रमुख रूप से तीन रूपों में सामने उभर कर आया है –
• भारतीय संस्कारों का आत्मसातीकरण
• मानवीय संवेदना और मानवीय मूल्यों की खोज
• अस्मिता के प्रति जागरूक
भारतीय संस्कारों का आत्मसातीकरण –
भारतीय परिप्रेक्ष्य में स्त्री-विमर्श धर्म, नैतिकता तथा दैहिकता के दायरे से बाहर निकलने के लिए फड़फड़ा रहा है क्योंकि भारतीय संस्कार स्त्री-जीवन में नीर-क्षीर की भाँति इस प्रकार रच-बस गया है। सिमोन द बोउवार का कथन “स्त्री स्त्री पैदा नहीं होती, बनाई जाती है, भारत में विशेष रूप से चरितार्थ है। कदाचित् यही कारण है कि भारतीय महिलाएँ विदेश में अपने संस्कारों को भूल नहीं पातीं। ‘न भेज्यो विदेस’ की नायिका रत्ती और गुरमीत बिशन सिंह से प्रदत्त षड़यंत्रों से उत्पन्न समस्याओं से निरंतर जूझते हुए भी पति-परमेश्वर की अवधारणा से मुक्त नहीं हो पाती और मूक बनकर जीवन गुज़ारती है। रत्ती को जब अपने साथ हुए धोखे की बात समझ में आती है कि तब वह लड़ने झगड़ने के बजाय खामोशी के साथ अपने पति प्रीतम से विमुख होने लगती है, किंतु प्रीतम के प्रति अनन्य प्रेम उसे पुनः वापस लौटने हेतु विवश कर देता है। ‘हवन’ उपन्यास की नायिका गुड्डो अमेरिका में रहने के पश्चात् भी दिग्भ्रमित नहीं होती। उसकी सारी शक्ति, संस्कार, नैतिकता और मूल्य मानो हवन से ही अर्जित होती है, जिससे परिवार-कल्याण की कामना पूर्ण हो जाती है। वकील साहब गुड्डो का सहारा लेकर अमेरिका में सपरिवार बसना चाहते हैं, इसीलिए वे गुड्डो की चापलूसी भी करने से नहीं थकते और अमेरिका पहुँचते ही उसे गले से लगाते हुए अपने प्रेम का इज़हार करते हैं। उस समय वह उन्हें झटकते हुए बोलती है, “आप क्या समझते हैं, यहाँ आकर मैं कुछ और हो गई हूँ। मेरी वैल्यूज़, मेरे संस्कार बदल गए हैं... आपकी वहाँ कभी ऐसी हिम्मत नहीं हुई थी और यहाँ मेरे घर में ही आप मेरे मेहमान बनकर लूट रहे हैं... मैं लिहाज और मुरव्वत बरतती रही पर आपने सच में समझा कि यहाँ के माहौल ने मुझे बदल दिया है। जिस आज़ादी की मैं बात कर रही थी...आपने उसे जिस्मानी आज़ादी भर ही समझ लिया। जितने हिन्दुस्तानी मर्द मिलते हैं, सोचते हैं चूँकि अमरीका में रह रही है इसलिए ज़रूर कुछ लूज़ या लिबरल हो गई होगी... उनका रवैया वही होता है जो इस वक्त आपका है” ।
- (कौर, गुरप्रीत. सुषम बेदी के कथा साहित्य में प्रवासी भारतीय समाज के विविध पक्ष. पृ. 111-112. (बेदी, सुषमः हवन, (1996) पृ. 141)
‘सांकल’ की नायिका सीमा की आत्मा अपने पुत्र को पाश्चात्य रंग में ढलते देखकर आहत होती है। ‘टारनेडो’ की भारतीय संस्कारों से पूरित वंदना अपनी बेटी सोनल तथा उसकी सहेली क्रिस्टी जो जैनेफर की बेटी है, को भारतीय संस्कार प्रदान करती है तथा विदेश की चमक-दमक में पथभ्रष्ट होने से बचाने का प्रयास करती है ।
इस प्रकार ये नायिकाएँ स्वच्छंद विदेशी परिवेश में भी संस्कारों से विमुख नहीं होती बल्कि विदेश में जाकर 'बिगड़ने' वाली अवधारणाओं को तोड़ती हैं ।
भारतीय परिप्रेक्ष्य में स्त्री-विमर्श धर्म, नैतिकता तथा दैहिकता के दायरे से बाहर निकलने के लिए फड़फड़ा रहा है क्योंकि भारतीय संस्कार स्त्री-जीवन में नीर-क्षीर की भाँति इस प्रकार रच-बस गया है। सिमोन द बोउवार का कथन “स्त्री स्त्री पैदा नहीं होती, बनाई जाती है, भारत में विशेष रूप से चरितार्थ है। कदाचित् यही कारण है कि भारतीय महिलाएँ विदेश में अपने संस्कारों को भूल नहीं पातीं। ‘न भेज्यो विदेस’ की नायिका रत्ती और गुरमीत बिशन सिंह से प्रदत्त षड़यंत्रों से उत्पन्न समस्याओं से निरंतर जूझते हुए भी पति-परमेश्वर की अवधारणा से मुक्त नहीं हो पाती और मूक बनकर जीवन गुज़ारती है। रत्ती को जब अपने साथ हुए धोखे की बात समझ में आती है कि तब वह लड़ने झगड़ने के बजाय खामोशी के साथ अपने पति प्रीतम से विमुख होने लगती है, किंतु प्रीतम के प्रति अनन्य प्रेम उसे पुनः वापस लौटने हेतु विवश कर देता है। ‘हवन’ उपन्यास की नायिका गुड्डो अमेरिका में रहने के पश्चात् भी दिग्भ्रमित नहीं होती। उसकी सारी शक्ति, संस्कार, नैतिकता और मूल्य मानो हवन से ही अर्जित होती है, जिससे परिवार-कल्याण की कामना पूर्ण हो जाती है। वकील साहब गुड्डो का सहारा लेकर अमेरिका में सपरिवार बसना चाहते हैं, इसीलिए वे गुड्डो की चापलूसी भी करने से नहीं थकते और अमेरिका पहुँचते ही उसे गले से लगाते हुए अपने प्रेम का इज़हार करते हैं। उस समय वह उन्हें झटकते हुए बोलती है, “आप क्या समझते हैं, यहाँ आकर मैं कुछ और हो गई हूँ। मेरी वैल्यूज़, मेरे संस्कार बदल गए हैं... आपकी वहाँ कभी ऐसी हिम्मत नहीं हुई थी और यहाँ मेरे घर में ही आप मेरे मेहमान बनकर लूट रहे हैं... मैं लिहाज और मुरव्वत बरतती रही पर आपने सच में समझा कि यहाँ के माहौल ने मुझे बदल दिया है। जिस आज़ादी की मैं बात कर रही थी...आपने उसे जिस्मानी आज़ादी भर ही समझ लिया। जितने हिन्दुस्तानी मर्द मिलते हैं, सोचते हैं चूँकि अमरीका में रह रही है इसलिए ज़रूर कुछ लूज़ या लिबरल हो गई होगी... उनका रवैया वही होता है जो इस वक्त आपका है” ।
- (कौर, गुरप्रीत. सुषम बेदी के कथा साहित्य में प्रवासी भारतीय समाज के विविध पक्ष. पृ. 111-112. (बेदी, सुषमः हवन, (1996) पृ. 141)
‘सांकल’ की नायिका सीमा की आत्मा अपने पुत्र को पाश्चात्य रंग में ढलते देखकर आहत होती है। ‘टारनेडो’ की भारतीय संस्कारों से पूरित वंदना अपनी बेटी सोनल तथा उसकी सहेली क्रिस्टी जो जैनेफर की बेटी है, को भारतीय संस्कार प्रदान करती है तथा विदेश की चमक-दमक में पथभ्रष्ट होने से बचाने का प्रयास करती है ।
इस प्रकार ये नायिकाएँ स्वच्छंद विदेशी परिवेश में भी संस्कारों से विमुख नहीं होती बल्कि विदेश में जाकर 'बिगड़ने' वाली अवधारणाओं को तोड़ती हैं ।
मानवीय संवेदना एवं मानवीय मूल्यों की खोज-
भारत में स्त्री –विमर्श का संघर्ष चौखट से बाहर निकलने के लिए है किन्तु प्रवासी कहानियों में स्त्री-विमर्श चौखट से बाहर निकलने के पश्चात् वर्चस्ववादी मानसिकता तथा भारतीय एवं पाश्चात्य मूल्यों के टकराहट के कारण है। भारत में स्त्री-विमर्श प्रेम, परिवार और विवाह की ओर लौट रहा है, जिसके प्रमुख समर्थक अनामिका, कात्यायनी, सुशीला टाकभौरे आदि साहित्यकार हैं, लेकिन प्रवासी स्त्री-विमर्श परिवेशगत प्रभाव के कारण चारों दिशाओं में गोते लगा-लगाकर मानवीय मूल्यों की तलाश कर रहा है, हालाँकि यह भी अपने भारतीय संस्कारों से आगत है। इनके स्त्री-विमर्श की दिशाएँ अलग-अलग दृष्टिगत होती हैं। प्रेम, प्रजनन और परिवार की कामना करते हुए भी संस्कारों के विपरीत परिवेश और परिस्थिति के कारण मूल्यों की टकराहट से सारी परिस्थितियाँ गड्ड- मड्ड सी हो जाती हैं, परिणामस्वरूप निराशा, कुंठा, पीड़ा, संत्रास का जन्म होता है।
‘सांकल’ की नायिका सीमा चाहकर भी अपने पाश्चात्य प्रभावित पुत्र समीर में अपने लिए बचपन वाला प्रेम नहीं ढूँढ़ पाती तथा अपनी ममता को नियंत्रित करने का प्रयास करती है। ‘हवन’ उपन्यास में गुड्डो को डॉ. जुनेजा से प्रेम करने के पश्चात् पता चलता है कि वह भारतीय नारियों का प्रेम के नाम पर शोषण करता है, इसलिए वह पुनः अपने अकेलेपन की दुनियाँ में लौट आती है। अनुज का कई स्त्रियों के साथ संबंध होने से तनिमा व्यग्र हो जाती है और संबंध-विच्छेद का फैसला करती है। ‘तीसरी दुनिया का मसीहा’ की नायिका अपने पति से बेहतर ब्रूनो को संवेदनशील समझ कर उससे प्रेम करने लगती है और उसे ही अपना भगवान् मान बैठती है, लेकिन ब्रूनो का अंधविश्वास पुनः नायिका को यथार्थ के धरातल पर ला पटकता है। ‘न भेज्यो बिदेस’ में पैसे और शोहरत की लालच में बहके बिशन सिंह में संवेदना रत्ती की मृत्यु के पश्चात् जगता है। ‘क्षितिज से परे...’ की नायिका सारंगी को अपने पति सुलभ का तथा ‘धूप’ की नायिका रेखा को अपने पति का यानी दोनों नायिकाओं को अमरीका में कदम रखते ही उनकी संवेदनहीनता का आभास हो जाता है। अंततः विवश होकर तलाक का फैसला करना पड़ता है।
कुछ कहानियों में संवेदनहीनता ही है जो विदेश की धरातल पर रिश्तों में खटास पैदा कर देती है, तो कुछ कहानियों में संवेदना को ढूँढ़ते हुए पड़ोसी मृतक अखबारवाले के शव तक पहुँचना और सभी में संवेदनहीनता देखकर आँखें नम किए वापस लौट जाना ‘सुदर्शन प्रियदर्शिनी’ का संवेदना उड़ेलकर लिखने का परिचायक है।
आश्चर्यजनक बात यह है कि किन्हीं कहानियों में विदेशी परिवेश में भी बच्चों का वहाँ के अनुसार समाजीकरण नहीं हो पाता और वे मानवीय मूल्यों की तलाश में पलायन कर जाते हैं। ‘टारनेडो’ की क्रिस्टी को अपनी माँ का बॉयफ्रेंड बदलते रहना पसंद नहीं आता तथा आख़िरी बॉयफ्रेंड केलब की कूदृष्टि माँ-बेटी दोनों पर होने से वह घर छोड़ने के लिए विवश हो जाती है। ‘काला लिबास’ की कैशोर्य मन अनन्या नस्लीय भेद तथा राष्ट्रीय भेद होते देखकर भारतीय मूल्यों के प्रति जिज्ञासु हो जाती है तथा किसी से सही उत्तर न मिल पाने के कारण विक्षिप्त-सी और उदण्ड होने लगती है, अंततः पलायन कर जाती है।
लेकिन कुछ कहानियों में नए मूल्यों की तलाश में नायिकाएँ विकल्प भी ढूँढ़ती हैं । पुष्पा सक्सेना की कहानी ‘विकल्प कोई नहीं’ में बेटे की मृत्योपरांत सास नहीं चाहती कि उसकी बहू आजीवन वैधव्य का श्राप झेलती रहे, बल्कि वह बहू का पुनर्विवाह भी करवाती है तथा अतीत में डूबी बहू को शिक्षा देती है कि “दूसरा पति, पहले का विकल्प नहीं हो सकता”। -(www.pravasiduniya.com/nri-literature-and-woman-dr.anita-kapoor-america, 7 March, 2012. (प्रवासी कथा साहित्य और स्त्री - डॉ. अनीता कपूर (महिला दिवस पर विशेष)
प्रैक्टिकल दुनियाँ के धागे में ऐसा भावनात्मक रिश्ता प्रवासी साहित्य ही पिरो सकता है। डॉ. प्रीत अरोड़ा अपने लेख “प्रवासी साहित्य की कहानियों में यथार्थ और अलगाव के द्वन्द्व” में लिखती हैं – “आज भारत में लिखी जा रही अधिकांश हिन्दी कहानी स्त्री-विमर्श के नाम पर दैहिक विमर्श करती नज़र आती है । जबकि प्रवासी कहानियाँ मानवीय यथार्थ के भीतर मूल्यों की तलाश करती नज़र आती हैं” । - (himalin.com/himalininews/प्रवासी -साहित्य-की-कहानी.html?source=refresh, 12 jan, 2014, डॉ. प्रीत अरोड़ा – प्रवासी साहित्य की कहानियों में यथार्थ और अलगाव के द्वन्द्व,)
भारत में स्त्री –विमर्श का संघर्ष चौखट से बाहर निकलने के लिए है किन्तु प्रवासी कहानियों में स्त्री-विमर्श चौखट से बाहर निकलने के पश्चात् वर्चस्ववादी मानसिकता तथा भारतीय एवं पाश्चात्य मूल्यों के टकराहट के कारण है। भारत में स्त्री-विमर्श प्रेम, परिवार और विवाह की ओर लौट रहा है, जिसके प्रमुख समर्थक अनामिका, कात्यायनी, सुशीला टाकभौरे आदि साहित्यकार हैं, लेकिन प्रवासी स्त्री-विमर्श परिवेशगत प्रभाव के कारण चारों दिशाओं में गोते लगा-लगाकर मानवीय मूल्यों की तलाश कर रहा है, हालाँकि यह भी अपने भारतीय संस्कारों से आगत है। इनके स्त्री-विमर्श की दिशाएँ अलग-अलग दृष्टिगत होती हैं। प्रेम, प्रजनन और परिवार की कामना करते हुए भी संस्कारों के विपरीत परिवेश और परिस्थिति के कारण मूल्यों की टकराहट से सारी परिस्थितियाँ गड्ड- मड्ड सी हो जाती हैं, परिणामस्वरूप निराशा, कुंठा, पीड़ा, संत्रास का जन्म होता है।
‘सांकल’ की नायिका सीमा चाहकर भी अपने पाश्चात्य प्रभावित पुत्र समीर में अपने लिए बचपन वाला प्रेम नहीं ढूँढ़ पाती तथा अपनी ममता को नियंत्रित करने का प्रयास करती है। ‘हवन’ उपन्यास में गुड्डो को डॉ. जुनेजा से प्रेम करने के पश्चात् पता चलता है कि वह भारतीय नारियों का प्रेम के नाम पर शोषण करता है, इसलिए वह पुनः अपने अकेलेपन की दुनियाँ में लौट आती है। अनुज का कई स्त्रियों के साथ संबंध होने से तनिमा व्यग्र हो जाती है और संबंध-विच्छेद का फैसला करती है। ‘तीसरी दुनिया का मसीहा’ की नायिका अपने पति से बेहतर ब्रूनो को संवेदनशील समझ कर उससे प्रेम करने लगती है और उसे ही अपना भगवान् मान बैठती है, लेकिन ब्रूनो का अंधविश्वास पुनः नायिका को यथार्थ के धरातल पर ला पटकता है। ‘न भेज्यो बिदेस’ में पैसे और शोहरत की लालच में बहके बिशन सिंह में संवेदना रत्ती की मृत्यु के पश्चात् जगता है। ‘क्षितिज से परे...’ की नायिका सारंगी को अपने पति सुलभ का तथा ‘धूप’ की नायिका रेखा को अपने पति का यानी दोनों नायिकाओं को अमरीका में कदम रखते ही उनकी संवेदनहीनता का आभास हो जाता है। अंततः विवश होकर तलाक का फैसला करना पड़ता है।
कुछ कहानियों में संवेदनहीनता ही है जो विदेश की धरातल पर रिश्तों में खटास पैदा कर देती है, तो कुछ कहानियों में संवेदना को ढूँढ़ते हुए पड़ोसी मृतक अखबारवाले के शव तक पहुँचना और सभी में संवेदनहीनता देखकर आँखें नम किए वापस लौट जाना ‘सुदर्शन प्रियदर्शिनी’ का संवेदना उड़ेलकर लिखने का परिचायक है।
आश्चर्यजनक बात यह है कि किन्हीं कहानियों में विदेशी परिवेश में भी बच्चों का वहाँ के अनुसार समाजीकरण नहीं हो पाता और वे मानवीय मूल्यों की तलाश में पलायन कर जाते हैं। ‘टारनेडो’ की क्रिस्टी को अपनी माँ का बॉयफ्रेंड बदलते रहना पसंद नहीं आता तथा आख़िरी बॉयफ्रेंड केलब की कूदृष्टि माँ-बेटी दोनों पर होने से वह घर छोड़ने के लिए विवश हो जाती है। ‘काला लिबास’ की कैशोर्य मन अनन्या नस्लीय भेद तथा राष्ट्रीय भेद होते देखकर भारतीय मूल्यों के प्रति जिज्ञासु हो जाती है तथा किसी से सही उत्तर न मिल पाने के कारण विक्षिप्त-सी और उदण्ड होने लगती है, अंततः पलायन कर जाती है।
लेकिन कुछ कहानियों में नए मूल्यों की तलाश में नायिकाएँ विकल्प भी ढूँढ़ती हैं । पुष्पा सक्सेना की कहानी ‘विकल्प कोई नहीं’ में बेटे की मृत्योपरांत सास नहीं चाहती कि उसकी बहू आजीवन वैधव्य का श्राप झेलती रहे, बल्कि वह बहू का पुनर्विवाह भी करवाती है तथा अतीत में डूबी बहू को शिक्षा देती है कि “दूसरा पति, पहले का विकल्प नहीं हो सकता”। -(www.pravasiduniya.com/nri-literature-and-woman-dr.anita-kapoor-america, 7 March, 2012. (प्रवासी कथा साहित्य और स्त्री - डॉ. अनीता कपूर (महिला दिवस पर विशेष)
प्रैक्टिकल दुनियाँ के धागे में ऐसा भावनात्मक रिश्ता प्रवासी साहित्य ही पिरो सकता है। डॉ. प्रीत अरोड़ा अपने लेख “प्रवासी साहित्य की कहानियों में यथार्थ और अलगाव के द्वन्द्व” में लिखती हैं – “आज भारत में लिखी जा रही अधिकांश हिन्दी कहानी स्त्री-विमर्श के नाम पर दैहिक विमर्श करती नज़र आती है । जबकि प्रवासी कहानियाँ मानवीय यथार्थ के भीतर मूल्यों की तलाश करती नज़र आती हैं” । - (himalin.com/himalininews/प्रवासी -साहित्य-की-कहानी.html?source=refresh, 12 jan, 2014, डॉ. प्रीत अरोड़ा – प्रवासी साहित्य की कहानियों में यथार्थ और अलगाव के द्वन्द्व,)
अस्मिता के प्रति जागरूक -
प्रवासी कथाओं में नारी के तीन रूप उभरकर सामने आए हैं । पहला, पाश्चात्य परिवेश में इस प्रकार ढल जाना कि नारी का विकृत रूप दर्शाता है अथवा पाश्चात्य परिवेश की विकृतता पाठकों के सामने आती है, जैसे ‘टारनेडो’ की जैनेफर या ‘काला लिबास’ में अनन्या की माँ, जो अपने मूल्यहीन स्वच्छंद जीवन को ही इतना मूल्यवान मानने लगती हैं कि अपने बच्चों तक का ध्यान नहीं रख पातीं, जिससे बच्चे पथभ्रष्ट हो जाते हैं।
दूसरा, प्रवासी नारी भारतीय एवं पाश्चात्य परिवेश में सामंजस्य बनाकर आगे बढ़ने का प्रयास करती है। जैसे ‘हवन’ की गुड्डो, ‘सड़क की लय’ की नेहा, ‘धूप’ की रेखा, ‘टारनेडो’ की वंदना, ‘आग में गर्मी कम क्यों है’ की साक्षी, ‘मेरे हिस्से की धूप’ की शम्मो आदि।
तीसरा, स्त्री या तो निराशाजन्य स्थिति में अवसादग्रस्त हो गई है अथवा विद्रोहिणी बन गई है । ‘न भेज्यो विदेस’ की गुरमीत और ‘सांकल’ की सीमा अवसादग्रस्त हो जाती हैं, तो ‘काला लिबास’ की अनन्या, ‘टारनेडो’ की क्रिस्टी, ‘घर’ की नादिरा, ‘क्षितिज से परे…’ की सारंगी, ‘हवन’ की तनिमा आदि नायिकाएँ विद्रोही बन जाती हैं।
सुदर्शन प्रियदर्शिनी तथा ज़किया ज़ुबैरी की नायिकाएँ कहानी के अंत तक परिस्थिति के साथ ताल-मेल बैठा लेती हैं। इला प्रसाद की नायिकाएँ अंत में रोज़मर्रा के जीवन में लिप्त हो जाती हैं। सुषम बेदी की नायिकाएँ अलग-अलग स्वभाव की होती हैं, वे जुझारू भी हैं, भावुक भी, विद्रोही भी तथा सुधा ओम ढींगरा की नायिकाएँ कहानी के अंत तक आते-आते सशक्त रूप ले लेती हैं, वे परिस्थितियों से हार नहीं मानतीं बल्कि उनमें समस्याओं से लड़ने की क्षमता एवं जीजिविषा जाग उठती है । किंतु ये सभी नायिकाएँ अपनी अस्मिता के प्रति जागरूक हैं।
इन सभी साहित्यकारों की रचनाओं में विषय बाहुल्य दिखाई देता है । भारत में जहाँ आधी आबादी का साहित्य अभी शनैः शनैः घर की चौखट लाँघकर समाज, देश और राजनीति की ओर कदम बढ़ा रहा है वहीं प्रवास की आधी आबादी का विषय किसी एक साँचे या किसी एक विमर्श में बाँधकर नहीं देखा जा सकता । इनके साहित्य में उत्तर-आधुनिक परिप्रेक्ष्य में वृद्धा विमर्श, पुरुष-विमर्श, स्त्री-विमर्श तथा मूल रूप से प्रवासी-विमर्श के रूप में हिन्दी साहित्य में अपना स्थान बना रहा है। ये कथाएँ भारतीय और पाश्चात्य समाज और संस्कृति, परिवेश, भाषा और परंपरा का, मनोविज्ञान और मानवीयता का, संवेदना और वेदना का, मानव जीवन के सहजता और असहज घात-प्रतिघातों को चित्रित कर रही हैं।
प्रवासी कथाओं में नारी के तीन रूप उभरकर सामने आए हैं । पहला, पाश्चात्य परिवेश में इस प्रकार ढल जाना कि नारी का विकृत रूप दर्शाता है अथवा पाश्चात्य परिवेश की विकृतता पाठकों के सामने आती है, जैसे ‘टारनेडो’ की जैनेफर या ‘काला लिबास’ में अनन्या की माँ, जो अपने मूल्यहीन स्वच्छंद जीवन को ही इतना मूल्यवान मानने लगती हैं कि अपने बच्चों तक का ध्यान नहीं रख पातीं, जिससे बच्चे पथभ्रष्ट हो जाते हैं।
दूसरा, प्रवासी नारी भारतीय एवं पाश्चात्य परिवेश में सामंजस्य बनाकर आगे बढ़ने का प्रयास करती है। जैसे ‘हवन’ की गुड्डो, ‘सड़क की लय’ की नेहा, ‘धूप’ की रेखा, ‘टारनेडो’ की वंदना, ‘आग में गर्मी कम क्यों है’ की साक्षी, ‘मेरे हिस्से की धूप’ की शम्मो आदि।
तीसरा, स्त्री या तो निराशाजन्य स्थिति में अवसादग्रस्त हो गई है अथवा विद्रोहिणी बन गई है । ‘न भेज्यो विदेस’ की गुरमीत और ‘सांकल’ की सीमा अवसादग्रस्त हो जाती हैं, तो ‘काला लिबास’ की अनन्या, ‘टारनेडो’ की क्रिस्टी, ‘घर’ की नादिरा, ‘क्षितिज से परे…’ की सारंगी, ‘हवन’ की तनिमा आदि नायिकाएँ विद्रोही बन जाती हैं।
सुदर्शन प्रियदर्शिनी तथा ज़किया ज़ुबैरी की नायिकाएँ कहानी के अंत तक परिस्थिति के साथ ताल-मेल बैठा लेती हैं। इला प्रसाद की नायिकाएँ अंत में रोज़मर्रा के जीवन में लिप्त हो जाती हैं। सुषम बेदी की नायिकाएँ अलग-अलग स्वभाव की होती हैं, वे जुझारू भी हैं, भावुक भी, विद्रोही भी तथा सुधा ओम ढींगरा की नायिकाएँ कहानी के अंत तक आते-आते सशक्त रूप ले लेती हैं, वे परिस्थितियों से हार नहीं मानतीं बल्कि उनमें समस्याओं से लड़ने की क्षमता एवं जीजिविषा जाग उठती है । किंतु ये सभी नायिकाएँ अपनी अस्मिता के प्रति जागरूक हैं।
इन सभी साहित्यकारों की रचनाओं में विषय बाहुल्य दिखाई देता है । भारत में जहाँ आधी आबादी का साहित्य अभी शनैः शनैः घर की चौखट लाँघकर समाज, देश और राजनीति की ओर कदम बढ़ा रहा है वहीं प्रवास की आधी आबादी का विषय किसी एक साँचे या किसी एक विमर्श में बाँधकर नहीं देखा जा सकता । इनके साहित्य में उत्तर-आधुनिक परिप्रेक्ष्य में वृद्धा विमर्श, पुरुष-विमर्श, स्त्री-विमर्श तथा मूल रूप से प्रवासी-विमर्श के रूप में हिन्दी साहित्य में अपना स्थान बना रहा है। ये कथाएँ भारतीय और पाश्चात्य समाज और संस्कृति, परिवेश, भाषा और परंपरा का, मनोविज्ञान और मानवीयता का, संवेदना और वेदना का, मानव जीवन के सहजता और असहज घात-प्रतिघातों को चित्रित कर रही हैं।
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रिसर्च / फेकल्टी असोसिएट
गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय
यमुना एक्प्रेस-वे, नियर कासना,
गौतम बुद्ध नगर, ग्रेटर नोएडा (उ.प्र.) – 201312
ई-मेल – renuyadav0584@gmail.com
गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय
यमुना एक्प्रेस-वे, नियर कासना,
गौतम बुद्ध नगर, ग्रेटर नोएडा (उ.प्र.) – 201312
ई-मेल – renuyadav0584@gmail.com
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