इज़्ज़तदारों के पाइन तरे
“काहे रे
नलिनी, तू कुम्हिलानी”1 - आज कबीरदास होतें तो क्या आज भी
यही पंक्तियाँ लिखतें ? यदि लिखते तो किस संदर्भ में ? जीवन की आपाधापी, जीव की निराशा, अमानवीयता, छूआछूत, नारी-शोषण, मानव तस्करी देखकर ? आज नलिनी को कुम्हलाने के कई
कारण है - बाल-विवाह, दहेज-प्रथा, बलात्कार, अपहरण, हत्या, वेश्यावृत्ति आदि ।
शायद कबीर स्वयं भी कुम्हलाने लगतें । आज ‘वेश्या के पाइन
तरे’ की बात नहीं याद आती, बल्कि वेश्याओं के वेश्या बनने के
कारणों का पता लगाते लगाते पतिव्रता नारी की संकल्पना भूल जातें और वेश्याओं को
बचाने के लिए कोई मुहिम छेड़ देतें । भक्ति और साधना कहीं ताक पर रखकर हर दिन होने
वालें अपराधों को देखकर क्रोध में कोई अविस्मरणिय छन्द रच जातें तथा भक्ति औऱ
साधना में रत् महापुरूषों के चंगूल से महिलाओं को बचाने के लिए अपना सर्वस्व दाव पर
लगा देतें । आज वे संतों का पेट भरने के लिए पत्नी को कंधे पर रखकर बनिया के दुकान
पर नहीं छोड़ने जातें बल्कि संतो को देखकर पहले अपनी पत्नी को घर में छिप जाने की
सलाह देतें । कदाचित् आज के समय में नारी के प्रति उनका कुछ अलग ही नज़रिया होता ।
आज की नलिनी पानी के नाम पर पानी पानी हो
रही है । कहीं पानी बचाने के लिए हत्याएँ तो कहीं पानी के लिए मानव-तस्करी । दिन
प्रति दिन बढ़ता मानव तस्करी का गुपचुप खेल प्रत्येक मानव को भयभीत किए रखता है । इसके
कई कारण हैं, जैसे - श्रम, अंग व्यापार, विवाह और सेक्स । जिनमें से स्त्रियों की
तस्करी का सबसे बड़ा कारण सेक्स अर्थात् वेश्यावृत्ति है । वेश्यावृत्ति के कुएँ
में हर दिन हजारों बच्चियाँ, लड़कियाँ और औरतें ढ़केली जा रही हैं । भारत में पाँच
रेड लाइट एरिया शीर्ष स्थानों पर हैं - कोलकाता का सोनागाची, दिल्ली का जी.बी. रोड़ (उत्तरी कोलकाता), मध्यप्रदेश
का रेशमपुरा (ग्वालियर), उत्तर-प्रदेश का कबाड़ी बाज़ार (मेरठ), मुंबई का
कामथीपुरा (मायानगरी) । इसके अतिरिक्त वाराणसी
में दालमंडी, सहारनपुर में नक्कास बाज़ार, मुजफ्फरपुर में छतरभुज स्थान तथा नागपुर
में गंगा-जमुना आदि का नाम भी प्रसिद्ध है । इन स्थानों पर स्त्रियाँ स्वेच्छा,
अनिच्छा और जबरदस्ती, अपहरित तथा विवशतावश आदि कई कारणों से देह व्यापार के धंधे
में शामिल हैं यूनिसेफ की एक रिपोर्ट (1996) के अनुसार – “4
से 5 लाख बाल वेश्यायें
भारत में हैं । भारतीय पतिता उद्धार सभा के अध्यक्ष खैराती लाल भोला के अनुसार
60-70 लाख काल गर्ल्स कार्यरत हैं । ये ब्यूटी पार्लर, मसाज सेन्टर और चलते फिरते
अपना धन्धा करती हैं । रेड लाइट एरिया चिन्हित हैं । तीन लाख कोठे, तेइस लाख अस्सी
हजार से अधिक वेश्यायें और बावन लाख से अधिक इनके बच्चे हैं । इनमें काल गर्ल्स की
संख्या शामिल नहीं है”2 । जहाँ अपनी कामुकता पर ईज़्जत का
लिबास धारण कर हर वर्ग के ईज़्ज़तदार पहुँचकर अपनी ईज़्ज़त बेच आते हैं और परिवार
और समाज में पुनः आन बान शान के साथ सीना ताने खड़े हो जाते हैं ।
समाज
में जो कुछ भी हो रहा है वह इज़्ज़त के लिए और इज़्ज़त के नाम पर । किंतु सबसे
जटिल सवाल है कि ईज़्ज़त है क्या ? क्या ईज़्ज़्त वह
है, जो हम अपनी नज़रों में हैं अथवा ईज़्ज़्त वह है, जो हम दूसरों की नज़रों में
हैं ? रिश्तों को ताक पर रखकर कामूक पाशविकता को किसी के
हाथों चन्द रूपयों में बेच आना ईज़्ज़्त है अथवा वह है, जब किसी को पेट भर खाना
खिलाने अथवा रिश्तों को बचाने के लिए किसी की कामुक पाशविक लार झेल जाना ? क्या ईज़्ज़त वह है, जो किसी की विवशता को इतना विवश बना देना कि उसकी
रीढ़ की हड्डी तक टूट जाए अथवा वह है, जब विश्वास विवशता में बदल जाए और हड्डी
क्या, आत्मा भी न बचे ? क्या ईज़्ज़्त वह है, जहाँ मानव मानव
न रहे अथवा ईज़्ज़त वह है कि मानव को उसके घर में मानव बनाकर भेजे ? ऐसी ही ईज़्ज़त पर व्यंग्य है डी.एम.मिश्र की ‘ईज़्ज़तपुरम’ ।
‘ईज़्ज़तपुरम’ गरीबी, गरीबी से उत्पन्न समस्याएँ, धोखा, वेश्यावृत्ति में प्रवेश और
वेश्यावृत्ति का आधुनिकीकरण तक के सफ़र का एक लम्बी श्रृंखलात्मक कथा है अथवा यह
प्रतीक रूप में ली गयी गुलाबो का जीवन-चरित्र है, जो गुलाबों के जीवन में उम्र और
वेश्यावृत्ति के साथ हुए परिवर्तन को धारावाहिक रूप में कविता की लड़ियों में
पिरोया गया है ।
काव्य-संग्रह की पहली
पंक्ति ही गरीबी की समस्या से शुरू होती है, जहाँ भूखे पेट में आदर्शवाद और भारी लगने
लगता है ।
“ठंडा हो / चूल्हा
अनुपस्थित
हो /
धुँआ
खामोश
हो /
बरतन
और
भड़की हो
भूखी
आग
तो
दाँत
अपनी
जड़ों की
गीली मिट्टी /
और
कच्ची
हरियालियों को
चबाने
और
उजाड़ने
पर
उतर
आये
जब /
शुष्क आँतों की
मरोड़
पर
खोखले
आदर्शों का
बोझ /
और भी
गरू
पड़ें”3
गरीबी की मार से गुलाबो हारती नहीं बल्कि
वह स्वाभीमान के साथ झाड़ू लगाकर पैसा कमाती है, बाद में वह लोगों के सामने हाथ
फैलाने से अच्छा मुँगफली और रेवड़ी बेच कर अपना तथा अपने परिवार का पेट भरना शुरू करती है । किंतु “दरिन्दगी और / वहशीपन से / अनभिज्ञ
गुलाबो / कब नौ से / तेरह की हो गयी
/ पता न चला”4 और उसके दैहिक उभार पर राहगिरों की नज़र रहने
लगी । ट्रेन की बोगी में शोहदों के बीच फँसी गुलाबो की ईज़्ज़त तार तार हुई, जिसे बचाने
के लिए रामफल के अलावा कोई सामने नहीं आया । “बलात्कार एक
ऐसा अनुभव है, जो पीड़िता के जीवन की बुनियाद को हिला देता है । बहुत-सी स्त्रियों
के लिए इसका दुष्परिणाम लम्बे समय तक बना रहता है, व्यक्तिगत संबंधों की क्षमता को
बुरी तरह से प्रभावित करता है, व्यवहार और मुल्यों को बदल आतंक पैदा करता है”5
।
एक भारतीय महिला के लिए उसके समस्त
आदर्शों और नैतिकता का केन्द्र बिन्दु उसकी देह है । दैहिक आघात सिर्फ दैहिक नहीं
होता बल्कि मानसिक होता है । उसपर से गरीबी का तमाचा और परिवार के प्रति उत्तरदायित्व
उसके समस्त अस्तित्व को झकझोर देता है । बढ़ती उम्र के साथ बनियाइन छोटी होना और प्रथम
रजस्राव से अनभिज्ञ रज में लथपथा जाना और बलात्कार के पश्चात् शर्म से बाहर न निकल
पाना, घर में पैसे न आने पर माँ के ताने उसके आहत मन को और अधिक झकझोर देता है ।
“काश !
पुरी दुनियाँ
नग्न होती
तब
न नग्नता होती
न
अश्लीलता”6
उसके जीवन में विवशता से विषमता तब
उत्पन्न होती है, जब उसे उसका ही प्रेमी पाँच हजार रूपए में पटाकर कोठे पर बैठा
देता है । नथ उतराई से उसके सुहागरात के सपनों का छिन जाना और गुलाबबाई के नाम से
धंधे में प्रवेश की विडंबना उपन्यास ‘तिनका तिनके पास’, ‘दस द्वारे का पींजरा’, और ‘मुर्दाघर’ की याद स्वतः दिला जाता है । “मुजरे के / होठों पर / मरसिया
का / पाठ”7 गुलाबो से बनी गुलाबबाई का
सिर्फ दर्द ही नहीं व्यक्त करता बल्कि मृत्तप्रायः संसार की क्रुरता से अपने मृत्यु
की कामना भी प्रबल दिखायी देती है । जहाँ सभी इज़्ज़दार अधम-श्रेष्ठ, सन्त-असन्त,
गृहस्थ-अतिथि आदि 8 सबकी बारी-बारी से तृप्ति होती है परंतु
गुलाबबाई खामोश है ।
बढ़ती उम्र और झुर्रियों के साथ-साथ
अम्मीजान की चिंता भी बढ़ने लगी । किंतु उन्हें हर सड़ी-गली चीज को ठिकाने लगाने
महारत हासिल है । दिल्ली के जी.बी.रोड पर हाई-फाई कोठा चलाने वाली तथा हाई
प्रोफाइल के ग्राहक से जूड़ने वाली अम्मीजान की बहन शकुन्तला हाई-फाई तकनीकि के
साथ ग्राहक पटाने के लिए न सिर्फ ट्रेनिंग देती हैं बल्कि अनेक नुस्खों के साथ
चमकती रोशनी में सड़ी-गली चीज़ का प्रयोग करने में पारंगत हैं । अतः 20 हजार की
सस्ती माल गुलाबबाई को मैडम शकुन्तला के हाथों बेच देना कोई घाटे का सौदा नहीं ! बिक गई गुलाबबाई और शुरू हुआ वेश्यावृत्ति का नया सफ़र ।
दिल्ली
की चमक-दमक में गुलाबबाई का मिस रोजी में कायपलट सस्ते माल का हाई प्रोफाइल रोशनी
में चल देना अपने आप में एक अनोखा अनुभव है । मिस रोजी अब आत्मविश्ववास से
परिपूर्ण है । अब उसे अपने धंधे से कोई शिकायत नहीं बल्कि उसके लिए यह धंधा “कैरियर है / वृत्ति है / शौक
है / शान है / सेक्स / अब / श्रम है / शर्म नहीं”9
जी.बी. रोड़ प्रत्येक वर्ग के लिए अछूत
हैं किंतु रात के अंधेरे में वह किसी भी वर्ग से अछूता नहीं रहता । दिन में सफेदपोश
इज़्ज़दार लोग इज़्ज़तभरी नगरी इज़्ज़तपुरम का फीता काटकर उद्घाटन भी करते हैं,
जिस पर मूकदर्शक तालिया बजा बजाकर नारा लगाते हैं- जिंदाबाद-जिंदाबाद और सबसे पीछे
खड़ी उम्र के ढ़लान पर मिस रोजी कहती है – जिंद-आबाद !
जिंद-आबाद !!
मिस रोजी उम्र के ढलान पर अपना सौन्दर्य
ही नहीं बल्कि स्वास्थ्य भी खो चुकी है । “नेफा के नीचे
/ अब / सोख्ता कहाँ / वाटरपैड है”10 । जब रामफल, माँ, परिवार, अम्मीजान,
मैडम शकुन्तलता, ग्राहक तथा अपना स्वयं का नाम ‘गुलाबो’ सब साथ छोड़ जाते हैं तब आत्मघाती बिमारी ‘एड़्स’ हाथ थाम लेता हैं । किंतु समस्त दुखों के गर्भ में जाने के पश्चात् भी
तिरानबे वर्ष में मिस रोजी एक बार फिर गुलाबो की तरह जीवन जीना चाहती है, वह अनन्त
सुख और अटूट प्रेम की तलाश अदम्य लालसा मरी नहीं, जिंदा है और उसे उम्मीद है कि
सुख प्राप्त होगा, उसके जीवन का सफर अभी अपूर्ण है, वह हार नहीं मानेगी –
“जीना ही
जीवन है
चलो
सफ़र
अपूर्ण अभी
हार नहीं मानो”11
इस काव्य-संग्रह की खास विशेषता है कि गरीबी
से उत्पन्न समस्या से गुलाबो के जीवन का व्यापक चित्रण है, यह काव्य नहीं होता तो
उपन्यास अवश्य होता । कविता कहने की कवि की अपनी शैली है । “परत-परत / जिस्म में मुँह / इतने
घुसे जायें कि / चेहरे थूकदान लगें”12 अथवा
“पशु यौन क्रियाओं में / अमानुषिक
क्रूर लिप्ति / मैदान दो अंगुल /
रस्साकसी भीषण / हवाओं के रूख पर /
अँजुरी भर स्वेद / ओठों पर / झाग और
फ़ेन / सर से पाँव तक / चिपचिपायी
चाँदनी”13 आदि पंक्तियाँ पढ़ने से मन में हवसी समाज के प्रति
घृणा उत्पन्न हो जाती है । समाज में छिपे इज़्ज़तदार लोगों की धज्जियाँ उड जाती
हैं । कवि के साथ साथ पाठक भी आक्रोश से भर जाता है ।
किंतु इन सबके बावजूद संवेदना के स्तर पर
निराशा होती है । इस संग्रह के अतिरिक्त साहित्य में वेश्यावृत्ति पर आधारित कुछ
उपन्यास और कविताएँ लिखी गई हैं – जैसे, मधु कांकरिया का ‘आखिरी सलाम’, अलका सरावगी का ‘शेष
कादंबरी’, जगदंबा प्रसाद दीक्षित का ‘मुर्दाघर’, अनामिका का ‘तिनका तिनके पास’ और ‘दस द्वारे का पिंजरा’ ।
साथ ही अनामिका और निर्मला पुतुल ने छिटपुट रूप में कविताएँ भी प्राप्त होती हैं ।
यह सत्य है कि वेश्यावृत्ति पर पूरा
काव्य-संग्रह नहीं दिखाई देता । इस संग्रह को पढ़ने के पश्चात् स्पष्ट होता है कि कवि
ने वेश्यावृत्ति पर काफी अध्ययन किया है अथवा वेश्याओं के जीवन को बहुत करीब से
देखा है । गरीबी से विवश होकर वेश्यावृत्ति में कदम रखना और वेश्यावृत्ति का व्यवसाय
में परिवर्तन कवि के रिसर्च को दर्शाता है । इन्होंने हर घटना को समेटना चाहा है
और उससे उत्पन्न लाभ-हानि को दर्शाया है । इन सबके बावजूद कवि का काव्य-संग्रह
घटनात्मक है न कि संवेदनात्मक । अनामिका ने जो संवेदना एक ही कविता ‘चकलाघर की एक दुपहरिया’ में व्यक्त कर दिया है, वह
संवेदना पूरी किताब में भी व्यक्त नहीं हो पायी है ।
गुलाबो मशीन की तरह हर समस्या से लड़ने के
लिए कोई न कोई तरकीब ढ़ूँढ़ लेती है, वह साहसी और धैर्यशाली है, पुरे काव्य में
गुलाबो आजीविका के लिए जद्दोजहद करती है । किंतु उसका दर्द कहीं भी इस तरह से
व्यक्त नहीं हुआ है, जिससे पाठक आहत हो जाए । पुरूष के पाशविक व्यवहार से पाठक आहत
होता है, न कि गुलाबो के दुख से दुखी ।
सबसे बड़ी बात है कि गुलाबो की माँ भी माँ
की तरह नहीं बल्कि अम्मीजान की तरह दिखती है, जो सिर्फ पैसा जानती है, उसके अंदर
अपनी बेटी के लिए कोई ममता नहीं । वह गुलाबो के जीवन की सबसे बड़ी विलेन है ।
गरीबी से परेशान माँ की ममता का संपूर्ण लोप है । गुलाबो से लेकर मिस रोजी में काया-पलट
तक हो जाता है, परंतु गुलाबो हर जगह खामोश है । न परिस्थिति स्वीकार की स्थिति है
न ही प्रतिकार की । जबकि उसे छोड़कर सबकी संवेदनाएँ स्पष्ट दिखती हैं । सिर्फ
संग्रह के मध्य में तथा अंत में एक-एक अनुच्छेद दिख जाते हैं, आखिरी कविता की
पंक्तियाँ उसकी हिम्मत, जीजिविष और अटूट प्रेम की लालसा से उसके जीवन का दर्द समझ
में आ जाता है, पर उससे जुड़ाव नहीं हो पाता ।
निर्मला पुतुल की पंक्तियाँ
“उनकी आँखों की पहुँच तक ही
सीमित होती उनकी दुनिया
उनकी दुनिया जैसी कई-कई दुनिया
शामिल हैं इस दुनिया में / नहीं जानती वे
वे नहीं जानतीं कि
कैसे पहुँच जाती हैं उनकी चीजें दिल्ली
जबकि राजमार्ग तक पहुँचने से
पहले ही
दम तोड़ देतीं उनकी दुनिया की पगडण्डियाँ
नहीं जानती कि कैसे सूख जाती हैं
उनकी दुनिया तक आते-आते नदियाँ
तस्वीरें कैसे पहुँच जाती हैं उनकी महानगर
नहीं जानती वे ! नहीं जानतीं !!”
अथवा अनामिका की कविता ‘चकलाघर की एक दुपहरिया’ की पंक्तियाँ
“
‘जिंदगी, इतनी सहजता से जो हो जाती है
विवस्त्र
क्या
केवल मेरी हो सकती है’ ?
उसने कहा
और चला गया !
एक कुंकुम रंग की क्रूरता
पसरी थी
अब घर में !
………..
……….
उतरती
हुई धूप ने सोचा –
क्यों
होना चाहिए कुछ भी किसी का
उसकी
मर्जी के खिलाफ” ?15
आदि कविताएँ पढ़ते समय ये पंक्तियाँ
जिस तरह से आत्मा को झकझोर देती हैं और पाठक अभिन्न रूप से वेश्या की संवेदना से जुड़
जाता है, उसी तरह वह गुलाबो से नहीं जुड़ पाता । इस काव्य-संग्रह को पढ़ने के
पश्चात् उसी प्रकार का अनुभव प्राप्त होता है जिस प्रकार हम खाना खाते समय टी.वी.
पर किसी त्रासदी में घायल, पीड़ित, मृत्यु अथवा बलात्कार आदि समाचार देख लेते हैं
और बाद में अपने दिनचर्या में जुड़ जाते हैं । कवि अपनी भाषा-शैली के माध्यम से
परिस्थिति तथा परिवेशगत् शरीर तैयार करने में सफल हुए हैं, किंतु शरीर के अंदर
प्राण फूकने में चूक हो गयी है । यदि इस संग्रह में गुलाबो के अंदर जान आ जाती, तो
कदाचित आज ये समय-सापेक्ष कविताएँ गुमनामी की सांस नहीं ले रही होतीं ।
पाद-टिप्पणी
एवं संदर्भ ग्रंथ –
1.
शुक्ल, डॉ. धनेश्वर प्रसाद, संपा.
मध्यकालीन कविता संग्रह. पृ. 06. विद्यार्थी पुस्तक भंडार, गोरखपुर. 1996.
2. अग्निहोत्री,
डॉ. ए.एन. महिला सशक्तिकरण और कानून. पृ. 32 (सहारा समय – साप्ताहिक, 3 अप्रैल,
2004. पृ. 22-23). सरस्वती प्रकाशन, कानपुर, प्रथम, 2008.
3. मिश्र,
डी.एम., इज़्जपुरम्. पृ. 11. नमन प्रकाशन, नई दिल्ली. द्वितीय, 2012.
4.
मिश्र, डी.एम., इज़्जपुरम्. पृ. 23.
नमन प्रकाशन, नई दिल्ली. द्वितीय, 2012.
5. जैन,
अरविन्द. औरत होने की सज़ा. पृ. 165. (डब्ल्यू यंग, रेप स्टडी, 1983). राजकमल
प्रकाशन, नई दिल्ली. 2006.
6. मिश्र,
डी.एम., इज़्जपुरम्. पृ. 46. नमन प्रकाशन, नई दिल्ली. द्वितीय, 2012.
7.
मिश्र, डी.एम., इज़्जपुरम्. पृ. 66.
नमन प्रकाशन, नई दिल्ली. द्वितीय, 2012.
8.
मिश्र, डी.एम., इज़्जपुरम्. पृ. 68. नमन प्रकाशन, नई दिल्ली. द्वितीय, 2012.
9. मिश्र,
डी.एम., इज़्जपुरम्. पृ. 104. नमन प्रकाशन, नई दिल्ली. द्वितीय, 2012.
10. मिश्र,
डी.एम., इज़्जपुरम्. पृ. 110. नमन प्रकाशन, नई दिल्ली. द्वितीय, 2012.
11. मिश्र,
डी.एम., इज़्जपुरम्. पृ. 119. नमन प्रकाशन, नई दिल्ली. द्वितीय, 2012.
12. मिश्र,
डी.एम., इज़्जपुरम्. पृ. 105. नमन प्रकाशन, नई दिल्ली. द्वितीय, 2012.
13. मिश्र,
डी.एम., इज़्जपुरम्. पृ. 106. नमन प्रकाशन, नई दिल्ली. द्वितीय, 2012.
14. पुतुल,
निर्मला. नगाड़े की तरह बजते शब्द. पृ. 11. अनु. अशोक सिंह. भारतीय ज्ञानपीठ, नई
दिल्ली. प्रथम, 2005.
15. अनामिका.
कवि ने कहा. पृ. 105,107. किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली. प्रथम, 2008.
-रेनू यादव
रिसर्च / फेकल्टी असोसिएट
हिन्दी
विभाग
गौतम बुद्ध युनिवर्सिटी,
यमुना
एक्सप्रेस-वे, नियर कासना,
गौतम वुद्ध
नगर,
ग्रेटर नोएडा – 201 312
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