सोमवार, 22 सितंबर 2014

सुर्खी


    सुर्खी

हर पल सुर्खियों में
छायी रहती हूँ मैं
कभी लाल सूर्ख जोड़े में
तो कभी काले सफेद पर्दे में
कभी सीधे-सीधे
तो कभी तोड़ मरोड़ कर

गार्गी अपाला घोषा के मंत्रों
की भाँति
कहीं बेनाम अंकित
थेरियों की गाथा बन
कहीं गुमनाम
या सिंहासन पर बैठी
अनचिन्ही अदृष्य युवराज्ञियों
और महारानियों की भाँति
या इतिहास में गायब
उन लेखिकाओं की भाँति

सुबह सुबह कुछ पन्नों
में सिमटी
सबसे जरूरी सबसे खास
दोपहर में इस टेबल
से उस टेबल तक
जरूरी गैरजरूरी बन
शाम तक रद्दी की तरह
बिखर जाती हूँ
किसी रस्ते, किसी कोने
या किसी की तराजू में
तोल दी जाती हूँ
अयोग्यता के बटखरे में
हर जगह होते हुए हुए
भी हूँ गुमनाम
हाँ, मैं एक सूर्खी हूँ ।

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