'साहित्य नंदिनी 'के जनवरी , 2020 अंक में प्रकाशित
पुनर्सर्जना
की देहरी पर कदम रखती प्रेम में पगी पारो
“जैसे ही पार्वती ने देहरी पर पैर रखा, अन्दर से आवाज आई- आओ पार्वती ! आओ
!”
बड़ी
जद्दोजहद के बाद पार्वती ने रायसाहब की देहरी पर कदम रखा था, वह चाहती तो दूसरे
कमरे में जा कर सो सकती थी लेकिन उसने रायसाहब का कमरा चुना । उसने मन की सभी
दुविधाओं से मुक्त हो कर रायसाहब को अपनाने का फैसला कर लिया ।
क्या
पार्वती का इस तरह से स्वयं रायसाहब के कक्ष में जाना स्वीकार्य हो सकता है ? जिस
देवदास के प्रेम का दीया वह अपने सीने में जलाकर जी रही थी क्या उस देवदास को
बिसरा कर जी पायेगी ? परिवार सहेजना-जोड़ना अलग बात है लेकिन परिवार के लिए पति को
अपनाना क्या जरूरी है, वह भी उस पति को जिसने उसे
पत्नी का स्थान ही नहीं दिया ? क्या जीवन को उपेक्षा से भर
देने वाले पति को अपना लेना ही एक मात्र जीने का उपाय है, जो देवदास के जाने के
बाद उसे समझने के बजाय लगातार कोपभाजन का शिकार बनाता रहा ? क्या
पारो का अपने पति को अपनाने की सोचना मानवीय स्वभाव है अथवा दैहिक माँग ? अथवा व्यामोह सिज़ोफ्रेनिया की समाप्ति का एक अवसर ?
पारो
की उत्तरकथा पढ़ते समय ऐसे अनेक प्रश्न पाठकों के मन में हलचल मचायेंगे और विचलित
भी करेंगे । होना भी चाहिए क्योंकि देवदास के हिस्से की पारो अधूरी थी । देवदास एक
पुरूष नज़रिए से लिखा गया उपन्यास है जिसमें पारो की भावनाएँ दबी-घुटी बाहर आती
हैं किंतु स्पष्ट नहीं । ऐसे में पारो के प्रति जिज्ञासा जागृत होना और उसका सामने
आना कोई आश्चर्य की बात नहीं । परंतु यह भी ध्यातव्य है कि यदि देवदास एक प्रसिद्ध
उपन्यास न होता और सिनेमा जगत् के माध्यम से संजय लीला भंसाली के ग्लैमरस अंदाज
में देवदास ने हलचल न मचाया होता तो शायद पारो से इतनी अपेक्षा न होती... । इसलिए
पारो की पुनर्सर्जना में कई सारी चूनौतियाँ स्वाभाविक हैं ।
पारो
का अस्तित्व में आना देवदास को पूरक बनाने जैसा प्रतीत होता है किंतु पारो को
समग्र समझने के लिए देवदास को समझना अति आवश्यक है । हालांकि लेखिका पारो को एक
स्वतंत्र उपन्यास मानती हैं, लेकिन ‘पारो-उत्तरकथा’ लिखने के साथ ही और बाद भी लेखिका चाहकर भी देवदास से पारो को अलग नहीं
कर सकतीं । ये अलग बात है कि देवदास उपन्यास और पारो-उत्तरकथा उपन्यास के लेखन समय
में एक लम्बा अंतराल है तथा दोनों ही उपन्यास दो अलग-अलग लेखकों द्वारा लिखा गया
है, इसलिए दोनों ही उपन्यासों में समय, परिवेश एवं भाषा का अंतर स्पष्ट रूप से दिखायी
देता है । बातचीत के दौरान लेखिका इस बात को स्वीकार करती हैं कि उन्होंने ‘पारो-उत्तरकथा’ की भूमिका संजय लीला भंसाली की फिल्म
‘देवदास’ से ली हैं न की शरतचन्द्र के
उपन्यास ‘देवदास’ से ।
सन् 1901 में शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय ने देवदास का सृजन
किया था, जिसका प्रकाशन सन् 1917 में हुआ । इस उपन्यास में भाई-बहन (पारो देवदास
को ‘देव दा’ कहकर संबोधित करती है) अथवा सखा भाव रखने
वाले पारो-देवदास का प्रेम बढ़ती उम्र के साथ-साथ कांता-सम्मत प्रेम में बदल गया ।
प्रारंभ में कांता-सम्मत प्रेम सिर्फ पारो के हृदय में उत्पन्न होता है न कि
देवदास के हृदय में । यह स्वाभाविक भी था क्योंकि बचपन से वह जिस एकमात्र सखा को
बचाने के लिए अपने गुरू यानी मास्टर मोशाई गोविन्द पण्डित को दोषी ठहरा देती है और
उन्हें नौकरी से निकलवा देती है उसके लिए मन से मन का मिलन कोई आश्चर्यजनक बात
नहीं । किंतु देवदास अपनी ही अंतश्चेतना से अंजान पारो के लिए सिर्फ सखा भाव ही रख
पाया । पारो का निर्भिकतापूर्वक आधी रात में दुनियादारी का खयाल रखे बिना विवाह
प्रस्ताव लेकर देवदास के कमरे में मिलने जाना, उसके हृदय में पहली बार प्रेम का
एहसास जगाता है, किंतु आत्मस्वीकार्य नहीं । उस समय पारो की निर्भिकता और हठ देवदास
को ग्लानि से भर देता है और आत्मग्लानि में डूबे देवदास की ग्लानि तब और बढ़ जाती
है जब वह पारो को माँ-बाप द्वारा चयनित वर से विवाह के लिए पत्र लिखता है । पत्र
प्रेषित करने के बाद उसे पारो से प्रेम की तीव्रता और उसके आहत भावनाओं का खयाल ही
उसे पारो के विवाह के दिन वापस लौटा ले आते हैं, लेकिन सामाजिक मान-मर्यादा का
खयाल और पारो का स्वाभिमानी हठ उसे उससे बहुत दूर ले जाता है और वह उसकी पालकी
उठाये ससुराल के लिए उसे विदा कर देता है ।
वास्तव
में पारो से विछोह के पश्चात् ही देवदास के हृदय में प्रेम उत्पन्न होता है अथवा
कह सकते हैं कि देवदास के चंचल मन के हठ ने पारो के बिछड़ने के बाद तथा
प्रेमालम्बन के खालीपन के एहसास के कारण उसके प्रेम को स्वीकृति दे सका । उसे हृदय
से निकालने की खातीर और वियोग से मुक्ति के लिए वह मद्य और चंद्रमुखी का सहारा
लेता है । अंततः चंद्रमुखी के समर्पण के आगे नतमस्तक तो हो जाता है लेकिन अपनी
प्रेमिका की प्रेमाग्नि को मरते दम तक बुझा नहीं पाता । इसीलिए वचन के बहाने ही
सही, अपनी खोयी हुई प्रेमिका को एक बार देख लेने की लालसा उसके दरवाजे पर पहुँच कर
दम तोड़ देती है ।
हिन्दी
में ‘देवदास’ पर दो फिल्में बनी हैं । सन् 1955 में पहली
फिल्म विमल राय के निर्देशन में बनी, जिसमें नायक दिलीप कुमार देवदास की भूमिका
में, सुचित्रा सेन पारो की तथा बैजन्ती माला चन्द्रमुखी की भूमिका में थे । देवदास
उपन्यास के कुछेक नकारात्मक अंश को हटाकर इस फिल्म को लगभग उपन्यास का हू-ब-हू
बनाने का प्रयास किया गया है, जैसे कि बचपन में पारो का मास्टर मोशाई पर पीटने का
आरोप, जलदबाला द्वारा अपनी सास पारो पर संपत्ति बरबाद करने का आरोप, उपन्यास का
आखिरी अनुपयोगी अंश (देवदास के मृत्यु के बाद बेहोशी की हालत में पारो को हवेली
में ले आया जाना और होश आने पर पारो का अपनी नौकरानी से देवदास के विषय में पूछना)
को हटा दिया गया है । इसके साथ ही फिल्म में पारो और चंद्रमुखी के अंजाने हमसफर की
तरह नज़रों का मिलना... अंश को जोड़ दिया गया है जबकि उपन्यास में चन्द्रमुखी और
पारो की मुलाकात कभी नहीं हुई है । समय को ध्यान में रखते हुए उपन्यास के संवादों
को फिल्म में संक्षिप्त करने का प्रयास किया गया है ।
सन्
2002 में संजय लीला भंसाली के निर्देशन में बनी फिल्म ‘देवदास’ में शाहरूख ख़ान देवदास, ऐश्वर्या राय पारो
तथा माधुरी दीक्षित चन्द्रमुखी की भूमिका के दिखायी देते हैं । इस फिल्म में विमल
राय के फिल्म की अपेक्षा देवदास की पुनर्सर्जना की कोशिश की गयी है । फिल्मी ग्लैमर को ध्यान में रखते हुए भंसाली ने उपन्यास
के कुछेक अंशों एवं संवादों को फिल्म का आधार बनाया है । यह भी कहा जा सकता है कि
सांकेतिक रूप से उपन्यास देवदास की नकल है । उपन्यास की कहानी
को तोड़-मरोड़ कर भंसाली ने देवदास और पारो के प्रेम को एक अलग ही संजीदगी प्रदान
की है । डॉयलॉग में और अधिक इमोशन लाने के लिए उन्होंने पात्रों के संवादों में
हेर-फेर भी कर दिया है । उदाहरण के लिए उपन्यास में पारो के पिता नीलकंठ चक्रवर्ती
ने यह प्रण लिया था कि वे मुकर्जी से बड़े खानदान में पारो का विवाह करेंगे जबकि
फिल्म में पारो की माँ प्रण लेती है, उपन्यास में देवदास कलकत्ता पढ़ने जाता है
जबकि फिल्म में लन्दन, उपन्यास में देवदास छात्र-जीवन व्यतीत करता है लेकिन फिल्म
में वह वकील बनकर लौटता है । दुग्गा (ओह गॉड) फिल्म का बेहद प्रसिद्ध बंगाली
डॉयलॉग है जबकि उपन्यास में ऐसा नहीं है । उपन्यास का उदात्त प्रेम भंसाली के
देवदास में मांसल हो उठा है । उपन्यास की रचना अपने समयानुसार एक लड़की के
मान-मर्यादा को ध्यान में रखते हुए की गयी है लेकिन भंसाली ने आधुनिक समय में संस्कारों
और परंपराओं की जकड़बंदी में प्रेम को दर्शाया है । उपन्यास में प्रतीक्षा करते
समय वह स्वयं तिल-तिल कर जलती है और फिल्म में 87600 घंटे दीया जलाकर ।
फिल्म
में पारो के विवाह के पूर्व ही देवदास और पारो एक-दूसरे के प्रेम के सूत्र में बंध
चुके हैं जबकि उपन्यास में पारो के विवाह के पश्चात् भावनात्मक खालीपन के
स्मृत्तिबोध के कारण देवदास के हृदय में प्रेम उत्पन्न होता है । फिल्म में पारो
के पिता चक्रवर्ती तथा माँ कन्या के बदले मूल्य लेने वाले खानदान की नाचने गाने
वाली औरत थी जबकि उपन्यास में सिर्फ पारो का खानदान कन्या के बदले रूपये-पैसे लेने
वाला कुल और मुकर्जी खानदान का पड़ोसी होता है । उपन्यास में चक्रवर्ती और मुकर्जी
खानदान का अपना अपना ईज़्जत और स्टेटस होता है लेकिन फिल्म में स्टेटस में अंतर के
साथ-साथ नाचने गाने वाला खानदान बनाकर और भी अपमानजनक बना दिया गया है ।
फिल्म
में चन्द्रमुखी और पारो के बीच ईर्ष्या भाव, मुलाकात, संवाद, दोस्ती, कृतज्ञता आदि
का संबंध दिखाया जाता है जबकि उपन्यास में ऐसा कभी नहीं हुआ है, पर हाँ, देवदास के
दिमाग में पारो और चन्द्रमुखी की तुलना लगातार चलती रहती है । उपन्यास में चन्द्रमुखी
धंधा छोड़कर साध्वी और समाज-सेविका का रूप धारण कर लेती है और देवदास की सेविका बन
आत्मतृप्ति का अनुभव करती है जबकि फिल्म में चन्द्रमुखी देवदास की सेविका होती है
और अपना धंधा छोड़कर साधारण स्त्री के रूप में जीवन व्यतीत करने लगती है ।
उपन्यास
की पारो बचपन से ही समझदार लड़की है और विवाह होते ही वह रातोंरात आदर्शवादी
परिपक्व महिला बन घर-गृहस्थी का खयाल रखते हुए पतिव्रता नारी भी बन जाती है । उसके
पति भूवन चौधरी ने उसे पत्नी का दर्जा देने के साथ-साथ धन-दौलत सब पर अधिकार दे
रखा होता है लेकिन पारो स्वयं स्वीकार करती है कि उसके तन पर उसके पति का हक़ है
और मन पर सिर्फ और सिर्फ देवदास का । वह साध्वी की भांति अपना धन-दौलत समाज की
सेवा में लगा देती है और बहू जलदबाला के उलाहने के बाद वह अपने-आपको धन-दौलत से
खुद को विलगा कर खुद में सिमट जाती है । वह पतिव्रता नायिका के कटघरे पूर्णतः खरे
उतरती है । जबकि फिल्म में पारो के द्वारा घर-गृहस्थी का पूरा खयाल रखते हुए भी वह
पत्नी का स्थान कभी नहीं पा सकी और समय आने पर अपने पति के विचारों का प्रतिरोध
करती हुई दृष्टिगत होती है । फिल्म में पारो के दामाद काली बाबू की बूरी नज़र उस
पर होती है और वह बदले की भावना से भरा होता है जबकि उपन्यास में यह संदर्भ कहीं
नहीं है । उपन्यास के आखिरी अंश में उसके दरवाजे पर देवदास की मृत्यु की ख़बर से
बेख़बर वह अपने मन में अन्जाने रूप से बेचैन होती है । जब देवदास के अधजले शव को
चील कौऔं को खाने के लिए ‘भगाड़’ में फेंक
दिया जाता है तब उसे देवदास के मृत्यु की खबर पहले उसकी नौकरानी और उसके बाद
महेन्द्र से मिलती है । सुनते ही वह बेतहाशा दरवाजे की ओर भागती है जो कि
स्वाभाविक भी है । उसे बेतहाशा भागने से रोकने के लिए स्वाभाविक रूप से ही उसके
पति भूवन चौधरी अपने बेटे महेन्द्र से रोकने के लिए कहते हैं । उन्हें और उनके
परिवार को देवदास और पार्वती के प्रेम के विषय में पता भी नहीं होता । जबकि फिल्म
में देवदास और पारो के प्रेम के विषय में उसके पति को सबकुछ पहले से पता होता है ।
इसलिए वह सुनियोजित ढ़ंग से और ईर्ष्यावश अपनी मर्यादा को बचाने के लिए पारो को
हवेली से बाहर जाने से रोक लेता है ।
उपन्यास
और फिल्म दोनों में ही पारो परंपरागत संस्कारी लड़की होते हुए भी लीक से हटकर देवदास
पर अपना पूर्णतः अधिकार समझती है । मान-मर्यादा को ताक पर रखते हुए प्रेम में
सूध-बुध खो कर अपने पति के रूप में देवदास का नाम लेना, विवाह से पहले और बाद में
भी आधी रात को देवदास से मिलने उसके घर चले जाना, देवदास को लिवा जाने के लिए अपने
ससुराल से पालकी लेकर आना आदि उसके स्वाभिमान, हठी और प्रेम में पगी रूप दर्शाया
गया है ।
चूंकि
पारो उत्तरकथा है इसलिए उपन्यास से पाठकों की जिज्ञासा और अपेक्षा अधिक है कि पारो
के प्रेम के विषय में सबको पता चलने के बाद आखिर उसका जीवन कैसे गुजरा होगा ? लेखिका सुदर्शन प्रियदर्शिनी ने भंसाली की फिल्म को आधार बनाया है न कि
उपन्यास को । भंसाली की फिल्म को आधार बनाते हुए भी पूर्ववर्ती सभी देवदास के
पात्रों नाम और उनके चरित्र में बदलाव दिखायी देता है साथ ही परिवेशगत आधुनिकता
पुट भी दृष्टिगत होता है । पात्रों के नाम इस प्रकार हैं -
पात्र
|
उपन्यास
‘देवदास’
|
भंसाली
निर्देशित फिल्म ‘देवदास’
|
उपन्यास
‘पारो-उत्तरकथा’
|
पारो
का पिता
|
नीलकंठ
चक्रवर्ती
|
नीलकंठ
चक्रवर्ती
|
किशोरी
लाल
|
पारो
की माँ
|
-
|
सुमित्रा
|
-
|
देवदास
के पिता
|
नारायण
मुकर्जी
|
नारायण
मुकर्जी
|
भुवनशोम
|
देवदास
की माँ
|
देवदास
की माँ
|
कौशल्या
|
रानी
साहिबा
|
पारो
का पति
|
भुवन
चौधरी
|
भुवन
चौधरी
|
वीरेन
अर्थात् राय साहब
|
वीरेन
की माँ
|
कोई
पात्र नहीं
|
-
|
लीलामयी
|
वीरेन
की पहली पत्नी
|
-
|
शुभद्रा
|
राधा
|
वीरेन
की बहन
|
कोई
पात्र नहीं
|
-
|
शोभना
|
वीरेन
की सौतेली बेटी
|
यशोदा
|
यशोमती
|
कंचन
|
पारो
का दामाद
|
-
|
काली
बाबू
|
प्रमोद
|
पारो
का सौतेला बेटा
|
महेन्द्र
|
महेन्द्र
|
महेन
|
पारो
की सौतेली बहू
|
जलदबाला
(पत्नी)
|
-
|
दिव्या
(प्रेमिका)
|
‘देवदास’ उपन्यास में पारो के ससुराल का नाम हाथीपोता
है लेकिन फिल्म ‘देवदास’ एवं ‘पारो-उत्तरकथा’ उपन्यास में
मणिकपुर है । उपन्यास और भंसाली की फिल्म ‘देवदास’ में भुवन चौधरी के तीन बच्चे होते हैं जबकि ‘पारो-उत्तरकथा’ में दो । उपन्यास ‘देवदास’
में भुवन चौधरी का अपने बच्चों और दूर की बुआ के अलावा अपना कोई परिवार नहीं,
फिल्म देवदास में माँ भी है लेकिन उपन्यास ‘पारो-उत्तरकथा’ में रिश्तों की लम्बी कतार है और एक भरा-पुरा परिवार भी है । उपन्यास
देवदास में भुवन ने अपने बच्चों के विषय में बिना बताये विवाह किया है अथवा बताकर,
यह अज्ञात है, लेकिन ‘पारो-उत्तरकथा’
में रायसाहब अपने बच्चों के विषय में बिना बताये विवाह करता है । देवदास उपन्यास
में भुवन चौधरी एक संजीदा इंसान है, वह पारो की भावनाओं को महत्त्व देता है और
अपना सर्वस्व पारो को सौंप देता है जबकि फिल्म ‘देवदास’ का भुवन और उपन्यास ‘पारो-उत्तरकथा’ का रायसाहब एक क्रूर जमींदार और स्वार्थी पति है, उसने पारो को पत्नी का
दर्जा ही नहीं दिया । उपन्यास ‘देवदास’
में पारो पर कोई प्रतिबंध नहीं है जबकि भंसाली की फिल्म ‘देवदास’ और ‘पारो-उत्तरकथा’ में पारो पर हवेली के प्रतिबंध निर्धारित हैं ।
‘पारो-उत्तरकथा’ में पारो का चरित्र ‘देवदास’ उपन्यास और फिल्म का ही आगे का स्वरूप है
जबकि अन्य पात्रों के चरित्र में परिवर्तन है । पात्रों और उनके चरित्र में अंतर
होने से कहानी की संवेदना में अंतर होना स्वाभाविक है । देखा जाय तो आधुनिकता के
लिबास में परंपराओं का निर्वाहन करती पारो के चरित्र में बहुत अधिक अंतर दिखायी नहीं
देता । पारो शरतचन्द्र और संजय लीला भंसाली की वही निर्भिक, साहसी, हठी और
स्वाभिमानिनी स्त्री है जो अपने ही दरवाजे पर देवदास को तड़प कर मरते समय उससे
आखिरी बार न मिल पाने की आत्मग्लानि से इतनी अधिक पीड़ित है कि अब देवदास उसके
भीतर समा गया है । मरने के बाद देवदास की अतृप्त आत्मा पारो के संसर्ग में तृप्ति
की तलाश करता है और कहीं न कहीं उसे लगता है कि पारो का प्रेम उसकी आत्मा को मुक्त
नहीं होने देगी अथवा उसका स्वयं का प्रेम पारो को घर-गृहस्थी के कर्तव्यों से
विमुख किए हुए है, इसीलिए मुक्ति की चाह में उसे उसके पति के संसर्ग में लौट जाने
के लिए सलाह देता है । मनोवैज्ञानिक शब्दों में कहें तो देवदास की मृत्यु के
पश्चात् पारो ‘व्यामोह’ नामक मानसिक
रोग से ग्रसित हो चुकी है । यह एक प्रकार का “पागलपन है,
भव्यता, उत्पीड़न, व्यवस्थित
भ्रम, अपने स्वयं के निर्णयों का पुनर्मूल्यांकन, सट्टा प्रणाली का निर्माण, साथ ही साथ व्याख्यात्मक
गतिविधि, संघर्ष और संघर्ष की विशेषता है”।
“शास्त्रीय अर्थों में, व्यामोह परिस्थितियों के
यादृच्छिक संयोगों में देखने की प्रवृत्ति को संदर्भित करता है, जो कि शत्रुओं की दुर्भावनाओं, अस्वास्थ्यकर संदेह,
और स्वयं के खिलाफ जटिल साजिशों का निर्माण करते हैं । यह शब्द पहली बार 1863
में कार्ल लुडविग कैलबॉम द्वारा पेश किया गया था। लंबे समय तक,
इस बीमारी को शास्त्रीय मनोचिकित्सा के लिए जिम्मेदार ठहराया गया था
और इसे एक स्वतंत्र मानसिक विकार माना जाता था”।
व्यामोह
वैसे तो नकारात्मक माना जाता है लेकिन 1911 ई. में युजेन ब्लेयुलर ने व्यामोह और
सिज़ोफ्रेनिया में एकता का सुझाव दिया । जिसमें आत्मकेन्द्रित, मतिभ्रम और
व्यक्तित्व टूटन के लक्षण पाये जाते हैं । वैसे इस बीमारी का कारण अपमान बताया
जाता है । इसके निर्माण में वास्तविक तथ्यों की गलत व्याख्या की भूमिका होती है । ऐसे
मरीज लम्बे समय तक गैर-मौजूद आवाज़ को सुनते हैं, वह अकेले में बुदबुदाते और
मुस्कराते हैं । जिससे उनके हावभाव और व्यवहार में अंतर आता है । वे प्रायः स्पर्श, दृश्य और मतिभ्रम से ग्रस्त
होते हैं ।
मरीज
के साथ विभ्रम की स्थिति भी हो सकती है जिसके अंतर्गत गैर-मौजूद आवाज रोगी के
विचारों या गतिविधियों पर टिप्पणी करता है और रोगी उसके साथ वार्तालाप भी करता है
। ऐसी स्थिति में रोगी पर सकारात्मक और नकारात्मक दोनों प्रकार से प्रभाव पड़ सकते
हैं । सोच संबंधी विकार और श्रवण संबंधी विभ्रम रोगी को सकारात्मक स्थिति में ले
जा सकते हैं ।
पारो
देवदास से बात करती है अपने प्रेम का प्रामाणिक स्वभाव जानती है और देवदास के न
होते हुए भी उसे हर जगह देखती है, बतियाती है, उसे स्पर्श कर सकती है, सुन सकती है
। वह जिस रास्ते पर उसे प्रेरित करता है वह वही करती है । व्यामोह सिज़ोफ्रेनिया
के कारण वह अपना स्थान परिवार में तो चाहती है, लेकिन रायसाहब के साथ प्रेमी के प्रेम
की परिणति के रूप में नहीं चाहती । किंतु वह कभी किसी भी कारण से ईर्ष्याग्रस्त
नहीं दिखायी देती जबकि व्यामोह में अनदेखा ईर्ष्या कायम रहता है । इस संदर्भ में
मनोविज्ञान के विशेषज्ञ डॉ. ए.पी. सिंह बातचीत के दौरान बताते हैं कि ‘यह आवश्यक नहीं कि व्यामोह हमेशा नकारात्मक हो । जिस रिश्ते या आलम्बन के
कारण व्यामोह की उत्त्पत्ति हुई है वैसे में अगर रोगी का आलम्बन सकारात्मक रहा हो,
तो वह सकारात्मक सोच प्रकट करेगा’ । कहा जा सकता है कि यह
व्यामोह आत्मग्लानि या अपराध बोध के कारण उत्पन्न हुआ है ।
व्यामोह
के कई प्रकार होते हैं – शराब व्यामोह, संघर्ष का व्यामोह, इच्छा का व्यामोह,
इंवोल्यूशनरी व्यामोह, हाइपोकॉन्ड्रियल व्यामोह, तीव्र व्यामोह, तीव्र वीस्तारवादी
व्यामोह, व्यामोह उत्पीड़न, व्यामोह संवेदनशील, अंतरात्मा का व्यामोह, जीर्ण
व्यामोह आदि ।
पारो
‘अंतरात्मा के व्यामोह’ तथा ‘इच्छा
के व्यामोह’ से ग्रसित है अंतरात्मा के व्यामोह में रोगी को
आत्मग्लानि या स्वयं के अपराधबोध का भ्रम होता है तथा उदासीनता अवसाद इसकी प्रमुख
विशेषता है । पारो कहती है, “मेरे द्वार पर आकर तुम मुझे
कलंकित कर गए । कम से कम मेरी दृष्टि में” ।
-
प्रियदर्शिनी, सुदर्शन. पारो
उत्तरकथा. पृ. 39.
देवदास
को मरते समय न देख पाना, न सुन पाना उसकी चेतना से लिप्त हो गया । लेकिन वह देवदास
से प्राप्त अपमानबोध को भूल नहीं पा रही थी, जिसके सामने रायसाहब का दिया हुआ
अपमान, प्रताड़ना गौण लगता है । उसे याद है कि वह आधी रात में अपनी और अपने परिवार
की मर्यादा और ईज्जत को ताक पर रखकर किस प्रकार देवदास के कमरे में पहुँच गयी थी ।
देवदास चाहता तो अपने और पारो के माँ बाप से लड़ झगड़कर उसे अपना लेता लेकिन उसने
पलायन को चुना । यह पारो के प्रेम और स्वाभिमान का अनादर था और प्रेम स्वाभिमान से
ऊपर नहीं हो सकता ।
‘इच्छा के व्यामोह’ में रोगी दया के भ्रम के साथ-साथ
कामुक ओवरटोन को प्यार करता है । पारो के लिए देवदास वह सत्य है जिसे जीते-जी तो न
पा सकी लेकिन मरने के बाद उसकी जीजिविषा का हेतु बन गया है । वह देवदास के प्यार
में विरह को स्वीकारते हुए कहती है, “देव - मैं इतना जानती
हूँ कि प्यार का वास्तविक अर्थ विरह है, मिलन नहीं है । समाज की उपेक्षा और
प्रताड़ना है”
-
प्रियदर्शिनी, सुदर्शन. पारो
उत्तरकथा. पारो, 48
वह
जानती है कि प्रेम की प्रताड़ना अपने अपने कर्मों और नियति के अनुसार प्रेमी को
भोगना पड़ता है और वह उसी में जीवन का सुख समझने लगती है । लेकिन देवदास उसे इस सुखद
दुख से बाहर ले आने के लिए लगातार प्रयास करता है । देवदास अब पारो को उसके गृहस्थ
जीवन में प्रवेश करवाने के बाद अपनी मुक्ति चाहता है अथवा यह भी कह सकते हैं कि
कहीं न कहीं पारो के मन में यह बात घर कर गयी है कि वह इसे बिना देखे इस दुनियाँ से
चला गया पर उसकी आत्मा अभी भी भटक रही है । जिसकी मुक्ति तभी संभव है जब वह इसके
खुशी एवं सुखमय जीवन से आश्वस्त हो जाये । देवदास उससे कहता है, “तुम जिस दिन मुझे त्राण दे दोगी – मैं शाश्वत हो जाऊँगा । मेरा आवागमन का
चक्कर समाप्त जाएगा । तुम्हें अपने जीवन
में आत्मसात होते देखना चाहता हूँ । रायसाहब को स्वीकार करते देखना चाहता हूँ...”।
-
प्रियदर्शिनी, सुदर्शन. पारो उत्तरकथा. पृ.205
देवदास
की बात मानना पारो के लिए आसान न था, यदि देवदास नकारात्मकता की ओर प्रेरित करता
तो पारो वह भी कर जाती लेकिन यहाँ देवदास पारो को सकारात्मकता की ओर प्रेरित करता
है । आत्मावादी, नियतिवादी, प्रेम, विरह, नैतिकता, कर्तव्यबोध आदि को समझते समझाते
हुए अपने दोनों मन के संवाद में पारो का दिमाग विजयी हो जाता है । पारो पर व्यामोह
का परिणाम सकारात्मक पड़ता है । यह परिणाम अमेरिकी गणितज्ञ जॉन नैश (जिसकी जीवनी
पर सन् 2001 में ‘अ ब्युटीफुल माइंड’ फिल्म बनी है) की भाँति तो नहीं कहा जा सकता लेकिन सकारात्मक प्रभाव इस प्रकार पड़ता है
कि वह सारी द्विविधाओं को दरकिनार करते हुए रायसाहब को अपनाने का फैसला कर उसके
कमरे की ओर बढ़ जाती है ।
इस
उपन्यास में लेखिका ने स्त्री को सशक्त रूप में दर्शाने का प्रयास किया है । समस्त
स्त्री पात्रों में लीलामयी अर्थात् रायसाहब की माँ एक सशक्त नारी हैं । अपने
अनुभवों, संघर्षों से सीख लेकर और स्त्री होने के नाते स्त्री की पीड़ा को समझती
हैं । इसीलिए वह पारो की मानसिक स्थिति को समझते हुए अपने पुत्र वीरेन उर्फ
रायसाहब के फैसलों का विरोध कर बैठती हैं । इसी तरह से उन्होंने अपने पति के
मृत्यु के पश्चात् बड़े हिम्मत के साथ हवेली की अंदर से पिघलती और बाहर से पत्थर
की बनी दीवारों को थामे खड़ी रहीं । क्योंकि उन्हें पता है कि विधवा होने के बाद
उन्होंने धीरे धीरे अपने परिवार को खो दिया और वीरेन खुद गुमराह हो गया । गुमराह
सदस्यों को राह दिखाने का सुअवसर अब वे नहीं खोना चाहतीं ।
गुमराह
वीरेन किशोरावस्था में अपने पिता को खोने के बाद और माँ के सदमें में रहते समय उसकी
कोठी में पेइंग गेस्ट बनकर रहने वाली 10 साल की बड़ी राधा से प्रेम करने लगा ।
राधा के द्वारा विवाह से मना करने पर उसने अपने आपको हानि पहुँचा लिया । जिसे
बचाने के लिए राधा विवश होकर विवाह के लिए हाँ कर देती है । लेकिन विवाहोपरांत
वीरेन उसके प्रति ओवर पौज्सेसिव हो जाता है । जिस कारण वह धीरे धीरे उसे सबसे अलग
कर देता है, वह चाहता है कि उसके अलावा और कोई उसके आस-पास न रहे, यहाँ तक कि उसकी
बेटी भी नहीं । ओवर पौज्सेसिव रिश्ते में शक, सवाल, बुरे खयाल, भविष्य में पार्टनर
को खोने का डर हमेशा सताता रहता है । ऐसे में वह भूल जाता है कि उसका पार्टनर भी
यही चाहता है कि नहीं ? बल्कि वह अपने आपको धीरे धीरे
उस पर थोपने लग जाता है और इमोशनल एब्यूसिव पुरूष का रूप धारण कर लेता है । इस
संदर्भ में लेखक इवान्स कहते हैं, “यह एक तरह का पैटर्न है जो
कि ज्यादातर इमोशनली एब्यूसिव पुरूष इस्तेमाल करते हैं । एक इमोशनल एब्यूसिव पुरूष
आपके टाइम, स्पेस, भावनाओं, दोस्तों और आर्थिक स्थिति को नियंत्रित करने का कोशिश
करता है” ।
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राजस्थान पत्रिका. बुद्धवार, 21
मार्च, 2007. पृ. 5. (परिवार, तार-तार हुई भावनाएँ – रचना पाराशर)
वीरेन के ओवर पौज्सेसिवनेस से तंग आकर राधा
आत्महत्या कर लेती है । आत्महत्या के फलस्वरूप वीरेन सदमे से उबर नहीं पाता और
शांत कठोर बन जाता है । पारो से विवाह के पश्चात् जब उसे पारो देवदास के रिश्ते के
विषय में ज्ञात होता है तब उस पर पुरूष अहंमन्यता हावी हो जाता है और पारो को
प्रताड़ित करने लगता है । यह जानते हुए भी कि पारो को उसने पत्नी का अधिकार नहीं
दिया है फिर भी उसे पत्नी का किसी और से प्रेम स्वीकार नहीं होता । लेकिन जैसे
जैसे वह पारो के सरल और कर्तव्यनिष्ठ व्यक्तित्व से परिचित होता जाता है वैसे वैसे
उसके व्यवहार में परिवर्तन आने लगता है और अपने बच्चों के प्रति स्वयं सहज हो जाता
है । कर्तव्य की भावना जागृत हो जाती है और पारो से प्रेम भी ।
लेखिका
ने इस उपन्यास की समाप्ति में पारो का रूप भारतीय परंपरागत संस्कारों का निर्वाहन
करती स्त्री के रूप में दिखाया है, जो कि शरतचन्द्र की नायिका पारो से बिल्कुल भी
भिन्न प्रतीत नहीं होता । जबकि वे स्वयं स्त्री के संदर्भ में शरतचन्द्र के युग को
कायर मानती हैं । वे लिखती हैं, “स्वयं शरतचन्द्र
नारी पर दया करते रहे – उस की सेवा सुश्रूवा भी करते और करवाते रहे किन्तु कभी
बाहर निकल कर समाज के सामने ‘नीरू’ दीदी को न तो कन्धा दे पाए और न उस की
बोटी-बोटी चील कौवों से नुचवाने से बचा सकें । यह शरतचन्द्र की कायरता नहीं, पूरे
युग की कायरता है” ।
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प्रियदर्शिनी, सुदर्शन. पारो उत्तरकथा.
पृ. 21.
लेखिका अपने उपन्यास की समाप्ति पर कहती हैं कि ‘परिवार को बनाने में स्त्री का सबसे बड़ा हाथ होता है, वह चाहे तो एक सींक
से भी परिवार की दीवार को ढाह कर सकती है” । अर्थात्
विवाहेत्तर प्रेम की चर्मोत्कर्षता होते हुए भी पारिवारिक संस्था को बचाये रखना
स्त्री की जिम्मेदारी है और पारो उस जिम्मेदारी को निबाहने में सफल होती है । वह
धीरे-धीरे करके पूरे परिवार को समेटकर एक करती है । इसका एक कारण यह भी हो सकता है
कि देवदास इस दुनियाँ में अब नहीं है, यदि जीते-जी पारो से मिल पाता तो शायद उसकी
स्थिति कुछ और होती ! क्योंकि ‘देवदास’ उपन्यास में विवाहोपरांत जब पारो को देवदास के शराब में लिप्त होने की सूचना
मिलती है तब वह खुद पालकी लेकर उसे अपने ससुराल लिवा ले आने हेतु चल पड़ी थी । अथवा
एक कारण यह भी हो सकता है कि भारतीय परंपरा में लड़की पर एकनिष्ठता के संस्कार का
दबाव होता है, वह प्रेमी के लिए हर रोज तिल तिल कर कितनाहूँ मरे लेकिन अंततः अपने
पति का ही चयन करती है ।
दूसरी
बात संभव है कि पारो का रायसाहब को अपनाना उसकी दैहिक माँग भी हो सकती है, जो उसके
उदात्त प्रेम पर हावी हो जाता है । इस बात का संकेत दो बार लेखिका ने उपन्यास में
दिया है, पहला कंचन के ससुराल जाते समय जब रायसाहब ने पारो का हाथ थाम कर उसे
ट्रेन में बैठाया तब उसके अंदर स्पर्श की सुगबुगाहट हुई और दूसरी बार जब कंचन के
घर वापसी के पश्चात् पारो रायसाहब को सांत्वना दे रही होती है तब रायसाहब उसका हाथ
पकड़ लेते हैं उस समय उसके अंदर बिजली-सी दौड़ जाती है । अर्थात् शरीर की तंत्रियाँ
झंकृत हो जाती हैं लेकिन देवदास से बेवफाई के डर से वह मन ही मन प्रार्थना करने
लगती है कि वह उसे इस अंतर्द्वन्द से उबार ले । क्योंकि देवदास के स्पर्श के
अतिरिक्त उसे और किसी का स्पर्श स्वीकार्य नहीं । सच तो यह है स्वीकार्य होने या न
होने से परे देह की माँग और उसकी भाषा मन की भाषा से अलग हो सकती है ।
पात्रों
का नाम बदलना और उनकी संख्या जो ‘देवदास’ उपन्यास और फिल्म से भिन्न दर्शाता है, महेन्द्र का विवाह होते हुए भी इस
उपन्यास में अविवाहित दिखा कर अप्राप्य प्रेम की पीड़ा दिखाना आदि शरतचन्द के उपन्यास
‘देवदास’ की अपठनीयता को दर्शाता है और
परिवेश अलग कर देने से संजय लीला भंसाली के फिल्म से अलगाव उत्पन्न करता है । अतः ‘पारो-उत्तरकथा’ एक स्वतंत्र उपन्यास की भाँति ही है
। किंतु पारो के प्रेम को एक उच्चता प्रदान कर उसके उदात्त प्रेम की पराकाष्ठा को
रायसाहब के चौखट पर ले आकर स्त्री-सशक्तीकरण और उदात्त प्रेम की परिणति में
प्रश्नवाचक गिरावट पाठकों को खटक सकती है ।
फिर
भी एक स्वतंत्र उपन्यास (जो कि उत्तरकथा के रूप स्वतंत्र नहीं कहा जा सकता, जबकि प्रत्येक
उपन्यास अथवा कथा अपने आप में स्वतंत्र ही होती है) के रूप में एक मानव (पारो) के
सहज मन के रूप में राय साहब को अपनाना देह की माँग, भारतीय परंपरागत स्त्री की
विवशता अथवा संस्कारों का दबाव, और व्यामोह सिज़ोफ्रेनिया रोग से मुक्ति का मार्ग
ही है जो उसे रायसाहब के चौखट तक पहुँचा देता है और एक नए जीवन में पदार्पण का
अवसर प्रदान करता है ।
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- रेनू यादव