गुरुवार, 17 दिसंबर 2020

जिसके निशान नहीं दीखते... यानी मानसिक प्रताड़ना के ख़िलाफ

 साहित्य नंदिनी, दिसम्बर, 2020 अंक में चर्चा के बहाने स्तम्भ में आलेख 'जिसके निशान नहीं दीखते... यानी मानसिक प्रताड़ना के ख़िलाफ' के बहाने कुछ और बातें...


पुस्तक – एक औरत की नोटबुक

लेखिका – सुधा अरोड़ा

मूल्य – 300

प्रकाशन – राजकमल प्रकाशन प्रा. लि., नई दिल्ली

 

आलेख – जिसके निशान नहीं दीखते... यानी मानसिक प्रताड़ना के ख़िलाफ

 

 उपेक्षा, संवादहीनता या चुप्पी भी एक तरह की हिंसा ही है जिसे मैं चुप्पी की हिंसा या सायलेंट वॉयलेंस का नाम दे रही हूँ और इसे भी कन्फ्रंट या कॉर्नर करने – सामना करने या घेरने की ज़रूरत है - सुधा अरोड़ा

 

वैसे तो एक औरत की नोटबुक कहानी की रचना-प्रक्रिया की नोटबुक कही जा सकती है लेकिन इस पुस्तक में लेखिका का लेख जिसके निशान नहीं दीखते... यानी मानसिक प्रताड़ना के ख़िलाफ पितृसत्तात्मक व्यवस्था में एक सुसभ्य किंतु चुप्प रहने वाले पति की मानसिक संरचना का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण है । ऐसा नहीं है कि समाज में सभी शांत एवं चुप रहने वाले व्यक्ति एक जैसे होते हैं बल्कि कुछ चुप्पी की मार आत्मा तक को घायल कर जाती हैं । प्रायः चुप्पी की हिंसा को हिंसा नहीं माना जाता, क्योंकि शरीर पर पड़े लाल-नीले निशान ही हिंसा की पहचान होते हैं । मन पर पड़े निशान अथवा मन का लहूलुहान होना किसी को दिखाई नहीं देता अथवा दिखाई भी दे जाए तो क्या फर्क पड़ता है ? आखिर औरतों का मन भी कोई मन होता है क्या !!

यह लेख वैवाहिक जीवन में आदर्श दम्पत्ति के बीच घुसपैठ करते हुए व्यावहारिक अभिव्यंजना पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करता है, जिसमें प्रायः स्त्रियाँ चुप रहकर भी कटघरे में होती हैं और बोलकर भी ! चुप रहने के लिए तो परिवार या समाज या संस्कार विवश करता है ! कभी पति तो कभी परिवार, कभी ईज़्ज़त तो कभी समाज के नाम पर खामोश रहकर आज नहीं तो एक बेहतर कल की उम्मीद में वह अपने ही द्वारा निरंतर कटघरे खड़ी होती हैं क्योंकि किसी भी प्रकार का दबाव मन के सांत्वना का विकल्प नहीं हो सकता । यदि वह आवाज़ उठाना शुरू करती है तो सबसे पहला सवाल उसका खुद से होता है कि न दिखने वाले घाव को कहें तो कैसे कहें, जायें तो किसके पास जायें और कोई समझेगा भी अथवा नहीं ! अंततः वह सदियों से संचित मन में थक्के पड़े लहू को ज़बान देती है पर सदियों से जमा लहू का थक्का एक ही बार में कैसे पिघल कर लोगों के सामने पसर कर दिखायेगा कि वह किन किन हालातों में कभी आँसू बनकर, कभी रेत बनकर, कभी पसीज कर तो कभी जल-भुनकर थक्का बना । सबसे पहले तो वह थक्के जमने की प्रक्रिया को समझाने में ही असफल हो जाती है और यदि कुछ हद तक समझा भी दे तो मनमोहक मुस्कान लिए पति के सुसभ्य शांत व्यवहार के आगे उसकी बात को एकसिरे से खारीज कर दिया जाता है ! हो भी क्यों न ? उस व्यक्ति का दूसरों के साथ हँसमुख, जिंदादिल, कर्तव्यपरायण व्यवहार के प्रभाव के आगे पत्नी ही शकी, बदचलन और स्वार्थी नज़र आने लगती है ! आखिर में लोगों को सबूत चाहिए और सबूत के अभाव में वह साँप भी मर जाये और लाठी भी न टूटेके विषय में वह क्या कहे ? कैसे कहे कि वह धीरे-धीरे श्लो डेथकी ओर धकेली जा रही है अथवा वह इमोशनल रेपसे भी और आगे भयानक चक्रव्युह में फँस चुकी है ! जिसकी अभिव्यक्ति के वाक्य सटिक नहीं बैठते क्योंकि श्लो-डेथ’ की पीड़ा को सिर्फ महसूस किया जा सकता है शब्द नहीं दिया जा सकता । श्लो-डेथ की ओर धकेलने वाले पतियों के व्यक्तित्व के विषय में लेखिका कहती हैं, यों तो हर व्यक्ति के भीतरी और बाहरी दो रूप होते हैं लेकिन किसी के व्यक्तित्व के इन दो रूपों में बहुत फ़ासला होता हैइतना कि अगर दोनों को सामने रख दिया जाए तो आप पहचान भी न सकें कि ये एक ही व्यक्ति के दो रूप हैं

ऐसा व्यक्तित्व उस व्यक्ति की नारसिस्टिक पर्सेनेलेटी डिसऑर्डर हो अथवा जानबुझ कर किसी कारणवश किए जाने वाला व्यवहार...। लेकिन सच तो यही है कि घायल की गति घायल जाने की अवस्था में भी महिलाएँ एक दूसरे के घाव पर मलहम पट्टी कर उसी अवस्था रह-सह लेने के लिए विवश हैं क्योंकि उनके पास दिखाने के लिए घाव नहीं है । उसकी पीड़ा के शुभचिंतक भी उसकी विवशता, व्याकुलता और छटपटाहट को उसके भारी भरकम लदे-फँदें गहनों-कपड़ों तथा रोजमर्रा के जीवन में चकाचौंध की खुशियों से लौतने में भी नहीं हिचकते । उसके गहने-कपड़े और घुमक्कड़ीपन की चाह जैसी कोपिंग मैनेजमेंट लोगों की समझ से परे होती है । उसकी खुशियाँ तौल दी जाती हैं उन सलीके से रह-रही नौकरीपेशा औरतों के काम काज से अथवा मनमर्जी से घूमती शॉपिंग सेन्टर में उसकी खरीदारी से अथवा बात-बेबात पर ज़ोर-ज़ोर से ठठाकर हँसने से अथवा कुछ फूहड़ से या ऊल-जलूल काम करने या बतियाने से । नहीं ध्यान दिया जाता तो उसके सलीकेदार रहन-सहन के पीछे बदरंग जीवन को छुपा कर रखने की चाह अथवा खरीदारी से क्षण भर के लिए सही, मन को शांत करने की ललक अथवा ठठाकर हँसने के पीछे की रूदन अथवा फूहड़पन के बहाने सामने वाले के फूहड़पन को सामने ले आने की एक बेवकूफी भरी हरकत... ।      

भारत में ऐसी अनगिनत महिलाएँ हैं जो इस तरह की हिंसा से जूझ रही हैं, लेकिन उनकी कहीं कोई सुनवायी नहीं । यह स्थिति सिर्फ गाँव-देहात में अनपढ़ महिलाओं की ही नहीं बल्कि पढ़ी-लिखी महिलाओं की भी है । विमर्श के झंड़े तले लहूलुहान मन को सम्भालने और एक-दूसरे से छुपाने के बीच महिलाओं (कुछ अपवादों को छोड़कर) ने मान लिया है कि इस मर्ज की कोई दवा नहीं ! यदि चुप्पी की हिंसा का सर्वे किया जाये तो हर तीसरी-चौथी महिला इस हिंसा की शिकार पायी जायेगी । सुधा अरोड़ा कहती हैं, वह जिस दिन अपने पति के इंगित से परिचालित होना बंद कर देगी और अपना एक स्वतंत्र दायरा- जिसकी पहली शर्त आर्थिक आत्मनिर्भरता है – गढ़ लेगी, जिस दिन वह अपने मन पर सिर्फ़ अपना नियंत्रण स्वीकार करेगी, स्थितियाँ ऊर्ध्वमुखी होने लगेंगी

 

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                                        - रेनू यादव

यीशू की कीलें

 साहित्य नंदिनी, नवम्बर, 2020 अंक में 'चर्चा के बहाने' स्तम्भ में प्रकाशित...



पुस्तक - यीशू की कीलें

लेखक – किरण सिंह

प्रथम संस्करण – 2016

मूल्य – 300

प्रकाशक – आधार प्रकाशन प्रा. लि., पंचकूला

 

मैं ज़िन्दों की बगल में रखा हुआ मुर्दा हूँ

 

यह वाक्य ब्रह्म बाघ का नाच दिखाने वाले उस व्यक्ति का है जिसे जीते-जी महानता के नाम पर मुर्दा बनने के विवश कर दिया जाता है । अंधविश्वास से भरी जनता की आँखें सिर्फ नाच देखती हैं और उसमें अपना हित तलाशती हैं ! नहीं देखतीं हैं तो नाचने वाले की पीड़ा और संत्रास ! प्रश्न उठता है कि नाच दिखाने वाला मुर्दा है अथवा देखने वाला अर्थात् दोनों में से ज़िन्दा कौन है ?

इस संग्रह की आठ कहानियों में लेखिका ने हाशिए पर खड़े समाज को यीशू की तरह कील के सहारे लटकते हुए दिखाया है । वर्चस्ववादी सत्ता ने सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, नैतिक तथा आर्थिक रूप से हर जगह अपनी कीलें गाड़ रखी हैं और हाशिए पर खड़ा समाज उन कीलों से लहूलुहान होकर लटका पड़ा है । कहानियों की पीक द्रौपदी पीकमें द्रौपदी पीक को छूने की जिद्द में वेश्या की लड़की घूँघरू अथवा नागाओं के शिष्य पुरूषोत्तम, कथा सावित्री सत्यवान की’ में अपने पति को बचाने के लिए रेनू चौधरी का षड़यंत्रकारियों के चंगुल में फंसकर उन्हीं को फँसाना, ब्रह्म बाघ का नाच में अपनी आजीविका चलाने की खातीर बरमबाघ का नाच दिखाने वाले नरसिम्हा का भगवान बन कर निष्क्रिय हो जाना, जो इसे जब पढ़े में अपना-अपना बखरा माँगने वाले गाँव के लड़कों के खिलाफ जंग छेड़ने वाली सुभावती हो, यीशू की कीलेंकहानी में राजनीतिज्ञों के षड़यंत्रों में फंसी भारती हो, हत्या’ कहानी में नकारे और शकी पति के प्रतिरोध में अपने अजन्मे बच्चे की हत्या करना, देश-देश की चुड़ैलेंमें स्त्रियों के प्रति लोगों का नज़रिया हो अथवा संझाकहानी में थर्ड जेण्डर को अपनी पहचान छुपा कर रखने की विवशता...  सभी पात्र यीशू के समान कीलों पर लटके कराहते हुए अपना-अपना जीवन जीने को विवश हैं । फ़र्क यह है कि यीशू संघर्ष करने के बाद ईश्वर पद पर आसीन हो गयें लेकिन इन मनुष्यों को सदैव कीलों पर ही लटके रहना होगा ।  

आज समाज में हाशिए पर खड़े लोग सत्ता के द्वारा ठोके गए कीलों को उखाड़ने के लिए संघर्षरत् हैं किंतु जाति, लिंगभेद, गरीबी, अशिक्षा आदि कीलों की जड़ें इतनी गहरे तक धँसी हैं कि वे झकझोरने के बाद भी हिल तक नहीं रहीं । शिक्षा से वंचित लोग कीलों में जीना सीख गये हैं और हाशिए से उठकर शिक्षीत हुए उच्च पदों पर आसीन महानुभाव वर्चस्ववादी सत्ता के साथ हाथ मिलाते नज़र आते हैं अथवा वे भी वही करने लगते हैं, जो उनके साथ हुआ है ! बदलाव की कड़ी में बदलाव करने के नाम पर भौकाल मचाते दिखते हैं, न कि बदलाव करते हुए । कुछ दिखते हैं संवेदनशील भी, जिन्हें मीडिया के साथ मिल कर बहस में शामिल हो चीख-चिल्ला कर घर बैठना होता है अथवा सारा आंदोलन फेसबुक, ट्वीटर तथा सोशल मीडिया पर शुरू होकर वहीं पर समाप्त हो जाता है । ऐसे लोग प्रतिष्ठित समाज अथवा अंधभक्तों में प्रतिष्ठा प्राप्त कर लहालोट हो जाते हैं और कीलों पर लटकी जनता अब भी रंक्तरंजित हो कीलों पर ही लटकी रहती है ।  उनके पास कील ठोकने वालों के खिलाफ कोई सबूत नहीं होता और उनकी भावनाएँ किसी के लिए कोई महत्त्व नहीं रखतीं । ऐसे में प्रश्न है कि क्या कीलों पर लटके लोग सदैव ऐसे ही कीलों पर लटके रह जायेंगे...?

 

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                                                                                                         - रेनू यादव

मॉम (2017)

साहित्य नंदिनी, अक्टूबर 2020 अंक में 'चर्चा के बहाने' स्तम्भ में फिल्म 'मॉम' के बहाने...


फिल्म – मॉम (2017)

लेखक – रवि उदयवार, गिरिश कोहली एवं कोणा वेंकटराव

निर्देशक – रवि उदयवार

कलाकार – श्रीदेवी, अक्षय खन्ना, सजल अलि, अदनान सिद्दीकी, अभिमन्यु सिंह, नवाजुद्दीन सिद्दीकी.

 

गलत और बहुत गलत में चुनना हो तो आप क्या चुनेंगे ?

 

इस फिल्म के ट्रेलर की शुरूआत इसी डायलॉग से होती है । इस वाक्य से सबसे पहले यही समझ में आता है कि यहाँ चयन सही और गलत के बीच नहीं बल्कि कम गलत और अधिक गलत के बीच किसी एक गलत को चुनना है । यह प्रश्न किसी कलाकार की भूमिका का नहीं बल्कि पूरे समाज के सामने है । इस फिल्म में बलात्कार और बलात्कार के बाद के परिणाम के ज्वलंत मुद्दे को उठाया गया है, जो कि देश में लगातार घट रही बलात्कार की घटनाएँ और उसके बाद के परिणाम किसी से छुपा नहीं है ।

14 अगस्त, 2005 को एक 15 वर्षीय लड़की के बलात्कार के आरोप में सजा काट रहे धनंजय चटर्जी को कोलकाता के अलीपुर जेल में फांसी दी गई, 20 मार्च 2020 को तिहाड़ जेल में निर्भया के आरोपी मुकेश सिंह, विनय शर्मा, अक्षय कुमार सिंह और पवन गुप्ता को फाँसी के फंदे पर लटका दिया गया । 19 दिसम्बर, 2019 को क्राइम सीन को रिक्रिएट करते समय एनएच-44 पर हैदराबाद की प्रियंका रेड्डी के बलात्कारी शिवा, नवीन, केशवुलू और मोहम्मद आरिफ पुलीस एनकाउन्टर में मारे जाते हैं । लेकिन इसके अलावा आरोपियों का क्या...?   

केन्द्रीय गृह मंत्रालय के अंतर्गत राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (NCRB) भारतीय दंड संहिता और विशेष एवं स्थानीय कानून के तहत देश में अपराध के आंकडे एकत्रित एवं विश्लेषित करती है । भारत में NCRB के आंकड़ों के अनुसार सन् 2016 में 38,947, सन् 2017 में 32,559, तथा 2018 में 33,356 बलात्कार के मामले दर्ज हुए हैं । यह ध्यान रखने योग्य बात है कि यह सिर्फ दर्ज मामले हैं । 3 दिसम्बर, 2019 को आजतक के हिन्दी न्यूज़ के अनुसार देश में हर साल 40 हज़ार, हर रोज 109 और हर घंटे 5 लड़कियों की अस्मत लूट ली जाती है । लेकिन इन सबमें में सिर्फ 25 प्रतिशत बलात्कारियों को ही सज़ा मिल पाती है । समाचार के अनुसार देश की लोकसभा और विधानसभा में बैठे 30 प्रतिशत नेताओं का आपराधिक रिकार्ड है, 51 पर महिलाओं के खिलाफ अपराध किए जाने के मामले दर्ज हैं और 4 नेताओं पर सीधे बलात्कार का आरोप है 

देखा जाय तो उपरोक्त तीन घटनाएँ, जिनमें बलात्कारियों को सजा मिली है वे एक आम जनता के बीच से आये अपराधी हैं । उन्नाव केस में दो बड़ी घटनाएँ, जिसमें से एक पीड़िता का बलात्कारी एक जाना माना विधायक है (2017) और दूसरी पीड़िता दिल्ली के सफदरगंज अस्पताल में अपनी जिन्दगी हार गई (2019)... का भी संतोषजनक परिणाम सामने नहीं आया है । और अब 14 सितम्बर, 2020 को खूंखार दरिन्दों के हाथ आयी हाथरस की निर्भया के साथ बलात्कार ने पूरे भारत का दिल दहला दिया है, जिसे बलात्कार न साबित करने के लिए पूरा प्रशासन एकजुट हो गया है । शायद रीढ़ की हड्डी टूटना और जीभ का काट लेना भी अपराध न माना जाये क्योंकि समाज के तथाकथित ईज़्ज़तदार उच्च वर्ग एवं उच्च पदों पर आसीन लोग कभी भी ऐसा काम नहीं कर सकते !!

जितनी कोशिशें इन घटनाओं को छुपाने में या अपराधियों को बचाने में की जाती हैं यदि उससे भी आधी कोशिश अपराधियों को कड़ी से कड़ी सज़ा देने में की जाती तो शायद आज ऐसी घटनाएँ न घटतीं । हैरानी की बात यह है अब मानवाधिकार चुप्पी साधे बैठा है, उच्च वर्ग या जाति अपनी जातिवाद का कार्ड खेल रहे हैं और खेलते रहे हैं और अपराधी सत्ता की बागडोर सम्भाले बैठे हैं ! हैरानी की बात यह भी होती है कि एक सरकारी नौकरी के लिए आवेदन करते समय आवेदनकर्ता के ऊपर आपराधिक मामले न होने की पुष्टि की जाती है लेकिन देश चलाने के लिए ऐसा कोई प्रावधान नहीं है, जेल में बैठकर भी चुनाव लड़ा जा सकता है ! प्रश्न उठता है कि उच्च पदों पर आसीन अपराधियों को क्या कभी फांसी की सज़ा हो पायेगी ? क्योंकि अपराधी तो सिर्फ अपराधी है । यदि अपराधी ही सत्ता की बागडोर संभाले हों तो फिर देश सुरक्षित कैसे हो सकता है ? जब अपराधियों की आकाएँ उच्च स्तर तक उनकी सुरक्षा की जिम्मेदारी लिए बैठे हों और केस को मनचाहे रूप से परिवर्तित कर सकते हों तो न्याय की उम्मीद कैसे की जा सकती है ? क्या इसके लिए सिर्फ सत्ता जिम्मेदार है अथवा जनता भी ? क्या जातिवाद और वोट की राजनीति में सत्ता की बागडोर संभालने वाले नेताओं के लिए भी इस फिल्म के डॉयलॉग की तरह कुछ कम गलत और अधिक गलत के बीच चयन का ही विकल्प होता है, सही और गलत का नहीं ? यह सोचने वाली बात है कि कुछ गलत भी तो गलत ही है और जनता की सह पाकर आगे चलकर वह और अधिक गलत में बढ़ जायेगा, क्या जनता को यह समझ में नहीं आता ? या फिर न्याय की थाली में अविश्वास परोसते हुए इस फिल्म की तरह हर माँ को स्वयं उठकर खड़ा होना होगा ?  

 

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Rough Book (2016)

साहित्य नंदिनी, सितम्बर 2020 अंक में 'चर्चा के बहाने' स्तम्भ में फिल्म रफबुक के बहाने कुछ बातें... 


फिल्म – Rough Book (2016)

लेखक – संजय चौहान, अनंत नारायण महादेवन

निर्देशक – अनंत नारायण महादेवन

नायक – तनीशा चटर्जी, मुकेश हरियावाला, अमान एफ. ख़ान

प्रोडक्शन – एन आकाश चौधरी प्रोडक्शन

 

आई फेल्ड यू एज ए टीचर । तुम्हें हारना नहीं सिखा पायी

 

लघु फिल्म रफबुक में नायिका संतोषी की माँ का संतोषी से संवाद है । यह सिर्फ एक संवाद नहीं बल्कि जीवन का वह सत्य है जिसे कोई भी माँ अपने बच्चे को शायद ही सिखाती हो ! जीतना तो हर कोई सिखाता है लेकिन हारना..?

जीवन में जीतने के लिए हारना सीखना और हार को सकारात्मक रूप से स्वीकृत्ति देने की सीख अतिआवश्यक है । जो हारना नहीं जानता, उसे जीतने का पूर्ण अनुभव, पूर्ण खुशी प्राप्त नहीं होती । हजार गलतियों के बाद भी जीतने के लिए बार बार हार कर आगे बढ़ते जाना ही जीवन है । आज के समय में यह सभी को, खासकर छात्रों को सीखने की जरूरत है । इस फिल्म में नायिका की माँ कहती है, कोशिश करो, हन्ड्रेड परसेन्ट, और अगर फेल भी हो गई तो हम सेलिब्रेट करेंगे    

यदि हर माँ-बाप अपने बच्चों को ऐसी शिक्षा देते तो शायद कोई छात्र असफल होने के डर से या असफलता के पश्चात् आत्महत्या नहीं करता । भारत में छात्रों की बढ़ती आत्महत्या की दर देखते हुए आज के समय में शिक्षा व्यवस्था में जो परिस्थितियाँ उत्पन्न हो रही हैं उसमें छात्रों को जीतने के हौसला के साथ-साथ हार को एक चुनौति मानकर आगे बढ़ने की सीख देनी होगी, अन्यथा यदि देश का भविष्य आत्महत्या करने से बच भी जाता है तो निराशा-भग्नाशा का शिकार रहेगा ।  

यदि किसी भी देश को बरबाद करना हो, तो सबसे पहले वहाँ की शिक्षा व्यवस्था को ध्वस्त करो । जब आम जनता का दिमाग पंगू होगा तो लोग आश्रीत पिछलग्गू बनकर आपके काले कारनामों में आपका साथ देंगे । उन्हें लम्बे लम्बे भाषणों के जाल में फंसाकर अंधा, गूंगा, बहरा बनाना होगा ताकि वे सोचने समझने देखने में असमर्थ हो जायें और फिर उनके हाथों में रोजगार के नाम पर कटोरा और बांसूरी थमाने की बात की जाये, जैसा कि कुछ महिने पहले एक विश्वविद्यालय के कुलपति ने अपने भाषण में कटोरा लेकर ट्रेन में भीख माँगने को रोज़गार का नाम दिया था !

यदि यही रोज़गार है, तो समझ सकते हैं कि देश में विकास किस स्तर तक विकास कर सकेगा और युवा वर्ग शिक्षा की छद्मी राजनीति के जाल में फंसकर किस हद तक फदफदाता रहेगा ? वर्तमान समय में शिक्षा व्यवस्था को ध्वस्त करने के लिए प्रमुख दो तरिके दिखाई दे रहे हैं – पहला, शिक्षण संस्थानों में अलग-अलग तरिके से टारगेट कर छात्रों को देशद्रोही साबित कर दिया जाय औरे दूसरा, शिक्षण संस्थानों का नीजिकरण कर उनकी फीस में इतनी बढ़ोत्तरी कर दिया जाय कि आम जनता शिक्षा से वंचित रह जाये ।  

शिक्षण संस्थान पहले से ही शिक्षकों के अभाव में दमा के बीमारी से फूल-पचक रहा था, अब नीजिकरण के कारण मनमाने तरिके से शिक्षकों को डिमाण्ड एवं सप्लाई की नीति के तरह स्वार्थ सिद्धी करना तथा चमचमाते स्कूल के चमचमाते ड्रेस कोड के बीच मरती आत्माओं की चीख को प्राइवेट ट्यूशन के नीचे दबा देना बेहद आसान हो गया है और होता जा रहा है । सच तो यही है कि चाहे जितना भी शिक्षा नीतियों में बदलाव किया जाय, जब तक शिक्षा को स्वार्थ सिद्धी हेतु राजनीतिकरण एवं उसका व्यावसायीकरण किया जाता रहेगा तब तक शिक्षा का स्तर नीचे गिरता रहेगा । इस छोटी सी फिल्म में नायिका संतोषी पाठ्यक्रमों को पूरा करने के दबाव पर कहती है, हम लोग टीचर्स हैं, सेल्समैन नहीं जिन्हें अपना टारगेट पूरा करना है

इस बात को नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता कि शिक्षण संस्थानों में शिक्षकों को सेल्समैन बनने के लिए बाध्य किया जाता है । निःसंदेह समय से पाठ्यक्रम पूरा करना एक अच्छे शिक्षक की निशानी है, लेकिन शिक्षा ग्राह्य होना न होना ये शिक्षण संस्थानों की जिम्मेदारी से बाहर होता जा रहा है , अपने नीजि हितों तथा बेहतर रिजल्ट दिखाने के चक्कर में छात्रों को पास करने के लिए शिक्षकों पर अलग-अलग तरिके से दबाव बनाना उन्होंने अपनी नैतिक जिम्मेदारी बना ली है । इस प्रक्रिया में छात्रों का हित-अहित उनके लिए कोई महत्त्व नहीं रखता । शिक्षण संस्थानों का नीजिकरण, शिक्षकों का अभाव, पाठ्यक्रम तथा फीस की संरचना तथा रोज़गार के प्रति बदलता नज़रिया संबंधि बाध्यता चाहे सरकार द्वारा ज़ारी हो अथवा प्रशासन द्वारा अथवा शिक्षक के स्वयं की नौकरी में असुरक्षा की भावना ? ये सभी कारक न सिर्फ युवा वर्ग को बल्कि देश के भविष्य को भी अंधेरे में रख रहे होते हैं । आज युवा वर्ग शिक्षा, व्यवसाय और खुद अपने जीवन के मामले में भी अंधकार से जूझ रहा हैं, रोशनी की चाह में तड़फड़ा रहा है । ऐसे में शिक्षा के लिए आवाज़ उठाती इस फिल्म का यह डायलॉग छात्रों की हौसला बढ़ाने में सहायता प्रदान कर सकता है -

जुगनू की लाइफ सिर्फ कुछ दिनों की होती है, लेकिन वे एक भी रात अँधेरे नहीं जाने देते (A Firefly only lives for a few days. But that doesn’t stop them from illuminating every night.”

 

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मौत पूरी दुनियाँ की आँखों में घूर रही है...

 साहित्य नंदिनी, जुलाई 2020 अंक में 'चर्चा के बहाने' स्तम्भ में मृत्यु के इन्द्रधनुष पुस्तक के बहाने कुछ बातें...


पुस्तक - मृत्यु के इन्द्रधनुष

लेखक – तेजेन्द्र शर्मा

प्रकाशक - इंडिया नेटबुक, नोएडा

मूल्य – 300/- रू.

 

मौत पूरी दुनियाँ की आँखों में घूर रही है...

 

मौत उसकी आँखों में घूर रही है... उसके शरीर में इतना दर्द है कि गर्दन मोड़कर मौत से आँखें फिरा भी नहीं सकता”  

-       तेजन्द्र शर्मा                     

 

कोरोना समय में एक ओर मौत पूरी दुनियाँ की आँखों में घूर रही है, तो दूसरी ओर लॉकडाउन में मुझे तेजेन्द्र शर्मा की पुस्तक मृत्यु के इन्द्रधनुष पढ़ने का मौका मिल रहा है । सचमुच मृत्यु एक इन्द्रधनुष ही तो है ! ईर्ष्या, द्वेष, लोभ, मोह, काम, क्रोध मौत के अलग-अलग रंग ही तो हैं ! एक तरफ इस महामारी में मृत्यु प्राप्त करने वालों की संख्या देखकर लोगों के हृदय में मृत्यु का खौफ फैल गया है तो दूसरी तरफ संक्रमित लोग हर पल मौत से लड़कर उसका सामना कर रहे हैं । एक ओर संक्रमित होने का खतरा हर किसी को डरा रहा है (डर भी एक मौत है) तो दूसरी ओर प्रशासन के नियमों को अनदेखी कर लोग मौत को चुनौति देते हुए सड़कों पर निकलने के लिए आमादा हैं !

घर-बाहर हर तरफ मृत्यु पसरी हुई है । ऐसे में अत्यधिक संवेदनशीलता, अत्यधिक संवेदनहीनता, अत्यधिक प्रेम, अत्यधिक नफरत, अत्यधिक आराम, अत्यधिक काम, अत्यधिक भोजन, अत्यधिक भूख मृत्यु के साथ जुगाली करती हुई नज़र आ रही है ।     

यदि इस समय को अविश्वास का समय कहें तो गलत न होगा । हर कोई मौत को महसूसते हुए एक दूसरे पर अविश्वास की नज़रों से देख रहा है । जो लोग मौत के मुँह से हमें खींच कर निकालने का प्रयास करे हैं हम उनपर भी विश्वास नहीं कर पा रहें । इसलिए तो जंग लड़ रहे डॉक्टर्स, नर्स और सिपाहियों पर हमले हो रहे हैं । जो हाथ सुरक्षा के लिए आगे बढ़ रहे हैं उन्हीं हाथों को काट फेंकने के लिए लोग तत्पर हो चुके हैं । मौत का भय हर किसी में समाता जा रहा है और मौत आने से पहले ही लोग कई-कई मौतें मरने के लिए विवश हो रहे हैं । इसका कारण पहले से चली आ रही अशिक्षा, भूख, बेरोजगारी और अंधविश्वास बहुत बड़ा कारण है लेकिन आग लगने पर कूआँ तो नहीं खोदा जा सकता ! पहले से चली रही वोट की राजनीति आज के समय को कहीं न कहीं असफल बना रही है वरना आज इस तरह की घटनाएँ नहीं होतीं ।

वर्तमान समय में एक अच्छी बात यह है कि वोट की राजनीति करने वाले वोट की राजनीति भूलकर एक साथ खड़ें होकर हरसंभव मनुष्यता को विजयी बनाने में जुटे हुए हैं, जो कि सराहनीय है । हालांकि अभी भी पूरी तरह से ग्राऊंड लेबल पर पहुँच पाना संभव नहीं हो पा रहा क्योंकि वोट की राजनीति में ग्राउंड लेबल पर पहुँचने की कवायद से अधिक जीतना जरूरी होता है । पर इस समय सराहनीय यह है कि पूरी दुनियाँ एक साथ मिल कर मौत की घूरती आँखों में घूरना चाहते हैं और उसे मात देना चाहते हैं । इसलिए वर्तमान समय में लेखक की यह बात सार्थक सिद्ध हो सकती है –

यह केवल एक मध्यांतर है... मौत जिन्दगी का अंत नहीं है…”

 

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राजनीति, रेड लाइट और हसीनाबाद

साहित्य नंदिनी के अगस्त 2020 अंक में 'चर्चा के बहाने' स्तम्भ में प्रकाशित

https://www.abhinavimroz.page/2020/08/3-LceJOL.html 

  

पुस्तक – हसीनाबाद

लेखक – गीताश्री

मूल्य – 395/- रू.

प्रकाशक – वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली

राजनीति, रेड लाइट और हसीनाबाद

 

आसक्ति प्रेम का विस्तार नहीं होती, बल्कि प्रेम को सीमित कर देती है

 

यही कारण है कि सभ्य समाज में बस जाती हैं हसीनाबाद जैसी अनेक बस्तियाँ । आश्चर्य की बात ऐसी स्थिति में प्रेम मात्र स्त्री के लिए होता है और पुरूष के लिए सामंती व्यवस्था में का एक सम्मान का प्रतीक और प्रेम की जगह आसक्ति अथवा खेलने के लिए एक खिलौना । जिसका न तो कोई औचित्य है और न ही तर्क, सिवाय ऐय्याश मानसिकता की नुमाइशकरण के अलावा ! ऐय्याश मानसिकता घर और बाहर दोनों जगह अपनी राजसी ठाट-बाट की उपस्थिति दर्ज कराता है लेकिन ऐय्याश मानसिकता की शिकार शिकारी जानवर उर्फ स्त्री पिंजरे में कैद होकर असंख्य बेगुनाहों के खून चूसकर बनाये गए उस राजसी ठाट-बाट के मुंह से निकले थूक को चाटती रह जाती है । किसी एक का खून थूक चाटने से बच कर निकलने की कोशिश करने वाली महिलाएँ अनेकों का थूक चाटने के लिए पहुँचा दी जाती हैं रेड लाइट एरिया में । भारत में प्रमुख पाँच रेड लाइट एरिया शीर्ष स्थानों पर हैं - कोलकाता का सोनागाची,  दिल्ली का जी.बी. रोड़, मध्यप्रदेश का रेशमपुरा (ग्वालियर), उत्तर-प्रदेश का कबाड़ी बाज़ार (मेरठ), मुंबई का कामथीपुरा (मायानगरी) । इसके अतिरिक्त वाराणसी में दालमंडी, सहारनपुर में नक्कास बाज़ार, मुजफ्फरपुर में छतरभुज स्थान तथा नागपुर में गंगा-जमुना आदि का नाम भी प्रसिद्ध है । ये नाम सीधे-सीधे वेश्यावृत्ति से जुड़ा है लेकिन हसीनाबाद की तरह गुमनाम बस्तियों का कहीं नाम भी नहीं आता । किंतु दुनियाँ की नज़र में मामूली लगने वाली बस्तियों में न जाने कितनी ही मासूमों (जिसमें से कुछ स्वेच्छा से, कुछ अनिच्छा से, कुछ अपहरित तो कुछ विवशतावश शामिल हैं) की सिसकियाँ दब जाती हैं, घुटती रहती हैं और सदियों-सदियों तक तड़पती रहती हैं । उनकी अस्मिता तो कोसो दूर होती ही है उनके साथ-साथ उनके बच्चों का भविष्य भी अंधकारमय होता है, जिनकी कोई सुनवाई नहीं होती ।

 

लेखिका गीताश्री ने अपने उपन्यास हसीनाबाद में दो मुद्दों को केन्द्र में रखा है, पहला, हसीनाबाद जैसी बस्ती, जो देश के नक्शे से बाहर है और दूसरा राजनीति में स्त्री, जो राजनीति के दिल से बाहर है । गोलमी जैसी अनेक संवेदनशील महिलाएँ राजनीति की छद्मी कूटनीतिक चाल से अपने आपको पीछे खींच लेती हैं । कभी कभी तो वर्षों-बरस तक पूरी तरह से देश के लिए समर्पित रह कर कार्य करने वाली राजनीतिज्ञ महिला भी राजनैतिक षड़यंत्रों से खुद बचाने के लिए व्यक्तिगत समस्याओं का बहाना बना अपना हाथ खींच लेती हैं अथवा खुद को राजनीति से अलग कर लेती हैं । इसमें सुषमा स्वराज का नाम भी शामिल हो तो हैरानी की बात नहीं होगी । वैसे महिलाएँ राजनीति के जिक्र से ही भागती हुई नज़र जाती हैं, किंतु जिन्हें जगह मिली होती है वे भी कहाँ वर्चस्ववादी सत्ता की बैशाखी के बिना चल पाती हैं ? यदि बैशाखी के बिना चलने की कोशिश भी करें तो कहाँ आखिरी मंजिल तक पहुँच पाती हैं ? कदाचित राजनीति में अपने परिवार की बलि देने वाली भूतपूर्व प्रधानमंत्री इन्द्रा गाँधी एक अपवाद हैं । अन्यथा 17वीं (2019-24) लोक सभा में 107 तथा राज्य सभा में 25 महिला सद्स्यों के होने के बावजूद भी कोई महिला इन्द्रा गाँधी की भाँति अपनी जगह क्यों नहीं बना पा रहीं ? राजनीति की संरचना और हसीनाबाद की संरचना में कहीं कोई समानता तो नहीं ?

 

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                                                                                            - रेनू यादव

 

शुक्रवार, 10 जुलाई 2020

Setu �� सेतु: कविताएँ: रेनू यादव

Setu �� सेतु: कविताएँ: रेनू यादव: डॉ. रेनू यादव फेकल्टी असोसिएट भारतीय भाषा एवं साहित्य विभाग गौतम बुद्ध युनिवर्सिटी, यमुना एक्सप्रेस-वे, गौतम बुद्ध नगर, ग्रेटर नोएडा ...



 पिट्सवर्ग अमेरिका से प्रकाशित होने वाली द्वैभाषिक मासिक पत्रिका 'सेतु' के जून, 2020 (वार्षिकांक) में मेरी दो कविताएँ 'तड़फड़ाते हृदय के पाँवों में फफोले' तथा 'रास्ते पर प्रसव' प्रकाशित...

शनिवार, 6 जून 2020

रविवार, 17 मई 2020

Punarsarjanaa Ki Dehri Par Kadam Rakhti Prem Mein Pagi Paaro...

'साहित्य नंदिनी 'के जनवरी , 2020 अंक में प्रकाशित



पुनर्सर्जना की देहरी पर कदम रखती प्रेम में पगी पारो



जैसे ही पार्वती ने देहरी पर पैर रखा, अन्दर से आवाज आई- आओ पार्वती ! आओ !”
बड़ी जद्दोजहद के बाद पार्वती ने रायसाहब की देहरी पर कदम रखा था, वह चाहती तो दूसरे कमरे में जा कर सो सकती थी लेकिन उसने रायसाहब का कमरा चुना । उसने मन की सभी दुविधाओं से मुक्त हो कर रायसाहब को अपनाने का फैसला कर लिया ।
क्या पार्वती का इस तरह से स्वयं रायसाहब के कक्ष में जाना स्वीकार्य हो सकता है ? जिस देवदास के प्रेम का दीया वह अपने सीने में जलाकर जी रही थी क्या उस देवदास को बिसरा कर जी पायेगी ? परिवार सहेजना-जोड़ना अलग बात है लेकिन परिवार के लिए पति को अपनाना क्या जरूरी है, वह भी उस पति को जिसने उसे पत्नी का स्थान ही नहीं दिया ? क्या जीवन को उपेक्षा से भर देने वाले पति को अपना लेना ही एक मात्र जीने का उपाय है, जो देवदास के जाने के बाद उसे समझने के बजाय लगातार कोपभाजन का शिकार बनाता रहा ? क्या पारो का अपने पति को अपनाने की सोचना मानवीय स्वभाव है अथवा दैहिक माँग ? अथवा व्यामोह सिज़ोफ्रेनिया की समाप्ति का एक अवसर ?   
पारो की उत्तरकथा पढ़ते समय ऐसे अनेक प्रश्न पाठकों के मन में हलचल मचायेंगे और विचलित भी करेंगे । होना भी चाहिए क्योंकि देवदास के हिस्से की पारो अधूरी थी । देवदास एक पुरूष नज़रिए से लिखा गया उपन्यास है जिसमें पारो की भावनाएँ दबी-घुटी बाहर आती हैं किंतु स्पष्ट नहीं । ऐसे में पारो के प्रति जिज्ञासा जागृत होना और उसका सामने आना कोई आश्चर्य की बात नहीं । परंतु यह भी ध्यातव्य है कि यदि देवदास एक प्रसिद्ध उपन्यास न होता और सिनेमा जगत् के माध्यम से संजय लीला भंसाली के ग्लैमरस अंदाज में देवदास ने हलचल न मचाया होता तो शायद पारो से इतनी अपेक्षा न होती... । इसलिए पारो की पुनर्सर्जना में कई सारी चूनौतियाँ स्वाभाविक हैं ।
पारो का अस्तित्व में आना देवदास को पूरक बनाने जैसा प्रतीत होता है किंतु पारो को समग्र समझने के लिए देवदास को समझना अति आवश्यक है । हालांकि लेखिका पारो को एक स्वतंत्र उपन्यास मानती हैं, लेकिन पारो-उत्तरकथा लिखने के साथ ही और बाद भी लेखिका चाहकर भी देवदास से पारो को अलग नहीं कर सकतीं । ये अलग बात है कि देवदास उपन्यास और पारो-उत्तरकथा उपन्यास के लेखन समय में एक लम्बा अंतराल है तथा दोनों ही उपन्यास दो अलग-अलग लेखकों द्वारा लिखा गया है, इसलिए दोनों ही उपन्यासों में समय, परिवेश एवं भाषा का अंतर स्पष्ट रूप से दिखायी देता है । बातचीत के दौरान लेखिका इस बात को स्वीकार करती हैं कि उन्होंने पारो-उत्तरकथा की भूमिका संजय लीला भंसाली की फिल्म देवदास से ली हैं न की शरतचन्द्र के उपन्यास देवदास से ।   
सन् 1901 में शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय ने देवदास का सृजन किया था, जिसका प्रकाशन सन् 1917 में हुआ । इस उपन्यास में भाई-बहन (पारो देवदास को देव दा कहकर संबोधित करती है) अथवा सखा भाव रखने वाले पारो-देवदास का प्रेम बढ़ती उम्र के साथ-साथ कांता-सम्मत प्रेम में बदल गया । प्रारंभ में कांता-सम्मत प्रेम सिर्फ पारो के हृदय में उत्पन्न होता है न कि देवदास के हृदय में । यह स्वाभाविक भी था क्योंकि बचपन से वह जिस एकमात्र सखा को बचाने के लिए अपने गुरू यानी मास्टर मोशाई गोविन्द पण्डित को दोषी ठहरा देती है और उन्हें नौकरी से निकलवा देती है उसके लिए मन से मन का मिलन कोई आश्चर्यजनक बात नहीं । किंतु देवदास अपनी ही अंतश्चेतना से अंजान पारो के लिए सिर्फ सखा भाव ही रख पाया । पारो का निर्भिकतापूर्वक आधी रात में दुनियादारी का खयाल रखे बिना विवाह प्रस्ताव लेकर देवदास के कमरे में मिलने जाना, उसके हृदय में पहली बार प्रेम का एहसास जगाता है, किंतु आत्मस्वीकार्य नहीं । उस समय पारो की निर्भिकता और हठ देवदास को ग्लानि से भर देता है और आत्मग्लानि में डूबे देवदास की ग्लानि तब और बढ़ जाती है जब वह पारो को माँ-बाप द्वारा चयनित वर से विवाह के लिए पत्र लिखता है । पत्र प्रेषित करने के बाद उसे पारो से प्रेम की तीव्रता और उसके आहत भावनाओं का खयाल ही उसे पारो के विवाह के दिन वापस लौटा ले आते हैं, लेकिन सामाजिक मान-मर्यादा का खयाल और पारो का स्वाभिमानी हठ उसे उससे बहुत दूर ले जाता है और वह उसकी पालकी उठाये ससुराल के लिए उसे विदा कर देता है ।
वास्तव में पारो से विछोह के पश्चात् ही देवदास के हृदय में प्रेम उत्पन्न होता है अथवा कह सकते हैं कि देवदास के चंचल मन के हठ ने पारो के बिछड़ने के बाद तथा प्रेमालम्बन के खालीपन के एहसास के कारण उसके प्रेम को स्वीकृति दे सका । उसे हृदय से निकालने की खातीर और वियोग से मुक्ति के लिए वह मद्य और चंद्रमुखी का सहारा लेता है । अंततः चंद्रमुखी के समर्पण के आगे नतमस्तक तो हो जाता है लेकिन अपनी प्रेमिका की प्रेमाग्नि को मरते दम तक बुझा नहीं पाता । इसीलिए वचन के बहाने ही सही, अपनी खोयी हुई प्रेमिका को एक बार देख लेने की लालसा उसके दरवाजे पर पहुँच कर दम तोड़ देती है ।
हिन्दी में देवदास पर दो फिल्में बनी हैं । सन् 1955 में पहली फिल्म विमल राय के निर्देशन में बनी, जिसमें नायक दिलीप कुमार देवदास की भूमिका में, सुचित्रा सेन पारो की तथा बैजन्ती माला चन्द्रमुखी की भूमिका में थे । देवदास उपन्यास के कुछेक नकारात्मक अंश को हटाकर इस फिल्म को लगभग उपन्यास का हू-ब-हू बनाने का प्रयास किया गया है, जैसे कि बचपन में पारो का मास्टर मोशाई पर पीटने का आरोप, जलदबाला द्वारा अपनी सास पारो पर संपत्ति बरबाद करने का आरोप, उपन्यास का आखिरी अनुपयोगी अंश (देवदास के मृत्यु के बाद बेहोशी की हालत में पारो को हवेली में ले आया जाना और होश आने पर पारो का अपनी नौकरानी से देवदास के विषय में पूछना) को हटा दिया गया है । इसके साथ ही फिल्म में पारो और चंद्रमुखी के अंजाने हमसफर की तरह नज़रों का मिलना... अंश को जोड़ दिया गया है जबकि उपन्यास में चन्द्रमुखी और पारो की मुलाकात कभी नहीं हुई है । समय को ध्यान में रखते हुए उपन्यास के संवादों को फिल्म में संक्षिप्त करने का प्रयास किया गया है ।
सन् 2002 में संजय लीला भंसाली के निर्देशन में बनी फिल्म देवदास में शाहरूख ख़ान देवदास, ऐश्वर्या राय पारो तथा माधुरी दीक्षित चन्द्रमुखी की भूमिका के दिखायी देते हैं । इस फिल्म में विमल राय के फिल्म की अपेक्षा देवदास की पुनर्सर्जना की कोशिश की गयी है ।  फिल्मी ग्लैमर को ध्यान में रखते हुए भंसाली ने उपन्यास के कुछेक अंशों एवं संवादों को फिल्म का आधार बनाया है । यह भी कहा जा सकता है कि सांकेतिक रूप से उपन्यास देवदास की नकल है । उपन्यास की कहानी को तोड़-मरोड़ कर भंसाली ने देवदास और पारो के प्रेम को एक अलग ही संजीदगी प्रदान की है । डॉयलॉग में और अधिक इमोशन लाने के लिए उन्होंने पात्रों के संवादों में हेर-फेर भी कर दिया है । उदाहरण के लिए उपन्यास में पारो के पिता नीलकंठ चक्रवर्ती ने यह प्रण लिया था कि वे मुकर्जी से बड़े खानदान में पारो का विवाह करेंगे जबकि फिल्म में पारो की माँ प्रण लेती है, उपन्यास में देवदास कलकत्ता पढ़ने जाता है जबकि फिल्म में लन्दन, उपन्यास में देवदास छात्र-जीवन व्यतीत करता है लेकिन फिल्म में वह वकील बनकर लौटता है । दुग्गा (ओह गॉड) फिल्म का बेहद प्रसिद्ध बंगाली डॉयलॉग है जबकि उपन्यास में ऐसा नहीं है । उपन्यास का उदात्त प्रेम भंसाली के देवदास में मांसल हो उठा है । उपन्यास की रचना अपने समयानुसार एक लड़की के मान-मर्यादा को ध्यान में रखते हुए की गयी है लेकिन भंसाली ने आधुनिक समय में संस्कारों और परंपराओं की जकड़बंदी में प्रेम को दर्शाया है । उपन्यास में प्रतीक्षा करते समय वह स्वयं तिल-तिल कर जलती है और फिल्म में 87600 घंटे दीया जलाकर ।  
फिल्म में पारो के विवाह के पूर्व ही देवदास और पारो एक-दूसरे के प्रेम के सूत्र में बंध चुके हैं जबकि उपन्यास में पारो के विवाह के पश्चात् भावनात्मक खालीपन के स्मृत्तिबोध के कारण देवदास के हृदय में प्रेम उत्पन्न होता है । फिल्म में पारो के पिता चक्रवर्ती तथा माँ कन्या के बदले मूल्य लेने वाले खानदान की नाचने गाने वाली औरत थी जबकि उपन्यास में सिर्फ पारो का खानदान कन्या के बदले रूपये-पैसे लेने वाला कुल और मुकर्जी खानदान का पड़ोसी होता है । उपन्यास में चक्रवर्ती और मुकर्जी खानदान का अपना अपना ईज़्जत और स्टेटस होता है लेकिन फिल्म में स्टेटस में अंतर के साथ-साथ नाचने गाने वाला खानदान बनाकर और भी अपमानजनक बना दिया गया है ।
फिल्म में चन्द्रमुखी और पारो के बीच ईर्ष्या भाव, मुलाकात, संवाद, दोस्ती, कृतज्ञता आदि का संबंध दिखाया जाता है जबकि उपन्यास में ऐसा कभी नहीं हुआ है, पर हाँ, देवदास के दिमाग में पारो और चन्द्रमुखी की तुलना लगातार चलती रहती है । उपन्यास में चन्द्रमुखी धंधा छोड़कर साध्वी और समाज-सेविका का रूप धारण कर लेती है और देवदास की सेविका बन आत्मतृप्ति का अनुभव करती है जबकि फिल्म में चन्द्रमुखी देवदास की सेविका होती है और अपना धंधा छोड़कर साधारण स्त्री के रूप में जीवन व्यतीत करने लगती है ।
उपन्यास की पारो बचपन से ही समझदार लड़की है और विवाह होते ही वह रातोंरात आदर्शवादी परिपक्व महिला बन घर-गृहस्थी का खयाल रखते हुए पतिव्रता नारी भी बन जाती है । उसके पति भूवन चौधरी ने उसे पत्नी का दर्जा देने के साथ-साथ धन-दौलत सब पर अधिकार दे रखा होता है लेकिन पारो स्वयं स्वीकार करती है कि उसके तन पर उसके पति का हक़ है और मन पर सिर्फ और सिर्फ देवदास का । वह साध्वी की भांति अपना धन-दौलत समाज की सेवा में लगा देती है और बहू जलदबाला के उलाहने के बाद वह अपने-आपको धन-दौलत से खुद को विलगा कर खुद में सिमट जाती है । वह पतिव्रता नायिका के कटघरे पूर्णतः खरे उतरती है । जबकि फिल्म में पारो के द्वारा घर-गृहस्थी का पूरा खयाल रखते हुए भी वह पत्नी का स्थान कभी नहीं पा सकी और समय आने पर अपने पति के विचारों का प्रतिरोध करती हुई दृष्टिगत होती है । फिल्म में पारो के दामाद काली बाबू की बूरी नज़र उस पर होती है और वह बदले की भावना से भरा होता है जबकि उपन्यास में यह संदर्भ कहीं नहीं है । उपन्यास के आखिरी अंश में उसके दरवाजे पर देवदास की मृत्यु की ख़बर से बेख़बर वह अपने मन में अन्जाने रूप से बेचैन होती है । जब देवदास के अधजले शव को चील कौऔं को खाने के लिए भगाड़’ में फेंक दिया जाता है तब उसे देवदास के मृत्यु की खबर पहले उसकी नौकरानी और उसके बाद महेन्द्र से मिलती है । सुनते ही वह बेतहाशा दरवाजे की ओर भागती है जो कि स्वाभाविक भी है । उसे बेतहाशा भागने से रोकने के लिए स्वाभाविक रूप से ही उसके पति भूवन चौधरी अपने बेटे महेन्द्र से रोकने के लिए कहते हैं । उन्हें और उनके परिवार को देवदास और पार्वती के प्रेम के विषय में पता भी नहीं होता । जबकि फिल्म में देवदास और पारो के प्रेम के विषय में उसके पति को सबकुछ पहले से पता होता है । इसलिए वह सुनियोजित ढ़ंग से और ईर्ष्यावश अपनी मर्यादा को बचाने के लिए पारो को हवेली से बाहर जाने से रोक लेता है ।
उपन्यास और फिल्म दोनों में ही पारो परंपरागत संस्कारी लड़की होते हुए भी लीक से हटकर देवदास पर अपना पूर्णतः अधिकार समझती है । मान-मर्यादा को ताक पर रखते हुए प्रेम में सूध-बुध खो कर अपने पति के रूप में देवदास का नाम लेना, विवाह से पहले और बाद में भी आधी रात को देवदास से मिलने उसके घर चले जाना, देवदास को लिवा जाने के लिए अपने ससुराल से पालकी लेकर आना आदि उसके स्वाभिमान, हठी और प्रेम में पगी रूप दर्शाया गया है ।
चूंकि पारो उत्तरकथा है इसलिए उपन्यास से पाठकों की जिज्ञासा और अपेक्षा अधिक है कि पारो के प्रेम के विषय में सबको पता चलने के बाद आखिर उसका जीवन कैसे गुजरा होगा ? लेखिका सुदर्शन प्रियदर्शिनी ने भंसाली की फिल्म को आधार बनाया है न कि उपन्यास को । भंसाली की फिल्म को आधार बनाते हुए भी पूर्ववर्ती सभी देवदास के पात्रों नाम और उनके चरित्र में बदलाव दिखायी देता है साथ ही परिवेशगत आधुनिकता पुट भी दृष्टिगत होता है । पात्रों के नाम इस प्रकार हैं -

पात्र
उपन्यास देवदास
भंसाली निर्देशित फिल्म देवदास
उपन्यास पारो-उत्तरकथा
पारो का पिता
नीलकंठ चक्रवर्ती
नीलकंठ चक्रवर्ती
किशोरी लाल
पारो की माँ
-
सुमित्रा
-
देवदास के पिता
नारायण मुकर्जी
नारायण मुकर्जी
भुवनशोम
देवदास की माँ
देवदास की माँ
कौशल्या
रानी साहिबा
पारो का पति
भुवन चौधरी
भुवन चौधरी
वीरेन अर्थात् राय साहब
वीरेन की माँ
कोई पात्र नहीं
-
लीलामयी
वीरेन की पहली पत्नी
-
शुभद्रा
राधा
वीरेन की बहन
कोई पात्र नहीं
-
शोभना
वीरेन की सौतेली बेटी
यशोदा
यशोमती
कंचन
पारो का दामाद
-
काली बाबू
प्रमोद
पारो का सौतेला बेटा
महेन्द्र
महेन्द्र
महेन
पारो की सौतेली बहू
जलदबाला (पत्नी)
-
दिव्या (प्रेमिका)

देवदास उपन्यास में पारो के ससुराल का नाम हाथीपोता है लेकिन फिल्म देवदास एवं पारो-उत्तरकथा उपन्यास में मणिकपुर है । उपन्यास और भंसाली की फिल्म देवदास में भुवन चौधरी के तीन बच्चे होते हैं जबकि पारो-उत्तरकथा में दो । उपन्यास देवदास में भुवन चौधरी का अपने बच्चों और दूर की बुआ के अलावा अपना कोई परिवार नहीं, फिल्म देवदास में माँ भी है लेकिन उपन्यास पारो-उत्तरकथा में रिश्तों की लम्बी कतार है और एक भरा-पुरा परिवार भी है । उपन्यास देवदास में भुवन ने अपने बच्चों के विषय में बिना बताये विवाह किया है अथवा बताकर, यह अज्ञात है, लेकिन पारो-उत्तरकथा में रायसाहब अपने बच्चों के विषय में बिना बताये विवाह करता है । देवदास उपन्यास में भुवन चौधरी एक संजीदा इंसान है, वह पारो की भावनाओं को महत्त्व देता है और अपना सर्वस्व पारो को सौंप देता है जबकि फिल्म देवदास का भुवन और उपन्यास पारो-उत्तरकथा का रायसाहब एक क्रूर जमींदार और स्वार्थी पति है, उसने पारो को पत्नी का दर्जा ही नहीं दिया । उपन्यास देवदास में पारो पर कोई प्रतिबंध नहीं है जबकि भंसाली की फिल्म देवदास और पारो-उत्तरकथा में पारो पर हवेली के प्रतिबंध निर्धारित हैं ।
पारो-उत्तरकथा में पारो का चरित्र देवदास उपन्यास और फिल्म का ही आगे का स्वरूप है जबकि अन्य पात्रों के चरित्र में परिवर्तन है । पात्रों और उनके चरित्र में अंतर होने से कहानी की संवेदना में अंतर होना स्वाभाविक है । देखा जाय तो आधुनिकता के लिबास में परंपराओं का निर्वाहन करती पारो के चरित्र में बहुत अधिक अंतर दिखायी नहीं देता । पारो शरतचन्द्र और संजय लीला भंसाली की वही निर्भिक, साहसी, हठी और स्वाभिमानिनी स्त्री है जो अपने ही दरवाजे पर देवदास को तड़प कर मरते समय उससे आखिरी बार न मिल पाने की आत्मग्लानि से इतनी अधिक पीड़ित है कि अब देवदास उसके भीतर समा गया है । मरने के बाद देवदास की अतृप्त आत्मा पारो के संसर्ग में तृप्ति की तलाश करता है और कहीं न कहीं उसे लगता है कि पारो का प्रेम उसकी आत्मा को मुक्त नहीं होने देगी अथवा उसका स्वयं का प्रेम पारो को घर-गृहस्थी के कर्तव्यों से विमुख किए हुए है, इसीलिए मुक्ति की चाह में उसे उसके पति के संसर्ग में लौट जाने के लिए सलाह देता है । मनोवैज्ञानिक शब्दों में कहें तो देवदास की मृत्यु के पश्चात् पारो व्यामोह नामक मानसिक रोग से ग्रसित हो चुकी है । यह एक प्रकार का पागलपन है, भव्यता, उत्पीड़न, व्यवस्थित भ्रम, अपने स्वयं के निर्णयों का पुनर्मूल्यांकन, सट्टा प्रणाली का निर्माण, साथ ही साथ व्याख्यात्मक गतिविधि, संघर्ष और संघर्ष की विशेषता है
शास्त्रीय अर्थों में, व्यामोह परिस्थितियों के यादृच्छिक संयोगों में देखने की प्रवृत्ति को संदर्भित करता है, जो कि शत्रुओं की दुर्भावनाओं, अस्वास्थ्यकर संदेह, और स्वयं के खिलाफ जटिल साजिशों का निर्माण करते हैं । यह शब्द पहली बार 1863 में कार्ल लुडविग कैलबॉम द्वारा पेश किया गया था। लंबे समय तक, इस बीमारी को शास्त्रीय मनोचिकित्सा के लिए जिम्मेदार ठहराया गया था और इसे एक स्वतंत्र मानसिक विकार माना जाता था
व्यामोह वैसे तो नकारात्मक माना जाता है लेकिन 1911 ई. में युजेन ब्लेयुलर ने व्यामोह और सिज़ोफ्रेनिया में एकता का सुझाव दिया । जिसमें आत्मकेन्द्रित, मतिभ्रम और व्यक्तित्व टूटन के लक्षण पाये जाते हैं । वैसे इस बीमारी का कारण अपमान बताया जाता है । इसके निर्माण में वास्तविक तथ्यों की गलत व्याख्या की भूमिका होती है । ऐसे मरीज लम्बे समय तक गैर-मौजूद आवाज़ को सुनते हैं, वह अकेले में बुदबुदाते और मुस्कराते हैं । जिससे उनके हावभाव और व्यवहार में अंतर आता है ।  वे प्रायः स्पर्श, दृश्य और मतिभ्रम से ग्रस्त होते हैं ।
मरीज के साथ विभ्रम की स्थिति भी हो सकती है जिसके अंतर्गत गैर-मौजूद आवाज रोगी के विचारों या गतिविधियों पर टिप्पणी करता है और रोगी उसके साथ वार्तालाप भी करता है । ऐसी स्थिति में रोगी पर सकारात्मक और नकारात्मक दोनों प्रकार से प्रभाव पड़ सकते हैं । सोच संबंधी विकार और श्रवण संबंधी विभ्रम रोगी को सकारात्मक स्थिति में ले जा सकते हैं ।
पारो देवदास से बात करती है अपने प्रेम का प्रामाणिक स्वभाव जानती है और देवदास के न होते हुए भी उसे हर जगह देखती है, बतियाती है, उसे स्पर्श कर सकती है, सुन सकती है । वह जिस रास्ते पर उसे प्रेरित करता है वह वही करती है । व्यामोह सिज़ोफ्रेनिया के कारण वह अपना स्थान परिवार में तो चाहती है, लेकिन रायसाहब के साथ प्रेमी के प्रेम की परिणति के रूप में नहीं चाहती । किंतु वह कभी किसी भी कारण से ईर्ष्याग्रस्त नहीं दिखायी देती जबकि व्यामोह में अनदेखा ईर्ष्या कायम रहता है । इस संदर्भ में मनोविज्ञान के विशेषज्ञ डॉ. ए.पी. सिंह बातचीत के दौरान बताते हैं कि यह आवश्यक नहीं कि व्यामोह हमेशा नकारात्मक हो । जिस रिश्ते या आलम्बन के कारण व्यामोह की उत्त्पत्ति हुई है वैसे में अगर रोगी का आलम्बन सकारात्मक रहा हो, तो वह सकारात्मक सोच प्रकट करेगा । कहा जा सकता है कि यह व्यामोह आत्मग्लानि या अपराध बोध के कारण उत्पन्न हुआ है ।

व्यामोह के कई प्रकार होते हैं – शराब व्यामोह, संघर्ष का व्यामोह, इच्छा का व्यामोह, इंवोल्यूशनरी व्यामोह, हाइपोकॉन्ड्रियल व्यामोह, तीव्र व्यामोह, तीव्र वीस्तारवादी व्यामोह, व्यामोह उत्पीड़न, व्यामोह संवेदनशील, अंतरात्मा का व्यामोह, जीर्ण व्यामोह आदि ।  
पारो अंतरात्मा के व्यामोह तथा इच्छा के व्यामोह से ग्रसित है अंतरात्मा के व्यामोह में रोगी को आत्मग्लानि या स्वयं के अपराधबोध का भ्रम होता है तथा उदासीनता अवसाद इसकी प्रमुख विशेषता है । पारो कहती है, मेरे द्वार पर आकर तुम मुझे कलंकित कर गए । कम से कम मेरी दृष्टि में
-          प्रियदर्शिनी, सुदर्शन. पारो उत्तरकथा. पृ. 39.
देवदास को मरते समय न देख पाना, न सुन पाना उसकी चेतना से लिप्त हो गया । लेकिन वह देवदास से प्राप्त अपमानबोध को भूल नहीं पा रही थी, जिसके सामने रायसाहब का दिया हुआ अपमान, प्रताड़ना गौण लगता है । उसे याद है कि वह आधी रात में अपनी और अपने परिवार की मर्यादा और ईज्जत को ताक पर रखकर किस प्रकार देवदास के कमरे में पहुँच गयी थी । देवदास चाहता तो अपने और पारो के माँ बाप से लड़ झगड़कर उसे अपना लेता लेकिन उसने पलायन को चुना । यह पारो के प्रेम और स्वाभिमान का अनादर था और प्रेम स्वाभिमान से ऊपर नहीं हो सकता ।    
इच्छा के व्यामोह में रोगी दया के भ्रम के साथ-साथ कामुक ओवरटोन को प्यार करता है । पारो के लिए देवदास वह सत्य है जिसे जीते-जी तो न पा सकी लेकिन मरने के बाद उसकी जीजिविषा का हेतु बन गया है । वह देवदास के प्यार में विरह को स्वीकारते हुए कहती है, देव - मैं इतना जानती हूँ कि प्यार का वास्तविक अर्थ विरह है, मिलन नहीं है । समाज की उपेक्षा और प्रताड़ना है
-          प्रियदर्शिनी, सुदर्शन. पारो उत्तरकथा. पारो, 48
वह जानती है कि प्रेम की प्रताड़ना अपने अपने कर्मों और नियति के अनुसार प्रेमी को भोगना पड़ता है और वह उसी में जीवन का सुख समझने लगती है । लेकिन देवदास उसे इस सुखद दुख से बाहर ले आने के लिए लगातार प्रयास करता है । देवदास अब पारो को उसके गृहस्थ जीवन में प्रवेश करवाने के बाद अपनी मुक्ति चाहता है अथवा यह भी कह सकते हैं कि कहीं न कहीं पारो के मन में यह बात घर कर गयी है कि वह इसे बिना देखे इस दुनियाँ से चला गया पर उसकी आत्मा अभी भी भटक रही है । जिसकी मुक्ति तभी संभव है जब वह इसके खुशी एवं सुखमय जीवन से आश्वस्त हो जाये । देवदास उससे कहता है, तुम जिस दिन मुझे त्राण दे दोगी – मैं शाश्वत हो जाऊँगा । मेरा आवागमन का चक्कर समाप्त  जाएगा । तुम्हें अपने जीवन में आत्मसात होते देखना चाहता हूँ । रायसाहब को स्वीकार करते देखना चाहता हूँ...
-          प्रियदर्शिनी, सुदर्शन. पारो उत्तरकथा. पृ.205
देवदास की बात मानना पारो के लिए आसान न था, यदि देवदास नकारात्मकता की ओर प्रेरित करता तो पारो वह भी कर जाती लेकिन यहाँ देवदास पारो को सकारात्मकता की ओर प्रेरित करता है । आत्मावादी, नियतिवादी, प्रेम, विरह, नैतिकता, कर्तव्यबोध आदि को समझते समझाते हुए अपने दोनों मन के संवाद में पारो का दिमाग विजयी हो जाता है । पारो पर व्यामोह का परिणाम सकारात्मक पड़ता है । यह परिणाम अमेरिकी गणितज्ञ जॉन नैश (जिसकी जीवनी पर सन् 2001 में अ ब्युटीफुल माइंडफिल्म बनी है) की भाँति तो नहीं कहा जा सकता लेकिन सकारात्मक प्रभाव इस प्रकार पड़ता है कि वह सारी द्विविधाओं को दरकिनार करते हुए रायसाहब को अपनाने का फैसला कर उसके कमरे की ओर बढ़ जाती है ।
इस उपन्यास में लेखिका ने स्त्री को सशक्त रूप में दर्शाने का प्रयास किया है । समस्त स्त्री पात्रों में लीलामयी अर्थात् रायसाहब की माँ एक सशक्त नारी हैं । अपने अनुभवों, संघर्षों से सीख लेकर और स्त्री होने के नाते स्त्री की पीड़ा को समझती हैं । इसीलिए वह पारो की मानसिक स्थिति को समझते हुए अपने पुत्र वीरेन उर्फ रायसाहब के फैसलों का विरोध कर बैठती हैं । इसी तरह से उन्होंने अपने पति के मृत्यु के पश्चात् बड़े हिम्मत के साथ हवेली की अंदर से पिघलती और बाहर से पत्थर की बनी दीवारों को थामे खड़ी रहीं । क्योंकि उन्हें पता है कि विधवा होने के बाद उन्होंने धीरे धीरे अपने परिवार को खो दिया और वीरेन खुद गुमराह हो गया । गुमराह सदस्यों को राह दिखाने का सुअवसर अब वे नहीं खोना चाहतीं ।
गुमराह वीरेन किशोरावस्था में अपने पिता को खोने के बाद और माँ के सदमें में रहते समय उसकी कोठी में पेइंग गेस्ट बनकर रहने वाली 10 साल की बड़ी राधा से प्रेम करने लगा । राधा के द्वारा विवाह से मना करने पर उसने अपने आपको हानि पहुँचा लिया । जिसे बचाने के लिए राधा विवश होकर विवाह के लिए हाँ कर देती है । लेकिन विवाहोपरांत वीरेन उसके प्रति ओवर पौज्सेसिव हो जाता है । जिस कारण वह धीरे धीरे उसे सबसे अलग कर देता है, वह चाहता है कि उसके अलावा और कोई उसके आस-पास न रहे, यहाँ तक कि उसकी बेटी भी नहीं । ओवर पौज्सेसिव रिश्ते में शक, सवाल, बुरे खयाल, भविष्य में पार्टनर को खोने का डर हमेशा सताता रहता है । ऐसे में वह भूल जाता है कि उसका पार्टनर भी यही चाहता है कि नहीं ? बल्कि वह अपने आपको धीरे धीरे उस पर थोपने लग जाता है और इमोशनल एब्यूसिव पुरूष का रूप धारण कर लेता है । इस संदर्भ में लेखक इवान्स कहते हैं, यह एक तरह का पैटर्न है जो कि ज्यादातर इमोशनली एब्यूसिव पुरूष इस्तेमाल करते हैं । एक इमोशनल एब्यूसिव पुरूष आपके टाइम, स्पेस, भावनाओं, दोस्तों और आर्थिक स्थिति को नियंत्रित करने का कोशिश करता है
-          राजस्थान पत्रिका. बुद्धवार, 21 मार्च, 2007. पृ. 5. (परिवार, तार-तार हुई भावनाएँ – रचना पाराशर)
 वीरेन के ओवर पौज्सेसिवनेस से तंग आकर राधा आत्महत्या कर लेती है । आत्महत्या के फलस्वरूप वीरेन सदमे से उबर नहीं पाता और शांत कठोर बन जाता है । पारो से विवाह के पश्चात् जब उसे पारो देवदास के रिश्ते के विषय में ज्ञात होता है तब उस पर पुरूष अहंमन्यता हावी हो जाता है और पारो को प्रताड़ित करने लगता है । यह जानते हुए भी कि पारो को उसने पत्नी का अधिकार नहीं दिया है फिर भी उसे पत्नी का किसी और से प्रेम स्वीकार नहीं होता । लेकिन जैसे जैसे वह पारो के सरल और कर्तव्यनिष्ठ व्यक्तित्व से परिचित होता जाता है वैसे वैसे उसके व्यवहार में परिवर्तन आने लगता है और अपने बच्चों के प्रति स्वयं सहज हो जाता है । कर्तव्य की भावना जागृत हो जाती है और पारो से प्रेम भी ।  
लेखिका ने इस उपन्यास की समाप्ति में पारो का रूप भारतीय परंपरागत संस्कारों का निर्वाहन करती स्त्री के रूप में दिखाया है, जो कि शरतचन्द्र की नायिका पारो से बिल्कुल भी भिन्न प्रतीत नहीं होता । जबकि वे स्वयं स्त्री के संदर्भ में शरतचन्द्र के युग को कायर मानती हैं । वे लिखती हैं, स्वयं शरतचन्द्र नारी पर दया करते रहे – उस की सेवा सुश्रूवा भी करते और करवाते रहे किन्तु कभी बाहर निकल कर समाज के सामने ‘नीरू’ दीदी को न तो कन्धा दे पाए और न उस की बोटी-बोटी चील कौवों से नुचवाने से बचा सकें । यह शरतचन्द्र की कायरता नहीं, पूरे युग की कायरता है
-          प्रियदर्शिनी, सुदर्शन. पारो उत्तरकथा. पृ. 21.
 लेखिका अपने उपन्यास की समाप्ति पर कहती हैं कि परिवार को बनाने में स्त्री का सबसे बड़ा हाथ होता है, वह चाहे तो एक सींक से भी परिवार की दीवार को ढाह कर सकती है । अर्थात् विवाहेत्तर प्रेम की चर्मोत्कर्षता होते हुए भी पारिवारिक संस्था को बचाये रखना स्त्री की जिम्मेदारी है और पारो उस जिम्मेदारी को निबाहने में सफल होती है । वह धीरे-धीरे करके पूरे परिवार को समेटकर एक करती है । इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि देवदास इस दुनियाँ में अब नहीं है, यदि जीते-जी पारो से मिल पाता तो शायद उसकी स्थिति कुछ और होती ! क्योंकि देवदास उपन्यास में विवाहोपरांत जब पारो को देवदास के शराब में लिप्त होने की सूचना मिलती है तब वह खुद पालकी लेकर उसे अपने ससुराल लिवा ले आने हेतु चल पड़ी थी । अथवा एक कारण यह भी हो सकता है कि भारतीय परंपरा में लड़की पर एकनिष्ठता के संस्कार का दबाव होता है, वह प्रेमी के लिए हर रोज तिल तिल कर कितनाहूँ मरे लेकिन अंततः अपने पति का ही चयन करती है ।  
दूसरी बात संभव है कि पारो का रायसाहब को अपनाना उसकी दैहिक माँग भी हो सकती है, जो उसके उदात्त प्रेम पर हावी हो जाता है । इस बात का संकेत दो बार लेखिका ने उपन्यास में दिया है, पहला कंचन के ससुराल जाते समय जब रायसाहब ने पारो का हाथ थाम कर उसे ट्रेन में बैठाया तब उसके अंदर स्पर्श की सुगबुगाहट हुई और दूसरी बार जब कंचन के घर वापसी के पश्चात् पारो रायसाहब को सांत्वना दे रही होती है तब रायसाहब उसका हाथ पकड़ लेते हैं उस समय उसके अंदर बिजली-सी दौड़ जाती है । अर्थात् शरीर की तंत्रियाँ झंकृत हो जाती हैं लेकिन देवदास से बेवफाई के डर से वह मन ही मन प्रार्थना करने लगती है कि वह उसे इस अंतर्द्वन्द से उबार ले । क्योंकि देवदास के स्पर्श के अतिरिक्त उसे और किसी का स्पर्श स्वीकार्य नहीं । सच तो यह है स्वीकार्य होने या न होने से परे देह की माँग और उसकी भाषा मन की भाषा से अलग हो सकती है ।
पात्रों का नाम बदलना और उनकी संख्या जो देवदास उपन्यास और फिल्म से भिन्न दर्शाता है, महेन्द्र का विवाह होते हुए भी इस उपन्यास में अविवाहित दिखा कर अप्राप्य प्रेम की पीड़ा दिखाना आदि शरतचन्द के उपन्यास देवदास की अपठनीयता को दर्शाता है और परिवेश अलग कर देने से संजय लीला भंसाली के फिल्म से अलगाव उत्पन्न करता है । अतः पारो-उत्तरकथा एक स्वतंत्र उपन्यास की भाँति ही है । किंतु पारो के प्रेम को एक उच्चता प्रदान कर उसके उदात्त प्रेम की पराकाष्ठा को रायसाहब के चौखट पर ले आकर स्त्री-सशक्तीकरण और उदात्त प्रेम की परिणति में प्रश्नवाचक गिरावट पाठकों को खटक सकती है ।
फिर भी एक स्वतंत्र उपन्यास (जो कि उत्तरकथा के रूप स्वतंत्र नहीं कहा जा सकता, जबकि प्रत्येक उपन्यास अथवा कथा अपने आप में स्वतंत्र ही होती है) के रूप में एक मानव (पारो) के सहज मन के रूप में राय साहब को अपनाना देह की माँग, भारतीय परंपरागत स्त्री की विवशता अथवा संस्कारों का दबाव, और व्यामोह सिज़ोफ्रेनिया रोग से मुक्ति का मार्ग ही है जो उसे रायसाहब के चौखट तक पहुँचा देता है और एक नए जीवन में पदार्पण का अवसर प्रदान करता है ।  

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                                                    - रेनू यादव