गुरुवार, 24 जून 2010

Jindagi Ka Sach

           ज़िन्दगी का  सच
भावों के भंवरजाल में फंसते चले गए,
अपने ही जज्बात में उलझते चले गए.

अंधेरों में उजाले का राज जानना चाहा
इंसान की इंसानियत को पहचानना चाहा,
अँधेरे में दीपक को हम खोते चले गए
और रोशनी के दाग को झेलते चले गए.

नगरों का खिला चेहरा हमने देखना चाहा
सुख-प्यार के कारवां में हमने बहना चाहा,
आंसुओं से घाव को  हम धोते चले गए
ग़मों के दरिया में बहते चले गए.

समय का चक्र अपनी धुन में घूमता रहा
रिश्तों को अपनी पाट में पीसता रहा,
हम वक़्त के थपेड़ों को सहते चले गए
काल को नियति मान जीते चले गए.

सपनों को रंगी जाल इंसा बुनता रहा
इक आस लिए जिंदगी भर डोलता रहा,
चंद ठोकरों से सपने यूं टूटते चले गए
हम अपने बिने जाल में फंसते चले गए.

भावों के भंवरजाल में फंसते चले गए,
अपने ही जज्बात में उलझते चले गए.
 

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