रविवार, 20 जून 2010

Bhukh

           भूख
एक बुढ़ा, बेबस, लाचार
हाथ फैलाए घूमता रहा
बाट, घर, बाज़ार,
मागने जाता आस लिए
लौटता निराशा हाथ लिए,
वह सांस ले रहा था
इसी बात का
उसे दुःख था
मुंह का लार
      गम बन चुका था
एक-एक घूंट
पानी डालकर सींचता था,
खानाबदोशों को देखता
होटलों में खाते हुए,
एक-टूक निहारता, आह!
ये भूख बड़ी कष्ट देती है.

चल पडा कूड़ेदान की तरफ
जैसे बढे भक्त भगवान की तरफ
वहां लगी थी बाराह की भीड़
सब एक-दुसरे से झपट रहे थे,
उनमे भी वह अकेला वहां बैठा
पड़ी थीं ढेर साड़ी प्लास्टिक की थैलियाँ
मन में एक आशा जगी
कुछ पाने की चाह जगी
थैलियों को जल्दी-जल्दी
        खोलना शुरू किया
कुछेक थैलियों में
दो-एक दाने मिलें
        जैसे कंचन-थाल मिला
उन दानों को हाथ में उठाया
आँखों में पानी, दिल में उच्छ्वास
फिर भी मुस्कराया
        उन दानों को मुंह में डाल
        शान्ति का अनुभव किया
परन्तु दो-एक दानों से भूख
       मिटी नहीं, और भी भड़क उठी
वह प्लास्टिक की थैलियों को
चाटना शुरू किया
उसमे अब दाना नहीं
सब्जियों का रस लगा हुआ था.

उसी वक्ता वहां से गुजरीं दो माताएं
देखकर एक बोली-
          जैसा कर्म वैसा फल
दूसरी ने कहा-
          अपना-अपना नसीब है
दो भाई साहब गुजरें, हंसते हुए
बोल पड़े- बेचारा, पागल है, वरना
यहाँ सूअरों के साथ जूठा खाता.

मैं पूछती हूँ भाइयों, दोस्तों
इसमे किसका दोष है,
क्या ये किस्मत का करामात है.
या उसके बच्चों का, जिसने
भीख माँगने के लिए मजबूर कर दिया,
या उन भिखारियों का, जो
भीख मांगकर अपने दलाल मालिकों का
                   घर भरते हैं,
या इस प्रशासन का, जो
हर दिन
"भुखमरी और गरीबी मिटाओ"
का नारा लगाती है, तथा
दुसरे ही क्षण भूल जाती है,
या  उन दलालों का, जो
प्रशासन से
       पैसे लेते हैं, और
गरीबों, भिखारियों तक
       पहुचाने से पहले ही
       अपना ही पेट भर लेते हैं.

कल तक जो भिखारी था
वो, अब पागलों में
        गिना जाने लगा
भिखारी ही भिखारी को इतना
बदनाम कर दिया कि
भीख देने से भी जनता डरती है,
प्रशासन और दलालों की
       बात ही छोडो, वादे
आज-कल निभाता ही कौन है?
अपने जुबान का
        पक्का कौन है?

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