मैंने
स्वयं को धारण किया
फरवरी 2016 से अक्टूबर 2016
तक का सफर गिरते पड़ते लड़खड़ाते विभाग में पहुँचना अथवा छात्रावास में, अपनी
जिम्मेदारियों को पूरा करना और फिर घर पहुँचते ही बिस्तर पर अचेत पड़ जाना ।
बिस्तर पर पड़े-पड़े रात दिन सोचते रहना कि क्या ऐसी होती है जिन्दगी ?
निराशा और उदासियों के बीच एक सुखद एहसास और आशा ... सृजन । सृजनात्मक क्षणों में
चिंतन मनन होना स्वाभाविक तो है ही । सृजन यूँ ही तो नहीं होता !
भावों के कहीं गहरी गुफा में खो जाने के बाद ही तो प्रकाश दिखाई देता है, जहाँ
दुःख और सुख दोनों साथ-साथ चलते हैं । बार-बार डॉक्टर बदलना, बार-बार पहले से अधिक
बीमार पड़ते जाना... (ओह क्षमा के साथ – इसे बीमारी नहीं कहते...) पर न जाने क्यों
बीमारी के सारे लक्षण एक साथ तन मन को कमज़ोर बनाते गए । शरीर से अधिक मन साथ छोड़
रहा था ... हो भी क्यों न.. ऐसी स्थिति में जब सारे सहृदयी साथ छोड़ जाए । कुछ ने
हमें छोड़ दिया और कुछ को हमने । किंतु इसी बीच कुछ ऐसे दोस्त (रितुपर्णा, बिपाशा,
प्रियंका) आयें जो मेरे सृजन को बचाने और निखारने में लगे रहें । हॉस्पीटल दर
हॉस्पीटल मेरे साथ (आभार के साथ बिपाशा शुरू से आखिरी तक मेरे साथ खड़ी रही) ।
कार्यस्थल पर सभी सीनियर्स
(एच.ओ.डी., डीन, चीफ वार्डेन) ने
कार्य में राहत प्रदान की । सबने मेरा दर्द समझा । डॉक्टर ने कहा समय से पहले सृजन
सम्पन्न होने की सम्भावना है इसलिए एहतियात बरतो । लगभग छः महिने शारीरिक मानसिक
आर्थिक खींचा-तानी के बीच आगे बढ़ पाना कितना मुश्किल रहा । किंतु 7वें-8वें महिने
प्रकृति ने राहत दे दी । शनैः शनैः सस्पर्श करता अस्तित्व मन को आह्लादित कर देता
। सारी तकलीफों के बावजूद मन दुखी जरूर हुआ परंतु टूटा नहीं । किंतु किसी अनहोनी
की आशंका से 8वें महिने के तीसरे सप्ताह में पुनः लगने लगा कि अब सफ़र तय करना
सम्भव नहीं । अकेले तो बिल्कुल नहीं । किसी के साथ की कामना अथवा जरूरत एक गहरी
निराशा को जन्म देता और निराशा 24 घंटे छलछलाता रहता । फिर भी एक हिम्मत रहती कि
सृजन करके हम किसी के ऊपर एहसान तो नहीं कर रहे !! यह
दिलासा ज्यादा समय तक काम नहीं आता और मन में एक सवाल जरूर दाग जाता कि क्या एक
फौजी की पत्नी होना गुनाह है ?
जिसे लौह-पुरूष की भाँति होना
चाहिए, जिसके जीवन में संवेदनाओं की कोई जगह नहीं होनी चाहिए, जो अपनी संवेदना
किसी के सामने व्यक्त नहीं कर सकती अथवा उसे व्यक्त करने इज़ाजत भी नहीं होती ।
कदाचित् फौजियों का दुश्मनों से लड़ना उसकी पत्नी से अधिक आसान है । परिवारजनों का
कभी कभी आना जाना राहत जरूर देता किंतु मन को स्थिरता नहीं (छोटे भाई प्रदीप से इस
क्षमा और आभार के साथ कि सिर्फ वही था जो समय समय पर उपस्थित हो जाता और एक माँ की
तरह खयाल रखता) ।
आखिरकार हिम्मत जवाब दे गई.. अब और नहीं
... । समय भारी या तकलीफ... और अचानक से
हॉस्पीटल... । 8 महिने पूरे भी नहीं हुए कि नवरात्री के तीसरे दिन 3 अक्टूबर को
आर्त्तनाद के साथ अंतर्नाद झंकृत हो उठा । सृजन का आखिरी हिस्सा पूरा करना असम्भव
हो गया और असम्भव में सम्भावनाओं के बीच मैंने स्वयं को धारण किया । मूर्तवत् रूप
में प्रस्तुत हुई – स्वधा ।
कल स्वधा 2 महिने की हो गई । कितना अनोखा
अनुभव है अपनी साँसों से दूसरे साँसों को, अपनी धड़कनों से दूसरे धड़कनों को, अपने
अस्तित्व से किसी और अस्तित्व को और अभिन्न से भिन्न को जन्म देना । जब भी सामने
देखती हूँ यकीन नहीं होता कि यह मेरे यज्ञ का फल है जिसे मैं वेद की ऋचाओं के साथ
नित-प्रति प्रतिफलित होते हुए देख रही हूँ । किंतु हर सुखद एहसास के साथ बेबी ब्लू
का समय अभी समाप्त नहीं हुआ । शायद उससे
ज्यादा एक माँ को इमोशनल सपोट की जरूरत है । अकेले जीना और सबसे कट जाना तथा अपने
आपको सुरक्षित रखते हुए जिन्दगी को एक नया मोड़ देने में एक औरत पीछे छूट गई और
बची है तो सिर्फ एक माँ । दिन प्रतिदिन मातृत्व का एहसास निखर रहा है । जिन्दगी
में साहित्य के अतिरिक्त कभी किसी का (माता-पिता, पति, दोस्त) सम्पूर्ण साथ नहीं
मिला परंतु यह सृजन कुछ वर्षों तक साथ (जब तक दुनियादारी की समझ न आ जाए) जरूर
रहेगी परंतु मातृत्व का एहसास हमेशा साथ रहेगी वह भी सम्पूर्णता के साथ... ।
-
डायरी के
पन्नों से, दिनांकः 04.12.2016
डॉ. रेनू यादव
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें