संपादक दीपक मशाल एवं अनुराग शर्मा के संपादकीय में पिट्सवर्ग अमेरिका से निकलने अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका सेतु के अगस्त 2016 में प्रकाशित -
साक्षात्कार
–
मूल्यवान साहित्य की जगह अपने आप बन जाती है - सुषम बेदी
प्रवासी
साहित्य की सशक्त हस्ताक्षर सुषम बेदी ने हवन, इतर, कतरा दर कतरा, नवभूमि की
रसकथा, गाथा अमरबेल की, मोरचे, मैंने नाता तोड़ा, लौटना (उपन्यास), चिड़िया और
चील, सड़क की लय (कहानी-संग्रह), खुली खिड़कियाँ (काव्य-संग्रह) लिखकर प्रवास की
दूरियाँ कम दीं । प्रवासी साहित्य हाशिए पर है, की अवधारणा को तोड़ते हुए इन्होंने
प्रवासी विमर्श से पहले ही मुख्यधारा के साहित्य में अपनी जगह बना ली थीं । शमशेर
की कविता “बात बोलेगी हम नहीं, भेद खोलेगी बात ही” के सिद्धांत पर इन्होंने साहित्य को परखने की कसौटी माना
है । 17-18 जनवरी, 2014 को तृतीय अंतर्राष्ट्रीय प्रवासी साहित्य सम्मेलन ‘प्रवासी साहित्य की दुनियाँ’ के समय रात में भोजनोपरांत प्रवासियों के सुनहरे सपनों की ऊबड़-खाबड़
संघर्षों को बयाँ करती अलग-अलग मुद्दों पर आधारित है एक छोटी सी बात-चीत ।
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प्रश्न
– आपकी दृष्टि में प्रवासी से क्या तात्पर्य है तथा भारतीय प्रवासियों की अमेरिका
में क्या स्थिति है ?
उत्तर –
अमेरिका में भारत के इंजीनियर, डॉक्टर आदि नौकरी के लिए जाते हैं । वहाँ पर उन्हें
सफलता मिल जाती है, वे भारत लौटकर नहीं आते । उनमें विस्थापन का दर्द नहीं । मेरे
उपन्यास ‘लौटना’ में एक औरत की अस्मिता की कहानी है । उस संदर्भ में एक
कहानी सुनाती हूँ – एक बार शिकागो में उपन्यास का एक अंश पढ़कर सुनाना था । मैं
उपन्यास की पात्र मीरा की पीड़ा की बात कर रही थी । जिस प्रकार लौटने की स्थिति
पुराणों में है उसी तरह से वह पात्र कहती है कि लौटना कभी भी सुखद नहीं होता ।
महाभारत में कृष्ण जब वृन्दावन छोड़े तो कभी नहीं लौटे । जब राम वन जा रहे थे तब
सीता भी हर्ष से उनके साथ वन गयीं और जब वापस लौटना हुआ तब राम के लौटने पर
दीपावली मनायी गयी थी, किंतु उनका भी लौटना सुखद नहीं रहा ।
उस सभा में सैम पित्रौदा बैठे हुए थे,
उन्होंने कहा कि अब 15 घंटे में भारत लौटा जा सकता है, इसलिए विस्थापन का दर्द
पहले जैसा नहीं है । उस सभा में कुछ मनोविश्लेषक, कुछ प्रोफेसर, कुछ इंजीनियर और
कुछ डॉक्टर भी थे । एक मनोचिकित्सक डॉ. प्रकाश देसाई ने बात कही कि विस्थापन
भावनात्मक जगत् पर घटता है । विस्थापन में आप भावनात्मक रूप से ही तो कटते हैं, पर
आप अपने काम धंधों के बारे में ही सोचते
रहते हैं और दिल की जरूरतों पर नहीं ध्यान देतें । लेकिन वह कई कई बिमारियों के
रूप में निकलता है, जो की भारतीयों में है, जैसे डिप्रेशन आदि । ये बिमारियाँ उनके
व्यक्तिगत जीवन में प्रस्फुटित होती हैं ।
मैं यही बात समझा रही हूँ जो लोग अपने भीतर
से नहीं जुड़ते, साहित्य के माध्यम से हम उनकी पहचान करवाते हैं। भारतीय बाहरी रूप
से बहुत अच्छा कर रहे हैं , सुविधापरस्त होने के कारण लौटना भी नहीं चाहतें पर
उनके भीतर की जो जरूरतें हैं वे कई बार सुनने को मिल जाती हैं । उसकी झलक तो देखती
हो कि लोग परिवार ले जाते हैं या मिलने आते हैं आदि , पर जो गढ्डा बन जाता है, वो
कमी कभी पूरी नहीं होती ।
प्रश्न
– आपके प्रवास का क्या कारण है तथा आपको वहाँ किन किन कठिनाइयों का सामना करना
पड़ा ?
उत्तर –
अमरिका में मेरे पति डायरेक्टर होकर गए थे, इसलिए मुझे आराम से घर मिल गया था ।
इसलिए वहाँ मुझे परेशानी नहीं हुई । मैं आराम से टीचिंग जॉब में जा सकी, रिसर्च
काम करती रही और सही समय का इंतजार की, फिर 1985 में मौका मिला तो पढ़ाने लगी ।
लेकिन अगर कोई सिर्फ नौकरी के लिए वहाँ जाए तो उसे मुश्किल होगी ।
प्रश्न
– कुछ आलोचकों के अनुसार प्रवासी साहित्य नॉस्टेल्जिया है, आपके अनुसार यह कहाँ तक
सत्य है ?
उत्तर –
नॉस्टेल्जिया कुछ हद तक होता है, पर नॉस्टेल्जिया के साथ रहकर साहित्य बहुत दूर तक
नहीं जाता । वहाँ की चीजों को समझ कर उसमें घुल मिल कर साहित्य लिखने पर ही सही
सृजन हो सकता है । जिसका कोई मूल्य हो उसी साहित्य को सही कहा जा सकता है ।
प्रश्न
– आपकी एक कविता है ‘अदृश्य लड़की’, कहीं यह अदृश्य लड़की भारत की तो नहीं, जो अमेरिकी चकाचौंध में जाकर कहीं खो
गई है... वहाँ स्त्री-विमर्श का क्या स्वरूप है ?
उत्तर –
जिसे तुम स्त्री-विमर्श कहती हो ये कविता वहाँ की स्थिति पर लिखी गई थी । अगर भारत
में यौन-संबंध की इच्छा जगती है तो स्त्री लाज शर्म के मारे अपनी इच्छा व्यक्त
नहीं करती, अगर करती भी है तो वह भी बहुत इंटिमेट संबंधों में । वह भी आज की औरत
करती है, पहले की औरत कभी नहीं कर पाती थी । अमरिका में औरत को देह से मुक्ति मिल
गई है, लेकिन उस देह मुक्ति का एक यह भी परिणाम हुआ है कि औरत अपने को सजा-धजा कर
आकर्षक बनाकर रखती है । चूँकि वहाँ पुरूषों को महिलाएँ प्राप्य हैं, एक तरह से वे
एक कॉम्पटीशन में आ गयी हैं । लेकिन वो अपने आपको कितना भी सजा धजाकर रखे, उन पर
उम्र बढ़ने के बाद आदमी की नज़र नहीं जाती और वक्त के साथ साथ वो चाहे जितना भी
कोशिश करें उनमें वैसा आकर्षण नहीं रहता । इससे कई महिलाओं की दयनीय स्थिति हो
जाती है । मैं यह भी नहीं कहती कि सभी महिलाओं की स्थिति दयनीय होती है । बड़ी
उम्र की महिलाएँ भी आकर्षक हो सकती हैं, सुन्दर लग सकती हैं, उनका व्यक्तित्व
आकर्षक हो सकता है । लेकिन कई महिलाएँ दयनीय स्थिति में पहुँच जाती हैं, क्योंकि
अगर वे बौद्धिक तौर पर अपने को आर्कषक नहीं बना पातीं तो कहीं न कहीं वे पुरूषों
की दृष्टि पाने में असमर्थ हो जाती हैं । पुरूषों को अपनी ओर आकर्षित कर पाना
मुश्किल होता है, वे जवान औरतों की ओर अधिक आकर्षित होते हैं और जिन औरतों पर उम्र
के साये गुजरते हैं तो उनके प्रति पुरूषों की दृष्टि बदल जाती है । जबकि पुरूषों
की स्थिति बिल्कुल अलग है, छोटी-छोटी औरतें उनकी ओर भागती हैं, जबकि औरतों के साथ
ऐसा नहीं है । औरतों के सौंदर्य के प्रति भी हमारा पारंपरिक तरिका है कि ‘औरत का गठा हुआ यौवन’ की चमक ही सौंदर्य है और जैसे ही उम्र का हाथ फिर जाता है औरत नदारद हो जाती
है । यह स्थिति वहाँ भी होती है ।
वहाँ स्त्री विमर्श का स्वरूप- जहाँ तक घर
का मामला है, घर के मामले में जिम्मेदारी स्त्री-पुरूष दोनों की बराबर होती है ।
लेकिन यहाँ स्त्री के प्रति सामाजिक धरातल पर अन्याय देखते है और वहाँ हम काम की
दुनियाँ में देखते हैं । वहाँ घर की दुनियाँ में बराबरी कर ली है । स्त्री-पुरूष
में बायोलॉजिकल कारण से अंतर तो रहेगा ही जैसे स्त्री प्रजनन करेगी, बच्चे की
देखभाल पुरूष भी करेगा । स्तनपान तो माँ को ही कराना होगा, पुरूष नहीं करा सकता ।
ये सारी बातें औरत की सीमाएं हैं । लेकिन सामाजिक क्षेत्र में कई तरह की नौकरियाँ
हैं - जैसे आर्मी, स्त्री को नहीं मिलतीं । अन्य क्षेत्रों में ऑफिशियल तौर पर
औरतों की तनख्वाह कम होती है और पुरूष की ज्यादा । क्योंकि वे मानकर चलते हैं कि
आदमी अपना पूरा श्रम दे सकते है औरत समय नहीं दे सकती, उसे घर के लिए समय देना
होगा । जो कि भारत में ऐसा नहीं है । ये भेदभाव वहाँ है । नौकरी आदि क्षेत्रों में
वहाँ सेक्सूअल हराशमेंट अधिक है । अब तो कानून भी बन गया है । वहाँ औरत नौकरी में
अच्छे पद के लिए अपना यौन शोषण होने देती है ।
प्रश्न
- स्वेच्छिक यौन संबंध को क्या यौन शोषण कहेंगें ?
उत्तर –
वे औरतें अपना यौन शोषण इसलिए नहीं होने देतीं कि उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता । वह
अच्छे पद पर पहुँचने के लिए होने देती हैं, जो मूल्य के रूप में है, भले ही वे बाद
में पछतायें । कार्पोरेट सेक्टर में सेलरी कम है । औरत के लिए टॉप पोज़ीशन पर
पहुँचना मुश्किल है, इसलिए वह सौदाबाजी करती है । शिक्षा के क्षेत्र में यह स्वरूप
थोड़ा अलग है ।
प्रश्न
– अमरिका में नस्लभेद का स्वरूप क्या है । नस्लवादी भेदभाव के प्रति आपका क्या
नज़रिया है ?
उत्तर –
अमरिका में काला के प्रति भेदभाव हमेशा से
रहा है, जिसे लोग भूल नहीं पाते । इस समय वहाँ का प्रेसिडेंट काला है, जब भी वे
कानून बनाते हैं तब विपक्षी उसके खिलाफ खड़े हो जाते हैं, क्योंकि विपक्षी गोरों
का बस एक ही मकसद है- काले को हराना । मतलब जनता पर यही इम्प्रेशन रहे कि भाषण
अच्छा देता था जैसे भी प्रेसिडेंट बना, लेकिन ये बेकार है, फेल है । वे लोग
बिल्कुल नफरत करते हैं, काले की तरक्की के बावजूद भी नापसंदगी का भाव खत्म नहीं
हुआ । अभी कोई अपराध होता है तो काले पर ही निगाह जाती है । ईसाई लोग काफी घुल मिल
गये हैं । 9/11 के बाद से मुस्लिम पर भी संदेह रहता है, लेकिन बराबरी के
बाद भी काले गोरे का भेदभाव जड़ से खत्म नहीं हुआ ।
प्रश्न
– प्रवासी साहित्य में प्रवास के समय भारतीयों की समस्याएँ पढ़ने के पश्चात् (जैसे
हवन उपन्यास) विदेश के प्रति जो नकारात्मक भाव उभर कर आ रहा है और यही लगने लगता
है कि विदेश से बेहतर देश है, यह सोचकर कोई विदेश नहीं जाना चाहेगा, इस संदर्भ में
आप क्या कहना चाहेंगी ?
उत्तर –
जब हवन छपा था तब बहुत से लोगों ने कहा था कि आपने जो रूप दिखाया है उसके बाद तो
अमरिका नकारात्मक रूप में सामने आया है । इस उपन्यास को सुनीता ने रेडियो के लिए
रूपान्तरण किया, फिर कमाल यह हुआ कि रेडियो वालों ने उनसे कहा कि ये नकारात्मक रूप
है, उपन्यास का अंत बदल दो । उसने मुझे बताया, मुझे इस बात का बुरा लगा और मैंने
उसे बदलने से मना कर दिया, फिर रेडियों पर वह नाटक प्रसारित ही नहीं हुआ ।
दूसरी बात यह कि वहाँ भारतीय पारिवारिक
संबंधों से अलग संबंध जरूर होते हैं, पर यह कहना गलत है कि वहाँ के माँ बाप अपने
बच्चों से प्यार नहीं करतें । जैसे यहाँ करते हैं वैसे ही वहाँ भी करते हैं । वहाँ
मुश्किल यह है कि गरीब परिवार बच्चों की जिम्मेदारी नहीं सम्भाल पातें । आदमी तो
भाग जाता है, लेकिन औरत सारी जिम्मेदारी कैसे सम्भाले, फिर वह वेलफेयर पर चली जाती
है । जिससे बच्चों का बुरा हाल होता है । काले लोगों के पास नौकरियाँ नहीं होतीं ।
बच्चे वेबाप के हो जाते है ।
प्रश्न
– अमेरिका में हिन्दी का क्या स्वरूप है तथा विश्वविद्यालय एवं संस्थाएँ हिन्दी के
प्रचार-प्रसार में क्या भूमिका निभा रही हैं ?
उत्तर –
वहाँ हिन्दी 150 संस्थाओं में पढ़ाई जा रही है, धीरे धीरे बढ़ ही रही है । वहाँ
हिन्दी उँचे स्तर की तो नहीं सीखते, पर कामचलाऊँ अवश्य सीख लते हैं । उनकी साहित्य
में रूचि नहीं है, इस स्तर पर कमज़ोर कहा जा सकता है, लेकिन सीखने सीखाने वालों की
तादात बढ़ी है ।
प्रश्न
– प्रवासी साहित्य को क्या आप मुख्यधारा से उपेक्षित मानती है अथवा मुख्यधारा में
सम्मिलित ?
उत्तर –
मैं व्यक्तिगत रूप से इस सवाल को अलग ढ़ंग से लेती हूँ, मैंने कोई ऐसा मुहिम नहीं
छेड़ा हुआ है । मैंने एक दो चीजें महसूस की थी – मैं वहाँ रहकर मूलतः कहानी लिखी,
जो छप भी जाती थी । उन दिनों धर्मयुग, हंस, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, सारिका में
मेरी कहानियाँ छपती थीं । मैं हिन्दी की
लेखिकाओं जैसे मृदुला गर्ग, राजी सेठ आदि के बाद लिखना शुरू की और उन्हीं की तरह
छपती भी रही । उस समय नए कहानीकारों का नया ग्रुप था । मैं उसी में अपने आपको
मानती रही । मेरी पहली कहानी 1978 में छपी और उपन्यास 1985 में लिखा । 1888-89 में
हवन का पहला संस्करण छपा । सन् 2000 के बाद प्रवासी साहित्य पर चर्चाएँ शुरू हुईं
। तब मुख्यधारा से अलग होने की बात नहीं थी ।
परंतु एक बार मैंने एक लेख देखा, जिसमें
महिला उपन्यासकारों पर लेख था । उसमें देखा कि जिन लेखिकाओं का नाम तक नहीं सुना
था, उन उपन्यासकारों के नाम थे लेकिन उसमें मेरा जिक्र तक नहीं था । जबकि मेरे छः
उपन्यास छप चुके थे । मुझे आश्चर्य हुआ कि मैं यहा लिख रही हूँ तो क्या किसी को
ध्यान में नहीं आ रहा, जबकि मेरे पहले उपन्यास ‘हवन’ से चर्चा बहुत हुई थी । कमलेश्वर ने गंगा में कहा था कि “उसने नयी जमीन को तोड़ा है” । उसके कई रिव्यू हुए, जिसपर सबका ध्यान गया था । लोग चिट्टियाँ लिखते थे ।
हवन के साथ लेखक के रूप में पहचान बनी थी । मुझे आश्चर्य हुआ था । लेकिन मैं शमशेर
की कविता “बात बोलेगी हम नहीं, भेद खोलेगी बात ही” में विश्वास रखती हूँ । बाद में जब तेजेन्द्र शर्मा ने
इंग्लैण्ड से बात शुरू की तब लगा कि बात सच तो है कि लोगों का प्रवासियों की ओर
ध्यान नहीं जाता । अब तो एक मुहिम सा छिड़ गया है । अब साथ चल पड़े हैं । पर मैं
मूलतः मानती हूँ कि साहित्य अच्छा है, तो अपने आपसे पढ़ी जायेगी । उस पर सबका
अल्टीमेटली ध्यान जायेगा । अगर जगह बनने
लायक होगी तो बन जायेगी ।
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