सुधा ओम ढ़ींगरा द्वारा संपादित 'हिन्दी-चेतना' (कैनेडा) के जुलाई-सितम्बर, 2014 अंक में स्त्री-विमर्शी स्तंभ 'ओरियानी के नीचे' में प्रकाशित -
क्योंकि
औरतों की नाक नहीं होती… !!!
“अरे हमार रनियाँ... रनियाँ
रे रनियाँ... हमार रनियाँ हमके कहाँ छोड़ भगलस रे रनियाँ... अरे हमार बछिया...
लाली चुनरिया ओढ़वउले क सपना हम देखनी, सपना के माटी में मिलउलू रे बछिया... चुटकी
सेनुरवा के कोइला में मिलउलू रे रनियाँ... सपना देखाइ कहाँ भगलू रे रनियाँ...”
चीखती रोआ-रोहट सुनकर गाँव
वाले दौड़े-दौड़े आयें- दुआरे पर बउकी की लाश देखकर अवाक् ! “अरे अभी तो कल ठीक थी और आज...! बेचारी का सोलह दिन
बाद तो बियाह था, फिर अब ! ऐसा कैसे हो सकता है, अचानक मौत !
आह ! अरे इसके तो ओठ करिया गए हैं, लगता है वह ज़हर खाई है ! हाँ-हाँ ज़हर ही खाई है” ।
और फिर जल्दी जल्दी बाँस
कटा, टिलठी तैयार हुई और बउकी की लाश बिलखते माई-दादा के सामने से उठा ले जाई गयी ।
नाते रिस्तेदारों को तो छोड़ो तिलौली जैसे छोटे से गाँव में पूरे लोगों को तो पता
भी नहीं चला कि बउकी मर गई । बउकी तो बऊकड़ थी दुहाये से बियाह के डर से
ज़हर-माहूर खाकर मर गई ! यह घटना सन् 2000 में घटी ।
दो साल बाद उसी गाँव में
चन्द्रसिलवा ने जहर खा लिया, सुना था कि वह गर्भवती थी । वह तो जहाँ बैठती थी सिल-पाथर
हो जाती है । किसी ने कुछ कर दिया होगा ! अब इज्जत् की खातीर
मर गई तो ठीक ही है ।
उसके चार साल बाद सुरसतिया
की लाश ऊँखियाड़ी में मिली, बेचारी घोहा में कपार रगड़ रगड़ कर मर गई । किसी औरत
ने उसे खेत में जाने से पहले इनारे पर रखी बाल्टी से पानी निकाल कर पीते हुए देखा
था और यह भी देखा था कि तब उसके नाक कान में सोने की खील और बाली थी पर मरने के
बाद तो है ही नहीं ! का पता कि उसकी माई निकाल ली हो, और कुछ
दिनों से उसके बहकने की ख़बर चल ही रही थी, पक्का इसके माई-दादा ने ज़हर दे दिया
होगा ! भला ऐसी लड़की का जीना कलंक ही है ! अच्छा हुआ कि मर गई । बियाहे के बाद भी किसी और से परेम !
पता नहीं कैसे पुलीस वाले को पता चल गया और आ टपके, पर हुआ गया कुछ नहीं ।
12 हजार से 10 हजार रूपये, 10 से 8 हजार और 8 से 6 हजार रूपये में पुलीस पट गयी ।
मामला रफा दफा हो गया, जबकि उस दिन 15 अगस्त का दिन था ।
मौत के बाद बऊकी चुडैल नहीं
बन सकी क्योंकि सबको उसके बारे में पता नहीं था । लेकिन कट गई उखियाड़ी, सुरसतिया
जाग गई, गाँव वालों को पकड़ने लगी । चन्द्रशीलवा दोहरा भूत बनी, वो तो जागी ही थी उसके
अन्दर का अजन्मा बच्चा भी बदला लेने के लिए जाग गया ! फिर
क्या था सोखा-ओझा से बइठवाया गया, पूजा पाठ करवाकर गाँव को शुद्ध किया गया ।
यह काल्पनिक कहानी नहीं
बल्कि गोरखपुर के एक छोटे से गाँव ‘तिलौली’ की दास्तान है । जहाँ मनुष्यता से बड़ी वर्चस्ववादी सत्ता की नाक है ।
वहाँ औरतों की तो नाक ही नहीं होती, सिर्फ देह होती है और देह ही अदृश्य रूप से
भाई-बाप, पति-पुत्र, परिवार और समाज की नाक से जुड़ी होती है तथा जिस सामान्य नाक
से वे साँसें लेती हैं वे साँसें वर्चस्ववादी सत्ता की अमानत होती हैं, जो हर पल
अपने पति, पिता और परिवार की नाक बचाने के लिए चलती या रूकती हैं । साँसों की गति
भी परिवार के संस्कारों पर आधारित होती है, जैसी आज्ञा वैसी साँस । वह नाक ही है
जो मिटकर पूरे समाज को पानी पानी होने से बचा लेता है, वह नाक ही है जो किसी जायज
रिश्ते की मोहर के साथ गर्व के साथ खड़ा हो जाता है तथा वह नाक ही है जो निरन्तर
मर-खपकर रह-सहकर स्वर्ग का दरवाजा खोल देता है । नाक बचाने की राजनीति स्त्री के
संस्कारों में नीर-क्षीर की भाँति घोल दिया जाता है, मरे तो मरे पर नाक न कटने
पाये !
सिमोन द बोउवार का कथन “स्त्री स्त्री पैदा नहीं होती, स्त्री बना दी जाती
है” और वहीं से शुरू होती है त्याग, ममता, करूणा, प्रेम और
भय की कहानी । वर्चस्ववादी सत्ता के विश्वास पर यदि वह खरे उतरे तो ठीक, नहीं तो मिटा दो ! आसान बात तो यह है कि भाई-बाप की
ईज़्जत के नाम पर स्त्रियाँ आसानी से मिटने को भी तैयार हो जाती हैं । वैसे भी वे
हर रोज भाई-बाप के ईज्ज़त पर दाग लग जाने के ड़र से मरती ही रहती हैं, फिर क्या
फर्क पड़ता है कि एक दिन उनकी चुप्पी को और चुप कर दिया जाए । ऐसी लड़कियों का एक
ही राग-अलाप कि हम तो अपने माँ-बाप की खातीर ही जी रहे हैं वरना हमें और किसी से
क्या लेना देना । माँ-बाप की ईज़्जत की खातीर ही बउकी तड़प-तड़प कर जान गवाँ दी और
उसकी माँ उसके सिरहाने बैठी-बैठी साँसे खत्म होने की गिनती गीनती रही, और सुबह
होने पर चिल्ला-चिल्ला कर ऐसे रोयी कि सुनने वालों का कलेजा फट गया ! वह नहीं कह सकी अपनी व्यथा, क्योंकि उसे पति या पुत्री में से किसी एक को
चुनना था ! क्या करे- पति है तो सर्वस्व है बच्चे तो फिर जनम
सकते हैं, पति की खातीर हजार बच्चे कुर्बान । कपार रगड़ रगड़ कर मरने वाली
सुरसतिया के मरने के बाद भी उसकी माई की लालच अपरमपार रही, वह अपने बेटी के नाक
कान की खील और बाली भी निकाल लाई फिर रोते-रोते दुबारा उसके लाश के पास पहुँची ! चन्द्रशीलवा के मरने के बाद फूले पेट को देखकर लोग समझ गये कि उसका पैर
भारी था, इसलिए उसका काम तमाम करना सही ही था, लेकिन घर वालों के रोने से बन का
पत्ता झहराने लगा !
सबकी नज़र में एक ही बात थी
कि लड़कियाँ बदचलन थीं, इसलिए इनका मरना ही ठीक था । जिस तरह
एक गन्दी मछली पूरे तालाब को गन्दा कर देती है उसी तरह ये लड़कियाँ पूरे गाँव को
कलंकित कर देंगी । किन्तु उन लड़कियों के लिए एक ही बात सत्य थी कि ‘लागा चुनरी में दाग छुड़ाऊं कैसे’ ? सच तो यह है कि इनके लिए तो प्रेम से बड़ा सत्य और प्रेम से बड़ा झूठ इस
दुनिया में कुछ भी नहीं था । इन लड़कियों ने जिस प्रेम को अपनी आत्मा का सबसे बड़ा
सत्य समझा, इनके प्रेमी उसी वर्चस्ववादी
सत्ता के एक प्रतीक थे, जिन्होंने दैहिक सौन्दर्य के अलावा और कुछ जाना ही नहीं । मौत
के पश्चात् भी वे अपनी नाक की खातीर न तो इन प्रेम-पूजारिनों को देखने आये और न ही
कभी स्वीकार किया कि ये मेरी प्रेमिकायें थीं । नाक की खातीर ही उनका प्रेम झूठा
हो गया । जिसने भी जाना यही समझा कि रोज टीक-फांनकर घास गढ़ने वाली लड़कियाँ
टी.वी. देख-देखकर बिगड़ गयी थीं । हिरोइन बनने का सपना देखते-देखते बेचारे इन
सीधे-सादे भोले- भाले लवंडों को फँसा ही डालीं । धर्म, नैतिकता, परंपराओं में मँजे,
संस्कारों से संवरे इन लवंडों के मन में भला ऐसी बात भी कैसे आ जाय ! अगर आ भी गया तो लड़कपन है, लड़कियों को तो अपने भाई-बाप के नाक के बारे
में सोचना चाहिए था !
क्या सोचें ये लड़कियाँ ! सोचा तो इन्होंने यह भी नहीं था कि ‘प्रेम गली अति
साँकरी’, जिसमें प्रेमी की ‘नाक’ और ‘प्रेम’ दोनों एक साथ समा
ही नहीं सकतें ! इन्होंने इतना ही जाना था कि ‘दृग उरझत टूटत कुटुम्ब’, पर ये नहीं जाना कि
कुटुम्बी खुद टुटने से पहले इन्हें तोड़-तोड़ कर मिटा डालेंगे ! इनके सपनों के पंख न सिर्फ मरोड़े जायेंगे बल्कि जड़ से ही साफ कर दिये
जायेंगे- ‘न रहेगा बाँस और न बजेगी बाँसूरी’ !
मौत का तमाशा देखने वालों में से किसी ने
ये सोचा ही नहीं होगा कि उन छटपटाती मरती लड़कियों से कैसे एक-एक साँसें कराह कर
निकली होंगी ! वे अंतीम साँस में तड़पती हुई उस समय अपनी रक्षा के लिए किसे याद की
होंगी ? उस समय क्या बचा पायी होंगी उन लवंडों की खोखली नाक ? क्या उस समय उनके लिए सबसे बड़ा सत्य रह पाया होगा प्रेम ? क्या उस समय उनकी नज़रों में बची रह गयी होगी भाई-बाप की प्रतिष्ठा ? क्या बच पायी होगी स्वर्ग-नरक की चाह ? क्या आखिरी
साँसों में भी किसी और की नाक बचाने की सद्भावना बरकरार रख पायी होंगी ?
परंतु आश्चर्यजनक बात यह है कि धर्म,
नैतिकता, परंपरा और प्रतिष्ठा के अनुयायियों का काठ-कोरो दिल यह सब करने बाद भी
अपनी नाक पर मक्खी तक नहीं बैठने देतें । समाज में सदैव उनकी नाक ऊँची ही रहती है
और यदि किसी को इनके गुनाहों के विषय में पता भी होता है तो सत्ता की ओरियानी के
नीचे मुँह में बातें भुनभुनाकर अपनी बातें भुनाने में लग जाते हैं, जहाँ सिर्फ
स्वार्थ प्रबल होता है न कि परार्थ ।
ऐसे महान अनुयायियों से प्रश्न है कि क्या
वर्चस्ववादी सत्ता की नाक इतनी सफेद है कि जो प्रेम के दाग से दाग लग जाने का भय
निरंतर सताता रहता है ? या इनकी नाक इतनी कमज़ोर है कि बेटियों
के हिल जाने से हिल जाती है ? क्या इनकी नाक रूढ़ परंपराओं
से इतनी भयभीत है कि उस पर प्रेम का बल पड़ते ही उसे कट जाने का भय सताता है ? या इतनी ज़रज़र कि बेटियों की जान लिये बिना बच ही नहीं सकती ?
कदाचित् इन्हीं सब बातों को
ध्यान में रखते हुए गगन गिल बेटियों को ‘झर जाने’ की सलाह देती हैं । क्योंकि सबकी नाक बचाने वाली औरतों की तो नाक ही नहीं
होती...!!!
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