गुरुवार, 10 जुलाई 2014

गठरी में संसार

रामेश्वर कम्बोज द्वारा संपादित 'लघुकथा.कॉम' के जुलाई अंक में 'मेरी पसंद' स्तंभ में मेरा समीक्षात्मक लेख 'गठरी में संसार' प्रकाशित -
लिंक - http://www.laghukatha.com/pasand-73.html



गठरी में संसार - रेनू यादव
हिन्दी साहित्य के विस्तृत आँचल पर महाकाव्य, खण्डकाव्य, मुक्तक काव्य, उपन्यास, कहानियाँ, नाटक तथा निबंधों आदि ने अपना वर्चस्व बनाए रखा, किन्तु  समय की माँग के अनुसार उसी आँचल से बने छोटे-छोटे गट्ठर के रूप में हाइकु, ताँका, हाइबन, लघुकथाओं आदि ने अपना अस्तित्व धारण कर लिया ; जिसने उत्तर-आधुनिकता के समयाभाव में समय और सीमा दोनों को ही अपना संगी बना लिया । बोझ कम किन्तु  विचारात्मक । इनमें बँधे हैं साहित्यिक संसार और सांसारिक बुनावट के अनेक रंग ।

इन सभी गठरियों में से सरल, सहज तथा सुबोध गाँठ में बँधी गठरी है लघुकथा । जीवन के किसी एक अंग या दृश्य की द्रष्टा और सम्पूर्ण जीवन की सहचरी । एक ही दृश्य में खोलती है समस्त परिवेश की गाँठें और गठियाई परिवेश से लुंज-पुंज हुए संस्कारों, परम्पराओं, रूढ़ियों, धर्मों, मान्यताओं को अलग अलग कर उँगलियों पर गिना देने की खासियत । इसकी खास विशेषता है कि यह स्वयं नहीं कहतीं कि मैंने संसार को गठिया रखा है, बल्कि गठरी से समस्त विकल्प मुँह उठा-उठाकर झाँकने लगते हैं, जो कि कथा की बुनावट में खामोशी से बँधे होते हैं किन्तु  पठन के साथ ही पाठक के मानसपटल पर चहलकदमी करने लगते हैं । गठरी जितनी मजबूत और कसकर बँधी होती है उसके खुलते ही उसमें से उतने ही वैकल्पिक रंग भरक कर बाहर आ जाते हैं और देर तक अपनी कसावट से पाठक को कसे रखते हैं । गठरी में बँधे शब्दों के पास कोई विकल्प नहीं होता कि वे कहानी और उपन्यास की भाँति तनिक इधर उधर भटक लें, बल्कि सारगर्भित शब्दों में बंधा होना और अर्थ एवं भावों का वायु की भाँति स्वछंद विचरण करना इसकी अनिवार्यता है और इसकी पहचान व्यंग्यात्मक, सामाजिक, मनोवैज्ञानिक, ऐतिहासिक, धार्मिक आदि किसी भी दृष्टि से हो सकती है ।

लघुकथा लेखन की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि इसमें महिला-पुरुष के लेखन और शैली में अंतर समझना तिल-तंडुल की भाँति है, अर्थात् लघुकथा के धरातल पर लेखक सिर्फ लेखक है, न कि वह महिला अथवा पुरुष । लघुकथा लिखने वाली महिला कथाकारों में सुधा अरोड़ा, चित्रा मुद्गल, उर्मि कृष्ण, मीरा चन्द्रा, नासिरा शर्मा, नीलिमा टिक्कू, अंजना अनिल , नीता सिंह, डॉ. तारा निगम, नीलम कुलश्रेष्ठ, रश्मि वार्ष्णेय, सुस्मिता पाठक, पवित्रा अग्रवाल, आरती झा, शैल वर्मा, पवित्रा अग्रवाल, इंदु गुप्ता, ज्योति जैन, निर्मला सिंह, नीलम, प्रतिमा श्रीवास्तव, प्रभा पाण्डेय, माया कनोई, , सुमति देशपाण्डे, जयश्री राय, सीमा स्मृति, रचना श्रीवास्तव, डॉ. मुक्ता, विभा रानी, शैल वर्मा, सुधा भार्गव सुधा ओम ढींगरा, शोभा रस्तोगी, भावना सक्सेना, निरूपमा कपूर, डॉ. अनिता कपूर, रीता कश्यप, इला प्रसाद, भावना वर्मा, सुचिता वर्मा आदि नई पुरानी रचनाकारों को पढ़ा ।

जिस प्रकार उपन्यास, कहानी तथा कविताओं में महिलाओं को विमर्श के खाँचे में ही देखा जा रहा है, उस प्रकार के अपवादों से महिला लघुकथाकार मुक्त हैं । इन्होंने विमर्श से अधिक मानवीय संवेदना को महत्त्व दिया है । साहित्यिक आंचल में दैनिक दिनचर्या के माध्यम से ही विषय वैविध्य के छोटे-छोटे फूल अत्यंत सहजता एवं सूक्ष्मता से उकेरे हैं, जो दूर तक अपनी खुशबू भी फैलाते है तथा चमकते भी हैं । बहुत –सी लघुकथाओं ने मुझे प्रभावित किया। कुछ लघुकथाएं ऐसी होती हैं जो स्मृति-पटल पर अंकित हो जाती हैं। उन्हीं में दो लघुकथाएँ प्रमुख हैं- नीलिमा टिक्कू की  ‘नासमझ’ और मीरा चन्द्रा की ‘बच्चा’नीलिमा टिक्कू की ‘नासमझ’ और मीरा चन्द्रा की ‘बच्चा’ ने भी दलित विमर्श का मुद्दा उठाया है । जय प्रकाश मानस ‘लघुकथा का निबंध’ में लिखते हैं - “सच्ची लघुकथा यथार्थ की ईमानदार पड़ोसन है” । इसी यथार्थ के धरातल पर दोनों लघुकथाएँ  ये साबित करती हैं कि जातिवाद एक सांस्कारिक विष है, जिसे अमृत के नाम पर परोसा जाता है । धीरे-धीरे वह विष बालक के मनोसामाजिक संरचना के साथ उसकी नस-नस में फैल जाता है, जिसे बिलगाना असंभव हो जाता है अथवा बालक को युवावस्था के पश्चात् जातिवाद एक सामान्य व्यवहार लगने लगता है ।

‘नासमझ’ लघुकथा धर्म और संस्कार तथा ‘बच्चा’ नैतिक शिक्षा तथा संस्कारों पर गहरी चोट करता हैं । बच्चे की मनःस्थिति परिवार, समाज और परिवेश का अनूठा संगम है । किन्तु  यह अनूठापन संस्कारों के दोहरे मापदंड़ों के कारण कुंठित और कुत्सित भी हो सकता है । ‘नासमझ’ की  नन्हीं पिंकी जिसे गन्दी गरीब बस्ती की लड़कियों के साथ खेलने की मनाही होती है, इसलिए खुश है कि उन्हीं लड़कियों को दुर्गाष्टमी की पूजा के लिए बंगले में बुलाया गया । दादी जिन्हें उन गरीब लड़कियों से आपत्ति थी वे ही रोली टीका लगा उनका पूजन कर उन्हें भोजन परोसती हैं तथा उनके जूठे भोजन रूपी प्रसाद समस्त दुखों की निवृत्ति हेतु जमादारिन को देने के लिए प्लास्टिक की थैलियों में भरकर रखवा देती हैं । यह शिक्षा अबोध पिंकी अपने दिलों दिमाग में बैठा लेती है कि इससे सारे दुख दूर हो जाते हैं; इसलिए वह टांसिल के दर्द मुक्ति के लिए वही प्रसाद जब वह खाने के लिए अपनी थाली में परोसने लगती है । जिसपर दादी की नज़र पड़ते ही वे प्रसाद को जहर कहते हुए उसे  डाँटने लगती हैं । “नन्हीं पिंकी सहमकर चुप हो गई लेकिन अब भी उसकी समझ में ये नहीं आ रहा था कि जूठा खाना जमादारिन के लिए देवी का प्रसाद है वो उसके लिए जहर कैसे हो सकता है ?”

‘बच्चा’ लघुकथा में अमेरिका से भारत लौटे हुए नन्हें गर्व को ननिहाल जाने का अवसर मिलता है, उसे बड़ों का पैर छूकर आशीर्वाद लेने की नैतिक शिक्षा भी मिल जाती है । वह ऐसा ही करता है, किन्तु  जैसे ही वह जमादार के पैर छूता है तब उसे गंगाजल से नहला कर शुद्धि की जाती है साथ ही थप्पड़ भी खाने पड़ते है । अबोध बालक को यह नहीं समझ में आता कि उसने पैर ही तो छुए थे , फिर क्यों थप्पड़ खाना पड़ा । इसलिए वह सिसकियाँ भरते हुए कहता है “अब मैं कभी किसी का पैर नहीं छुऊँगा” ।

दोनों ही लघुकथाएँ एक ही संदेश देती है, किन्तु  दोनों ही लघुकथा में छिपा है धर्म, नैतिक शिक्षा, समाज, संस्कृति तथा संस्कारों का एक अनंत परिचय । गन्दी गरीब लड़कियाँ और जमादार या जमादारिन उस अश्पृश्य, दमित तथा अभावात्मक आजीविका के बोधक है, जिनकी पहचान शायद ही अछूत शब्द के अलावा और कुछ हो ! जमादारिन को प्रसाद के नाम पर जूठे भोजन देना या फिर जमादार का पैर छू लेने पर बच्चे का थप्पड़ खाना उनके प्रति असम्मान को दर्शाता है तथा यह भी स्पष्ट होता है कि आर्थिक विपन्नता के कारण जूठे भोजन माँगकर ले जाने के लिए वे विवश है । जूठे भोजन जमादारिन के लिए प्रसाद और पिंकी के लिए जहर तथा सबका पैर छूकर आशीर्वाद लेना तथा जमादार के  पैर छूने पर गर्व को थप्पड़ पड़ना हमारे संस्कारों के दोहरे मानदंडों तथा जमादार या जमादारिन के लिए दोयम दर्जे का व्यवहार शूद्रों के प्रति हो रहे दुर्व्यवहार की परंपरा और लम्बे इतिहास को दर्शाता है । डॉ. चमनलाल दलित साहित्य के संदर्भ में कहते हैं - “दलित साहित्य जातिभेद के खिलाफ साहित्यिक उत्पीड़न, मानवता की सशक्त आवाज बनकर उभरा है । दलित साहित्य हमारे समाज का दर्पण है ;जो हमने देखा है, अनुभव किया, भोगा, जाना उसका अंकन उत्कृष्टतापूर्वक हुआ है” ।

इन दोनों ही लघुकथाओं की खास विशेषता यह है कि ये विद्रोह की आवाज बुलंद किये बिना अत्यंत शांति के साथ दलित साहित्य का संदेश देते हुए बालमन के मनोसामाजिक संरचना पर अपना लक्ष्य केन्द्रित करती हैं, जिससे पाठक अपने संस्कारों, परंपराओं, धर्म, नैतिकता तथा इतिहास का पुनर्मूल्यांकन एवं परिमार्जन के लिए विवश भी हो जाता है ।                                                                   -0-

1-नीलिमा टिक्कू – ‘नासमझ’
नन्हीं पिंकी आज बहुत खुश थी । जिन गन्दी गरीब लड़कियों के साथ उसे खेलने की इजाजत नहीं थी, आज उन्हें ही बंगले में बुलाया गया था । वो भी दादी माँ के आदेश पर । आज दुर्गाष्टमी जो थी । दादी माँ ने अपने हाथों में उन सभी के ललाट पर रोली का टीका लगाया । उनके हाथों में मौली का धागा बाँधकर उनका पूजन किया फिर उन सभी के आगे बड़े-बड़े थाल भरकर खीर-पूड़ी, हलवा व चने का शाक परोसा;
इस पर माँ ने हल्का-सा विरोध किया था, “माँ जी इतनी छोटी बच्चियाँ इतना ज्यादा खाना नहीं खा पाएँगी” ।
दादी भड़क उठी थीं, “ये कैसी ओछी बात कर दी बहू तुमने । देवी के शाप से डरो । ये कन्याएँ देवी का ही रूप हैं” ।
माँ ने फौरन चुप्पी साध ली थी ।   
शरमाती-सकुचाती, सहमी हुई बच्चियों ने आधे से ज्यादा खाना जूठा छोड़ दिया था । दानी ने उन गरीब बच्चियों के हाथ में दस-दस रूपए के करारे नोट पकड़ाए ।
उनके जाने के बाद दादी के कहने पर नौकर रामू ने उनकी थालियों की जूठन चार प्लास्टिक की थैलियों में भरकर दरवाजे पर रख दी । ये सब देख पिंकी पूछ बैठी ।
“दादी जूठे खाने को रामू ने थैलियों में डालकर क्यों रखा है ?”
दादी ने समझाया, “आज दुर्गाष्टमी है ना । जमादारिन खाना माँगने आती ही होगी उसे देने के लिए ही रखा है” ।
पिंकी किंचित हैरानी से बोली, “दादी ये तो जूठा खाना है । आप ते कहती हो कि किसी दूसरे का जूठा खाना नहीं खाना चाहिए । बहुत सी बीमारियाँ लग जाती हैं और पाप भी लगता है ?”
दादी मुस्कराई, “अरे बिट्टो आज के दिन कन्याओं का ये जूठन, देवी का प्रसाद होता है, इसे खाकर तो जमादारिन की सभी बीमारियाँ ठीक हो जाएगी साथ ही उसके कई जन्मों के पाप भी धुल जाएंगे” ।
दोपहर को जमादारिन की रोटी माँगने की आवाज सुनकर रामू खाने की थैलियाँ लेने अन्दर आया किन्तु कमरे का दृश्य देखकर स्तब्ध रह गया । पिंकी थैलियों में रखी जूठन निकालकर अपनी खाने की थाली में डाल रही थी । तभी दादी माँ भी जमादारिन को पैसे देने उधर आ पहुँची ।
“पिंकी ये क्या गजब कर रही है ?”
दादी माँ की दहाड़ सुनकर सहमी पिंकी धीरे से बोली, “दादी थोड़ा सा देवी का प्रसाद ले रही थी । इसके खाने से मेरे टांसिल भी हमेशा-हमेशा के लिए ठीक हो जाएंगे” ।
दादी भड़क उठी, “बेवकूफ लड़की ये खाना तेरे लिए जहर है । ना जाने कितनी बीमारियाँ समेटे गन्दे, गरीब व छोटी जात की लड़कियों की जूठन है ये । मूर्खा दुनिया भर के पाप अपने सिर पर लगाना चाहती है ?”
पिंकी हैरान थी, “पर दादी आपने ही तो कहा था कि ये देवी माँ का प्रसाद है । इसके खाने से जमादारिन की सभी बीमारियाँ ठीक हो जाएगी तो फिर मेरे टांसिल... दादी आग बबूला हो उसी बात को काटती हुई चिल्लाई, “चुप कर, बित्ते भर की छोकरी होकर मुझसे बहस करती है । आज तक तेरी माँ की हिम्मत नहीं हुई, मुझसे इस तरह के सवाल-जवाब करने की” ।
नन्हीं पिंकी सहमकर चुप हो गई लेकिन अब भी उसकी समझ में ये नहीं आ रहा था कि जूठा खाना जमादारिन के लिए देवी का प्रसाद है वो उसके लिए जहर कैसे हो सकता है ?
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2- मीरा चन्द्रा – बच्चा
लंबे अंतराल के बाद ननिहाल जाने का सौभाग्य हुआ । अम्मा के साथ मन में ढेरों उमंग लिए पुरानी सहेलियों से मिलने की खुशी समेटे मैं अपने पाँच साल के बेटे के साथ ननिहाल पहुँच गई । गर्व के लिए भारत में बीता हर क्षण वैसे ही कौतुक भरा होता है पर गाँव तो उसके लिए किसी जादुई नगरी से कम नहीं था । कहीं-कहीं अधपके गेहूँ के खेत में अठखेलियाँ करती बालियाँ, आम के पेड़ों पर लटकते हवा से डोलते नन्हें टिकोरे उसे गुदगुदा जाते । पगडंडियों पर चलना तो दो दिन में ही उसका जुनून बन चुका था ।
जन्म से ही अमेरिका में रहने वाला गर्व किसी नए आगंतुक को परंपरावादी पहनावे में देखकर सिमट जाता था । बहुत कहने पर ही वह आगंतुक का पैर छूता । इसके लिए अक्सर उसे डाँट भी खानी पड़ती, “गर्व ! तुम्हें कितनी बार समझाऊँ कि बड़े लोगों का पैर छूकर उन्हें प्रणाम करते हैं । यहाँ हेलो हाय नहीं बोला जाता बेटा । तुम सुनते क्यों नहीं... अबसे तुम घर में आने वालों का पैर छूकर प्रणाम करोगे, समझे” , मैंने उसे प्यार से समझाने की कोशिश की ।
गर्व ने भी एक अच्छे बच्चे की तरह ‘हाँ’ में सिर हिला दिया ।
गाँव की अपनी परंपरा होती है । बहू-बेटियों के आने पर जाति और वर्ग को दरकिनार कर सभी लोग उससे मिलने आए । उन्हें भी मिलने वालों का ताँता लगा था । एक दिन बुजुर्ग जमादार चच्चा मुझसे मिलने आए । उन्हें मैंने हाथ जोड़े । गर्व भी वहीं खड़ा था । वह भी पट से झुका और उनके पाँव छू लिये।  “अरे-अरे भैया नाहीं” कहते जमादार चच्चा भी हड़बड़ा गए और अवाक रह गए जब सँभले तो गर्व को आशीष से नहला दिया । पर गर्व को ऐसा करते देख दूर खड़ी बड़की नानी चीख पड़ी, “अरे का बचुवा... हाँ-हाँ दिपिया ला रे वहके गुसलखाना में... लई जाइके नहलावा । एक दम्मै बैरहा बाटै... अरे राम जमादार का छूइ दिहल, रगड़ के नहवाय द हम गंगाजल मझलको से भेज हुई” । बड़की नानी बड़बड़ाती जा रही थी... ये आजकल के लरिका लोग... जौन करें सब थोर ह...”
गर्व सहमा सा मेरे पास खड़ा रहा मैं भी सकपका गई । मैं गर्व को पकड़कर गुसलखाने में पहुँची तब तक झपटती हुई बड़की नानी के गर्व की सिसकियों की उपेक्षा करते हुए उसके गाल पर चट से एक चांटा जड़ दिया, “भकुआ कहीं के तोहके समझ में नाहीं आवेला केकर पैर छुअल जाला केकर नाहीं । कहीं जमादार के छुअल जाला । उत अछूत हउवै उनसे बचके रहल जाला । दिपिया ले गंगाजल से नहलाय दे सुद्ध कर एहका । बड़की नानी गर्व को धमकाते हुए बोली, “खबरदार अब तो जमादार के छुहला” ।
सहमें गर्व को मैंने बड़ी नानी के जाते ही सीने से लगा लिया । उनके इस व्यवहार से मैं भी कसमसा कर रह गई । नन्हें मन की व्यथा और मैं कैसे बाँटती ।
“मम्मा उन्होंने मुझे क्यों मारा ? मैंने तो उनक पैर ही छुए थे ? मैं यहाँ” वह लगातार रोए जा रहा था । यह सवाल उस अबोध मन में कील की धँस गया । सिसकी लेता गर्व बोलता जा रहा था, “अब मैं कभी किसी का पैर नहीं छुऊँगा” ।                                                                    -0-
 

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