सुधा ओम ढ़ींगरा द्वारा संपादित 'हिन्दी-चेतना' (कैनेडा) के जनवरी - मार्च, 2014 अंक में स्त्री-विमर्शी स्तंभ 'ओरियानी के नीचे' में प्रकाशित -
उत्तर-आधुनिक
नारीवाद
‘सास का गट्ठर गट्ठर है, ननद का झब्बा झूलता है ।
जब गगन में
दीयना बरता है, तब अँगन में मीरगा चरता है’ ।।
यह कहावत गरीबी के संदर्भ में है, किन्तु
पाश्चात्य के अनुकरण के संदर्भ में देखा जाए तो भारतीयों पर सटिक बैठता है । पाश्चात्य
में जैसे ही नई विचारों का सुनगुन होता है, वैसे ही हम भारतीय सोचने लगते हैं कि
हमारे वहाँ भी वैसा ही होना चाहिए और बाद में हम कहने लग जाते हैं कि यह अवधारणा
पाश्चात्य से आई है । इससे कहीं न कहीं ‘चिराग तले अंधेरा’ चरितार्थ होती है । सत्य तो यह है कि हम अपने इतिहास को बार-बार खंगाल तो
रहे हैं, पर उसे मानना नहीं चाहते । सत्ता के चौखट के अंदर वैदिककाल से लेकर अब तक
स्त्रियों ने न जाने कितने विरोध और विद्रोह किए, पर उसे हम स्त्री-मुक्ति आंदोलन
में सम्मिलित नहीं कर सकते । क्योंकि उस समय किसी ने स्त्री-मुक्ति आंदोलन,
नारीवाद अथवा स्त्री-विमर्श का नाम नहीं दिया था और न ही स्त्री-मुक्ति आंदोलन के
लिए संघर्ष होता था, वह संघर्ष तो समस्याओं या लगातार हो रहे शोषण से मुक्ति के
लिए था । फिर प्रश्न उठता है कि स्त्री-विमर्श है क्या ?
स्त्री के विषय में उसके सुख-सुविधाओं से
लेकर प्रत्येक समस्याओं के परिप्रेक्ष्य में ऐतिहासिक, सामाजिक, धार्मिक,
सांस्कृतिक, आर्थिक और मनोवैज्ञानिक दृष्टि से सूक्ष्म से सूक्ष्मतम् चिंतन-मनन कर
अस्वस्थ दृष्टिकोणों को स्वस्थता प्रदान करना क्या स्त्री-विमर्श नहीं ? भले ही गार्गी, रोमषा आदि वैदिक नारियों ने मुक्ति के नाम पर न संघर्ष
किया हो, पर सर का धड़ से अलग होने की धमकी मन को आंदोलित करता ही है । भले ही
सीता ने रो-धोकर त्याज्य जीवन जीया हो पर भगवान कहे जाने वाले जिस राम ने उनका
इतना अपमान किया ऐसे पति के पास वापस जाने की अपेक्षा मृत्यु को गले लगाना क्या
विरोध नहीं ? जबकि देखा जाय तो सुपर्णखा हिम्मती थी, प्रेम
निवेदन का उत्तर नाक कटवाना तो नहीं हो सकता ! परिणामतः
युद्ध । महाभारत में द्रोपदी के अपमान का बदला सर्वविदित ही है । थेरियों गाथाओं
का दर्द कहें या भक्ति काल में नारियों का ईश्वर में अद्भुत समर्पण, मूक
स्त्री-त्रासदी की गाथा ही तो है । प्रसिद्ध महिला साहित्यकारों में भक्तिकाल की मीरा
और छायावादी महादेवी वर्मा आजीवन विद्रोहिणी रहीं । उनके समय में स्त्री-मुक्ति
आंदोलन जैसा कोई नाम नहीं था, अन्यथा वे दोनों अपने निजी
जीवन में लिए गए फैसलों के कारण उग्र अथवा कट्टरपंथी नारीवाद की प्रमुख नायिकाएँ
होतीं ।
नारीवाद उदारवादी, उग्र अथवा कट्टरपंथी,
मनोविश्लेषणवादी, मार्क्सवादी तथा समाजवादी से होते हुए उत्तर-आधुनिक नारीवाद तक अनेक
उतार-चढ़ावों के साथ सफर तय किया । सभी धाराओं की अपनी-अपनी विशेषता रही, किन्तु
सभी धाराओं का समन्वय उत्तर-आधुनिक नारीवाद में ही दृष्टिगत होता है । आज
उत्तर-आधुनिक नारीवाद सत्ता की ओरियानी के नीचे आ चुका है, ऐसी स्थिति में स्त्री
पुरी तरह से न तो घर के अंदर है न बाहर, न मुक्त है और न ही पराधीन । यह कौन सा
अंतर्द्वन्द है कि गाँवों में स्थिति जस की तस है और शहरीकरण को लेकर हम उछल-कूद
करते रहते हैं !! लेकिन इतना अवश्य कहा जा सकता है कि यह नारीवाद अपने पूर्ववत् सास रूपी
नारीवादी विचारधाराओं की संकुचित गाँठ को फेंककर बचे हुए अच्छे कपड़ों से ननद के
झब्बे पर पैबंद लगाने में माहिर है । आज ये गगन में दीयना बरने का इंतज़ार नहीं कर
रहा, बल्कि वे स्वयं ज्योति जलाना जानता है, और यही नहीं यह सिर्फ घर में खाना
परोसकर मीरगों का पेट नहीं पाल रहा बल्कि घर के बाहर भी अनेक मीरगों के जीने की
उम्मीद है ।
आज उत्तर-आधुनिक नारीवाद के व्यापक पटल पर
स्त्री-विमर्श और पुरूष-विमर्श का अनोखा क्षितिज दिखाई देने लगा है । क्या यह
मात्र समता, समानता और सद्भावना जैसे प्रजातांत्रिक मूल्यों का ध्रुवीकरण है या
फिर व्यक्ति-सत्य के साथ समष्टि-सत्य का समागम । एक ओर जहाँ अत्याचारों,
व्याभिचारों का स्त्रियाँ पुरज़ोर विरोध कर रही हैं वहीं दूसरी ओर उत्तरआधुनिक
नारीवाद उग्र नारीवादी विचाराधारा के विपरीत परिवार, प्रजनन और प्रेम की ओर लौट
आया है । उग्र या कट्टरपंथी नारीवाद के ‘इमेजेज ऑफ विमेन’ का सिद्धांत विवाह और मातृत्व से मुक्ति से उत्तर-आधुनिक
नारीवाद सहमत नहीं है । शुलमिथ फायरस्टोन के ‘गर्भ जैसे
फिजूल अंग को काटकर फेंकने’ जैसे विचारों का यह घोर विरोधी
है । उत्तरआधुनिक महिला साहित्यकारों का मानना है कि स्त्री-पुरूष एक दूसरे के
पूरक हैं इसलिए विवाह, मातृत्व और परिवार सृष्टि के विकास में सहायक है न कि बाधक
। कृष्णा सोबती, रमणिका गुप्ता, मैत्रेयी पुष्पा, अनामिका, कात्यायनी, सुशीला टाकभौरे
आदि महिला साहित्यकारों के साहित्य में प्रेम, परिवार और प्रजनन का महत्वपूर्ण
स्थान है और वे एक ऐसे सूरज को जन्म देना चाहती हैं कि जो पूरे विश्व को प्रकाशित
कर सके ।
जहाँ एक ओर विरोध है वहीं दूसरी ओर अपने
पूर्ववत् नारीवाद के कुछ विचारधारा से सहमत भी है । सिमोन द बोउवार के अनुसार “स्त्री स्त्री पैदा नहीं होती, स्त्री बना दी जाती है” को उत्तर-आधुनिक नारीवाद ने समझा तथा उदारवादी नारीवाद के जीवशास्त्रीय
समानताओं एवं विषमताओं को समझते हुए अपना कदम आगे बढ़ाया । मनोविश्लेषणवादी
नारीवाद के अंतर्गत यह नारीवाद लिंग की अवधारणाओं को तोड़ता है तथा स्त्री की
निष्क्रियता को खारिज करता है तथा इरिगेरे के सेक्स संबंधी सिद्धांतों से सहमती
रखता है , मार्क्सवादी और समाजवादी नारीवाद के श्रम तथा अर्थ के सिद्धांतों का यह
हृदय से स्वागत करता है और अपने अनुभूतियों को ठोस तथा स्थिर रूप प्रदान करता है ।
यह अपने सिद्धांतों को मूल्यों से जोड़कर स्त्रीवाद को एक नया आयाम प्रदान करता है
। ये मूल्य कहीं अलग से नहीं आये हैं बल्कि जो मूल्य समता रूपी दर्पण में धुँधला
हो गया था, उसे ही झाड़-पोछकर साफ किया तथा अब तक चले आ रहे सत्ताधारियों द्वारा
निर्धारित जीवन-मूल्यों पर नई दृष्टि से चिंतन-मनन किया ।
कदाचित् यही कारण है कि उत्तर-आधुनिक
नारीवाद पितृसत्ता का स्थानांन्तरण मातृसत्ता में नहीं करना चाहता बल्कि समानता
में करना चाहता है । यह नारीवाद समता, समानता और सद्भावना आदि प्रजातांत्रिक
मूल्यों के लिए संघर्षरत् तो है ही, लेकिन इसका प्रमुख लक्ष्य मानवीय मूल्य है ।
डॉ. रेनू यादव
रिसर्च / फेकल्टी असोसिएट
गौतम बुद्ध
विश्वविद्यालय
यमुना
एक्प्रेस-वे, नियर कासना,
गौतम बुद्ध
नगर, ग्रेटर नोएडा (उ.प्र.) – 201312
ई-मेल –
renuyadav0584@gmail.com
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें