‘आग में गर्मी कम क्यों है ?’ – सुधा ओम ढ़ींगरा
प्रवासी साहित्यकारों में चर्चित
साहित्यकार सुधा ओम ढ़ीगरा ने साहित्य को एक नया आयाम प्रदान किया है । इन्होंने अपने
साहित्य में भारतीय एवं पाश्चात्य संस्कृति, परिवेश, भाषा और परंपरा का, शरीरविज्ञान,
मनोविज्ञान और मानवीयता का, संवेदना और वेदना का, मानव जीवन के सहजता और असहजता का
एक ऐसा शनैः शनैः प्रवाहित होने वाला कॉकटेल प्रस्तुत किया है, जो पाठक के मानस
पटल पर दूरगामी प्रभाव अंकित करता है । इनकी कथाओं में अमेरिका का हर परिदृश्य प्रवासियों के
साथ भारतीयता की साँसें लेता है । इनकी सबसे बड़ी विशेषता है कि ये कहानियों में
संघर्षों के आलोड़न से उत्पन्न संवेदना को सहज और वैज्ञानिक रूप देती हैं,
इन्होंने कभी भी किसी भी परिस्थिति में किसी भी पात्र पर दोषारोपण नहीं किया,
बल्कि उन्हें कहानी की सहज धारा में स्वतः ही प्रवाहित होने देती हैं ।
इनकी
जल्द ही प्रकाशित कहानी-संग्रह ‘कमरा नं. 103’ में
संग्रहित सभी कहानियाँ अपने आप में विशिष्ट हैं, लेकिन उनमें से ‘आग में गर्मी कम क्यों है ?’ कहानी अपनी संवेदना एवं
मनोवैज्ञानिक कारणों से मुझे सबसे अधिक प्रिय लगी । यह कहानी समलैंगिकता के भँवर
में फँसी एक स्त्री के दर्द की कहानी है । लेखिका ने जितना सहज रूप से ‘गे’ होने का वर्णन किया है, उतना ही मार्मिक ढ़ंग से
‘गे की पत्नी’ होने की पीड़ा से पीड़ित
संवेदना को दर्शाया है । राजकमल चौधरी ने अपने उपन्यास ‘मछली
मरी हुई’ में जिस बेबाक तरिके से लेस्बियननिज़्म का वर्णन
किया है, सुधा जी ने उस बेबाकीपन को तो नहीं अपनाया पर एक मर्यादा के साथ
समलैंगिकता का एक परिदृश्य अवश्य प्रस्तुत किया है । समलिंग या विपरीत
लिंग के प्रति आकर्षण शरीर में उत्पन्न कैमिकल्स कारण है जिसे वैज्ञानिक नायिका
साक्षी बखुबी समझती है, उसे जितना अधिक दुख उसके पति शेखर के समलिंगी होने से नहीं
है उससे कहीं अधिक दुख शेखर के झूठ से है कि उसने इतने दिनों तक साक्षी को धोखे
में रखा और प्यार का ढ़ोंग रचता रहा । इस कहानी की खास बात है कि यहाँ कोई भी
पात्र एक-दूसरे को दोषी नहीं ठहराते बल्कि शरीर विज्ञान को समझते हुए सहज
रूप से गतिशील होते हैं । शेखर साक्षी से अपने अंदर हुए बदलाव को चिकित्सकीय ढ़ंग
में प्रस्तुत करता है – “अभी नए शोधों से पता चला है कि पुरूषों में मेनोपाज होता है, जिसे
एनड्रोपाज कहते हैं और उनमें धीरे-धीरे शारीरिक परिवर्तन होते हैं, महिलाओं की तरह
एकदम नहीं । बाई सेक्सूअल इंसान उम्र के किसी भी हिस्से में, स्त्री-पुरूष, दोनों
की तरफ़ आकर्षित हो सकता है और मेरी बदक़िस्मती है कि मैं बाई सेक्सूअल हूँ” । (ढींगरा, सुधा ओम. कमरा नं 103. पृ.19.)
साक्षी एक सुलझी हुई स्त्री है
वह जेम्ज के साथ शेखर के रिश्ते को बच्चों की खातीर स्वीकार कर लेती है। यह सुधा
की एक नयी स्त्री है - वह संवेदनशील है, अपने पति से अत्यधिक प्रेम करती है और
अपने साथ हुए धोखे से वह परेशान भी है, फिर भी सच्चाई स्वीकार करती है, परिवार तोड़ने
के बजाय उसे जोडे रखने में ही
समझदारी समझती है । भले उसके अंदर से प्यार की गर्मी कम पड़ने लगे, पर वह साथ नहीं
छोड़ती । यह सुधा की स्त्री का मजबूत पक्ष है पर पुरूष शेखर का कमज़ोर पक्ष है कि
वह जेम्ज से मिले धोखे को सहन
नहीं कर पाता बल्कि आत्महत्या कर लेता है – “जेम्ज उसे किसी और के लिए छोड़ गया, वह उसका अलगाव सह नहीं सका । वह
जेम्ज को बहुत प्यार करता था, उसके जीवन का कोई अर्थ व औचित्य नहीं रहा । ऐसे जीवन
को समाप्त करना उसने बेहतर समझा”। (ढींगरा,
सुधा ओम. कमरा नं 103. पृ. 22.)
यह काम साक्षी भी कर सकती थी पर उसने ऐसा नहीं
किया, और न ही पति से अपना अधिकार माँगा । यह एक उत्तरआधुनिक नारीवाद का प्रतीक है
। वह परिस्थितियों से भागती नहीं, बल्कि रोष का घुंट पीकर भी समझदारी से सच्चाई
स्वीकार करती है और उसका सामना भी
करती है,
क्योंकि उसके ऊपर परिवार की जिम्मेदारी है और आगे उसे बहुत कुछ
करना है।
यह कहानी समलैंगिक-विमर्श के माध्यम से नैतिकता
की दुनियाँ को चुनौती देती
है तथा समलैंगिकता से प्रभावित परिवार
की कहानी है जिसके कारण पति-प्रेम में संवेदना कम पड़ जाती है और उसके मृत्योपरांत
भी नायिका की संवेदना जड़वत ही रहती है । वह न तो पति के खोने के
पश्चात् पूरी तरह से टूटती है और न ही धोखेबाज पति से छुटकारा मिलने पर खुश होती
है । ऐसी अनोखी संवेदना की जटिलता को प्रस्तुत करती है – ‘आग गर्मी कम क्यों है ?’
- डॉ. रेनू यादव
- डॉ. रेनू यादव
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