प्यार
तुम मुझे... बार- बार
गन्ने की तरह
चूसकर फेंक देते हो
फिर भी मुझमें
बचा रह जाता है
कुछ रस
मक्खियों और च्युटों के लिए.
मैं तुम्हारी यादों में
धीरे-धीरे सूखती हूँ
रसबिहीन होकर
याद करती हूँ तुम्हारा
प्रथम स्पर्श, रसास्वादन से पहले की
तुम्हारी ललचाई आँखें
जिसे मैं प्यार समझ बैठी थी
तुम्हारा मुझे जड़ों से उखाड़ना औ'
शनै: शनै: सहलाना
मैं रोमांचित हो उठी थी
मेरा सर धड से अलग करना
जिसे मैं समर्पण कहती थी
और चूस जाना
जिसे मैं एकाकार कहने लगी.
परन्तु अब....
अब क्या कहूँ मैं
उन सारी सुखानुभूतियों को
अब तो मैं चूल्हे की लवना
बन चुकी हूँ.
क्या... इसे ही प्यार कहते हैं???
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