मंगलवार, 12 मई 2020

Yug Se Samvaad Hai 'Jinhen Jurm-A-Ishaq Pe Naaz Tha'

साहित्य नंदिनी (फरवरी, 2020) के 'चर्चा के बहाने' स्तम्भ में प्रकाशित...


पुस्तक : जिन्हें जुर्म-ए-इश्क़ पे नाज़ था
लेखक : पंकज सुबीर
मूल्य : 200 रू.
प्रकाशक : शिवना प्रकाशन, सीहोर

युग से संवाद है जिन्हें जुर्म-ए-इश्क़ पे नाज़ था

         हर दंगे के पीछे कहीं न कहीं, किसी न किसी का बहुत व्यक्तिगत स्वार्थ होता है । (पृ. 140)
पंकज सुबीर का यह वाक्य हितकारी राजनैतिक मुखौटों के पीछे छुपे उस सच को उजागर करता है, जिसे हम जानते हुए भी अनभिज्ञ बने रहने की कोशिश करते हैं और लगातार उसके चंगुल में फंसकर उन्हीं हितकारियों के शिकार बन जाते हैं ।
तसलीमा नसरीन का उपन्यास औरत के हक़ में, सुषम वेदी का नवाभूम की रसकथा के बाद यह तीसरा शोधात्मक उपन्यास जिन्हें जुर्म--इश्क पर नाज़ थापढ़ रही हूँ उपन्यास लिखने में भी लेखकों को कितने शोध करने पड़ रहे हैं और साहित्य जगत में कुछ नया लिख जाने का जज्बा है, इन उपन्यासों से अंदाजा लगाया जा सकता है । उपन्यासों में आज सिर्फ कहानियाँ ही नहीं गढ़ी जा रहीं बल्कि कहानियों के पीछे छुपी सच्चाइयों की व्याख्या और उन्हें उजागर करना एक नयी चूनौती बनती जा रही है ।  
यह उपन्यास सृष्टि के प्रारंभ से लेकर मानव-विकास का इतिहास, इतिहास को मजबूत बनाने के लिए वेद-पुराण, मनुस्मृति अथवा ब्राह्मणवादी ग्रंथ, संहिताओं आदि का सृजन, उन सृजन के नियमों को लागू करने हेतु समाज का मानसिक परिवर्तन, परिवर्तनों में इतिहास गढ़ने के लिए राजनैतिक कूटनीति (सकारात्मक और नकारात्मक) का सहारा, राजनैतिक कूटनीतिक का धर्म के साथ जुगलबंदी, उस जुगलबंदी में संप्रदायवाद को बढ़ावा और कट्टरपंथी संप्रदाय के रूप में देश में लकीरें खींचना, लकीरों के बाहर युद्ध तो लकीरों के अंदर धर्म-संप्रदाय के नाम पर अपने सत्तात्मक स्वार्थ के लिए जनता के बीच भौतिक लालच पैदा कर अविश्वास का बीज बोना और उससे उगी फसल में आग लगाकर हाथ सेंकने की क्रमवार घटना को न सिर्फ उजागर करता है बल्कि उसके अंदर छुपे कारणों और निवारणों की सूक्ष्म व्याख्या भी करता है ।   
इस पुस्तक का शीर्षक फैज़ अहमद फैज़ के प्रसिद्ध अशआर से लिया गया है –
"न रहा जुनून-ए-रुख़-ए-वफा ये रसन ये दार करोगे क्या
जिन्हें जुर्म-ए-इश्क़ पे नाज़ था वो गुनाहगार चले गए

यह शीर्षक हमें सोचने पर मजबूर करता है कि क्या सचमुच गुनहगार चले गये हैं या एक गुनाह दूसरे गुनाह को लगातार जन्म दे रहा है ? जब इश्क प्रेम से हो तो मानव सहज मानव बन जाता है, जब इश्क़ प्रेम के साथ-साथ धर्म से हो तो मानव विशिष्ट मानव बन जाता है लेकिन जब धार्मिक इश्क़ रूढ़ हो जाये तब एकपक्षीय मानव बन जाता है तथा जब एकपक्षीय इश्क हो जाय, तब इश्क़ जुर्म बनकर मानवीयता के खिलाफ चला जाता है । लेखक के शब्दों में कहें तो यदि आप धार्मिक हैं, तो यह भी तय है कि आप कट्टर भी होंगे ही । धर्म आपके जीवन की स्वतंत्रता को छीन कर आपको केवल एक ही दिशा में दौड़ने पर बाध्य करता है । यह जो एक ही दिशा में दौड़ने की बाध्यता है, यही तो कट्टरता है । आप दूसरी दिशाओं को ख़ारिज कर देते हैं (पृ. 17)
धर्म को धर्म साबित करने के लिए राजनीति का हस्तक्षेप इस कदर इतिहास में रहा है कि हम धर्म की सही व्याख्या भूल चुके हैं । एकलव्य का अँगूठा देना, शम्बूक की हत्या, जूए में द्रोपदी को हार जाना, पूजा-पाठ में पशुओं की बलि देना आदि ऐसे अनेक उदाहरण हैं जो हत्या को धर्म के पक्ष में खड़ा कर देते हैं । इस उपन्यास को पढ़ते समय नरेन्द्र पुण्डरीक की कविता पढ़ाने वाले मास्टर गद्दार थेऔर सब एक ही जैसे थेस्वतः ही मन में कौंध जाती है कि हमारी शिक्षा पद्धति राजनीति से प्रेरित होकर कैसे हमें एकपक्षीय बना देती है ! लेखक स्वयं लिखते हैं जब तक आपके अच्छे बुरे का निर्णय आपकी तरफ़ से कोई और कर रहा है, तब तक नहीं माना जा सकता कि आप शिक्षित हुए हैं । अब इस कोई और में व्यक्ति भी हो सकता है और किताबें भी हो सकती हैं। (पृ. 35)  
ऐसे में सवाल यह है कि हम शिक्षित होते हैं अपने माँ-बाप, परिवार, समाज, परिवेश, पुस्तकों और अपने अनुभवों आदि से । लेकिन यदि यही शिक्षा किसी स्वार्थवश योजनाबद्ध राजनीति का हिस्सा तो हम कैसे रोक पायेंगे अपने आपको गुमराह होने से ? और जब सब एक साथ समूह में गुमराह हो रहे हों तब हम अपने आपको कैसे अलग कर पायेंगे ऐसे अदृश्य षड़यन्त्रों से ? जब कोई न कोई कृष्ण बनकर सामने खड़ा हो और अर्जून को हथियार उठाने के लिए विवश कर रहा हो ? अथवा शुपर्णखा के प्रेम निवेदन को अधर्म मान कर उसका नाक काट दिया जाय और उसका भाई रावण अपमान का बदला लेने के लिए एक स्त्री को ही मोहरा बनाने के लिए तैयार खड़ा हो, अथवा विपक्ष में खड़ा हर व्यक्ति असूर या अधर्मी माना जाने लगे अथवा व्यक्तिगत स्वार्थों के लिए साम्प्रदायिक दंगे, मॉब लीचिंग हो जाय और ऐसे में प्रशासन द्वारा भड़काववादी बीज से भड़की हुई जनता को नियंत्रित करने के लिए प्रशासन के लिए नियंत्रक रक्षक बनकर आयें तो जनता को क्या करना चाहिए  ?  
हिन्दू धर्म का शिक्षक रामेश्वर, मुसलमान छात्र शाहनवाज़ के बीच का रिश्ता हमारे भारत की वह सच्चाई जिसे सदियों से राजनैतिक हितैषी बदलने के लिए अनेक उठा-पटक कर रहे हैं और सफल नहीं हो पा रहें । बस्ती में आग लगना और उसे बचाने के लिए स्वयं भारत का आना एक प्रतीक हो सकता है लेकिन यह न सिर्फ वर्तमान समय की कटु सच्चाई है बल्कि इतिहास के हर पन्ने में यही घटना अनेक चेहरों के साथ दिखायी देती है, जिसमें इश्क़ का भ्रम पाले बैठे आग लगाने वाले भी हैं और आग से बचाने के लिए मानवता से इश्क़ करने वाले भी हैं । चाहे जितनी भी आग लग जाये, आग बुझाने वाले अभी समाप्त नहीं हुए हैं और समय पर पहुँच ही जाते हैं । यह कहना गलत न होगा कि धर्म की यदि सही व्याख्या जाननी हो तो इस पुस्तक को पढ़ने की आवश्यकता है और गाँधी, गोड़से, विभाजन, त्रासदी आदि के एकपक्षीय इतिहास को बदलने की जरूरत है ।    
इस राजनैतिक अराजकता के बीच चुप्पी साधे इस पुस्तक का आना लेखक के लिए निःसंदेह चूनौतीभरा कार्य है । सामाजिक घटनाओं और हर घटना के पीछे लेखक की गहरी समझ और पड़ताल है । हालांकि यह लेखक के अपने ही विचारों का आपस में संवाद है लेकिन उन्होंने अपने व्यक्तिगत विचारों को इस उपन्यास में कहीं भी हावी नहीं होने दिया है । पर हाँ, यह अलग बात है कि विचारों का प्रबलता, प्रगाढ़ता और प्रगल्भता इतनी है कि एक ही संवाद या वाक्य की पुनरावृत्ति अलग-अलग वाक्य-विन्यासों में कई स्थानों पर दिखायी देते हैं । यह पुस्तक वर्तमान समय में अत्यंत प्रासंगिक है तथा राजनीति के इतिहास को देखते हुए यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि यह भविष्य में भी प्रासंगिक रहेगी । मेरे विचार से यदि इस पुस्तक को कालजयी पुस्तकों की श्रेणी में रखा जाय तो अनुचित नहीं होगा । 
यह पुस्तक लेखक का संवाद है समाज से, इतिहास से, धर्म से, संप्रदाय से और स्वयं अपने देश भारत से । दूसरे शब्दों में कहें तो यह सृष्टि से इतिहास का, धर्म से अधर्म का, धर्म से संप्रदाय का, राष्ट्र से राष्ट्रवाद का, गाँधी से गोड़से का, हिन्दू से मुसलमान का, मुसलमान से हिन्दू का संवाद है । यह पुस्तक सिर्फ समय से संवाद नहीं बल्कि पूरे युग से संवाद है । जिसमें अपने अंतः की आवाज को सुनाने की माँग और छटपटाहट है । मानव नहीं मानवीयता को सामने ले आने की चाहत है । परंतु सत्ता के कठपुतली बनी बेवश जनता की सच्चाई को लेखक के शब्दों में कहें तो मगर आज आवाज़ का कोई मतलब नहीं, आज तो शब्दों का मतलब है (पृ.133)  

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