साहित्य नंदिनी (जनवरी, 2020) के 'चर्चा के बहाने' स्तम्भ में प्रकाशित...
शिक्षा-जगत् में गाँधी की प्रासंगिकता
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जुलाई,1937 को ‘हरिजन’ में गाँधी जी ने लिखा था, “बच्चे और मनुष्य में जो कुछ सर्वश्रेष्ठ होता है उसी को बाहर ले आना शरीर,
मन और आत्मा से ही शिक्षा है ।” । अर्थात् शारीरिक और मानसिक
विकास दोनों ही शिक्षा में अनिवार्य तत्त्व हैं ।
गाँधी
जी इस देश के सामाजिक ढाँचे को बदलना चाहते थे और सामाजिक ढाँचा तभी बदल सकता था
जब शिक्षा-व्यवस्था आरम्भ से ही सशक्त और सुव्यवस्थित हो । वे रामचन्द्र भाई,
टालस्टाय, जान रस्किन आदि के विचारों से काफी प्रभावित थे, इसलिए उन्होंने समाज को
शोषण एवं अन्याय से मुक्त करने के लिए बुनियादी शिक्षा पर जोर दिया ।
अक्टूबर,
1937 में वर्धा में आयोजित राष्ट्रीय सेवकों के सम्मेलन की अध्यक्षता में गाँधी जी
द्वारा प्रस्तावित राष्ट्रीय शिक्षा के संबंध में चार प्रस्ताव स्वीकार किए गयें –
1. सप्तवर्षीय
निःशुल्क अनिवार्य शिक्षा
2. शिक्षा
का माध्यम मातृभाषा
3. उद्योग
के आधार पर शिक्षा की व्यवस्था
4. स्वावलम्बन
पर आधारित शिक्षा
इन
प्रस्तावों के आधार पर शिक्षा-विशेषज्ञों की एक कमिटी बनायी गयी जिसके अध्यक्ष डॉ.
जाकिर हुसैन थे और सदस्यों में सत्यदेव, आशादेवी, विनोबा भावे, काका कालेलकर आदि
थे । 2 दिसम्बर, 1937 को जब जाकिर हुसैन कमिटी ने रिपोर्ट प्रस्तुत की तब उन्होंने
स्वीकार किया कि गाँधी जी का प्रस्ताव शैक्षणिक, आर्थिक, मनोवैज्ञानिक, सामाजिक
दृष्टिकोणों से उचित है । उस रिपोर्ट में जिस पद्धति को मान्यता दी गयी वह
बुनियादी शिक्षा के नाम से प्रसिद्ध हुआ । जिसके अंतर्गत 6-7 वर्ष से लेकर 14 वर्ष
तक के बच्चों को साहित्य, इतिहास, भूगोल आदि की शिक्षा के साथ साथ हस्तकला (तकली
चलाना, कपड़ा बुनना, सूत कातना, क्राफ्ट, वस्त्र बुनना, रंगना, डिजाइन करना, चटाई
बुनना, गन्ने से गुड़ बनाना, बढ़ई, लुहार आदि का काम आदि) एवं व्यावहारिक
(स्वच्छता, स्वास्थ्य रक्षा, निजी कार्य करना, माता-पिता की सहायता करना आदि)
शिक्षा पर बल दिया गया ताकि 14 वर्ष का बच्चा अपनी आजीविका का निर्वहन स्वयं कर
सके । बाद में यही बुनियादी शिक्षा कुछ उलट-फेर के साथ शिक्षा-योजना या राष्ट्रीय
शिक्षा पद्धति के नाम से प्रसिद्ध हुई ।
उसके
कुछ समय बाद कुछ शिक्षा-विशेषज्ञों की आपत्ति के फलस्वरूप 1945 में गाँधी जी ने
सेवाग्राम में बुनियादी शिक्षा का क्रम गर्भाधान से लेकर मृत्यु-पर्यन्त तय किया –
पूर्व-बुनियादी, बुनियादी, उत्तर-बुनियादी तथा प्रौढ़-शिक्षा । जिसके अंतर्गत
बच्चे का स्वस्थ व्यक्तित्व से लेकर उन्हें स्वावलम्बी बनाने की प्रक्रिया
सम्मिलित है । जिसके लिए उन्होंने कई आश्रमों की स्थापना की । जैसे - फिनिक्स
आश्रम, टालस्टाय आश्रम, साबरमती आश्रम, गुजरात विद्यापीठ , सेवाग्राम आश्रम ।
यह
ध्यान देने योग्य बात है कि गाँधी जी ने शिक्षा-व्यवस्था में उद्योग अर्थात्
हस्त-कौशल को प्रोत्साहन देने पर जोर दिया था, क्योंकि वे जानते थे हमारे देश की
गरीब जनता को शिक्षा के साथ-साथ स्वावलम्बी बनने की जरूरत है । जनता के जिस स्वाभिमान
को अंग्रेजी सत्ता तोड़ने में सफल हो रही थी उसे सिर्फ और सिर्फ शिक्षा और
स्वावलम्बन द्वारा ही लौटाया जा सकता था । यह आज के समय में उतना ही प्रासंगिक है
जितना कि उस समय ।
उन्होंने
कहा था कि बच्चों द्वारा बनाये वस्तुओं से शिक्षकों का वेतन भी अर्जित किया जा
सकता है, जो कि आज के समय में घाटे में चल रहे शिक्षण संस्थानों के लिए
महत्त्वपूर्ण हो सकता है । ये अलग बात है कि उस समय की तत्कालीन सरकार ने उनकी यह
बाते मानने से इंकार कर दिया था । किंतु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि गाँधी जी ने
शिक्षा में उद्योग प्रशिक्षण पर बल दिया था न कि शिक्षण-संस्थानों को स्वयं उद्योग
बनने के लिए कहा था ! हमें आधुनिक प्रगतिवादी
चक्रव्यूह को समझने की आवश्यकता है जब शिक्षण-संस्थानों से जुड़ने वाले छात्रों
तथा शिक्षा-जगत् से इतर मनुष्यों के आत्मविश्वास को प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप
से धीमी ज़हर अर्थात् ‘श्लो-प्वाइजन’ देकर कम किया जा रहा है अथवा आत्मविश्वास पनपने ही नहीं दिया जा रहा है
जब मुफ्त में लैपटॉप, साइकिल, फोन, गैस सिलेण्डर उनकी भलाई और सुविधा के नाम पर
बाँटा जाता है ।
किसी
भी देश की सशक्तिकरण की बुनियाद उसकी सशक्त शिक्षा-व्यवस्था से होती है । शिक्षा
ही व्यक्ति को स्वावलम्बी बना सकता है, स्वालम्बन से आत्मविश्वास पैदा होगा और
आत्मविश्वास के साथ व्यक्ति स्वयं अपने लिए सुविधाएँ एकत्रित कर सकता है ।
शिक्षा
ही वह रास्ता है जिससे व्यक्ति दिग्भ्रमित होने से बच सकता है । अन्याय, अत्याचार,
भ्रष्टाचार, हत्याएँ, मॉब लिंचिंग, ऑनर कीलिंग आदि के नाम पर गुमराह करने वाले
ताकतों से सावधानी पूर्वक शिक्षित होने से ही बचा जा सकता है साथ ही हम अपने
अधिकारों और आत्मसम्मान के प्रति जागरूक भी हो सकते हैं । लेखक पंकज सुबीर के
शब्दों में यदि कहें तो “जब तक आपके अच्छे-बुरे का निर्णय
आपकी तरफ़ से कोई और कर रहा है,
तब तक नहीं माना जा सकता कि आप शिक्षित हुए हैं”।
भारत में गाँधी जी की बुनियादी शिक्षा से बिल्कुल
परे सरकारी स्कूलों में प्रायः देखने को मिलता है कि स्कूलों
में एक ही मास्टर या मास्टरनी होते हैं जो अधिकतर समय या तो छुट्टी पर होंगे या
फिर धूप में बैठकर स्वेटर बुनेंगे या बच्चों से जूँ देखवायेंगे और अब तो एक अलग
तरह की समस्या है वे अधिकतर समय चुनाव आदि में लगाये गए ड्यूटी में व्यस्त रहेंगे
। ऐसी स्थिति में गाँधी जी की बुनियादी शिक्षा का अनुपालन कौन करेगा ? जब शिक्षा जगत में कौशल-प्रशिक्षण देने की योजना हो और शिक्षा जगत स्वयं
एक उद्योग बन जाये ऐसे में गाँधी जी की सत्य, अहिंसा, अस्वाद, अस्तेय, अपरिग्रह कौन
निभाना चाहेगा ? जब शिक्षा जगत स्वयं राजनैतिक स्वार्थों का
हथकंडा बन जाये और उसी संचालित भी हो ऐसे समय में तब गाँधी जी के अभय,
स्वदेशी-व्रत, कायिक-श्रम, सर्वधर्म-समभाव कौन अपनायेगा ? जब
गाँधी जयन्ती के सुअवसर पर महात्मा गाँधी जी के सिद्धांतों को आत्मसात् कर जीवन
में अपनाने के बजाय उसकी पुण्य-स्मृति बना दिया जाय तब उन सिद्धांतों की बलि चढ़ने
से कौन बचा पायेगा ? सच ही कहा है हरिवंश राय बच्चन ने -
“गुण तो निःसंशय देश तुम्हारे गाएगा,
तुम-सा
सदियों के बाद कहीं फिर पाएगा,
पर
जिन आदर्शों को तुम लेकर तुम जिए-मरे,
कितना
उनको
कल
का भारत अपनायेगा ?
………
शासन
सम्राट डरे जिसकी टंकारों से
घबराई
फ़िरकेवारी जिसके वारों से,
तुम
सत्य-अहिंसा का अजगव तो छोड़ गए,
लेकिन
उस पर
प्रत्यंचा
कौन चढ़ाएगा”
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