मंगलवार, 12 मई 2020

Khidkiyon Se Jhaankti Aankhen

लेखक एवं सम्पादक पंकज सुबीर द्वारा संपादित आलोचनात्मक पत्रिका 'शिवना साहित्यिकी' (अप्रैल-जून, 2020) में लेखिका सुधा ओम ढ़ींगरा की कहानी-संग्रह 'खिड़कियों से झाँकती आँखें' पर लिखी गई मेरी समीक्षा प्रकाशित...


पूर्वाग्रहों को तोड़ती कहानियाँ

 “सब लोग यही सोचते हैं कि विदेशों में डॉलर वृक्षों पर उगते हैं और वहाँ से उन्हें तोड़ कर भेज देंगे” (खिड़कियों से झाँकती आँखें, पृ. 39) सचमुच यह एक ऐसा पूर्वाग्रही मकड़जाल है जो भारतीयों सहित लगभग विकासशील देशों के मस्तिष्क पर फैला हुआ है । यह सोच सिर्फ अंतर्राष्ट्रीय प्रवासियों के लिए ही नहीं बल्कि अपने ही देश यानी अंतरदेशीय प्रवासियों के लिए भी है । दोनों में फर्क बस इतना है कि अपने देश में कमाने वाला व्यक्ति रुपया मुद्रा में खर्च करता है, इसलिए आमदनी रुपये में गिनी जाती है और विदेश में कमाने वाला व्यक्ति डॉलर या उस देश की मुद्रा में कमाता है तो उन मुद्राओं को रुपये में बदल कर गिनती की जाती है । आश्चर्य की बात यह है कि उस व्यक्ति की आमदनी अर्थात् हर महीने आने वाली आय पर नज़र तो होती है लेकिन महीने के खर्च पर ध्यान नहीं दिया जाता, क्योंकि वह अपने फायदे में नहीं होता । 
      निःस्वार्थ रिश्तों के बीच कुछ ऐसे स्वार्थपरक रिश्तों को भी कहना पड़ता है अपने लोग, अपने रिश्ते । ये अलग बात है कि हम कितने अपने होते हैं ? यह समय, ज़रूरत और मुद्राओं पर आकर समाप्त हो जाता है । लेखिका सुधा ओम ढींगरा इन अपने रिश्तों की गहराई को बखूबी न सिर्फ जानती है बल्कि भोक्ता भी हैं । कदाचित् इसीलिए इनकी कहानियों में रिश्तों की नब्ज पकड़ने की क्षमता होती है । इनकी कहानियों से यह साबित भी होता है कि परिवार में शोषक और शोषित की भूमिका प्रेम, विवाह, लाचारी, असमर्थता, बेरोज़गारी के नाम पर मार्क्स के सिद्धांतों के विपरीत भी चला जाता है। जो कि इस कहानी-संग्रह में एक नई दिशाकहानी को छोड़कर लगभग सभी कहानियों में दिखाई देता है ।
       इस संग्रह की विशेषता है कि कहानियों के मुद्दे अलग-अलग होते हुए भी भारत और अमेरिका की परिवेशगत संस्कृति के धरातल पर एकाकार हो जाते हैं । तुलना और व्यतिरेक साथ-साथ चलकर पाठक को बार-बार अपने संस्कार, संस्कृति और परंपरा की खिड़की में झाँकने  के लिए विवश करते हैं । दूसरी बात कि हथेली में खिंची रेखाओं की तरह खींच जाती हैं इन कहानियों में कई रेखाएँ और समा जाती है हर व्यक्ति की अलग-अलग व्यथाएँ । घुटती-सिमटती चाहतों के बीच यूँ ही आ जाते हैं उम्मीदों के पंख  और उन पंखों के साथ-साथ हवा में हौले-हौले उड़ने लगती हैं वे व्यथाएँ ।
      ऐसे ही पंख लेकर आते हैं डॉ. सागर मलिक खिड़कियों से झाँकती आँखेंकहानी में, जिनकी पीठ पर चिपकी रहती हैं अनेकों उम्मीदों भरी आँखें । वे आँखें अपनेपन की चाह में विदेशी भूमि पर अपने ही बच्चों द्वारा परित्यक्त होने के कारण टिक जाती हैं हर आने जाने वालों की पीठ पर । उन्हें उम्मीद होती है कि शायद एक न एक दिन उनके अपने बच्चे लौट आएँगे, या फिर वे किसी अजनबी में अपने बच्चों को तलाश कर पाएँगे । उन्हें पता है, “जिन रिश्तों के लिए पौधा विदेश में वृक्ष बना, उन्हीं रिश्तों ने स्वार्थ की ऐसी आँधी चलाई कि वृक्ष के सारे पत्ते झड़ गए, टुंड-मुंड हो गया वह।” (खिड़कियों से झाँकती आँखें, पृ.21) फिर भी मोह तो प्रेम का एकतरफा मारक तीर है, जो सामने वाले की अनेक उपेक्षाओं के बावजूद भी चुभ-चुभ कर याद रहती हैं ।
     जो माँ बाप मरते दम तक अपनी संतान से निःस्वार्थ प्रेम करना नहीं भूलते, उन्हीं माँ-बाप की ज़िम्मेदारी जब सम्भालनी पड़ती है तब वे माँ-बाप ज़िम्मेदारियों में अतिरिक्त बोझ (कुछेक को छोड़कर) लगने लगते हैं । यह कटु सत्य है कि हर बेटा श्रवण नहीं हो सकता, जो जीवन-पर्यन्त अपने माँ-बाप को कंधों पर उठा कर घूमता रहे । कुछ बेटे शंकर देव जैसे भी हो सकते है । वसूलीकहानी इस कटु सत्य का उदाहरण है । इस कहानी के दो पक्ष हैं - पहला, संस्कार, आदर्श और सेवाभाव की दुहाई देने वाले तथा श्रवण और राम को आदर्श बेटा मानने वाले भारत देश में शंकर जैसा बेटा, जो स्वार्थ की आँधी में डूब कर अपने माँ-बाप के सिर से छत छीन लेना चाहता है । और विदेश में रहने वाले लोगों के लिए संस्कारहीन जैसे पूर्वाग्रहों को खंडित करते हुए बेटा हरि मोहन अपने माँ-बाप को आश्रय देता है ।
       दूसरा, बेरोज़गारी, लाचारी और भारत में रह कर कम पैसा कमाना तथा विदेश में जाकर पेड़ से पैसे तोड़ने जैसे अवधारणाओं को खारिज करता है और स्वार्थान्धता के तहत प्रेम, विश्वास और पढ़ाने लिखाने के नाम पर भाई ही भाई से पैसे की वसूली करता है ।  
       ऐसी वसूली सिर्फ लड़कों के साथ ही नहीं बल्कि लड़कियों के साथ भी होती है, जिसका प्रमाण है कहानी ऐसा भी होता है। जिन लड़कियों को जन्म देने और पालने में हीनता का बोध होता है उसी लड़की को धन की अपेक्षा में विदेश में ब्याह देना और पैसों की माँग पूरे न होने पर रिश्तों का टूट जाना वह सच्चाई है जिससे स्वीकार करते हुए हम भारतीय सदैव डरते हैं और निःस्वार्थता की चादर ओढ़े जीवन भर यह साबित करते रहते हैं कि हम आदर्शवादी हैं । लेखिका ने सच ही लिखा है -  जिनको लेने का स्वाद पड़ जाता है, उनके लिए रिश्तों की कोई कीमत नहीं होती। (ऐसा भी होता है, पृ. 67)    
       प्रायः हम अपने जाति, परंपरा और संस्कृति के प्रति इतने रूढ़ होते हैं कि बिना ज़मीनी सच्चाई जाने विदेशी संस्कृति के प्रति नकारात्मक अवधारणाएँ मन में पाल लेते हैं । ऐसी ही अवधारणाओं के परिणाम की कहानी है एक ग़लत कदम। शकुंतला और उसके पति दयानंद शुक्ला अपने सभी बच्चों को विदेशी धरती पर भारतीय संस्कारों से संस्कारित करते हैं । लेकिन जब बड़ा बेटा अमेरिकन ईसाई लड़की जैनेट से विवाह कर लेता है तब वे उसे घर से निकाल देते हैं । कुछ समय बाद उनके दूसरे दो बेटे और उनकी भारतीय पत्नियाँ जिनके संस्कारों पर उन्हें गर्व होता है, वे उन्हें वृद्ध आश्रम में छोड़ आते हैं । ऐसी स्थिति में सभी अवधारणों के विपरीत विदेशी बहू जैनेट और उसके पति ही उन्हें वापस घर ले जाते हैं और पूर्वाग्रही माँ-बाप को अपने द्वारा लिए गए ग़लत फैसले पर पछताना पड़ता है ।    
       संवेदनाएँ सिर्फ मनुष्य के लिए ही नहीं बल्कि पशु-पक्षी और वस्तुओं के लिए भी हो सकती है । कॉस्मिक की कस्टडीकहानी में मिसेज़ राबर्ट कॉस्मिक (कुत्ते का नाम) को उसके जन्म के पहले दिन से उसे पाल रही थीं, लेकिन जब वह बड़ा हो गया तो उसे उनका बेटा ग्रेग अपने साथ लेकर चला गया । कॉस्मिक के जाने के बाद मिसेज़ राबर्ट बिल्कुल ही अकेली हो जाती है और डिप्रेशन का शिकार भी । कई बार अपने बेटे ग्रेग से कहने के बाद भी वह उसे उन्हें नहीं देता इसलिए दोनों यानी माँ और बेटा काऊंसलर के सामने आमने-सामने होते हैं । जब ग्रेग को यह समझ में आता है कि भावनात्मक संबल ज़रूरी नहीं कि किसी पुरुष या स्त्री साथी से ही मिले, वह एक पशु से भी मिल सकता है, तब वह अपनी माँ को कॉस्मिक की कस्टडी सौंप देता है ।
      भावनात्मक संबल के प्रगाढ़ रूप की परिणति प्रेम में हो जाये तो प्रेम हवाओं में, नदियों में, आसमान पर धरती पर फैल जाता है । सच कहा जाय तो हमारे विश्वास में फैला होता है प्रेम । नस्लभेद के कारण अत्याचार के शिकार हुए भारतीय और अमेरिकन प्रेमी के विश्वास और तड़प की कहानी है – ‘यह पत्र उस तक पहुँचा देना। इस कहानी में भारत में जातिवाद की भाँति अमेरिका में नस्लवाद के कारण ऑनर-कीलिंग होता है । यह कहानी है हमारे अंदर छिपी मानसिक रूढ़िवादिता की, और खोखली इज़्ज़त की, जो समाज में अनेक विकास होने के बावजूद भी अब तक नहीं बदल सकी ।  
       भारत में जातिवाद सिर्फ प्रेम का ही विरोध नहीं करता बल्कि जन्म से लेकर मृत्यु तक अलग-अलग स्तर पर समाज में फैला हुआ है । भारत के विकास में बाधाओं में से एक सबसे बड़ा कारण जातिवाद भी है, जो समाज के बड़े हिस्से के मनुष्य को मनुष्य का दर्जा न देकर उन्हें हाशिए पर खड़ा कर देता है । जिनके जीवन में हमेशा अँधेरा ही रहा लेकिन जब-जब उन्होंने अपने जीवन में उजाला ले आने का प्रयास किया तब-तब मनुष्य समझे जाने वाले उच्चवर्गियों द्वारा अनेक समस्याएँ उत्पन्न कर उनके जीवन में फिर से अंधेरा भर दिया जाता है । गायक मनोज पंजाबी के माध्यम से इसी दास्तान को अभिव्यक्त करती है कहानी – ‘अँधेरा-उजाला
       जीवन में भौतिक वस्तुएँ जितनी सुखमय होती हैं उतनी ही खतरों से भरी भी हो सकती हैं । एक नई दिशाकहानी में भौतिक सुख हीरे की नेकलेसउदाहरण के रूप में लिया गया है । जिसके प्रति दूसरों (घर खरीदने के लिए क्लाइंट) का आकर्षण मौली के लिए खतरा उत्पन्न कर देता है । मौली की सर्तकता के माध्यम से भौतिक सुखों का लगाव, विरक्ति और उनकी उपयोगिता तथा जीवन जीने की एक नई दिशा दिखाती यह कहानी है ।
      उपरोक्त आठ कहानियों के माध्यम से लेखिका रिश्तों में आये विचलन, प्रेम, छल, छद्म को बहुत ही खूबसूरती से व्यक्त करते हुए भारत और अमेरिका दोनों ही देशों के संस्कार, संस्कृति और परंपरा की तुलना सामान्य रूप से कर जाती है । हालाँकि उन्होंने कथानक और कथ्य की संरचना में सहज ही परिवेशगत वर्णन किया है किंतु ये कहानियाँ कई-कई अंतर्ध्वनियों के साथ विदेशी धरती के प्रति पूर्वाग्रहों और रूढ़ अवधारणों को सहज ही खारिज कर देती हैं ।
      लेखक जब अपनी रचनाएँ पाठकों के सामने रखता है तब हर पाठक उन कहानियों को पढ़ते हुए कई-कई बार पुनर्पाठ भी करता है । हर पाठक का अपना अलग-अलग पाठ और पक्ष भी हो सकता है । खिड़कियों से झाँकती आँखें’, ‘वसूली’ (कहानी का एक पक्ष), ‘एक ग़लत कदम’, ‘कॉस्मिक की कस्टडीमें वृद्धों की अलग-अलग रूप में संवेदनाएँ और समस्याएँ हैं । वसूलीऔर ऐसा भी होता हैकहानियों में भावनात्मक प्रवाह और रिश्तों में स्वार्थ दिखायी देता है । यह पत्र उस तक पहुँचा देनानस्लवाद और अँधेरा-उजालाजातिवाद पर आधारित है । एक नई दिशासमाज में सर्तकता को अभिव्यक्त करती है । किंतु लगभग सभी कहानियाँ अपने मन की खिड़की में झाँकने पर विवश करती हैं कि कहीं हम भी अपनेपन के नाम पर किसी षड्यंत्र में फँसे तो नहीं ? पैसे कमाने या फिर रिश्तों को समेटने के चक्कर में कहीं हम भी अकेलेपन, अवसाद, खिन्नता, भग्नाशा के शिकार तो नहीं ?लेखकीय ज़िम्मेदारियों को निभाते हुए पाठकों को बार-बार सतर्क करते हुए लेखिका का यह स्पष्ट अंदाज मुझे पसन्द आया, “यहाँ डॉलर उगते नहीं, कमाने पड़ते हैं, कड़ी मेहनत से।” (ऐसा भी होता है, पृ. 65)
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