मंगलवार, 12 मई 2020

Bauddhikta Ke Saaye Mein Shringaar Ras Ka Manovigyan : Navabhoom Ki Raskatha

डॉ. शगुफ़्ता नियाज़ द्वारा संपादित 'अनुसंधान' पत्रिका के जुलाई-दिसम्बर, 2019 अंक में प्रकाशित



बौद्धिकता के साये में श्रृंगार रस का मनोविज्ञान
(नवाभूम की रसकथा के विशेष संदर्भ में)

रिश्ते टूटते हैं प्यार नहीं,
पत्ते टूटते हैं, पेड़ नहीं

क्योंकि
जब प्यार टूटता है
तो पेड़, पत्ता,
कुछ भी नहीं रहता ।
-       (बेदी, सुषम. नवाभूम की रसकथा. पृ. 227-228)

तो क्या इसी प्यार को बचाने के लिए तोड़ दिया रिश्ता नवाभूम पर विचरण करने वाले दो पंक्षियों ने ? या फिर नदी की तरह बहने वाली नायिका ने बहते रहने को ही बेहतर माना और छोड़ दिया तटों का साथ ? अथवा पुराभूम के काव्य-सिद्धांतों के संस्कारों के अनुरूप प्रेम में त्याग बलिदान जैसे उच्च शिखर को छोड़ पकड़ लिया फ्रॉयड का सुख-सिद्धांत का हाथ ? अथवा पुराभूम के समस्त श्रृंगारिक रचनाओं को पढ़ने के पश्चात् अपने अस्तित्व को बचाने के लिए अस्तित्ववाद को आत्मसात कर लिया ?

जब अपने साथ होती हूँ
तभी तुम्हारे साथ होती हूँ
अब अपना साथ नहीं मिलता
तो तुम भी नदारद होते हो
या चुपचाप उदास इंतज़ार में पड़े रहते हो 
       -   (बेदी, सुषम. नवाभूम की रसकथा. पृ. 84)

इस अंतहीन प्रेम के अंत की कथा की पृष्ठभूमि लेखिका सुषम बेदी के हृदय में तब से बननी शुरू हुई थी जब 1996 में उन्हें शिकागो ह्यूमेनिटीज़ फेस्ट में ‘Love and Marriage in India’ पर पेपर प्रस्तुत करने के लिए आमंत्रित किया गया था । उस समय लेखिका का हवन उपन्यास प्रकाशित हो चुका था और वे चर्चित उपन्याकार के रूप में ऊभर रही थीं । उन्होंने बातचीत के दौरान बताया कि उस समय प्रेम पर पुस्तक लिखने की उन्हें सलाह भी मिली थी । तत्पश्चात् इस प्रेम कथा को उपन्यास के रूप में गहन अध्ययन और अनुभव की भट्टी पर पकाते हुए इतने सालों बाद उतार सकीं । 

गहन शोध के पश्चात् लेखिका ने इस उपन्यास को श्रृंगार रस के समस्त इकाइयों को अपना विषय बनाया है साथ ही आचार्य भरत, आचार्य धनञ्जय, आचार्य मम्मट और आचार्य भोजराज के सिद्धांतों का उदाहरण देते हुए प्रेम की स्वयं व्याख्या भी की हैं । वाल्मीकि, जयशंकर प्रसाद, अज्ञेय, टैगोर, जयदेव, जायसी आदि रचनाकारों के साहित्य की चर्चा करते हुए ऐतिहासिक एवं मिथकिय चर्चित पात्रों जैसे पृथ्वीराज–संयोगिता, रत्नसेन-पद्मावती, शिरीं–फरहाद, राम-सीता, अहिल्या-गौतम ऋषि आदि की प्रेमगाथाओं को लेकर आलोचनात्मक रवैया अपनाते हुए प्रेम के समस्त अंगों को कहानी की बुनावट में बुन दिया है ।   

इस उपन्यास की प्रमुख विशेषता है श्रृंगार-रस । श्रृंगार रस का उल्लेख सर्वप्रथम भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में मिलता है । नायक नायिका के परस्पर मिलन एवं प्रेम को संयोग श्रृंगार कहा जाता है । आचार्य भरत ने संयोग के तीन भेद माने हैं – गार्हस्थ्य जीवन पर आधारित धर्म श्रृंगार, धन के बल पर परस्त्रीगमन यानी अर्थ श्रृंगार, विशुद्ध काम की प्रेरणा से नायक-नायिका का मिलन यानी काम श्रृंगार । आचार्य भोजराज ने इन तीनों के साथ मोक्ष श्रृंगार भी जोड़ दिया जिसे स्वीकृति नहीं मिली क्योंकि वह धर्म श्रृंगार के अंतर्गत आता है ।                                - (बेदी, सुषम. नवाभूम की रसकथा. पृ.53)
जबकि संयोग के अंतर्गत मम्मट ने चार अवस्थाएँ मानी हैं- दर्शन, आलिंगन, चुंबन, जलक्रिड़ा । अभिलाषा और उन्माद आदि नायक-नायिका के मिलन से पूर्व की स्थिति है और चुंबन काम क्रीड़ा मिलन के बाद की ।  - (बेदी, सुषम. नवाभूम की रसकथा. पृ.52)

 नायक-नायिका के विछोह के पश्चात् हृदय में उत्पन्न वियोग को वियोग श्रृंगार कहा जाता है । वियोग श्रृंगार की चार अवस्थाएँ हैं – पूर्वराग, मान, प्रवास और करूण । जिसे साहित्यदर्पण में कवि विश्वनाथ ने तीन प्रकार का बताया है – कुसुम राग, नीली राग तथा मंजिष्ठा राग
केशवदास, भिखारीदास, कन्हैयालाल पोद्दार, रामदहिन मिश्र ने इन तीनों भेदों को ही स्वीकृति दी है । आचार्य मम्मट, भानुदत्त, पंडितराज के अनुसार यह पाँच प्रकार के हैं – अभिलाष हेतुक, विरस हेतुक, ईर्ष्या हेतुक, प्रवास हेतुक, शाप हेतुक । मतिराम और हरिऔध ने पूर्वाराग, मान, प्रवास तीन ही भेद माने हैं ।

समागम के पूर्व अर्थात् मिलन से पहले का वियोग पूर्वराग कहा जाता है । आचार्य धनन्जय ने दशरूपक में अयोग श्रृंगार की कल्पना की है, जो कि पूर्वराग के पहले की अवस्था है । जिसकी दस अवस्थाएँ हैं – अभिलाषा, चिंता, स्मृति, गुणकथन, उद्वेग, प्रलाप, उन्माद, ज्वर, जड़ता, मरण । - (बेदी, सुषम. नवाभूम की रसकथा. पृ. 52)
नायक अथवा नायिका दोनों में से किसी एक के प्रवासगमन के पश्चात् वियोग को प्रवास तथा नायक नायिका दोनों में किसी एक की मृत्यु अथवा कोई ऐसी आपदात्मक कारण जिसके कारण मिलन सम्भव ही न हो ऐसी स्थिति में उत्पन्न अदम्य वियोग करूण कहलाता है ।

सदियों से नानी-दादी द्वारा सुनायी गयी राजा-रानी की कहानी की परंपरा का निर्वाह करते हुए लेखिका ने अपनी इस किस्सागोई को आलोचनात्मक दृष्टि से साहित्य के सम्मिश्रण के साथ बौद्धिक प्रेमाख्यान का रूप दे दिया है । इस उत्तर-उपनिवेशवादी प्रेमाख्यान के अध्यायों के नाम वियोग श्रृंगार के भेदों के नाम पर ही रखा गया है – पूर्वराग, अयोग, संयोग, वियोग । जो कि पराभूम, नवाभूम तथा गौरभूम के धरातल पर वर्णनात्मक-विवरणात्मक रूप से एक कटाक्ष की तरह प्रस्तुत होते हुए व्यंग्य का पुट समेटे प्रेम के आरोह-अवरोह को अत्यंत सहजता से विस्तृत कथा के रूप में प्रस्तुत किया गया है । उपन्यास की विषय-वस्तु यानी श्रृंगार अर्थात् प्रेम का सूक्ष्म एवं सांगो-पांग चित्रण नायक आदित्य और नायिका केतकी के माध्यम से उत्तर-आधुनिक हवाओं में मंथर गति से भीनी-भीनी प्रवाहित होती है, जो कभी हवा के साथ पूरे आवेग में रहती है तो कभी थम-सी जाती है । ऐसे में फ्रॉयड का कथन उचित प्रतीत होता है, साधारणतया तरूण व्यक्ति की शिक्षित किए जाने की योग्यता उस समय खत्म हो जाती है जब यौन इच्छा अपनी अंतिम शक्ति से उफन पड़ती है(फ्रायड. मनोविश्लेषण. पृ. 327)

यह उफान पुराभूम के संस्कारों में रचित-खचित नायक आदित्य और नायिका केतकी को कर्मक्षेत्र नवाभूम यानी विदेशी भूमि अमेरिका में सहज बना देता है, जिसमें बेझिझक-बेधड़क मिलने की पूरी छूट होती है । पूराभूम के संस्कारों के कारण बचते-बचाते भी प्रेम के उफान में वे दोनों डूबने-उतराने लगते हैं । नवाभूम का दूसरा नाम गौरभूम अर्थात् गोरों की भूमि जो कि कम्प्युटर युग तथा विकसित समाज का प्रतीक है, में इनका प्रेम बौद्धिक परिपक्वतावादी नदी के किनारों से बार-बार टकराता हैं तो कभी खुद ही डूबने से घबराता है, कभी समुद्र में उठने वाला ज्वार-भाटा बन जाता है तो कभी सूख जाने के डर से खुद ही किनारे पर बैठ कर प्यास बुझाने का प्रयास करता है । लेखिका स्वयं लिखती हैं, नायक-नायिका का प्रथम संयोग बुद्धि के धरातल पर ही पनपता है(बेदी, सुषम. नवाभूम की रसकथा. पृ.54) पुराभूम तथा नवाभूम के संस्कारों के अंतर्द्वन्द में अचानक से बदलाव पुराभूम के धरातल जैसे इंद्रभूम अर्थात् इन्द्रप्रस्थ या दिल्ली, कलिका नगरी यानी कलकत्ता से वापस नवाभूम पर लौटने पर दिखायी देता है ।

इस उपन्यास में सर्वाधिक ध्यान देने वाली बात है कि भारतीय परिवेश की भाँति परिवार, समाज, जाति, संप्रदाय आदि से मुक्त नवाभूम यानी अमेरिका के पोस्टकलोनियन या उत्तर-उपनिवेशवाद के परिवेश में पलने वाला प्रेम व्यक्ति के अपने मन की जटिलता के कारण जटिल बन जाता है, तभी तो बाधारहित प्रेम की प्राप्ति में बाधा उत्पन्न हो जाती है । जबकि प्रेम तो सहजता में है या अहम् को त्याग दो धाराओं का एक साथ मिलकर समानान्तर प्रवाहित होने में है । लेकिन इनका प्रेम आचार्य भोजराज के इस उक्ति के साथ मेल खाता है, प्रेम का मूल रिश्ता इंसान का अहम् से है । मतलब कि आप दूसरे को प्यार इसलिए करते हैं कि आपको प्यार किया जाये, यानी कि आपके अपने अहम् की तृप्ति  हो । (बेदी, सुषम. नवाभूम की रसकथा. पृ. 53) और जब अहम् की तृप्ति होगी तो तृप्ति के पश्चात् प्रेम की समाप्ति निश्चित है । 

एक सम्मेलन में गए आदित्य और केतकी का मिलन मात्र एक संयोग होता है किंतु प्रेम के बीज पड़ने का कारक भी । जहाँ होटल में रूम की कमी के कारण विवशतावश एवं दोनों की स्वेच्छा से एक ही कमरे में रात बिताना उनके हृदय में पूर्वराग की उत्त्पत्ति का कारण बनता है । पूर्वराग की उत्पत्ति के संदर्भ में गिरिधर पुरोहित ने अपने ग्रंथ श्रृंगार-मंजरीमें लिखा है -
देखत ही द्युति दंपतिहिं, उपजि परत अनुराग ।
बिनु देखें दुख पाइये, सोइ पूरब अनुराग ।।46।।

लेखिका पूर्वराग या अयोग को अर्धयोग मानती हैं । जिसमें कुछ फासले बने रहें साथ ही अभिलाषा, उद्वेग, और स्मृति भी ।
-       (बेदी, सुषम. नवाभूम की रसकथा. पृ. 52-53)
कुलपति मिश्र ने पूर्वराग के चार हेतु निर्धारित किए हैं – प्रत्यक्ष-दर्शन, चित्र-दर्शन, स्वप्न-दर्शन, श्रवण । जिसका प्रारंभ इस उपन्यास में आदित्य और केतकी का एक कमरे में एक साथ ठहरने के साथ ही कुछ भय और कल्पना के साथ हो जाता है, जिसे लेखिका पूर्वराग का नाम न देकर स्पष्ट करती हैं कि पूर्वराग तो परंपरागत कथाओं में स्वप्न या चित्र देखकर अथवा गुणों का श्रवण करने से होता है । इस युग में प्रथम प्रत्यक्ष दर्शन के बाद द्वितीय दर्शन को पूर्वराग कहा जा सकता है । यदि इसे मनोविज्ञान के अनुसार देखा जाय तो प्रत्यक्षीकरण इतना प्रभावशाली हो गया कि अभिलाषा, स्वप्न दर्शन और प्रेमी की मधुर वाणी का श्रवण स्मरणदशा के माध्यम से उद्दीप्त हो होकर द्वितीय मिलन के लिए उन्हें विवश कर दिया । जिसे लेखिका ने पूर्वराग का नाम दिया है और भारतीय काव्यशास्त्र में इसे सुरतानुराग कहा जाता है । सूरतानुराग के पश्चात् अति व्याकुलता ने वृष्ठानुराग की स्थिति उत्पन्न कर दी कि दोनों के ना-नुकूर करने के पश्चात् भी दैहिक दूरियों का मिटना और मिलना तय हो गया । स्त्री-पुरूष के बीच प्रेम रूपी एकमात्र शक्ति को आधार मानकर कामसूत्र में मुनि वात्स्यायन कहते हैं, स्त्री तथा पुरूष के बीच एक ही शक्ति अनेक रूपों में विद्यमान रहती है – जिसका नाम प्रेम है । अगर प्रेम का कहीं कोई बीज है तो वह सिर्फ मैथुन भावना ही है । (वात्स्यायन. सम्पूर्ण कामसूत्र. प्रस्तुति – शशि मोहन बहल. पृ.39)

लेखिका के अनुसार दोनों का बौद्धिक आकर्षण भारतीय आर्चायों द्वारा निर्धारित श्रृंगार रस के भेदों में समाहित नहीं हो सकते । क्योंकि दोनों ही नवउपनिवेशवाद के आत्मसजग तर्कप्रिय लेखक हैं । काम और बुद्धि के समागम में उन्हें जोड़ने का एकमात्र माध्यम है किताबें और उन पर चर्चाएँ । कह सकते हैं कि बौद्धिक जुगाली में काम भाव अप्रत्यक्ष रूप से अभिव्यक्त होती है । अकादमिक कार्यों में मिलना मानसिक तृप्ति तो देती है, साथ ही अयोग श्रृंगार की अभिलाषा, उद्वेग, गुणकथन को पूर्ण तृप्ति तो नहीं कह सकतें पर पूर्ण तृप्ति में साधक अवश्य बनती हैं । लेखिका के अनुसार, किताब आधुनिक युग के प्रेमियों के लिए एक बड़ी नायाब चीज़ है । एक तरह से यह एक मंत्र है जिसका जाप करते ही प्रेमी से संपर्क की संभावना खुल जाती है। - (बेदी, सुषम. नवाभूम की रसकथा.पृ. 40)
बौद्धिकता के आवरण में प्रेम करने वाले प्रेमी सहजता से प्रेम को स्वीकार नहीं करते अथवा यह कह सकते हैं कि अंतर्द्वन्द में उलझे रहने के बाद भी प्रेम को सहजता से स्वीकार न करना बौद्धिक या परिपक्व व्यक्ति की निशानी है, खासकर तब जब वह शादीशुदा हो अथवा तलाकशुदा । आदित्य और केतकी के संदर्भ में उम्र का पड़ाव और तलाकशुदा होना अस्वीकृति का कारण हो सकता है, जिसे वे बार-बार देखने-परखने के पश्चात् ही स्वीकृति देना चाहते हैं । मनुष्य के समस्त क्रिया-कलापों का मूल काम को मानने वाले फ्रॉयड कहते हैं - आनन्दप्राप्ति का प्रयत्न जिसे हम लिबिडो या राग कहते हैंकिसी भी निरोध के काबू में न रहता हुआ, बल्कि निषेधात्मक वस्तुओं को ही पसन्द करता हुआ, अपनी तृप्ति के आलम्बन चुन लेता है(फ्रायड. मनोविश्लेषण. पृ. 131)
आचार्य वात्स्यायन प्रेम का मुख्य उद्देश्य दार्शनिक दृष्टि से संभोग को मानते हुए कहते हैं, जितने व्यवहार प्रेम से संबंध रखने वाले हैं वे सब मैथुन-प्रेम में अन्तर्निहित हैं । वे इससे अलग नहीं किये जा सकते- (वात्स्यायन. सम्पूर्ण कामसूत्र. प्रस्तुति – शशि मोहन बहल. पृ.39) शायद यही कारण है कि आदित्य और केतकी दैहिक एवं नैसर्गिक मिलन से खुद को अधिक समय तक दूर नहीं रख पातें ।

इस उपन्यास की दूसरी विशेषता है बुद्धिजीवी नायक-नायिका का चरित्र । प्रायः देखा जाता है कि पूराभूम यानी भारतीय संस्कारों से संस्कारित पुरूषों में सेक्सको मर्दाना गुणों का हिस्सा माना जाता है । वे प्रेम में एकनिष्ठता चाहते हुए भी आवश्यक नहीं कि वह प्रेम और सेक्स में सम्पूर्ण विलीनकरण या एकात्मभाव को महत्त्व दें, कम से कम स्वयं के लिए तो नहीं (कुछ अपवादों को छोड़कर)... और स्त्रियाँ एकनिष्ठता की चाह करते हुए एकनिष्ठता बनाये रखते हुए प्रेम में सम्पूर्ण विलीनकरण या एकात्मभाव को ही महत्त्व देती हैं, क्योंकि इनके लिए देह का मिलना मात्र दैहिक मिलन नहीं होता बल्कि आत्मिक मिलन होता है । किंतु स्त्री-पुरूष दोनों की परंपरागत चारित्रिक ढाँचे को तोड़ते हुए लेखिका ने आदित्य और केतकी के चरित्र को इसका ठीक उल्टा रूप प्रस्तुत किया है । ओशो के सिद्धांत के अनुसार देखें तो नायिका केतकी जितना स्वीकार होता है, उतने हम मुक्त होते हैं(ओशो. संभोग से समाधि की ओर. पृ. 26) के सिद्धांत पर चलती है तो नायक प्रेम है एकात्म का अनुभव(ओशो. संभोग से समाधि की ओर. पृ. 27) के सिद्धांत पर । दोनों का लक्ष्य एक है – प्रेम, किंतु रास्ते अलग-अलग ।

उत्तर-आधुनिक, उत्तर-उपनिवेशवादी केतकी में रमणिका गुप्ता की इन पंक्तियों का स्वर बार-बार सुनायी देता है-
मैं आजाद होना चाहती हूँ
इसका अर्थ यह तो नहीं
मैं तुमसे मुक्त होना चाहती हूँ
न ही आजाद होने का अर्थ है
तुम्हारे प्यार से मुक्त होना
मैं तो बस
प्यार करने की हकदार होना चाहती हूँ
खुद प्यार करना चाहती हूँ
-       (गुप्ता, रमणिका. मैं आजाद हुई हूँ. पृ. 19)

केतकी का प्रेम में डूब जाना या आत्मविस्मृत हो जाना उसे सदैव डराता है । वह अपने पूर्व अनुभवों से प्राप्त धोखे के फलस्वरूप यह महसूस करती है कि जिसके कारण वह आत्मविस्मृत होकर प्रेम में डूबने के लिए तैयार है, यदि वह उसे छोड़ नदी के किनारे ही बैठ कर प्यास बुझाता रहे तो इसके अस्तित्व का क्या होगा ? इसीलिए वह दिन-रात आदित्य के विषय में सोचते रहते हुए भी उससे मुक्त रहना चाहती है, ताकि उसका अस्तित्व बचा रहे । यह उत्तर-आधुनिक स्त्री का सशक्त पक्ष भी है । उसके अस्वीकृति के पीछे दूसरा कारण उसका अपना अतीत जैसे दीदी, पति, कार्तिक, पिता, माँ, अजय को क्रमशः खोने के पश्चात् आदित्य को खो देने का भय सताता रहता है । उसका नदी की तरह प्रेम में बह जाने की इच्छा और वैवाहिक बंधन में बंधने से इंकार करना उसे कार्तिक से मिले धोखे के पश्चात् अजय का संसर्ग और डेट-रेप भी एक कारण रहा । वह वर्तमान में जीते हुए भी अतीत के संसर्ग  से इंकार नहीं कर पाती अथवा कहा जा सकता है कि अतीत वर्तमान पर हावी हो गया । तीसरा कारण उसे भय था कि आदित्य भी उसके पूर्व पति कार्तिक की तरह विवाह के पश्चात् कहीं उसे अपनी जायदाद न समझने लगे । इसलिए वह कहती है - मैं किसी की ज़ायदाद तो नहीं । अपनी मालिक ख़ुद हूँ   - (बेदी, सुषम. नवाभूम की रसकथा. पृ. 92)
रमणिका गुप्ता ऐसी प्रतिनिधि औरतों के लिए लिखती हैं, वह मुक्ति के लिए मूल्य देने को तैयार है । उसे अब यह रास आने से रहा कि वह किसी का प्रतिबिम्ब या प्रतिरूप होकर रहे – वह परोपजीवी नहीं हैं । वह अपनी शर्त पर जीना चाहती है । - (गुप्ता, रमणिका. मैं आजाद हुई हूँ. भूमिका से उद्धृत)

केतकी की मुक्ति की चाह और भारतीय संस्कारों में पले स्त्रियों की मनोधारणा की भाँति उसकी भी धारणा कि सामने वाले से मन की बात न कहना और बिन कहे सामने वाले का सब समझ जाना आदि उसे बार-बार संदेह के घेरे में भी खड़ा कर देता । स्वच्छंदप्रिय और बिना शर्त प्रेम चाहने वाली केतकी से आदित्य के प्रस्ताव के पश्चात भी उसका ठीक-ठीक जवाब न दे पाना उसकी बौद्धिक क्षमता का परिचायक भी हो सकता है कि वह अपने जीवन में पहले की गलतियों को दूबारा न दुहराये ।

जबकि इसके विपरीत आदित्य का प्रेम अलौकिक अनुभूति से कम नहीं ।  वह प्रेम में पूर्ण विलय की इच्छा व्यक्त करते हुए केतकी से कहता है, प्रेम मेरे लिए पूर्ण विलय का पर्याय हैएक-दूसरे में पूरी तरह विलुप्त हो जाना, खो जाना, जिसे तुम आध्यात्म की भाषा में दो आत्माओं का एक हो जाना भी कह सकती हो। - (बेदी, सुषम. नवाभूम की रसकथा. पृ. 87)
प्रेम में इस विलीनकरण के सिद्धांत के संदर्भ में ओशो का कथन है, मनुष्य के भीतर प्रेम छिपा है, सिर्फ उसे उघाड़ने की बात है । उसे पैदा करने का सवाल नहीं है, अनावृत करने की बात है । कुछ है जो हमने ऊपर से ओढ़ा हुआ है, जो उसे प्रकट नहीं होने देता (ओशो. संभोग से समाधि की ओर. पृ. 13)
इन्हीं शब्दों को आदित्य अपनी भाषा में समझाते हुए कहता है कि मेरा मतलब एक-दूसरे के प्रति हर तरह का नक़ाब उतार अनावृत्त हो जाने से है । एकदम नंगा हो जाना एक-दूसरे के सामने । जैसे एक आईना दूसरे आईने के सामने । -  (बेदी, सुषम. नवाभूम की रसकथा. पृ. 87)

दबा-छुपा न होना, विलीनीकरण, अनावृत और एकीकरण केतकी को एक दूसरे को लील जाने वाला प्रेम महसूस होता है, जिसका सीधा संबंध उसके अस्तित्व से है । सार्त्र के अस्तित्ववादी सिद्धांतों के अनुसार प्रेम करते हुए भी अपने अस्तित्व को बचाये रखने में केतकी का विश्वास है । साथ ही उसे प्रेम और आकर्षण में अंतर ज्ञात है, इसलिए वह एक बार आकर्षण का रहस्य जान लेने के पश्चात् खिंचाव का कम हो जाना’ के भय से भयभीत है । वह हर संभव आत्मसजग रह कर प्रेम को नापती-तौलती है जबकि अत्यधिक आत्मसजगता प्रेम में अवरोध उत्पन्न करता है । उसका कथन शादी प्यार की मौत की घोषणा है(बेदी, सुषम. नवाभूम की रसकथा. पृ.91) सार्त्र और सीमोन के बंधनरहित अंतहीन रिश्ते की याद दिलाते हैं और आदित्य को आहत भी करते हैं  । हालांकि वह खुद भी स्त्री-मुक्ति का पक्षधर है और वह केतकी को निर्णय लेने के लिए भरपुर समय भी प्रदान करता है ।  

विलीनीकरण, एकात्मभाव, प्रेम में पूर्णतः समर्पण जैसे आदित्य के विचार उसे भारत से दूर होने के पश्चात् भारतीय संस्कारों के करीब लाते हैं तथा उसके साथ बार-बार केतकी का दूर जाना, शारीरिक संबंधों के पश्चात् भी विवाह से इंकार करना, प्रेम में मुक्ति की चाह, अपने अन्य पुरूष मित्रों के साथ लंच पर जाना या मित्रों के साथ बिना बताये घुमने निकल जाना आदि व्यवहार उसे पूर्व में अपनी पत्नी से प्रेम में मिले तकलीफ और पूर्व-प्रेमिका कनक के धोखे की याद दिला जाते हैं, जिसके कारण वह अपने मूल स्वभाव के विपरीत व्यवहार करने लगता है । वह सहजता से केतकी पर विश्वास नहीं कर पाता और अन्जाने में ही केतकी के टाइम, स्पेस को कन्ट्रोल करते हुए एक एब्युसिव पुरूष की भाँति व्यवहार करने लगता है । चूंकि आदित्य एक बौद्धिक एवं सजग व्यक्ति है इसलिए वह बार-बार होने वाली ऐसी पीड़ा से बचने के लिए केतकी के प्रेम को ठुकराने का निर्णय लेता है । जिसे फ्रॉयड के सुख-सिद्धांत के अंतर्गत देखा जा सकता है । फ्रॉयड के अनुसार हमारी सारी मनोधात्वीय चेष्टा सुख पाने और दुःख से बचने में जुटी हुई है, अर्थात् वह सुख-सिद्धांत से स्वतः नियंत्रित हैं- (फ्रायड. मनोविश्लेषण. पृ. 327)

दोनों का प्रेम अपने स्वाभिमान को सुरक्षित करने की पुरज़ोर कोशिश में अहमवादी बन जाता है, जो कि स्वाभाविक भी है । किंतु समय-समय के साथ प्रेम की प्रबलता में पुनः पुनः अपने अहम् का एहसास होते ही वापस एक-दूसरे से मिलने का प्रयास भी करते हैं किंतु अहम् प्रेम के प्रवाह में बार-बार चट्टान बनकर खड़ा हो जाता है । इस परिवर्तन को फ्रॉयड यथार्थता-सिद्धांत की संज्ञा देते हैं,  अहम् को पता चलता है कि अनिवार्यतः उसे तत्काल संतुष्टि से वंचित रहना होगा; परितुष्टि बाद के लिए मुलतवी करनी होगी; कुछ दु:ख सहन करना सीखना होगा; और सुख के कुछ स्रोतों को बिलकुल छोड़ देना होगा । इस प्रकार अभ्यास हो जाने पर अहम् तर्कसंगत हो जाता है । अब वह सुख-सिद्धांत पर नहीं रहता, बल्कि यथार्थता-सिद्धांत पर चलता है  - (फ्रायड. मनोविश्लेषण. पृ. 328)

यह कहना गलत न होगा कि नायक आदित्य का चरित्र कभी-कभी फ्रायड के मनोग्रस्तता-रोग (Obsessional neurosis) (फ्रायड. मनोविश्लेषण. पृ. 238) के अंतर्गत भी दिखायी देता है, जब उसके विचार (मनोग्रस्तियां या आबसेशन) तनावपूर्ण हो जाते है और उसका सकेन्द्रण नायिका के इर्द-गिर्द घूमते उसके ब्वॉयफ्रेण्ड हो जाते हैं । वह नायिका से अनन्य प्रेम करते हुए भी उसकी सत्चरित्रता के विषय में सोच-सोच कर उसी से दूर भागने लगता है और प्रेम में बार-बार आने वाली तकलीफों से दूर बचने का रास्ता ढूँढ लेता है और उसके प्रेम को इन्कार करते हुए उसके जीवन से चले जाने का फैसला करता है । वह केतकी के यौन-सिद्धांत जिसे मैरी ई. जॉन एवं जानकी नायर के शब्दों में देखा जाय तो अगर यौन उत्पीड़न से मुक्ति प्राप्त करनी है, अगर पीड़ा को आनंद मानने के आग्रह से छुटकारा पाना है और अगर अंतरंग संबंधों की दुनिया को भी स्वाधीनता, समता और गरिमा के विचारों के प्रति जवाबदेह बनाना है तो नाना प्रकार के ऐसे दायरों की रचना करनी होगी जिसमें ऐंद्रिकता को संवादपरक बनाया जा सके(जॉन, मैरी ई. और जानकी नायर. संपा. कामसूत्र से कामसूत्र तक. पृ.173) को समझ नहीं पाता अथवा उस रास्ते पर चलना जटिल एवं दुश्कर है समझते हुए आसान रास्ता दूरियों का चयन कर लेता है ।

हालांकि केतकी भी अपने सिद्धांतों को बदलने का प्रयास करते हुए भी अपने मूल स्वभाव को बदल नहीं पाती । यहाँ रमणिका गुप्ता का यह कथन सटिक बैठता है -  वह चीज नहीं रही – उसके भीतर इच्छा का उन्मेष हो चुका है । वह बराबरी चाहती है । बराबरी में वही हक चाहती है जो पुरूष समझता है कि केवल उसी का है । पुरूष के इस मनोविज्ञान से उसे विरोध है और इस मनोविज्ञान को मिटाने के लिए वह संघर्ष की मनःस्थिति में है(गुप्ता, रमणिका. मैं आजाद हुई हूँ. भूमिका से उद्धृत)

यह जानते हुए भी आदित्य उसे समानता का पूरा अधिकार देने को तैयार है किंतु वह आदित्य के समर्पित प्रेम के पश्चात् भी खुद को खोना नहीं चाहती क्योंकि समर्पण आधी-आधी नहीं होती पूरी होती है और यदि आधी होती है तो अहम का टकराव सुनिश्चित है । वह पत्र में आदित्य को लिखती भी है -  
  
तुम्हारे जाने के बाद
जो कुछ भी था
तुम्हारा छुआ, भोगा, जिया
वह तुम हुआ
....
सोचती हूँ, तुम कहाँ नहीं हो ?
जहाँ नहीं हो,
वहाँ हो सकती हूँ मैं !”
-       (बेदी, सुषम. नवाभूम की रसकथा. पृ. 228-229)

अनेक कोशिशों के पश्चात् भी दिल और दिमाग की लड़ाई में प्यार के हारने को लेखिका ने स्थायी वियोग का नाम दिया है । उनके अनुसार संयोग स्थायी भाव न होकर विरह का भाव प्रेम का मूल भाव ही है” (बेदी, सुषम. नवाभूम की रसकथा. पृ. 178) जिसकी शुरूआत दो शरीरों के मिलने के पहले घंटे में ही शुरू हो जाती है । इस कहानी में गौरभूमि में नायक-नायिका जुड़ना तो चाहते हैं पर पूरी तरह जुड़ ही नहीं पायें तो अलग कैसे होंगे ? दोनों का अपनी अस्मिता और अस्तित्व को सुरक्षित रखते हुए विलग होकर प्रेम को सुरक्षित रखने का निर्णय भी बौद्धिक-वर्ग की वह जटिल मानसिकता है, जो कलह से दूर 1963 में बनी फिल्म गुमराह की पंक्तियों की भाँति तारूफ रोग हो जाये तो उसको भूलना बेहतर / ताल्लुक बोझ बन जाये तो उसको तोड़ना अच्छा / वो अफ़साना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन / उसे एक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा देने वाला भाव है ।

यह उपन्यास उत्तर-उपनिवेशवाद की उस बौद्धिक मानसिकता को रेखांकित करता है जहाँ प्रेम की पवित्रता, समर्पण, अभिलाषा, तृष्णा दिखायी तो देती है, उसके पीछे भागना भी पसन्द है पर उसे प्राप्त कर जीना नहीं... और प्रेम को तो हर पल जीना पड़ता है । सुषम वेदी ने अपने उपन्यासों (हवन, लौटना, इतर, गाथा अमरबेल की, कतरा-दर-कतरा) में प्रेम की प्राप्ति और अलगाव दोनों को ही बड़ी सूक्ष्म एवं मनोवैज्ञानिक तरिके दिखाने का प्रयास किया है । इनकी नायिकाएँ स्वत्व को पाने के लिए संघर्षरत् है, उनके सम्मुख अस्तित्व का संकट खुलकर दिखायी देता है और वे समस्त परिस्थितियों से लड़कर भी अपने अस्तित्व बचाने का प्रयास करती हैं । उसी प्रकार इस उपन्यास में भी नायिका अपने अस्तित्व अर्थात् स्वत्व की तलाश में नायक को नकारती चली जाती है, कितुं स्वत्व प्राप्ति के पश्चात् परत्व में विलय सहज नहीं । यह उपन्यास स्त्री-विमर्श या पुरूष-विमर्श की कसौटी पर नहीं आंका जा सकता, क्योंकि दोनों का ही स्वरूप वैचारिक स्तर पर सशक्त है । दोनों ही पुराभूम के संस्कारों को मानते हुए नवाभूम के रंग में रंगे हुए हैं । प्रेम को लेकर दोनों का ही सर्वमान्य किंतु विशिष्ट रूप दिखाई देता है, जो कि आज के युवक-युवतियों में सहजता से देखने को मिल जाता है । फिर भी दोनों सुख-सिद्धांतके लिए सर्वस्व त्याग देते हैं । इस उपन्यास में लेखिका ने आदिकाल से लेकर वर्तमान काल तक श्रृंगार-रस के परत-दर-परत पगचिन्हों को उभारने का प्रयास किया है और अन्त में यही ज्ञात होता है कि पहले के साहित्य में भारी-भरकम आदर्शवादी शब्दों में प्रेम की कुंठा को बड़ी ही खूबसूरती से उभारा जाता था और अंत में सेक्स ही परिणति होती थी, किसी न किसी माध्यम से प्रेम की पीड़ा प्रेमी को भोगना ही पड़ता था । वैसे ही आज भी बौद्धिकता के साये तले श्रृंगार-रस प्रेम और सेक्स के रूप में साथ-साथ उभरता है और सेक्स ही परिणति है । अंतर यह है कि पहले प्रेमी आत्मिक विलय के बाद एक-दूसरे के लिए प्राण त्याग देते थे और अब आत्मिक विलय के बाद एक-दूसरे को त्याग कर अपने अस्तित्व की रक्षा करते हैं । इस पूरे उपन्यास की व्याख्या मेरी वोल्स्टनक्राफ़्ट के इस वाक्य से हो जाती है, प्रेम, जिसे आदिम तृष्णा माना गया है, अपने आप लम्बे समय तक जीवित नहीं रह सकता । और अपने ही ज्वाला में इस तरह जल मरने को, प्रेम की अकाल मृत्यु कहा जा सकता है । -  (वोल्स्टनक्राफ्ट, मेरी. स्त्री-अधिकारों का औचित्य-साधन. पृ. 109)

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संदर्भ-ग्रंथ –

·         बेदी, सुषम. नवाभूम की रसकथा. प्रथम, 2018. हिन्दी बुक सेन्टर, नई दिल्ली.
·         फ्रायड. मनोविश्लेषण. 2004. राजपाल एण्ड सन्ज़, दिल्ली
·         वात्स्यायन मुनि. सम्पूर्ण कामसूत्र. प्रस्तुति – शशि मोहन बहल. देलही गेट. मेरठ-2
·         ओशो. संभोग से समाधि की ओर. 2005. डायमंड पाकेट बुक्स (प्रा.) लि., नई दिल्ली.
·         गुप्ता, रमणिका. मैं आजाद हुई हूँ. 1998. नवलेखन प्रकाशन, हजारीबाग.
·         जॉन, मैरी ई. और जानकी नायर. संपा. कामसूत्र से कामसूत्र तक. अनु. – अभय कुमार दुबे. प्रथम, 2008. वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली.
·         वोल्स्टनक्राफ्ट, मेरी. स्त्री-अधिकारों का औचित्य-साधन. अनु. मीनाक्षी. पहला 2003. राजकमल प्रकाशन प्रा.लि., नई दिल्ली
·         मारगन, एलीन. नारी का अवतरण. अनु. प्रकाश दीक्षित. संवाद प्रकाशन, मेरठ.



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