आजकल (जुलाई, 2019) में प्रकाशित
कहानी
कोपभवन
“चार दिन से घर में चूल्हा नाहीं जला, बच्चे भूख से बिलबिला रहे हैं । उ तो
रामनयना क माई खाना दे जात है त बच्चे आपन परान जियावत हैं । जी कुफूत में पड़ा है
कवन पकाये और कवन खाये... जैसे घर में मरन पड़ गया हो” –
हरिया उर्फ हरिन्द्र की माई अंचरा के कोना से अपना आँसू पोछते हुए अपने भाई रामलखन
से दुखड़ा सुनाने लगी । रामलखन हरिया का हमउम्र है, दोनों में खूब पटती है । जो वह
कह देता है हरिया वही करता है, लेकिन बड़ी बहन का दुख भी देखा नहीं जाता ।
“एइसन काहें कह रही हो दीदी, उ बियाह नहीं करेगा त सब
भुक्खन मरेंगे का” ? रामलखन सांत्वना भरे स्वर में कहा ।
“का करीं लाखन, बरच्छा अऊर तिलक में लाखों रूपया खर्च हो गया... जबन गया तवन
गया, लेकिन ईज़्जत जा रही है ओकरे करतीन का करें । हमारे मुँह पर करीखा पोता
जायेगा । नात-हित सब का कहेंगे, सबको नेवत दिया है । गाजा-बाजा का सट्टा लिखा गया
है, सब बरबाद” ।
“…………………”
“बियाह नाहीं करना था तो पहले ही बता दिया होता, कवनो जोर-जबरदस्ती था का” ?
“…………………”
“सब समझा समझा के थक गये, केहू क बात नाहीं मान रहा । अब तुहार आस है,
तुहार बात नाहीं टारता । तुहई कुछ कर सकते हो लाखन..”
“चिंता मत कर दीदी, हम समझा देते हैं”
“का पता, तुहरे कहले से ही मन पलट जाये... हे काली मईया ! हे भगवती देवी !! हे डीह बाबा !!!...”
**** **** ****
छोटे छोटे रौशनदानों की धुँधली
रोशनी में हरिया कथरी पर लेटा है, एक हाथ उसके पेट पर है तो दूसरे से आँख ढाँप रखा
है । रामलखन घर में जाते ही उसकी हालत देखकर चौंक गया, “हरिया… क्या हालत बना रखे हो”
हरिया आँखों से हाथ हटाकर देखने की
कोशिश करता है, ऐसा लगता है मानो जमीन से सट गया हो... देह कमजोर हो गयी है, आखें
खोहे में धँसी चुकी हैं ।
“हरिया... तुम्हारी हालत देख कर तो कैकेयी भी कोपभवन में जाने से शरमा जाये… हा...हा...हा...” चुटकी लेते हुए रामलखन हँस पड़ा ।
“का मरदे... अब तुम भी मजाक उड़ा रहे हो, उड़ा लो - उड़ा लो... अपना अपना
समय होता है” । हरिया उठकर दीवार से टेक लेकर बैठ गया ।
“मामा को मरदे कह रहे हो, इस तरह बात करोगे मुझसे... हाँ... (हँसते हुए)
हा... हा... हा...” रामलखन हरिया के बगल में बैठ कर उसके
कंधे पर हाथ रखते हुए हँस पड़ा ।
“हाँ… हाँ... तो और क्या कहें, मरद नहीं हो क्या”?
दोनों हँसने लगें । फिर रामलखन अपनी की तरफ ध्यान खींचते हुए कहने
लगा,
“दीदी बहुत परेशान है, बहुत रो रही है। क्यों सबको परेशान कर रहे हो” ?
“अब तुम भी नहीं समझते कि हम क्यों परेशान हैं...”? हरिया
फफक फफक कर रो पड़ा ।
इससे पहले रामलखन कुछ और कहता कि
तभी गाँव के सुभाष काका आ गए, “ अरे भाई कब तक
रोते-धोते रहोगे... मर्द जात होकर रो रहे हो, शरम नहीं आती । (गंभीर आवाज में) अगर
शादी नहीं करनी है, तो परिस्थिति का डट कर सामना करो... (व्यंग्यात्मक पुट में) ये
भी कोई बात हुई... पहले औरतें ही जाती थी कोपभवन में, अब मर्द भी जाने लगें...” ।
सुभाष काका गाँव में सबसे अधिक पढ़े
लिखे हैं ऊपर से जाने-माने वकील भी हैं । उड़ती चिड़िया के पर गिन लेना और हर
समस्या का समाधान चुटकी बजाकर कर लेना उनके बायीं हाथ का खेल है । क्रीम कलर का
कुर्ता और सफेद धोती झार के पहनते हैं काका, जब वे धोती का एक कोना बायीं हाथ के
ऊँगलियों से पकड़ कर चलते हैं तो उनके रौब से ख़ुद-ब-ख़ुद लोगों की आँखें झुक
जातीं हैं । रोज सबेरे छः बजे से उनके घर लोगों का ताता लग जाता है, वैसे तो काका
कचहरी दस बजे जाते लेकिन घर में कचहरी छः बजे ही खुल जाती । जितना काका कचहरी से
एक महिने में कमाते उससे तीन गुना अधिक कमाई घर पर ही हो जाती । घर का खर्चा कचहरी
की कमाई से और घर की कमाई न जाने कहाँ गाड़ देतें ? आज तक किसी
ने पार नहीं पाया । लेकिन देखते देखते काका दो जून की रोटी से दो-दो गाड़ी और
दुमंजीला बँगला के मालिक हो गयें । उनके सामने अच्छे-अच्छों की हेकड़ी निकल जाती
और सबकुछ इनके सामने उगल देते । क्या मजाल कि इनके सामने कोई कुछ बोल पाये ।
काका तो काका हैं, काकी भी इनसे कुछ
कम नहीं । उनका धाक तो काका से भी अधिक है । कलफ लगी सूती साड़ी रोज झारे-झार
पहनतीं हैं । शादी-ब्याह या उत्सव में एक बार जो साड़ी पहन लेतीं, का मजाल की
दूसरे किसी उत्सव में पहने हुए दिखायी दे दें । यदि गलती से भी कोई कह देता कि “ऐतना साड़ियों का करती क्या हैं” ? तो बस, काकी उस
पर पूरे दंभ के साथ बरस ही पड़तीं, “हम वकिलाइन हैं, हमके पइसा क कवनों कमी है का… एक गोड़ भी झार देंगे तब भी पचास हजार निकल आयेगा”
। उसके बाद सबकी बोलती अपने आप बंद हो जाती । वैसे काकी सच ही तो कहती हैं, वे
गाँव के मेहरारून का फैसला खुद ही कर देती हैं, आधी जनता तो काका तक पहुँचने ही
नहीं पाती । न्याय के मामले में औरतों के बीच बहुत ही फेमस हो गयीं, वे मुँह माँगे
दाम भी पा जातीं । हर घर का परिवारिक कलह काकी ने दूर कर दिया । एक बार भी गाँव की
कवनो औरत आकर काकी के सामने आँसू का गिरा देती, काकी दोनों हाथ से अपना घुँघट
उठाकर सीधे उनके घर पहुँचकर कड़क आवाज में बोलतीं, “का हो
जेठ जी ! सुनते हैं समाज में बड़ी ईज़्जत है राऊर, पर लगत है
अब मुँछ उखाड़ने का समय आ गया है” बस बचा ही क्या? अपनी मुँछें सबको प्यारी... सारे मर्दों की सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाती । सबको
लगता कि अगर इनके मुँह लगेंगे तो वकील साहब कवनो केस ठोक देंगे । इससे अच्छा अपनी
ईज़्ज़त-पानी अपने हाथ में... । काकी का हरिया की माई से भी खूब पटती । जब भी वो
पूछतीं कि हरिया कहाँ है तो पता चलता हरिया कोपभवन में पढ़ाई कर रहा है । काकी का
दिल बाग बाग हो जाता कि ‘लइका जन्में तो हरिया जइसन हो’ ।
हरिया की माई जब भी कोपभवन में जाने
के लिए सीढ़ियों से चढ़ती, हरिया का मुँह किताब पर झुका देख पीठ की ओर से ही वापस
लौट आती । आज पहली बार काका उसके कोपभवन में पधारे हैं । वैसे तो आज पहली बार ही
है कि कोपभवन में कोई बाहर का आदमी आया है । सुभाष काका मुँछों पर ताव देते हुए
रामलखन से पूछने लगें, “क्यों रामलखन पहुना, आप दोनों का
साथ उठना-बैठना, ओढ़ना-बिछाना है, क्या आप भी नहीं जानते थे कि ये लवण्डा क्या
चाहता है” ?
रामलखन के पास कोई जवाब नहीं था । हरिन्दर
का ममहर ज्यादा दूर न था, दोनों साथ-साथ मिलकर स्कूल जाते थे । बी.ए., बी.एड. की
पढ़ाई भी साथ-साथ पूरी किए । रामलखन अपने घर कम और हरिया के घर ज्यादा रहता था ।
इसलिए कुछ लोगों को वह फूटी आँख भी नहीं सुहाता कि ‘आ गए बहिनऊरे
की रोटी तोड़ने’ ! लेकिन जब दीदी और
जीजा को कोई एतराज नहीं तो और लोगों से क्या लेना देना । एतराज हो भी क्यों ? हरिया पढ़ाई में बहुत कमजोर था, बारहवीं क्लास में रामलखन आया तबसे हरिया
के ऊपर सरस्वती माता विराजमान हो गयीं । दोनों फर्स्ट डीविजन पास होने लगें । कॉम्प्टीशन
की तैयारी साथ-साथ मिलकर करने लगें । दोनों का सपना साथ-साथ पलने लगा, अगर
आई.ए.एस. न बन सकें तो भी पी.सी.एस. जरूर बन जाना है और कुछ नहीं तो बी.एड. कर
लेने के बाद टीचर बनने का रास्ता साफ ही है । कुल मिलाकर गणित का पन्ना-पन्ना चाट
जाने में ही भलाई है । उनका मानना है कि जिसने गणित हजम कर लिया दुनियाँ के सारे
प्रश्न हजम कर लिये, क्योंकि गणित तो परग परग पर साथ चलता है । सारे विषयों में
कमजोर होते हुए भी गणित में अव्वल थे । गाँव में अव्वल वही होता है जिसे गणित आती
है, सो गाँव के सारे लड़कों, बूढ़े-बुजूर्गों में ये दोनों पढ़ाकू सम्मान के पात्र
थे । सब इनका साथ पाकर गणित सीखना चाहते थे पर आज तक दोनों का राज कोई न जान पाया
कि कोपभवन में ऐसा क्या है कि दोनों की बुद्धि खुल-खुल जाती है, सरस्वती माता की
इतनी कृपा हो गयी कि कॉम्पटीशन को छोड़कर और किसी परीक्षा में फेल ही नहीं हुए । दोनों
ने अब तक किसी को भी कोपभवन में घुसने की अनुमति न दी थी । साफ-सफाई खुद ही किया
करते थे । उनका कहना था कि यदि पन्ना भी इधर से उधर उडिया जायेगा तो सरस्वती माता
नाराज हो जायेंगी । एक बार छुटकी फुदकते फुदकते पहुँच गयी, हरिया ने ऐसी चपत लगायी
कि रो रो-कर उसका बुरा हाल हो गया और अब वह सपने में भी जाने की नहीं सोचती । सबकी
इच्छा उसमें पहुँचने की होती पर दोनों के कोप का भाजन कोई नहीं बनना चाहता ।
कोपभवन कोपभवन न होकर एक रहस्यमय
मचान था । बडे पिता जी से अलगऊझी के समय गारा-मिट्टी से जुडे ईंट के कच्चे घर में छोटी-छोटी
खिड़की और रौशनदान लगी दो कोठरी एक दालान और एक ओसारा ही हिस्से में आया था । घर
के पिछवाड़े में टाटी बाँधकर नहाने इंतजाम था और उसी में नल भी गड़ा था । जिस पर
पूर्णतः औरतों का कब्जा था । मर्द तो कहीं भी नहा सकते हैं भला उन्हें लजाने की
क्या जरूरत !! अब बड़े पिता जी ने पक्का मकान बनवा लिया था पर बाबू जी को इतना बेवत ना
था कि ये भी अपना घर पक्का बनवा सकें । बाबू जी का गुजारा ओसारे में ही हो जाता ।
माई, बुआ और छुटकी दालान के आधे हिस्से में, जहाँ जाँता और डेहरी रखा हुआ था वहीं
सो जातीं और आधे हिस्से में रसोइया था । एक कोठरी में अचार, मुरब्बा, दही का
सीकहर, बड़का बक्सा, बड़का पलंग और कुछ छोटकी के विदाई के लिए सामान जोड़ा जा रहा
था, इन सबके साथ एक छोटी-सी काठ की संदूक थी जो हमेशा कथरी से ढँकी रहती थी, रखा
हुआ था । ये सारे सामान हरिया की दुलहन के आने से पहले हटा लिया जायेगा क्योंकि इस
कोठरी में हरिया की दुलहन रहेगी । दूसरे कोठरी के दो हिस्से थे, उसे दुछत्ती कोठरी
कहें तो अतिशयोक्ति न होगी । कोठरी के भीतर बाँस की बड़ी बड़ी लाठियों से संबल
देकर बाँस की फट्ठियों से बुना हुआ बड़ा-सा मचान था । जो दीवार से चारो तरफ सटी
हुई थी, उसे कोठरी में ही बना कर चारो तरफ से बाँस से टाँग दिया गया था । मचान
इतना मजबूत था कि दस लोग भी चढ़ जायें तो वह नीचे न गीरे, न धँसे । सिर्फ दीवार के
एक कोने में दोनों तरफ पतली पतली बाँस की फट्ठियों से बुनी हुई टाट थी, जो दरवाजे
का काम करती थी । ऊपर जाने पर ऊपर के दरवाजे को बिछाकर बंद कर दो और नीचे उतरने पर
नीचे के दरवाजे को उठा कर खपच्ची में अटका दो, बस बंद हो गया दरवाजा । दरवाजे से
ही टेक लगाकर मचान पर चढ़ने के लिए बाँस की ही सीढ़ी लगी थी । मचान से उतरने के
बाद सीढ़ी हटा दी जाती थी । इसलिए इस कोठरी के दो छत हो गए । नीचे जमीन पर जितने
भी फेंके-पँवारे सामान थे सब भर दिया जाता और मचान पर गोइठा-लकड़ी सरिया कर रखा
जाता । हरिया को हमेशा शिकायत थी कि घर के मनई बाहर रहते हैं और गोइठा-लकड़ी घर के
अंदर । पर इतनी भी हैरानी वाली बात न थी क्योंकि बहुतों के घर तो भूसा रख कर उसमें
अनाज की बोरी रखी जाती थी । बचपन से ही हरिया का दिन गर्मी में तो कट जाता लेकिन
ठंडक में वह कोठरी में सोने के लिए परेशान रहता । जब वह सातवीं क्लास में था तब
उसने बाबा को बाबू जी से कहते हुए सुन लिया था कि उस कोठरी में जमीन के नीचे सोने
की अशर्फियों से भरा घड़ा दबा हुआ है, अगर वह कहीं डोल न गया हो तो उसी में होगा ।
यह बात बड़े पिता जी को नहीं पता थी । उन्होंने बड़ी चालाकी से पक्का मकान और
हिस्से से अधिक जमीन हथिया लिया, बाबू जी के हिस्से में कम जमीन आयी । पर बाबू जी
भी उनसे कहाँ कम थे ? आखिर इनके हिस्से में सोने का घड़ा था
। सो बाबू जी ने चुपचाप इस घर को स्वीकार कर लिया । गोहरा तो सबका ध्यान भटकाने के
लिए रखा जाता ।
जब से हरिया को यह बात पता चली तब
से वह घड़ा कोठरी से निकल कर उसके मन में समा गयी, वह हर समय ताक पर रहता कि कब
माई बाबू जी घर से कहीं बाहर जायें और वह कोठरी को कोड़ कोड़ कर उसमें से घड़ा
निकाल ले । उसे बड़ा अफसोस रहता कि घर पर कोई न कोई जमा ही रहता है जिससे घड़ा
अंदर ही दबा रह गया । बारहवीं क्लास में जब रामलखन मामा आयें तब दोनों कोठरी में
ही समा गए, दोनों मिलकर प्लान-ए बनाने लगें कि कैसे सबको घर से दूर भेज कर घड़ा
निकाला जाये । एक दिन माई नईहर का गई कि दोनों हाऊ हाऊ कोठरी से सामान निकाल कर
बाहर फेंकने लगें, अभी आधा ही हुआ था कि बाबू जी आ धमकें और हरिया कि ऐसी कुटाई हुई
कि हरिया के मन में घड़ा पिचक गया । उस दिन दोनों ही बहुत डर गयें और फैसला किया
कि जल्दबाजी में नुकसान ज्यादा है । अगर बड़े पिता जी को भनक भी लग गयी तो उन्हें
भी बखरा देना पड़ जायेगा । वैसे भी बाबूजी के मरने के बाद सब कुछ हरिया का ही तो
होना है । इसलिए दोनों ने प्लान-बी बनाया और फैसला किया कि घड़े की रखवाली करना भी
इन्हीं की जिम्मेदारी है । खेत में छान छाकर गोइठा-लकड़ी उसमें रख देंगे और मचान
पर ये दोनों अपने खुशियों का महल बनायेंगे । दोनों ने गोइठा फेंक-फाककर मचान को
साफ किया उस पर दरी बिछाया जबकि माई गरियाती ही रह गयी । सोने के लिए एक छोटी सी
खटिया रखी, जिसपर सोने के बाद पैर खटिया से बाहर ही रहता । लेकिन जब रामलखन हमेशा के
लिए हरिया के साथ रहने आ गया तब खटिया बहिरा दिया गया और बड़ी-सी कथरी बिछा दी गयी
ताकि दोनों आराम से रह सकें । घर में पुराने कपड़े भरकर बनाये गए दो तकिया भी
मुडवारी रख दिया गया । सामान और किताब रखने के लिए एक टेबल और लालटेन के लिए एक
छोटा स्टूल रखा गया । दिन में छोटे-छोटे रौशनदानों से रोशनी आ जाती थी और रात में
लालटेन जीवन में रौशनी फैला देती ।
तो आज सुभाष काका पहली बार आये हैं
कोपभवन में । काका के लिए छुटकी ने पहले से ही मचिया रामलखन मामा के हाथों में यह
कहकर थमा दिया था कि कोई और भी आ जाए तो कहाँ बैठाओगे ? मचिया पर सुभाष काका थे, कथरी पर ये दोनों । सुभाष काका के सामने हरिया
रोना-धोना बंद कर थोड़ा संभल कर बैठ गया । काका प्यार भरे लहजे में पूछने लगें, “ का बात है हरिया, का चल रहा है मन में” ?
“…………….”
“गाँव-गड़ा तुम्हें समझा-समझा कर हार गया, अपनी माई का मुँह देखो... वो
कितनी परेशान हैं । वे भिनसारे पाँच बजे ही मेरे घर आ कर चिरौरी-मिन्नतें करने
लगीं कि बाबू राऊर बात केहूँ नाहीं टारता, एक बार रउरे भी कह देयीं, का पता उ मान
ले”
“..................”
“…………….”
उत्तर की प्रतीक्षा करते हुए ।
दोनों तरफ खामोशी तोड़ते हुए काका
ख़ुद ही कहने लगें, “देखो, ईज्ज़त भी कोई चीज है कि नहीं
? और ईज्ज़त बनती कैसे है – अपने ज़बान से । अब तुम्हीं बताओ
कि कैसे कोई अपने ज़बान से मुकर जाए… । मना ही करना था तो
पहले ही मना कर देते । बरच्छा और तिलक के बीच दो महिने का समय था । तब तो तुमको
मना करने की नहीं सूझी । अब बियाह को सिर्फ आठ दिन बचे हैं, तब तुम अड़ गये हो” ।
“……………...”
“आखिर बात क्या है, कौनो लड़की वड़की का चक्कर तो नहीं है” ?
“……………”
“देखो, आगे चलकर टीचर की नौकरी तो पक्की है, साथ साथ आई.ए.एस., पी.सी.एस.
की तैयारी कर ही रहे हो, अगर किस्मत साथ दे दिया तो बन भी जाओगे ।
लड़की (प्रेमा, जिससे हरिया का शादी
होने वाली है) भी बी.ए. पास है, आगे वो भी बी.एड . करके नौकरी तो कर ही सकती है और
न भी करे तो तुम लोगों के पढ़ाई में कोई खास अंतर तो है नहीं, माँ-बाप के एकलौते
संतान हो सबकी सेवा करेगी.... सुना है खेल-कुद में भी बहुत तेज है, स्टेट लेबल तक
हिस्सा ले चुकी है । यही सब सोच कर वो लोग तुम्हें सात-आठ लाख दहेज दे रहे हैं । बियाह-गवना
का खर्चा तुम जानते ही हो । कुल मिलाकर चौदह-पन्द्रह लाख से कम न जायेगा । अब ऐसे
में तुम्हारा... । तुम्हारा क्या है, तुम तो लड़के हो, वह लड़की समाज के सामने
क्या मुँह दिखायेगी ? उसकी तो पहले ही चार बार शादी
टूट चुकी है... और अब तुम भी...
सिर्फ आठ दिन बचा है । वहाँ भी सारी
खरीदारी हो ही गयी होगी, सट्टा का बयाना दिया ही गया होगा । अब कैन्सल होगा तो पूरे
पैसे डूब जायेंगे... और सिर्फ उनका ही नहीं, इसमें तुम्हारा भी तो नुकसान है” ।
“……………”
“कुछ तो बोलो... (गंभीर स्वर में) क्यों खामोश हो” ?
“तो क्या ये सब सोच कर हम अपनी जिन्दगी बरबाद कर लें”
।
“अब इसमें तुम्हारी जिन्दगी कैसे बरबाद हो रही है” ?
“होगी न, हम तो उसे जानते तक नहीं, प्रेम तो बहुत दूर की बात है । हम
रामकरना की तरह काम नहीं करना चाहते कि शादी कर लें और लड़की को प्रेम और ईज़्ज़त
न दे सकें” ।
“प्रेम का चीज़ है बुड़बक ? ... गाँव-घर में प्रेम
करके कौन शादी करता है” ?
“………….”
“तो बता ही दो, उससे नहीं तो किससे प्रेम करते हो” ?
“हम पढ़ना चाहते हैं”
“सब बेकार की बात है, सही सही बताओ क्या बात है” ? काका की आवाज गंभीर हो आयी, हरिया
सहम गया ।
“……………..”
“बताओ” काका ने कसके डाँट लगाई कि हरिया के मुँह से निकल पड़ा, “हाँ..., है एक लड़की”
“क्या ! पहले क्या मुँह में पीठा हुरा था कि नहीं बता
पा रहे थे” ?
“हमको माफ कर दीजिए काका, हम बहुत डर गए थे”
“का हो लाखन पहुँना (रामलखन की ओर बगुले की नज़र से देखते हुए)... आपको भी
नहीं पता था” ?
काँपती आवाज में हरिया बोल पड़ा, “हमने किसी से कुछ नहीं बताया है… बतायें भी तो
कैसे... कौन सुनेगा मेरा... किसको मेरी परवाह है? मेरी ही
शादी और मेरी ही मर्जी नहीं पूछी जाती । सबको शादी की पड़ी है” ?
“कौन है वो लड़की” ?
“मेरे कॉलेज में पढ़ती थी”
“कौन से गाँव की है, क्या नाम है, उसके माँ-बाप शादी के लिए तैयार होंगे”
?
“पता नहीं... पर उसने हाँ कर दी है, अपनी ही बिरादरी की है ।... आप लोग
चिंता न करें, उसके घर वाले मान जायेंगे” ।
“………....”
“हम उसके बिना नहीं जी पायेंगे, अगर उससे शादी नहीं हुई तो हम जहर माहूर खा
लेंगे”
“नालायक कहीं के ! जहर माहूर खा लेंगे (काका, डाँटते
हुए बोलें)... (फिर चिंता में डूबते हुए अफसोस के साथ) अब लड़की वालों को क्या
जवाब देंगे हम लोग, ये ईज़्ज़तदार लोग हैं”
“अब आप ही कोई उपाय कर सकते हैं काका, बस हमें इस संकट से उबारिये” हरिया हाथ जोड़कर सिसक पड़ा । काठ जैसे काका का मन पसीज गया कि एकलौता
बेटा है, कहीं कुछ कर बैठा तो ... “तो... ये तुम्हारा फाइनल
डिसीजन है” ?
“हूँ” गले से उत्तर देते हुए
काका अपना रौब दिखाते हुए धोती
झाड़कर उठ खड़े हुए, “जात-बिरादरी में मुँह दिखाने
लायक नहीं छोड़ा ये लवण्डा । अपने बात का कोई मान है कि नहीं” । पहली बार काका के हाथ से उनकी धोती का कोना छूट गया और वे सीढ़ियों से
नीचे उतर आयें ।
यह बात तो काका के मान-सम्मान पर भी
बन आयी क्योंकि पहली बार काका की बात किसी ने मानने से इंकार कर दी । हालांकि वे
पूछने के नज़रिये से हरिया के पास गए थे, लेकिन उनका पूछना निर्णय ही होता है और
सामने वाला समझ जाता कि उनकी बातों का कोई और विकल्प नहीं । घर से बाहर आकर काका बौखला
कर हरिया की माई से कहते हुए चले गए, “इस लड़के को
इतना अभिमान है कि ये मेरी भी नहीं सुनता”
पूरे गाँव में ये बात फैल गयी कि
हरिया पर एक लड़की ने जादू-टोना कर रखा है, एही से वह किसी की नहीं सुन रहा । जादू
से निकलने का एक ही तरीका है कि हरिया ये बियाह करेगा और उसकी पत्नी सोलह शुक्रवार
का उपवास करके संतोषी माता की कृपा से उसे इस जादू-टोने से मुक्ति दिलवायेगी । ऐसा
हरिया की माई को गाँव के एक पहुँचे हुए बाबा ने जादू-टोने का तोड़ बताया । हरिया
की माई ने संतोषी माता से एक कथा भी मनौती में मान दिया । सोल शुक्रवार पूरे होने
पर एक कथा करवायेगी और उस दिन पूरे गाँव को खाने पर न्योता देगी, साथ ही इक्यावन
पंडितों को दान-दक्षिणा के साथ दही-चूरा खिलायेगी ।
फिर क्या था... घर पर बुआ, मौसी,
मामी, नानी और दूर के नात-पनात सब आने लगें । सबने धूम-धाम से बियाह की तैयारी
शुरू कर दी । पहले से और अधिक जोश के साथ । किसी को क्या फर्क पड़ता है कि हरिया
दो दिन से खाना नहीं खाया, पानी नहीं पीया, देह पीयरा गई । लगन जो लगी है !!
गीत गा-गाकर माटी के चूल्हे की पट्टी बुआ ने डाल दिया, कभी उसे उठाकर
गोल बना रही हैं तो कभी उसके ऊपर माटी की पीडिया लगा रही हैं । सुबह को भोर, शाम
को सँझा समय पर गवाने लगा । आटा चालते-चालते, चाऊर फटकते-फटकते कब बियाह के गीत से
नाच का गीत शुरू हो जाता और कब कौन थिरकने लगता, नाचने लगता... कब बुआ को मामी
चिकोटी काट कर उन्हें बाबू जी के साथ लगा-लगा कर मधूर मधूर गरिया रही होती और बुआ
कब मामी मौसी सबको एक लपेटे में लेते हुए मजे से गरिया गरियाकर उत्तर दे रही होती...
यह समझना हरिया के लिए बहुत मुश्किल है और वह समझना भी नहीं चाहता । उसके लिए सब
हल्ला गुल्ला है, शोर ही शोर है । हरिया दुबरा गया, पियरा गया, बोखरा गया ।
तीन दिन बियाह को बचे हैं । भिनसारे
भोर गाकर गाँव की मेहरारू अपने अपने घर लौट गयीं । सुबह आठ बज गया, ग्यारह बज गया..
दिन सर पर चढ़ आया पर आज हरिया कोपभवन से नीचे नहीं उतरा । रामलखन भी अपने घर गया
हुआ है इसलिए कुछ पता नहीं चल पा रहा । कोई और कोपभवन में जायेगा नहीं । हरिया की
माई ने नईहर से रामलखन को बुलवाया । कोपभवन क्या, घर, गाँव-गड़ा सब छान मारा रामलखन
और गाँव वालों ने, लेकिन हरिया का कहीं कोई अता पता नहीं । घर में रोवना पीटना पड़
गया । हरिया लड़की लेकर भाग गया । खानदान की नाक कट गयी । लड़की कौन है किसी को
नहीं पता । काश! उस दिन सुभाष काका लड़की का नाम-पता पूछ लिए होते तो आज दोनों का कुछ
चाल-पता मिल जाता । गाँव के लोग हरिया के घर दिलासा देने आते और हरिया को चार गारी
गरियाते हुए थू थू करते हुए वापस चले जातें ।
पूरा दिन बीत गया आज न सँझा गवाया
और न चुल्हे की ओर किसी ने देखा। मरन पड़ गयी हो जैसे । आज बच्चे भी सन्न मारे
बैठे हैं कि हरिया चाचा... हरिया भईया को बगचीतवा या सियार उठा ले गया । अगर ये
रोयेंगे या खाना मागेंगे तो इन्हें भी उठा ले जायेगा ।
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उसी रात गाँव से बीस-पच्चीस किलो
मीटर की दूरी पर ऊँखीयाडी के किनारे चकरोट पर चरर्-चरर् करती साइकिल रूकी, साइकिल
वाले ने ऊँखीयाड़ी को चीरते हुए दस कदम अंदर की ओर साइकिल छिपा दी और हाथ में
धुँधली टार्च लिए शीत से लथपथ ऊँख के पत्तों को हाथ से धीरे धीरे हटाते हुए इस
प्रकार अंदर घुसे जा रहा था कि कहीं सन्नाटे को भी ख़बर न हो जाये, टार्च से रोशनी
सिर्फ इतनी आ रही थी कि पैर ही दिख पाये । हालांकि दूर कहीं किसी ऊँखियाड़ी से
सियार की आवाज आ रही थी और पास में झिल्लियाँ झनझना रही थीं । इसके बावजूद भी
साँप-मकोड़ों से बिना डरे पैर दबा-दबाकर जमीन पर रखते हुए ऊँखीयड़ी के बीच पहुँच
गया। जहाँ शायद पहले नीलगाय ने ऊँख तोड़कर अपने बैठने की जगह बनाने के लिए जमीन को
समतल जमीन बना दी होगी । उस खाली समतल जमीन पर हरिया पुअरा बिछाकर गुदरा में सपटा
हुआ है । ऊँखीयाडी के खड़खड़ाने की आवाज से हरिया और डरकर गुदरे में सिमट गया ।
जैसे जैसे बैटरी की धुँधली रोशनी करीब से दिखायी दी उसके आँखों की रोशनी में चमक आ
गयी और लपक कर गले से लग खड़ा हुआ और दोनों फफक-फफक रो पड़े ।
“मेरे राम... मेरे... लखन... मुझे बचा लो... मैं मर जाऊँगा... बहुत डर लग
रहा है...” हरिया रोते सिसकते हुए रामलखन से कह पड़ा ।
“डरो नहीं, मैं आ गया हूँ ना…” रामलखन के बाँहों की
कसावट और मजबूत हो गयी । हरिया ने भी पूरी जोर लगा दी और फिर एक दूसरे को सहलाते
हुए दोनों एक दूसरे के गले में बाँहें डाले पुअरा पर बैठ गए । हरिया फुसफुसा कर
कहने लगा, “इतनी देर लगा दी आने में, कहीं
कोई कीड़े-मकोड़े काट लेते तो…”
“हमारे अलावा और किसी को काटने का हक़ नहीं है” हरिया
की कमर में चिकोटी काटते हुए रामलखन मजाकिया अंदाज में बोला ।
“फिर भी इतनी देर क्यों हुई” ?
“क्या करता... सब परेशान हैं, दीदी का तो हाल बहुत ही बुरा है... सबके सोने
का इंतजार कर रहा था... वैसे सबको विश्वास हो गया है कि तुम किसी लड़की के साथ भाग
गए हो...”
“बहुत बेईज़्ज़ती होगी घर की... और कोई रास्ता भी तो नहीं… (चिंता से रामलखन की ओर देखते हुए) पर इस तरह कब तक भागे रहेंगे हम”
“जब तक कि ब्याह कट न जाए... (हरिया के गालों को सहलाते हुए) फिर उसके बाद
घर चले चलेंगे”
“बाबू जी और माई बहुत नाराज होंगे... (सिसकते हुए) वैसे भी आज नहीं तो कल
फिर से शादी की बात चलेगी ही ।... मेरी न सही, तुम्हारी हो जायेगी... ? तब हम क्या करेंगे” ?
“कैसी बात करती हो मेरी हरी... तुम्हारे अलावा और किसी से मेरी शादी नहीं
होगी” (तुनकते हुए)
“तो चलो कहीं भाग चलते हैं...” प्रश्नवाचक निगाहों से
हरिया ने देखा
“अभी नहीं... पहले ये मामला शांत हो जाए... नहीं तो हम लोगों पर शक हो
जायेगा”
“आज नहीं तो कल लोगों को पता चलना ही है कि हम दोनों...”
“कल को क्या कैसे करना है वो हमारे ऊपर छोड़ दो, बस अभी धैर्य रखो… अभी जायेंगे तो एक के बाद एक धक्का घरवाले सह नहीं पायेंगे... अभी भाग गए
तो दर-दर की ठोकरें भी खानी पड़ेंगी, पहले कहीं नौकरी मिल जाये उसके बाद अपने
हिसाब से जिन्दगी जियेंगे”
“नौकरी मिलने तक इंतजार नहीं कर सकते”
“करना पड़ेगा… दिमाग से काम लो” रामलखन ने झुँझलाते हुए कहा
“दिमाग ही तो काम नहीं कर रहा... तुम हमेशा दिमाग से काम लेते हो, कभी कभी
दिल की भी सुन लिया करो...” हरिया जैसे किसी नदी में डूबे जा
रहा हो और उबरने का कोई रास्ता न दिख रहा हो । “लड़की होती
तो घर वाले हार मानकर कभी न कभी उससे शादी कर देते पर तुमसे कभी नहीं होने देंगे…
एक महिने पहले सुप्रीम कोर्ट ने भी समलैंगिकों के पक्ष में फैसला
सुना दिया, लेकिन... गाँव में कोई नियम लागू नहीं होता”
“हाँ गाँव में हमारे रिश्ते को कोई नहीं समझ पायेगा...।
आज तो कोपभवन में कुड़की हो
गयी... किताबों के पन्ने उलट-पलट के देखा
जा रहा था कि कहीं कोई सुराग मिल जाये । उसके कोने कोने को झाड़ा गया ऐसा लग रहा
था उसके किसी कोने से तुम बाहर निकल आओगे... लाठी-डंडा से इतना पीटा गया कि वह
पूरी तरह से ध्वस्त हो गया... (आँखों में आसूँ भर आया) मेरे आँखों के सामने ही
हमारे सपनों का महल गिर गया और मैं कुछ नहीं कर पाया...”। दोनों ही सिसकने लगे ।
“कोपभवन से हमारा बहुत गहरा रिश्ता है, उसका एक एक तिनका गवाह है हमारे
प्यार का...। तिनके तिनके में इतनी संवेदना है कि वे अब तक हमारे मिलन पर पर्दा
डाले रहे, हमारे प्यार को समझा, हमें अपना लिया और कभी कोई विरोध नहीं किया...
लेकिन यहाँ इंसानों के दिल इतने काठ-कोरो हैं कि इन्हें पता चल जाये तो हमारा मजाक
उडायेंगे, हमें मार ही डालेंगे । ऑनर कीलिंग से कम घातक सजा नहीं मिलेगी !!! बच गए तो जीते जी जबरदस्ती किसी औरत के पल्लू से बाँध दिया जायेगा जिसमें
वो भी मरेगी और हम लोग भी...”।
“तुम देख रहे हो... बाहर कितना
सुन्दर गुलाबी मौसम है और चाँदनी रात भी, लेकिन हम यहाँ ऊँखीयाड़ी में छुपे हैं ।
हम चाहें तब भी चाँदनी रात का आनंद नहीं ले सकतें, क्योंकि हमें ऊँख के पत्तों ने
ढँक लिया है... इसी तरह हमारे प्यार को समाज की रूढ़िवादी सोच ने ढँक लिया है । हमें
चाँदनी चाहिए तो ऊँख के पत्तों को हटाना होगा... जिससे हाथ भी चिरायेगा, देह भी
भभायेगा... लेकिन हार नहीं मानना है...। सबको लगता है कि समलैंगिकता अननेचुरल
सेक्स है, जबकि सेक्स में तृप्ति आवश्यक है । पता नहीं ये बात किसी को क्यों समझ
में नहीं आती ? लोगों को लगता है इससे परिवार टूट जायेगा
लेकिन हमारा भी तो अपना एक परिवार है...? न जाने कितने बच्चे
इस संसार में अनाथ हैं हम उन्हें गोद ले सकते हैं... सरोगेसी के जरिये अपना बच्चा
पैदा कर सकते हैं, बहुत सारे तरीके हैं... । आखिर विपरीत लिंगी भी तो ये सभी तरिके
अपनाते ही हैं तो हम क्यों नहीं?”
“तुम सच कह रहे हो, हमें समाज के नज़रिये को बदलना होगा । आखिर कब तक हम
मुर्दों की तरह जीते रहेंगे” ।
“सिर्फ साँसों का चलना ही जिन्दा रहने की निशानी नहीं, जरूरी है साँसों का
वायुमंडल के साथ निरंतर संघर्षरत् रहना तथा उस पर विजय प्राप्त करते रहना”
“तो क्या हम कभी विजयी होंगे”
“जरूर होंगे... लोगों की संकीर्ण सोच हारेगी और मानवीयता की विजय होगी... ।
अब हम गाँव में नहीं रहेंगे… शहर चले जायेंगे, जहाँ हम अपने
तरीके से जीवन जी सकें, लोगों की नज़रों में हमारे लिए भी सम्मान हो... हमारी एक
अलग दुनियाँ हो... जब हम सबको समझाने लायक हो जायेंगे तब यहाँ वापस लौटेंगे । (हरिया
के साथ डूबते हुए रामलखन फिर से एक बार ऊपराते हुए कह पड़ा) पर एक बार यह मामला
शांत हो जाये, फिर शहर चलेंगे... (प्यार से हरिया का मुँह अपने हाथों में लेते
हुए) तुम चिंता मत करो मेरी रानी...”
“इतने प्यार से कहोगे तो मर जाऊँगी... (रामलखन के पेट में दुबकते हुए) और अगर
नहीं मिले तब तो सचमुच मर जाऊँगी”
“मैं तुम्हें मरने दुँगा तब तो मरोगी मेरी जान... तुम से पहले मैं मर
जाऊँगा...”
“मरने की बात करोगे तो मार डालूँगी...” (रामलखन के सर
पर थपकियाते हुए)
“मैं तो तुम पर पहले से ही मर चुका हूँ... और कितना मारोगी...” कहते कहते रामलखन ने हरिया को अपने में पूरी तरह भींच लिया । दोनों की
साँसे तेज हो गयीं और गरम-गरम साँसों से उनका तन-बदन भीग गया । पूरी दुनियाँ से
बेखबर बेपरवाह एक दूसरे में समाते गए... चाँदनी से भीगते गए... बस भीगते गए ।
*****
***** *****
हल्दी के दिन हरिया की माई की आँखे
रो-रोकर सूज गयी हैं । दुआरे खटिया पर चित्त पड़ी-पड़ी दुनियाँ में जितने भी भगवान
हैं, सब से सारी मनौतियाँ मान चुकी है कि हरिया अब से भी लौट आये । उसके मुँह में
घुँट-घुँट करके पानी डाला जा रहा था । बाबू जी खेत में जा कर औंधे मुँह लोटे थे । सुभाष
चाचा, रामलखन और गाँव के दो-चार लोग लड़की के घर विवाह कैन्सल करने जा चुके हैं ।
लड़की के घर वालों ने गाँव के सरपंच
को भी बुलवा लिया । कहने के लिए किसी के पास कोई शब्द नहीं, बस एक दूसरे के शब्दों
को अगोर रहे थे । घर की औरतें दालान में से कान लगाकर सुनने का प्रयास कर रही थीं
कि अब का फैसला सुनाया जायेगा और किसके हक़ में होगा ? देखा जाये तो सिसकियों की गूँज बाहर तक आ रही थी बस पुक्का फाड़कर रोना
बाकी था । चाची को तो भाभी लोग रोक रखीं थी वरना वह तो मरदाना सभा में आकर इन
लोगों की मुँछें नोचने के लिए बेचैन थीं । मरदाना सभा में शामिल न होने का गुस्सा
भाभी लोगों पर निकल रहा था कि “कइसे एतना बड़ा कांड हो गया
और किसी को पता नाहीं चला... उल्टे हमारी परेमवा को दोषी बना रहे थे कि लड़की
बदचलन है एहीसे बियाह तोड़ रहे हैं... हमार कोई ईज़्ज़त ऊज़्ज़त है कि नाहीं... हमारी
रनिया... हमारी परेमवा का मुँह दिखायेगी समाज-बिरादरी में... हमरे मुँह पर करीखा
पोता गया और इ लोग शांति से बइठे हैं”
“हमरे मुँह पर कइसन करिखा चाची... करिखा उसके मुँह पर पोताया है जो लड़की
लेकर भागा है...” प्रेमा बरस पड़ी उसकी आवाज सुनकर मरदाना
सभा में सबकी तंद्रा टूट गयी ।
“जब लड़का ही भाग गया तो हम का कहें, का करें...। उनका कोई भाई होता तो हम
कहते कि उससे बियाह करवा दो, लेकिन समस्या इ है कि लड़का इकलौता था” सरपंच अपनी दाढ़ी खजूआते हुए कहने लगे ।
प्रेमा के पिता चिंता भरे रूँधे गले
से काँपते हुए कहने लगें, “हमारी परेमवा का तो
भाग ही खराब है.. चार बार उसका बियाह टूट गया... अबकी बार तो लग रहा था कि बियाह
हो ही जायेगा...”
सुभाष काका की नजरें ग्लानि से और
झुक गयीं... काश उन्होंने पहले ही कोई एक्शन लिया होता, “भाग्य तो हमारा खराब है
पहुना... नालायक बेटे के जनमने से बड़ा दुःख क्या होगा ?”
नालायक शब्द सुनते ही रामलखन को एक
झटका-सा लगा और उसका मन किया कि कह दे कि नालायक वो नहीं बल्कि आप लोगों की
दकियानुसी सोच है । पर दिल पर पत्थर रखकर अनसुना कर देना समय की माँग थी ।
सरपंच फिर से एक पारी खेलना चाहते
थे, “पहले से कुछ तो पता रहा होगा कि लड़का कइसा है ?
एतना खर्चा बर्चा होने के बाद हम का करें...”
“…………..”
“वैसे रामलखन पहुना... आप का भी तो बियाह नाहीं हुआ है” रामलखन को कनखी से देखते हुए सरपंच सुभाष काका की ओर इशारा कर दिए ।
रामलखन को अचानक किसी ने तमाचा मार
दिया हो... वह घबरा कर उठ खड़ा हुआ, “ह... हम.... हम कहाँ
से आ गये... हमें बीच में मत घसीटिए”
“घसीट नहीं रहे हैं बाबू... (दृढ़ स्वरों में) आखिर एतना खरचा-बरचा हुआ है,
उसकी भरपायी कौन करेगा... आखीर हमारी भी कवनो ईज़्ज़त है कि नाहीं...”
“ह... हम हरिन्द्र के मामा हैं, भाई नहीं” रामलखन के
हलक से थूक नहीं घोटा रहा
“तो का हुआ बाबू... उमर तो एक ही है... सुना है आप दोनों पक्का दोस्त थे”?
रामलखन की घबराहट देखकर सुभाष काका
बीच में बोल पड़े, “कह तो सही रहे हैं सरपंच जी, लेकिन रामलखन पहुना हरिन्द्र के
विकल्प नहीं हो सकते”
दालान में खदबदाहट उठ गयी, “इहो लइका है बड़ा सुन्दर”… “हाँ... हाँ... काहे
नाहीं... इनसे भी बियाह हो गया तो राम-सीता की जोड़ी लगेगी...” … “सरपंच जी ने बिल्कुल सही सोचा
है, आखीर भरपायी तो करनी ही पड़ेगी” इन सबके बीच प्रेमा सुलग रही थी जो किसी को
नज़र नहीं आ रहा था ।
मरदाना समाज में पिता जी उठ खड़े हो
गए, “भरपायी कीजिए पहुना, नाहीं तो हम एफ.आई.आर. दर्ज करवायेंगे”
सुभाष काका हाथ जोड़ लिए, “भर मुँह
माटी लेकर हरिन्द्र के माई-बाबू जी गिरे हैं, कोई उनके घर में बात करने लायक नहीं
बचा है । हमारी भी मजबूर समझिये... आपने जो दान-दहेज दिया था उसमें से आधा तिलक
में दुआरे पर खर्च हो गया बाकी हमने कपड़ा-लत्ता खरीद लिया, नाच-गाने का सट्टा-वट्टा
लिखा गया... अब हम करें तो क्या करें... फिर भी दहेज के पैसे हम जल्द लौटाने की
कोशिश करेंगे”
“खाली दहेज के पैसे ? अऊर जो हमारे घर में बियाह के
कारण खर्च हुआ, वो सब खर्च नाहीं है का ? भरपायी कीजिए या
फिर लड़का ढूँढ कर लाइये और बियाह करवाइये” लड़की के पिता काँपते
हाथ से लाठी संभालने लगे । तभी सरपंच जी ने उन्हें रोकते हुए कहा, “आप बैठ जाइये हम बात कर रहे हैं ना... (सुभाष काका की ओर देखते हुए) तो
सुभाष पहुँना ... आप ही विकल्प निकालिए... सिर्फ पैसे से काम नाहीं चलेगा... आप भी
जानते हैं कि यह हमारे साथ धोखाधड़ी है, सब जानते हुए भी आप लोगों ने हम सबसे
सच्चाई छुपायी और जबरदस्ती लड़का का बियाह ठीक करवा दिया... आप तो वकील हैं ना...
बताइए... धोखा है कि नाहीं” ?
“हम लोगों को कुछ नहीं पता था... सच कह रहे हैं”
सुभाष काका की आवाज दुख से भर आयी । आज तक उन्होंने किसी के सामने हाथ नहीं जोड़ा
था । ये पहली बार है कि उन्हें हरिया की वजह से इतना झुकना पड़ गया । इससे अच्छा
तो वे कहीं डूब-धँस कर मर गए होतें पर यहाँ न आये होतें ।
“रामलखन पहुना में का कमी हैं, आखिर हैं तो उनके नात-रिस्तेदार ही...
नात-रिस्तेदार कब काम आते हैं... मुसीबत के समय में ही न ?”
सुभाष काका का जोड़ा हुआ हाथ रामलखन
की तरफ घूम गया और रामलखन का चेहरा जैसे काठ हो गया । हमेशा दिमाग से काम लेने
वाले रामलखन का दिमाग आज काम करना बंद कर दिया । उसके सामने दीदी जीजा की ईज़्जत
भी थी और लड़की वालों की लाचारगी । सुभाष काका की स्थिति पर दया भी आ रही थी कि आज
काका का गर्व चूर हो गया और वो सबके सामने झुकने के लिए विवश हो गए, साथ ही अपने
लिए भी बचने का कोई रास्ता दिखायी नहीं दे रहा । वह मुँह से ‘नहीं... हमसे नहीं होगा’ वाक्य निकालना चाहता था पर
बुदबुदा के रह गया । तब तक प्रेमा की कड़क आवाज कानों में गूँज उठी, वह बाहर आ
चुकी थी मरदाना समाज में, “हम कोई सामान हैं क्या कि जब मन
किया हरिन्द्र को दे दिया, उन्हें नहीं पसन्द आया तो रामलखन को दे दिया ? हमसे किसी ने पूछा कि हमें क्या चाहिए ? हम जानवर
हैं कि आप लोग जिसके साथ बाँधना चाहेंगे, बाँध देंगे... और मैं चुप रहूँगी” ?
लड़की के पिता ने टोकते हुए कहा,
“तुम भीतर जाओ”
“नहीं, मैं कहीं नहीं जाऊँगी और राम लखन से तो मैं हरगिज ब्याह नहीं करूँगी
। और क्या नाम है उस लड़के का ? हरिन्द्र ! अगर वह वापस भी आ गया तब भी मैं
उससे ब्याह नहीं करूँगी । अच्छी तरह से आप दोनों तरफ के लोग समझ लिजिए । हरिन्द्र
के घरवालों पर मैं मानहानि का दावा करूँगी... हमारे पिता ने आप लोगों को सात लाख
दहेज दिया था, साथ में बरच्छा, तिलक और गवना की तैयारी में दस-पन्द्रह लाख से ऊपर
खर्च हो गया है । इसलिए अब हमें मानहानि के हर्जाना के रूप में दस लाख का चार गुना
वापस चाहिए । ये कैसे करेंगे ? आप लोगों की समस्या है, हमारी
नहीं । अगर ऐसा नहीं किया तो हम कोर्ट का दरवाजा खटखटायेंगे... ।
सब लोग अवाक् हो गयें । जिस लड़की
को हरिया के लिए सुभाष चाचा देखने आये थे, वो सहमी सहमी-सी घुँघट के नीचे से देख
रही थी, उसमें नजरें मिलाने की हिम्मत नहीं थी और आज वह बिना घुँघट के सबके सामने
आत्मविश्वास के साथ खड़ी थी बिल्कुल निडर... निर्भिक...
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- रेनू यादव
- रेनू यादव
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