साहित्य नंदिनी (अक्टूबर, 2019) के 'चर्चा के बहाने' स्तम्भ में प्रकाशित
पुस्तक – मल्लिका
लेखिका – मनीषा कुलश्रेष्ठ
प्रेम गली
अति सांकरी
“किताबों से प्रेम करने वाली स्त्रियों
में एक ठहराव होता है” । क्या यही ठहराव ढूँढ़ते हुए
हरिश्चन्द्र ज्यू ठहर गए थे मल्लिका के पास अथवा यही ठहराव ढ़ूँढ़ते हैं पुरूष
पढ़ी-लिखी स्त्रियों में और बिना बताए चले जाते हैं कहीं भी और कभी भी या यही
ठहराव ले आती है पढ़ी-लिखी स्त्रियों के पास पुरूषों को अपनी पत्नियों से लड़-झगड़
कर ।
कितनी
मल्लिकाएँ अपने स्वाभिमान के कारण ऐसे अनकहे रिश्तों को स्वीकार कर भी रह जाती है
प्रतीक्षारत् । जिन रिश्तों से वह भागकर काशी पहुँची वही किताबी संसर्ग बनकर उलझ
गयी । कितने उलझन भरे होते हैं ये बौद्धिकता से जुड़े मन के रिश्ते ! चाहें तो कैसे ? और चाह लिया तो मुक्त हो कैसे ?
अंतर्द्वन्द भरे रिश्तों का अंत क्या यही नहीं होता ?
पातियाँ
लिख कर ज्यू का चले जाना और अंत समय में आत्मग्लानि से भर ‘मन्नो’ को पुकारना । विवाहेत्तर संबंधों की ग्लानि
इतने बड़े लेखक अथवा खुलकर प्रेमाभिव्यक्ति करने वाले प्रेमी ज्यू को भी नहीं
छोड़ा ! ज्यू के मुत्यु पर जीवन भर प्रेम हेतु प्रतीक्षारत्
प्रेमातुर मन्नो फूट-फूट कर रो सकती है उसे रोने का अधिकार है, किंतु मल्लिका... उसे तो रोने का अधिकार भी नहीं !
आखिर वो कौन-सी विवशता है जिसमें प्रेम के जगजाहिर होने के
बाद भी वह रो नहीं सकती, सिर्फ घुट सकती है ! वह कौन-सी
बिडम्बना या व्यतिक्रम है कि ज्यू मल्लिका की जमा पूजी धन किसी और पर खर्च कर दिए
और उल्टे वही उनकी आश्रीता भी कही गयी ! जबकि मल्लिका तो लुट
जाने में भी जीवन की सार्थकता समझती है । आश्चर्य की बात है कि उसी से पैसे लेकर
ज्यू माधवी के पास भी पहुँच जाते हैं अर्थात् मल्लिका का परम आनंद ज्यू और ज्यू का
परम आनंद माधवी रही ! और प्रेम की पराकाष्ठा हुस्नाबाई में
था जो ज्यू के बाद जीवन ही त्याग दी ।
“मरना इतना डरावना नहीं है, जितना लोग समझते हैं । सच तो यों है कि मरने ही
से जीने का आदर है । जो जग में मरना न होता तो लोग जीने से घबरा जाते” । यह उक्ति ज्यू की जरूर थी किंतु इसके बीच तो मल्लिका झूल रही थी । पुनः
विधवा हो जाना उसकी नियति थी किंतु मृत्यु भी उसके स्वाभिमान को खंडित नहीं कर सकी
।
प्रेम,
संयोग और भावनात्मक लगाव किसी भी कसौटी पर बाँधा नहीं जा सकता, विवाह की कसौटी पर
तो बिल्कुल नहीं । मल्लिका का प्रेम जहाँ दार्शनिक था वहीं ज्यू का प्रेम मुझे
मांसल लगा जो बाद में उद्दात्त हो चला । माधवी का प्रेम उदात्त था लेकिन हुस्नाबाई
इन सबसे ऊपर ही लगी । सबसे बेवश मन्नो देवी भारतीय नारी की परीधि में छटपटाती रही
और लड़ती-झगड़ती रही, वह क्या जाने प्रेम का सुख जिसका पति कई भागों में बँटा हुआ
दिखायी देता हो और उल्टे वही कलहप्रिय साबित होती है ! आखिर यहाँ भी स्त्रियों की पीड़ा में एक पुरूष निरापराध मुखर हुआ ।
सचमुच
प्रेम को पूजने वाले लोग (मल्लिका) ही प्रेम में अकेले रह जाते हैं और ज्यू जैसे
लोग प्रेम को तराशते रहने के बावजूद भी प्यासे रह जाते हैं ।
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- रेनू यादव
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