बुधवार, 8 जनवरी 2020

Khud Ko Nahin Jiya to jiya ?

साहित्य नंदिनी (सितम्बर, 2019) के 'चर्चा के बहाने' स्तम्भ में प्रकाशित...

खुद को नहीं जिया तो क्या जिया ?

 
पुस्तक – अस्ति और भवति
लेखक – विश्वनाथ प्रसाद तिवारी
विधा – आत्मकथा
संस्करण – पहला, 2014
मूल्य – 355/-
प्रकाशक – राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, नई दिल्ली

आत्मकथा घटनाओं का विवरण नहीं, घट का विश्लेषण है
-       अस्ति और भवति, पृ. 5
क्या घट का विश्लेषण करते-करते ही जी लेता है आत्मकथाकार बार-बार अपनी ज़िन्दगी को । हर बार भर जाता है उछाह से तो हर बार गहरा जाती है उसकी पीड़ा और उस पीड़ा से निकलने की छटपटाहट । अपने जीवन में खुशियों की पुनरावृत्ति हर कोई चाहता है लेकिन दुःख... !
दुःख चिर-स्थायी है और सुख क्षण-भंगूर, सुख खुशी की सुगंध में सनी होती है । इसलिए दुःख निवृत्ति के लिए खुशी के साधन ढ़ूढ़ने ही पड़ते हैं । दुःख की जन्मदात्री अभाव है तो पूर्ति का प्रतिपूरक सुख है । पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक आदि मार्ग खुशी के पुनरावृत्ति की चाह ही तो है, अब तो अस्तित्ववाद, मार्क्सवाद, मनोविश्लेषणवाद और न जाने कितने कितने वाद दुखों के बादल छाँटने के संसाधन बन गये हैं । लेकिन सच तो यह है कि दुख के गर्भ में छिपे सुख के मोती को पहचानना इतना आसान नहीं क्योंकि रास्ते में स्वीकृति-अस्वीकृति का अटल तराजू जो है । उदाहरण के लिए पीड़ा में जन्म और पीड़ा में ही मृत्यु स्वीकृति और अस्वीकृति के तराजू पर ही खुशी और दुख के रूप में तौले जाते हैं । कदाचित यही कारण है कि कुछ लोग सुख में भी दुख का अनुभव करते हैं और कुछ लोग दुख में भी संतुष्ट रहते हैं ।  पर सच तो यह है कि खुशी की आवृत्ति पुनःपुनः होती है, वह सुख की छाती पर अपना पदचिन्ह छोड़ जाती है और उन पदचिन्हों पर अनेकों खुशियाँ पग रखते हुए वापस आ जाती हैं । लेकिन दुःख नदी की तरह प्रवाहित हो सागर में मिलने को तत्पर होता है । वह अपने पदचिन्ह नहीं बनाता बल्कि अपने पीछे छोड़ जाता है पूरी की पूरी जलधारा, जो बरसों बरस आँखों से बहता रहता है । दुख अनेक विधि से आगे ही बढ़ता है जस के तस नहीं लौटता । किंतु दुख की खास विशेषता है कि समय के भार से दबकर वह जीवन के धुँधलके में धुँधला अवश्य हो जाता है अथवा यह भी कह सकते हैं कि खुशी के पगचिन्ह दुख को कमजोर करने सहायक होती हैं ।
दुःख सरल है सहज है और अपनी गति से प्रवाहित भी और सुख जटिल है अप्राप्य है । दुःख पाने के लिए प्रयास नहीं करना पड़ता बल्कि अपनी संवेदन क्षमता के अनुसार वह कम अथवा ज्यादा महसूस होने लगता है । सुख उसका ठीक उल्टा है । खुशी सुख के नवजात शिशु की भाँति होती है, जिसे बहुत ही प्यार से संभालना पड़ता है उसे पालना पोसना पड़ता है लेकिन यह जरूरी नहीं कि खुशी सबके लिए सुखदायक हो । 
            आत्मकथाकार इस सुख-दुःख के अवगुण्ठन को पुनः पुनः खोलकर उसमें उलझता है और उलझ-उलझ कर फिर फिर पीड़ा से भर उठता है । पीड़ाएँ घटनाओं पर केन्द्रित होती है और घटनाएँ स्मृति के तहखानों से निकल निकल कर पीड़ा को बाहर निकलती है । कदाचित् इसीलिए अनेक आत्मकथाकारों ने घटनाओं को प्रमुख माना है, लेकिन जिन आत्मकथाकारों ने आत्मविश्लेषण किया उन्होंने घटनाओं के क्रम में पीड़ा को सराहा, उसे पुनः भोगा और जीया, तत्पश्चात् उसके नवनीत से  आत्मकथा का संसार तैयार किया ।
यह कहना गलत न होगा कि अपने जीवन के दस्तावेजों पर हस्ताक्षर कर दूसरों के सम्मुख रखना इतना आसान नहीं । यह कृत्ति की अनुकृत्ति अथवा अनुकृत्ति की अनुकृत्ति संबंधी सिद्धांत नहीं, बल्कि यह वह आकृत्ति है जिसके अंदर-बाहर खुद ही आवाजाही करते हुए अपने अस्तित्व को दुबारा समेटने और उसे बिखेरने की प्रक्रिया है । विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने सच ही कहा है, आत्मकथा निरर्थक नहीं, बल्कि एक मरणधर्मा व्यक्ति का मृत्यु के विरूद्ध विद्रोह है। (अस्ति और भवति, पृ. 7)   


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                                               - रेनू यादव

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