महिला उत्कर्ष एवं बाल विकास : दशा एवं दिशा पुस्तक में प्रकाशित -
स्त्री कविताओं में अभिव्यक्त स्त्री-मुद्दे
“जहाँ पुरूष मौन हो
जाता है वहाँ जन्म लेता है महिला-लेखन” – (राजे,
सुमन. हिन्दी साहित्य का आधा इतिहास. पृ. 30.) हिन्दी साहित्य
के इतिहास में महिला लेखन पर चुप्पी बार बार यह प्रश्न उठाता है कि क्या मीराबाई,
महादेवी वर्मा, सुभद्रा कुमारी चौहान के अलावा पूरे साहित्य में महिलाओं ने कहीं
कुछ लिखा ही नहीं ?
इतिहास में महिलाओं के लिए इतना अंधकार क्यों है ? यदि लिखा तो उन्हें एक सिरे से खारिज क्यों कर दिया गया ?
अनेक ऐसे सवाल जिस पर
साहित्य में पुरूष समाज चुप ही रहा और उसका जवाब स्त्रियों के साहित्य में मिला ।
स्त्रियों के जातीय स्मृतियों पर आधारित रचनाओं को महत्व ही नहीं दिया गया । वैदिक
काल से लेकर अब तक महिलाओं ने अपनी समस्याओं को लिपिबद्ध किया है परंतु उसे सदैव
दरकिनार कर दिया गया है । वैदिक काल में रोमशा लोपामुद्रा, ममता, अपाला,
विश्ववारा, पौलोमी शची, घोषा, सूर्या, आदिकाल में खेमा, सुमना, धीरा, मित्रा,
रोहिणी, सुन्दरी, शुभा, चन्दा, उत्तमा, अनोपमा, अडढकासी, अभयमाता, विमला,
अम्बपाली, विज्जका, शीलाभट्टारिका, इन्दुलेखा, मारूला, विकटनितम्बा मध्यकाल में
लल्लद्येद, मीरा, झीमा, चन्द्रसखी,
चम्पादे, रूपमती, प्रवीणराय पातुर, छत्र कुँवरि बाई, गबरी बाई, सहजो, दयाबाई
आधुनिक युग में सुभद्राकुमारी चौहान, महादेवी वर्मा, विद्यावती ‘कोकिल’, सुमित्रा कुमारी सिन्हा, शकुन्त माथुर,
कीर्ति चौधरी, इन्दु जैन, स्नेहमयी चौधरी, सुनीता जैन, मणिका मोहिनी, मोना गुलाटी,
गगन गिल, अनामिका, कात्यायनी, रमणिका गुप्ता, निर्मला पुतुल आदि कवयित्रियों के
काव्य को देखें तो प्रमुख रूप से पाँच मुद्दे सामने आते हैं –1. पितृसत्ता और प्रजनन, 2. प्रेम और देह, 3. धर्म और नैतिकता, 4. श्रम और अर्थ, 5. लेखन ।
यह ध्यातव्य है कि ‘पितृसत्ता’ ने ‘धर्म’ के साथ जुगाली करके ‘अर्थ’ की
भट्टी पर अपनी सुविधानुसार स्त्री के प्रेम, देह, नैतिकता और श्रम को सेंका है और दुनिया
को बताया कि यही सत्य है !! धर्म ने एक तरफ बताया कि “यत्र नार्यस्तु पुज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः” ।(मनु.
3/46) अर्थात् जहाँ स्त्रियों का आदर किया जाता है, वहाँ
देवता रमण करते हैं । - (गोयन्दका, जयदयाल. स्त्रियों के कर्तव्यशिक्षा. पृ. 128.) तो
दूसरी ओर इसके विपरीत नारदपारिव्राजकोपनिषद् में संन्यासियों को शिक्षा देते हुए
कहा गया है –
“न संभाषेत् स्त्रियं
कञ्चित् पूर्वद्रष्टां च न स्मरेत् ।
कथां च वर्जयेत्तासां न
पश्येल्लिखितामपि ।।
एतच्चतुष्टयं मोहात
स्त्रीणामाचरतो यतेः ।
चिंत विक्रियतेsवश्यं तद्धिकारात् प्रणश्यति ।। (4/3-4)
अर्थात्
संन्यासी किसी स्त्री से बातचीत न करे । पहले की देखी हुई किसी स्त्री का स्मरण तक
न करे । स्त्रियों की चर्चा से भी दूर रहे तथा स्त्रियों का चित्र भी न देखे ।
सम्भाषण, स्मरण, चर्चा तथा चित्र-दर्शन, स्त्री-संबंधी इन चार बातों का जो मोहवश
आचरण करता है, उस संन्यासी के चित्त में अवश्य विकार उत्पन्न होता है और उस विकार
से वह धर्मभ्रष्ट होने के कारण नष्ट हो जाता है” । - (पोद्दार, हनुमान प्रसाद. व्यवहार और परमार्थ. पृ. 143-144.)
मनुस्मृति
के अनुसार - “स्त्री बचपन में पिता के, जवानी में पति के और पति के मर जाने पर बुढ़ापे
में पुत्र के वश में रहे” – (मनु. महर्षि. मनुस्मृति. पृ. 95.) तो श्रीमद्भागवत् में स्त्री को पूर्व जन्म के पापों का फल बताया गया – “मां ही पार्थ व्यापाश्रित्य येsपि स्युः पायोनम”
। - (पाण्डेय, डॉ. दर्शन. नारी अस्मिता की परख. पृ. 11. (महाभारत – महर्षि
व्यास, [भिष्म पर्व, 33/32].) मनुस्मृति
के अनुसार पुरूष के लिए धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष अनिवार्य है तो स्त्री का एक मात्र
कर्तव्य पति सेवा ही होना चाहिए (मनु.4/155) – (पोद्दार, हनुमान प्रसाद. व्यवहार और परमार्थ. पृ. 226.) चाहे पति कितनाहुँ दुराचारी क्यों न हो । (मनु.
5/154) – (गोयन्दका, जयदयाल.
नारी धर्म. पृ. 29.)
ऐसे अनेक उदाहरण हमारे ग्रंथों में
भरे पड़े हैं जिससे यह ज्ञात होता है कि स्त्री को जन्म से लेकर मृत्यु तक धर्म की
आड़ में नैतिकता की बेडियों में बाँध दिया गया और ‘सकल ताड़ना
के अधिकारी’ (सुन्दरकाण्ड, 58/3) – (तुलसीदास. श्रीरामचरितमानस. टीकाकार – हनुमानप्रसाद
पोद्दार. पृ. 705.) के
हवाले कर दिया गया । लेकिन अब इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि स्त्री ने मनुस्मृति
सहित समस्त धार्मिक एवं पौराणिक ग्रंथों की शिक्षाओं को न सिर्फ एक छिटे में रखकर
ओसाया है बल्कि समस्त अवधारणाओं का पूनर्मूल्यांकन भी किया है । ‘सकल ताड़ना के अधिकारी’ होने के बजाय अपनी सशक्त ‘सकल’ से सबको आश्चर्यचकित कर दिया है और अब तक की
बनी बनायी परिपाटी को न सिर्फ तोड़ रही है बल्कि मुखर होकर आवाज भी बुलंद कर रही
है । अपने दर्द को न सिर्फ स्वर प्रदान कर रही है बल्कि धर्म तथा इतिहास में
महिमामंडित हुई नायिकाओं को चूनौति देते हुए अपनी नयी इमेज तैयार कर रही है । अब न
तो सीता, सति, शकुन्तला बनकर जीना चाहती है और न ही छायावादी कवियों की उपमाओं में
बंधी कमनीय नायिका का रूप धारण करना चाहती है । आज द्रोपदी की भाँति बदले की भावना
से अपने पतियों में चिन्गारी उत्पन्न नहीं करना चाहती बल्कि विरोधियों को अपनी
सबलता से परास्त करने में विश्वास रखती है । अच्छी-बुरी, कुलटा-कुल्छिनी,
सति-सावित्री की इमेज की परवाह न करके मानवीय संवेदनाओं-संभावनाओं से युक्त मानव
बनना और कहलाना चाहती है । अब कबीर का
वाक्य ‘नारी की झाँई परत अंधा होत भुजंग’ – (शर्मा, डॉ. शिव
कुमार. हिन्दी साहित्यः युग और प्रवृत्तियाँ. पृ. 138.)
की अवधारणा को खारिज करते हुए भुजंग के विष को चुनौती दे रही है । “तेरी पाँच फुटी देह तेरी है दुश्मन / फैसला हर बात
का बिस्तर पर ही होना है” । - (कालिया, ममता. खाँटी घरेलू औरत. पृ. 91.) अथवा “प्यार
शब्द घिसते घिसते / चपटा हो गया है, / अब
हमारी समझ में / सहवास आता है” –
(कालिया, ममता. खाँटी घरेलू औरत. पृ. 96.) आदि
कविताओं के माध्यम से यह समाज को जतला रही है कि अंधा हो रहे हो तो हो जाओ, हमें
तो हमारा अधिकार चाहिए । वह जानती है और समझती भी है कि “तुम / मेरे शरीर को / भोग्य ही
मानते हो / सार्थक नहीं / उपयोगी नहीं”
। - (गुप्ता, रमणिका. खूंटे. पृ. 19.) फिर भी कभी भविष्य में सुधार की
उम्मीद में प्रेम का विष पी रही होती है तो कभी विवशतावश । बिस्तर और घर की जटिलताओं
को अपने आँचल में बाँधे छुप-छुप कर आँसू पोछते हुए अपने
एकांत को बयान करती है -
“बँधा-बँधाया-सा हिसाब है जिन्दगी का
मन
मिले ना मिले
रोटी के लिए
ये
तन तो देना होगा
इच्छा
हो या ना हो
साथ
सोना मजबूरी है” । - (शरद, नेहा. ख़ुदा से ख़ुद तक. पृ. 30)
ये विवशता एक तरह की नहीं है बल्कि
आत्मसम्मान की लड़ाई, वर का चयन, संतानोत्पत्ति का फैसला, जमीन-जायदाद-घर में
हिस्सा, अर्थात् व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, राजनैतिक आदि कई
स्तरों पर चली आ रही है और एक-एक करके स्त्री को इन सबसे जूझना पड़ता है । संविधान
में औरतों के हक़ में कई कानून हैं पर व्यावहारिक जीवन में वर्चस्ववादी सत्ता के
हाथों कठपूतली ही बनी रह गयी है ।
“पैदा होते ही
मेरी ‘मैं’ मर जाती है
और रह जाती
है एक लाश
एक नारी । - (गुप्ता,
रमणिका. खूंटे. पृ. 44.)
जैसी
पंक्तियाँ यह चीख-चीख कर कह रही हैं कि अभी भी पितृसत्ता और लैंगिक वर्चस्व का
बोल-बाला समाप्त नहीं हुआ है । आज के समय में समाज के एक तबके की स्त्री को भले ही
ओखली मुसल और कुबड़े पति या परिवार से मुक्ति मिल गयी हो परंतु आधी आबादी के समस्त
महिलाओं को खुला आकाश और अपने हिस्से की धूप अभी भी नहीं मिला है । इसलिए अब वह
विवशताओं का घुँघट उतारकर फेंक देना चाहती है -
“औरत नहीं है मज़बूर
मजबूरियाँ
हैं रीतियाँ
ढोते हुए
अपना सलीब
अब यह थक
गयी है”
। - (टाकभौरे,
सुशीला. तुमने उसे कब पहचाना. पृ. 37.)
इस
थकान को वह मानवता के धरातल पर स्वतंत्रता, समानता और सद्भावना जैसे प्रजातांत्रिक
मूल्यों के साथ मिटाना चाहती है, इसलिए अनामिका कहती हैं –
“एक दिन हमने कहा
हम भी
इंसान हैं –
हमें कायदे
से पढ़ो एक-एक अक्षर
जैसे पढ़ा
होगा बी ए के बाद
नौकरी का
पहला विज्ञापन!
....
सुनो हमें
अनहद की तरह
और समझो
जैसे समझी जाती हैं
नई-नई सीखी
हुई भाषा” ! - (अनामिका,
खुरदुरी हथेलियाँ. पृ. 14.)
इतना
कहते ही उसे खायी-पीयी-अघायी और बदचलन औरतों की संज्ञा दे दी गयी । उनकी कविताओं
में ढूँढा जाने लगा उनकी देह और नकारा जाने लगा उनकी रचनाओं को, रचनाओं की मौलिकता
पर बार बार प्रश्न उठाया जाने लगा । निर्मला पुतुल के शब्दों में कहें तो - “ये वे लोग हैं / जो मेरी कविताओं में भी तलाशते हैं
/ मेरी देह” ! - (पुतुल,
निर्मला. नगाड़े की तरह बजते शब्द. अनु. अशोक सिंह. पृ. 54.)
देह का देह तो देखा परंतु देह के
भीतर के दर्द को नहीं देखा बल्कि उस पर प्रश्न ही उठाया । पाखी के फरवरी 2012 के स्त्री लेखन विशेषांक में वनिता टोपो को निवेदित करते हुए ब्रेस्ट
कैंसर पर लिखित अनामिका की कविता (दुनिया की सारी स्मृतियों को /दूध पिलाया मैंने ,/ हां, बहा दीं दूध की नदियां! / तब जाकर / मेरे इन उन्नत पहाड़ों की / गहरी गुफाओं में /जाले लगे! ) पर एक लम्बी बहस चली, उनके पुरस्कार प्राप्ति को
वदचलनी का परिणाम बताया गया । अनेक ऐसी प्रतिष्ठित लेखिकाएँ हैं जिनके लेखन पर बार-बार
प्रश्न चिन्ह लगाया जाता है । शायद इसीलिए वे कहती हैं -
“कौन-सी जगह होती है ऐसी
जो छूट
जाने पर
औरत हो
जाती है
कटे हुए नाखूनों,
कंघी में
फँसकर बाहर आए केशों-सी
एकदम से
बुहार दी जाने वाली” ? – (अनामिका,
खुरदुरी हथेलियाँ. पृ. 16.)
अब बहुत हो चुका धर्म-नैतिकता को सूप
में लेकर फटकते हुए, वर्चस्ववादियों का मन माँजते हुए, अपने श्रम के अनुसार
अर्थोपार्जन का गुहार लगाते हुए, अब आवश्यकता है व्यापक जीवन-दृष्टि का, सम्यक्
संसृष्टि का । अब समय है घर की चौखट से निकल कर नग्नता-अर्द्धनग्नता के बाज़ार में
फँसने के बजाय आत्ममंथन एवं चिंतन का, स्वतंत्र-चेतना का । सुशीला टाकभौरे के
शब्दों में -
“आज जानकी सब जान गयी
है
अब वह धरती
में नहीं
आकाश में
जाना चाहती है
देवकी की
कन्या की तरह
बिजली-सी
चमक कर
संदेश देना
चाहती है” - (टाकभौरे,
सुशीला. तुमने उसे कब पहचाना. पृ. 24.)
समय के साथ साथ संदर्भ बदलें
लेकिन दर्द नहीं, रहन सहन बदला लेकिन अत्याचार नहीं, लोगों की नज़र बदली लेकिन
नज़रिया नहीं, व्यवहार बदला बदसलूकी नहीं । ज्यादा से ज्यादा फर्क यही आया कि पहले
स्त्रियों की अभिव्यक्ति अपने होने के दुख से भरी होती थी, उदाहरणस्वरूप अत्यधिक
रोमों के कारण पति से परित्यक्त होने के पश्चात् दुख, ओखली, मुसल और पति से मुक्ति
की कामना अथवा प्रताड़ित करने वाले ससुराल से मुक्ति की कामना अथवा भगवत्भक्ति के
मार्ग में आने वाले बाधक व्यक्तियों, परिवार से मुक्ति की कामना तक सीमित थी किंतु
आधुनिक युग में प्रेम, सेक्स, माहवारी, बलात्कार, ब्रेस्ट कैंसर, सेनेटरी नैपकिन,
सरोगेसी आदि वर्जित विषयों पर भी खुलकर बोलने लगीं । ‘एक दिन लौटेगी लड़की’, ‘थपक
थपक दिल थपक थपक’ (गगन गिल), ‘कबाड़ी
का तराजू’ (निर्मला गर्ग), ‘बीजाक्षर’, ‘अनुष्टुप’, ‘खुरदुरी हथेलियाँ’ (अनामिका), ‘मैं चल तो दूँ’ (कविता वाचकनवी), ‘सात भाइयों के बीच चम्पा’, ‘जादू नहीं कविता’, ‘इस
पौरूषपूर्ण समय में’ (कात्यायनी), ‘ख़ुदा से ख़ुद तक’ (नेहा शरद),
‘घर निकासी’, ‘पानी
का स्वाद’ (नीलेश रघुवंशी), ‘नगाड़े की तरह बजते शब्द’ (निर्मला
पुतुल), ‘अपरिचित उजाले’, ‘सीढ़ियाँ चढ़ते हुई मैं’ (प्रभा
खेतान), ‘खाँटी घरेलू औरत’ (ममता कालिया), ‘मैं आज़ाद हुई
हूँ’, ‘खूँटे’ (रमणिका
गुप्ता), ‘पूरा गलत पाठ’, ‘अपने खिलाफ’ (स्नेहमयी
चौधरी), ‘अपने जैसा जीवन’, ‘नींद थी और रात थी’ (सविता
सिंह), ‘हो जाने दो मुक्त’, ‘कौन-सा आकाश’, ‘चौखट पर व उठो माधवी’ (सुनीता जैन), ‘अनुत्तर’ (सुनीता
बुद्धिराजा), ‘तुमने उसे कब पहचाना’, ‘यह तुम भी जानो’ (सुशीला
टाकभौरे) आदि काव्य-संग्रहों में घर की चौखट से लेकर
बाजारवाद की दुनियाँ में अनेक ऐसे मुद्दे हैं जो स्त्री की नितांत निजी अनुभूति
है, जिस पर वह बिना किसी लाग-लपेट के सहज, सरल तरिके से खुलकर बोलने लगी है तथा
काव्य जगत में बनी-बनायी परिपाटी को तोड़कर ‘पर्सनल इज
पॉलिटिक्स’ की अवधारणा को मजबूत कर रही है ।
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संदर्भ-ग्रंथ
–
1. राजे,
सुमन. हिन्दी साहित्य का आधा इतिहास. प्रकाः भारतीय ज्ञानपीठ, 18, लोदी रोड, नई
दिल्ली – 03, सं. तीसरा, 2006.
2. शर्मा,
डॉ. शिव कुमार. हिन्दी साहित्यः युग और प्रवृत्तियाँ. प्रकाः अशोक प्रकाशन, दिल्ली – 6. सं. अठरहवाँ 2003.
3. तुलसीदास. श्रीरामचरितमानस. टीकाकार – हनुमानप्रसाद पोद्दार. प्रकाः गीताप्रेस,
गोरखपुर. सं. प्रथम 10000.
4. गोयन्दका,
जयदयाल. स्त्रियों के कर्तव्यशिक्षा. प्रकाः गीताप्रेस, गोरखपुर. सं. अट्ठानवाँ,
2064, पुनर्मुद्रण.
5. गोयन्दका,
जयदयाल. नारी धर्म. प्रकाः गीताप्रेस, गोरखपुर. सं. सड़सठवाँ, 2064, 10000.
6. पोद्दार,
हनुमान प्रसाद. व्यवहार और परमार्थ. प्रकाः गीताप्रेस, गोरखपुर. सं. आठवाँ 2060.
7. मनु.
महर्षि. मनुस्मृति. प्रकाः साधना पॉकेट बुक्स, जवाहर नगर, दिल्ली – 07. सं. 1999.
8. पाण्डेय,
डॉ. दर्शन. नारी अस्मिता की परख. प्रकाः संजय प्रकाशन, अंसारी रोड, दरियागंज, नई
दिल्ली – 02, सं. प्रथम 2004.
9. कालिया,
ममता. खाँटी घरेलू औरत. प्रकाः वाणी प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली – 02. सं. 2004.
10. गुप्ता,
रमणिका. खूंटे. प्रकाः पराग प्रकाशन, शाहदरा, दिल्ली – 32. सं. प्रथम, 1980.
11. शरद, नेहा. ख़ुदा से ख़ुद तक. प्रकाः वाणी प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली – 02.
सं. 2001.
12. टाकभौरे,
सुशीला. तुमने उसे कब पहचाना. प्रकाः शरद प्रकाशन, नागपुर – 24. सं. प्रथम, 1995.
13. अनामिका,
खुरदुरी हथेलियाँ. राधाकृष्ण प्रकाशन प्रा.लि., दरियागंज, नई दिल्ली -2. सं.
प्रथम, 2005.
14. पुतुल,
निर्मला. नगाड़े की तरह बजते शब्द. अनु. अशोक सिंह. प्रकाः भारतीय ज्ञानपीठ, लोदी
रोड, नई दिल्ली – 3. सं. प्रथम, 2005.
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