डॉ. संगीता वर्मा द्वारा सम्पादित पुस्तक 'समकालीन साहित्य और भारतीय संस्कृति' में प्रकाशित । पृ. 13-21 ।
भारतीय
परम्परागत संस्कारों का पुनर्पाठ करतीं अनामिका की स्त्रियाँ
(‘कवि ने कहा : अनामिका’ काव्य-संग्रह के विशेष संदर्भ
में)
“क्या नदी का
पहला पाप है विह्वलता ?” (कवि ने कहा: अनामिका
– अनामिका, पृ.106) अनामिका का यह प्रश्न समस्त
वर्चस्ववादी सत्ता के साथ इस जिज्ञासा से है कि नदी की सीमाएँ क्या बिना विह्वलता
के होनी चाहिए ? आखिर विह्वलता विशेषता ही तो है, तभी तो कोई भी जड़, चेतन कहलाएगा ।
विह्वलता न हो तो नदी सागर से कभी नहीं मिल पायेगी, कोई दिशा नहीं चुन पायेगी, यदि
चुन भी ले तो पारंपरिक लीक से हटकर कभी कोई अन्य राह नहीं बना पायेगी !
अनामिका की कविताएँ उस
भावबोध को जन्मदेती हैं जहाँ स्त्रियाँ परम्परागत संस्कारों के कारण परिवार और
समाज में रह सह लेने की स्थिति में कहीं गहरी चुप्पी साध लेती हैं । “कुछ भी नहीं कहना जान गई हैं, / रहना, चुप रहना जान
गई हैं” (कवि ने कहा: अनामिका – अनामिका, पृ.119)
लेकिन यह चुप्पी चुप्पी न होकर “शब्दों के जंगल में /
चुप्पी का एक शेर रहता है” (कवि ने कहा: अनामिका – अनामिका, पृ.119)
और यह शेर दहाड़ता नहीं बल्कि सदियों से अर्जित संस्कारों के विपरीत जंगल में
तुफान ले आने की क्षमता भी रखता है । समाजशास्त्रियों के अनुसार, “संस्कार धर्म पर आधारित वे पद्धतियाँ हैं, जिनके द्वारा व्यक्ति के जीवन
का परिशुद्ध व पवित्र बनाने का प्रयत्न किया जाता है, जिससे कि वह मुक्ति या मोक्ष
की दिशा में अधिक अग्रसर हो सकें” । (अग्रवाल,
जे.के., डॉ. अरविन्द कुमार, आर.सी.तिवारी. समाजशास्त्र गाइड. पृ.43)
डॉ.
राजबली पाण्डेय संस्कार को परिभाषित करते हुए कहते हैं, “संस्कार का अभिप्राय शुद्धि की धार्मिक क्रियाओं तथा व्यक्ति के शारीरिक
मानसिक तथा बौद्धिक परिष्कार के लिए किये जाने वाले अनुष्ठानों से है, जिससे वह
समाज का पूर्ण विकसित सदस्य हो सके” । (अग्रवाल,
जे.के., डॉ. अरविन्द कुमार, आर.सी.तिवारी. समाजशास्त्र गाइड. पृ.42)
तंत्रवार्तिक के अनुसार, “संस्कार वे क्रियाएं तथा रीतियां हैं, जो योग्यता प्रदान करती हैं –
योग्यतां चादधानाः क्रियाः संस्कारा इत्युच्यन्ते । यह योग्यता दो प्रकार की होती
है – 1. पापमोचन से उत्पन्न योग्यता, 2. नवीन गुणों से उत्पन्न योग्यता ।
संस्कारों से नवीन गुणों की प्राप्ति होती है, तथा तप से पापों या दोषों का मार्जन
होता है” ।
(अग्रवाल,
जे.के., डॉ. अरविन्द कुमार, आर.सी.तिवारी. समाजशास्त्र गाइड. पृ.44)
संस्कारों का उद्देश्य जीवन को शुद्द आरचण के माध्यम से उन्नत पथ पर ले
जाना है और किसी व्यक्ति को संस्कारित करने में संस्कृति का सबसे बड़ा योगदान होता
है । महादेवी वर्मा के अनुसार बुद्धि और हृदय “मानव-चेतना
में एक संस्कार जगत् का निर्माण करते रहते हैं, इससे रस पाकर मनुष्य की स्मृति,
अनुमान, कल्पना, भावना आदि समाज, दर्शन, साहित्य आदि में परिणत होकर जिस
जीवन-पद्धति का निर्माण करते हैं, हम उसी को संस्कृति की संज्ञा देते हैं” ।
(चतुर्वेदी,
जगदीश्वर, सुधा सिंह. स्त्री अस्मिताः साहित्य और विचारधारा. पृ.76.)
समाजशास्त्री सर्वश्री मैकाइवर और पेज
(Maclver
and Page) संस्कृति को परिभाषित करते हुए कहते हैं, “हमारे रहने तथा सोचने के तरीकों में, प्रतिदिन के आपसी समागमों में, कला
में, साहित्य में, धर्म में, मनोरंजन तथा आमोद-प्रमोद में
अभिव्यक्त हमारी प्रकृति ही ‘संस्कृति’
है” ।
- (मुकर्जी, आर.एन., भरत अग्रवाल.
प्रारंभिक समाजशास्त्र. पृ. 142.)
दरअसल अनामिका की भारतीय
संस्कृति में इतनी गहरी पैठ है कि वे उसकी बुनियाद तक जा कर स्त्रियों का मनोविज्ञान
समझते हुए उन्हें बाहर निकालने का प्रयास करती हैं । वे जानती हैं कि स्त्रियाँ
भारतीय संस्कृति द्वारा प्रदत्त संस्कारों में इस प्रकार रची बसी हैं कि उन्हें
अपने ही संस्कारों का लेखा-जोखा रखते हुए उसे तोड़ने में खुद से ही काफी जद्दोजहद
करनी पड़ती है । इसीलिए तो ‘सूली ऊपर सेज पिया
की’ कविता में ‘टू बी ऑर नॉट टू बी’ प्रश्न पूछते हुए फाँसी का फंदा लगाने से पहले घर के सारे काम सूझ जाते
हैं, बच्चे याद आ जाते हैं और फंदा लगाने का निर्णय बदल जाता है कि यदि ये नहीं
रहीं तो इनके परिवार का काम-काज कौन सम्भालेगा, पहले सम्भाल लें, फिर मर जायें...
। फासी का फंदा लगाना अर्थात् आत्महत्या करने से बचना एक उदाहरण हो सकता है लेकिन
साथ ही ‘पतिव्रता’ कविता में विवाहित
स्त्री का पति से प्रताड़ित होने पर भी उन्हीं के विषय में सोचते रहना भी हमारे
संस्कार ही तो हैं कि स्त्रियाँ अपने इच्छाओं संभावनाओं और सपनों को ताक पर रखते
हुए पहले अपने पति, बच्चे और परिवार का कल्याण चाहती हैं । पूरे घर में कभी
उत्तरदायित्त्वों के रूप में, कभी करूणा के रूप में, तो कभी ममता के रूप में पसरे
रहने पर भी वह कहीं नहीं होती ‘टू बी ऑर नॉट टू बी दैट इज द
क्वेश्चन’? (कवि ने कहा: अनामिका
– अनामिका, पृ.21)
सच
तो यह है कि संस्कृति धर्म और नैतिकता से गलबहियाँ डाले समाज में व्यक्ति को आदर्श
तथा सत्चरित्र बनाने हेतु निर्णायक भूमिका अदा करती है । चूंकि स्त्री संस्कृति की
संवाहक है, इसलिए उसकी भूमिका जमीनी स्तर से मजबूती के साथ जुड़ी रहती है । स्त्री
न सिर्फ संस्कृति की सूक्ष्म समझ रखती है बल्कि परंपराओं में उसे ढ़ालते हुए
पीढ़ी-दर-पीढ़ी अग्रसारित भी करती है । किंतु संस्कृति और परंपरा में वर्चस्ववादी
राजनैतिक षड़यंत्र के कारण उसे धर्म-नैतिकता, पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक की शिक्षा के
माध्यम से हाशिए पर रखने की पूरी कोशिश की जाती है । वह संस्कृति और परंपरा को
सुरक्षित रखने एवं उसके निर्माण के लिए संस्कारों का लेप लगाकर ईंट के ऊपर ईंट
चढ़ाती तो है परंतु उसने ईंट नहीं रखा यह साबित करने के लिए पुनः धर्म-नैतिकता,
पाप-पुण्य, स्वर्ग नरक आदि अदृश्य षड़यंत्रों
का संबंध चरित्रिक-पतन से जोड़ दिया जाता है । इसलिए तो “अपनी जगह से गिरकर / कहीं के नहीं रहते / केश, औरतें और नाखून” (कवि ने कहा: अनामिका
– अनामिका, पृ.11)
परंतु
क्या यह ग्राह्य कर लेना इतनी आसान बात है कि आधी आबादी जिसकी भूमिका घर, परिवार,
समाज, राष्ट्र में बराबर की है उसकी कोई जगह ही नहीं !!
“जिनका कोई घर
नहीं होता-
उनकी होती है भला कौन-सी जगह
?
कौन-सी जगह होती है ऐसी
जो छूट जाने पर
औरत हो जाती है
कटे हुए नाखूनों,
कंघी में फँसकर बाहर आए
केशों-सी
एकदम से बुहार दी जाने वाली
?”
- (कवि ने कहा: अनामिका – अनामिका, पृ.11-12)
ऐसी स्त्रियों के विषय में अनामिका
‘कवि ने कहा: अनामिका’ पुस्तक के आत्मकथ्य में कहती
हैं, “वास्तविक जीवन-जगत् के चरित्र हों या क्लासिकलों के
चरित्र – मेरी कल्पना के स्थायी नागरिक वही बनते जिन्हें कभी न्याय नहीं मिला, जो
हमेशा लोगों की गलतफहमी का शिकार हुए, दुनिया ने जिन्हें कभी न प्रेम दिया, न मान
। भीतर से वे जितने अगाध होते, उतने ही अकेले” !
(कवि ने कहा: अनामिका – अनामिका, पृ.5)
अकेले हो भी क्यों न,
जिन्हें धर्म ग्रंथों में अपना अस्तित्व स्थापित करने के लिए ‘नर’ अर्थात् पुरूष का ही सहारा लेना पड़ता है । विवाह
के समय कन्यादान, पाणिग्रहण के नारी शब्द का प्रयोग सबसे पहले किया जाता है । नारी
नर के संसर्ग में आने पर ही नारीत्व को प्राप्त करती है । “नारीत्व’
को प्राप्त करते ही वह दो आदर्श अपने सामने अपने ही वचन में जीवन के लिए रखती है –
1. ‘आयुष्मानस्तु मे पतिः’ 2. ‘एधन्तां ज्ञातयो मम’ । मेरा पति पूर्ण आयुसम्पन्न हो
और मेरी जाति (समाज) की अभिवृद्धि हो । नारी होने के बाद ही इसे ‘सौभाग्य’ की प्राप्ति होती है (अ.14/1/38, पा.गृ.1/8/9)” ।
-
(गीता प्रेस. कल्याण वेद-कथांक.
गोरखपुर. पृ. 484. (नारी और वेद))
महाभारत के शांतिपर्व में महर्षि वेदव्यास ने
लिखा है –
“सा भार्या या
गृहे दक्षा सा भार्या या प्रजावती ।
सा भार्या या प्रतिप्राणा सा
भार्या या पतिव्रताः” ।।
- (पाण्डेय.
डॉ. दर्शन. नारी अस्मिता की परख. पृ. 14. (महाभारत (शांतिपर्व), 47/10)
अर्थात् गृहकार्य में दक्ष, सन्तानवती पतिप्रिया
पत्नी ही पतिव्रता नारी हो सकती है ।
‘पतिव्रता’ की हक़ीकत यह है कि पत्नी
पत्नी न होकर कोई रोबोट हो गयी जो अपने पति के इच्छानुसार जिए और जीती चली जाये । वह
पति का चप्पल जूते कपड़ों के साथ परिवार रिश्तेदार सम्भालते जाये, तर्क-कुतर्क
करने के बजाय पति-परमेश्वर के लिए कल्याणकारी भावना ही रखे । ‘रेती पर झम-झम-झमक-झम कुछ बरसने’ की आशा अर्थात्
प्रेम (एक काल्पनिक शब्द) की चाहत लिए रूठना और मनुहार न
होने पर खुद ही धीरे-धीरे बासी रोटियाँ निकाल कर खाने पर विवश हो जाय, किसी सज़ा
से कम नहीं तो क्या ?
स्त्री-विमर्श के क्षेत्र
में अनामिका वह कवयित्री हैं, जो कभी अपनी नायिकाओं से स्वयं संवाद करती नज़र आती
हैं तो कभी इनकी नायिकाएँ धर्म संस्कृति और परंपरा से बतिकही करती हुई दृष्टिगत
होती हैं । फर्नीचर साफ करती, बच्चों का इंतजार करती, पति के प्रेम के लिए तड़पती
पतिव्रता नायिका हो अथवा एक दूसरे के सर में जूँए हेरती, अम्मागिरी करती चाची-मौसी
हों, बच्चे को सफलता की राह दिखाती माँ हो अथवा धरती का नमक बनी या राहगीरों से भी
आत्मीयता रखने की आश लगायी वृद्धाएँ हों, कुंकुंम रंग की क्रूरता से कराहती चकलाघर
की वेश्या हो अथवा रिफ्रेशर कोर्स में एक बेंच पर बैठने वाले सहकर्मी से अन्जाना
अनकहा वियोग पाले पढ़ी-लिखी प्रेमिका हो... ये सभी अपने
अंदर अथाह आदिम स्मृतियों का भंडार समेटे जीवन को एक नयी राह दिखाने वाली
स्त्रियाँ किसी जीवनदर्शन से कम नहीं । यदि ‘जातीय स्मृत्तियों
पर आधारित रचना’ का उदाहरण देना है तो अनामिका जी की कविताएँ
अग्रणी पंक्तियों में आयेंगी । जो भारतीय संस्कारों का ही नहीं बल्कि भारतीय
संस्कृति का दस्तावेज प्रस्तुत करती हैं । उदाहरण के लिए ‘सार्वजनिक
चौका’ नामक कविता देख सकते हैं -
“औरत नहीं थी,
वह इंद्रधनुष थी !
लाल नेलपॉलिश, पीली साड़ी,
नीली अँगिया और चूड़ियाँ
हरी,
लौंग झक सफेद और चमकीली
हँसुली,
भूरी चमड़ी, टिकुली बैगनी –
इंद्रधनुष तक से कुछ ज्यादा
रंगीन
थे उसके सपने भी !”
-
(अनामिका – कवि ने कहा, पृ. 99)
नेलपॉलिश
का लाल होना, पीली साड़ी, हरी चूड़ियाँ, लौंग झक सफेद, चमकीली हँसुली आदि सुहागन
स्त्री के लिए रूढ़ है । किंतु इतने रंगीन वेश-भूषा के बावजूद भी ‘सपनों का इंद्रधनुष से अधिक रंगीन होना’ उसके लिए
खालीपन ही तो है ! यह कविता खेसारी की साग की कचरी-घुघनी
बेचने वाली रमावती नाइन पर लिखी गयी है। जो हर रोज अन्य घरों में महिलाओं को सुबह –
सुबह तेल, उबटन, मेहँदी लगाने जाया करती है और उनके दुःख-दर्द का राज अपने हृदय
में संजोये आती है, लेकिन उसके लिए विवादों का चुल्हा एक पति, प्रेमी पाँच, बच्चे
छः कहकर जलाया जाता है । लीक से हटकर सपने देखने वाली स्त्रियों के लिए कुलटा,
कुल्छिनी, माया, ठगिनी (माया ठगिनी कबीर ने भी संबोधित किया है) आदि चारित्रिक-पतन
का व्यंग्य आखिर नैतिकता ही निर्धारित करती है । डॉ.सुधा सिंह ‘स्त्री की पराधीनता’ नामक लेख में लिखती हैं,
“सारी नैतिकता उन्हें बताती है कि यह महिलाओं का कर्तव्य है और सभी
मौजूदा भावनाओं के अनुसार यह उनका स्वभाव है कि वे दूसरों के लिए जिये, पूर्ण
आत्मत्याग करें और अपने स्नेह संबंधों के अतिरिक्त उनका अपना कोई जीवन न हो ।
स्नेह संबंधों से तात्पर्य सिर्फ इन संबंधों से है जिनकी उन्हें इजाजत है –वे
पुरूष जिनसे स्त्री संबंधित हो या वे बच्चे जो पुरूष व उनमें एक अटूट व अतिरिक्त
बंधन होते हैं” ।
- (चतुर्वेदी,
जगदीश्वर, सुधा सिंह. संपा. स्त्री अस्मिता – साहित्य और विचारधारा. पृ.17)
समय बदलता है, प्रकृति बदलती
है और इनके साथ साथ धर्म, नैतिकता, परंपरा और संस्कृति के नाम पर संस्कारित किए
जाने वाले मानदंड़ भी बदलते हैं । स्त्रियों ने उन निर्धारित मानदंड़ों का पुनर्पाठ
करके एक ही घर में अलग-अलग प्रदान किए जाने वाले संस्कार “राम, आ पाठशाला जा ! / राधा, आ
खाना पका ! / राम, आ बताशा खा ! / राधा, आ झाड़ू लगा” (कवि ने कहा: अनामिका – अनामिका,
पृ.11) अपने प्रति हो रहे षडयंत्रों
को विफल करने का प्रयास किया है । क्योंकि
ये समझ चुकी हैं कि स्त्री को स्त्रित्व स्थापित करने के लिए ऐसे संस्कारों (दया,
क्षमा, करूणा, ममता, धैर्य, सहनशीलता, शीलता, गंभीरता, कौमार्यता तथा प्रेम में
एकनिष्ठता आदि) के कारण मानसिक रूप से बधियापन ही उन्हें अपराध सहन करने के लिए
विवश करते हैं । “आँखों के नीचे / गहरी गुफा की / हहाती हुई एक साँझ उतर आई है !” (अनामिका. कवि ने कहा : अनामिका. पृ. 75) को वे चुपचाप सहन कर लेती हैं ।
किंतु कविताओं के माध्यम से कहें तो
“खुल जाती है ऋतुसंभोग से
बंदीशाला,
छा जाता है अंधकार,
सार्थवाह,
लेकिन उस मेघायित अंधकार में
भी
कुछ द्युतियाँ तो होती हैं
ही निराकार
!”
- (अनामिका. कवि ने कहा : अनामिका. पृ. 106)
ये द्युतियाँ ही उन्हें चमकने के लिए विवश
करती हैं और उनमें जन्म लेती है एक नयी स्त्री और उसमें जुझने की क्षमता । वैसे स्त्रियाँ
तो होती ही हैं ऊपजाऊँ ! फिर उन्हें कैसे रोका जा सकता
है ? जब जब वे अपने अस्मिता के प्रति सचेत हुई है तब तब वर्चस्ववादी
सत्ता को चुनौती दी हैं । गार्गी का तर्क करना, मैत्रेयी का अपने पति द्वारा
प्राप्त धन का ठुकराना, सीता का राम के पास पुनः न लौटने का निश्चय, स्वाभिमानी
राधा का कृष्ण से न मिलने जाना, रज़िया सुल्ताना का सामंती व्यवस्था को तोड़ते हुए
स्वयं राजा बनना, रानी लक्ष्मीबाई का अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष करना, मीरा का
परंपराओं को तोड़ते हुए कृष्ण के लिए समर्पित होना, महादेवी वर्मा का विवाहित होते
हुए पति को अस्वीकारते हुए एकाकी जीवन गुजारना आदि यूँ ही तो नहीं ? परंपरागत संस्कारों को समझना, तर्क करना और उससे बाहर निकलने की अथवा
बदलने की कोशिश करना ही तो पुनर्पाठ है । समाज चाहे कितनाहूँ “रंगीन अफवाहें / चीखती हुई चीं-चीं / दुश्चरित्र महिलाएँ, दुश्चरित्र महिलाएँ”
(कवि ने कहा: अनामिका – अनामिका, पृ. 10)
का आरोप लगाता रहे, परिवर्तन के लिए दुश्चरित्र होना अतिआवश्यक है, क्योंकि चरित्र
की परिभाषा ‘नदी की विह्वलता’ के विपरीत जाती है । अतः चरित्र का
पुनर्पाठ करती नज़र आती हैं अनामिका की स्त्रियाँ । किसी ने सच ही कहा है, “अनामिका समाज के सबसे पिछली पाँत
के इनसानों के साथ खड़ी नज़र आती हैं । वे उनके दुखों, पीड़ाओं व त्रासदियों से
व्यथित ही नहीं होतीं, बल्कि उसे अपनी कलम की धार से तराश कर इतना तीखा व पैना कर
देती हैं कि वे तीर की तरह सीधे मर्म में उतरती चली आती हैं”।
(रूस्तगी,
मंजु. अनामिका का काव्य. पृ.53. (प्रकाशन समाचार, सितम्बर 2008, पृ. 20))
अनामिका की कविताओं के
सारांश के रूप में कहें तो अब वे किसी चोरी-छुपे ‘कुहनियाने’ के खिलाफ टी.वी. के विज्ञापनों में काम करती हैं, ‘सार्वजनिक
चूल्हा’ जलाती हैं, घर में मार खाकर रोती नहीं बल्कि चुपचाप पार्लर
में बर्फ से सिंकायी करवाकर होठों पर ‘हँसी का घुँघट’ डाल अपनी मंजिल की ओर बढ़ जाती हैं । वह प्रेम करने से पहले “क्या प्रेम में पड़ना खटाई में पड़ना है, अम्मा
?” (अनामिका. कवि ने कहा : अनामिका. पृ. 95) प्रश्न करना सीख गयी हैं । ब्युटीमिथ को चैलेंज देने के लिए तैयार हैं
“किसकी नूरजहाँ
हूँ मैं
इस अँधियारे कमरे में यों
टीन खुरचती आटे की”?
- (अनामिका. कवि ने कहा : अनामिका. पृ. 94)
वे अपने आपको पाने के लिए अपनी पड़ोसन खुद बनना
चाहती हैं, स्वयं को ईज्ज़त देना चाहती हैं और अपने कर्मों के लिए स्वयं को
धन्यवाद करना चाहती हैं । वे मिथक पात्रों पर प्रश्नचिन्ह लगाने लगीं हैं कि ईसा
मसीह यदि स्त्री होते तो क्या उन्हें मरने की फुरसत होती क्या वे अत्याचार के
शिकार नहीं होते, जिस प्रकार सीता को? वे केश, औरतें और नाखून के गिरने का अन्वय परंपरा से हटकर करने लगीं है, नयी-नयी
सीखी हुई भाषा की तरह खुद को समझने की चाह रखती हैं, स्वयं को किसी दैहिक वस्तु की
तरह नहीं बल्कि ठिठुरते हुए दूर से किसी आग की महत्पूर्ण होना चाहती हैं और अनहद
नाद की तरह ध्वनि बनकर हृदय-पटल पर अविस्मरणिय बन जाना चाहती हैं ।
“आईना कहता
है, बदल गया है मेरा चेहरा,
उतर गया है मेरे चेहरे का
सारा नमक
नमक से नमक धुल गया है (आँखों से चेहरे का !)”
- (अनामिका.
कवि ने कहा : अनामिका. पृ. 75)
ऐसी पंक्ति तड़पती पीड़ा के संस्कार से ही संभव
हो सकता है । अब वह अधूरे अभंग पदों में एक नया सौंदर्य ढ़ूँढ़ती है, आखिर अनगढ़ता
भी एक सौंदर्य तो है ही । वे अपनी खुरदुरी हथेलियों में अपनी खुदरा उदासियों का
रहस्य ढूँढ ली है, अब वे साँप के सूँघने से पट्ट नहीं लेटेंगी, बल्कि चैतन्य होंगी
। इसलिए वे कहती हैं –
“अंतिम उजास
की छिटकी हुई किर्चियाँ
पल-भर में भर देंगी
सारा-का-सारा स्पेस
और फिर उसका अनुवाद
‘अंतरिक्ष’
नहीं, ‘विस्तार’ करूँगी मैं-
केवल विस्तार !”
- (अनामिका. कवि ने कहा : अनामिका. पृ. 125)
अनामिका की कविताएँ सांस्कृतिक,
सामाजिक, ऐतिहासिक, मिथकिय एवं मनोवैज्ञानिक आदि परतों को अपने अंतःगर्भ में
छिपाये ‘मल्टीडाइमेंशलन’ होती हैं । इनमें देशज शब्दों की
गहरी समझ होने के साथ-साथ ग्रामीण स्त्री को जानना आवश्यक है, तो अंग्रेजी के साथ शहरी
लड़की का रहस्य भी । मिथकिय पात्रों के साथ उनके कहानियों की उधेड़-बुन करना जरूरी
है तो ऐतिहासिक चरित्रों के गाथाओं को खँगालना भी । संस्कृति पर कविता शुरू होकर
कब इतिहास में पहुँच जाये और कब इतिहास से गुजरते हुए मिथक में समा जाये, मिथक
आधुनिकता उत्तरआधुनिकता के दर्पण में कब कड़वी सच्चाई को दर्शा दे और उस सच्चाई
में स्त्री के समस्त संवेदनाएँ एक साथ उभरकर सामने आ जाये... यह स्वप्न और यथार्थ का
संगम मुक्तिबोध के पश्चात् अनामिका के काव्य में ही दिखायी देती हैं । यदि इन
कविताओं को ‘नदी की विह्वलता’ की
संज्ञा देते हैं तो अतिशयोक्ति नहीं होगी । और यही विह्वलता दिखायी देती है उनकी
स्त्रियों में भी, जो भारतीय परम्परागत संस्कारों में रची-बसी होने के बावजूद भी परंपरा,
संस्कृति, धर्म, नैतिकता, इतिहास और मिथकों का पुनर्पाठ करती हुई दृष्टिगत होती
हैं । वे नदी की भाँति बहती हैं, राह बनाती हैं, जीवन देती हैं, सागर में मिल जाती
हैं और सागर में समाकर भी अपनी एक अलग पहचान बनाते हुए वर्चस्ववादी सत्ता से
प्रश्न करती हैं-
“क्यों होना
चाहिए कुछ भी किसी का
उसकी मर्जी के खिलाफ ?”
- (कवि ने कहा: अनामिका – अनामिका, पृ.107)
***********
संदर्भ-ग्रंथ –
1.
अनामिका. कवि ने कहा : अनामिका. किताबघर प्रकाशन, दरियागंज, नयी दिल्ली. सं. 2008.
2.
अग्रवाल, जे.के., डॉ. अरविन्द
कुमार, आर.सी.तिवारी. समाजशास्त्र गाइड. विद्यार्थी पुस्तक भंडार, गोरखपुर. सं.
1997.
3.
मुकर्जी, आर.एन., भरत अग्रवाल.
प्रारंभिक समाजशास्त्र. शिवलाल अग्रवाल एंड कंपनी, आगरा-3. सं. अट्ठआइसवाँ, 1999.
4.
चतुर्वेदी, जगदीश्वर, सुधा सिंह.
संपा. स्त्री अस्मिता – साहित्य और विचारधारा.
5.
रूस्तगी, मंजु. अनामिका का काव्य.
वाणी प्रकाशन, दरियागंज, नयी दिल्ली. सं. प्रथम, 2015.
6.
गीता प्रेस. कल्याण वेद-कथांक.
गोरखपुर. सं. प्रथम.
7.
पाण्डेय. डॉ. दर्शन. नारी अस्मिता
की परख. संजय प्रकाशन, नई दिल्ली. सं. प्रथम, 2004.
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