केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा से निकलने वाली पत्रिका 'प्रवासी जगत' के अप्रैल-जून, 2018 के अंक में सुधा ओम ढ़ींगरा की कहानी-संग्रह की समीक्षा 'सच कुछ और था का सच' प्रकाशित...
‘सच कुछ और था’ का सच
जीवन के इंद्रधनूष में सबका रंग और
उन रंगों का सच अलग-अलग होता है, जिसकी व्याख्या करना सुधा ओम ढींगरा को बखूबी आता
है । प्रेम, देह, नैतिकता, अनैतिकता, प्रगतिवाद, परंपरा, सभ्यता, विज्ञान,
मनोविज्ञान आदि को रिश्तों की कसौटी में कसती ही नहीं बल्कि किसी पेय पदार्थ के
साथ बर्फ डालने के जैसा घोलती हैं । कौन-सी जमीन अपनी, कमरा नं. 103 की कहानियाँ
जितनी रोचक, संवेदनशील एवं मनोविश्लेषणपरक हैं, उससे भी कहीं अधिक संवेदनशील एवं
मनोविश्लेषणात्क कहानियाँ ‘सच कुछ और था’ में संग्रहित हैं । ‘आग में गर्मी कम क्यों है’ और ‘टारनैडो’ जैसी चर्चित एवं यादगार कहानियाँ लिखने के
बाद इस संग्रह की ‘अनुगूँज’, ‘विकल्प’, ‘विष-बीज’ और ‘बेघर
सच’ कहानियाँ साहित्य जगत् को एक नया आयाम प्रदान करती हैं ।
इस संग्रह में अधिकतर कहानियों के किस्सागोई की खास विशेषता है कि कहानी सहनायक के
माध्यम से कहलवाकर मुख्य पात्र को सामने लाया जाता है अर्थात् एक कहानी के समानांतर
दूसरी कहानी भी चल रही होती है, जो रिश्तों की जटिलताओं को परत-दर-परत उधेड़ते हुए
व्याख्यात्मक रूप प्रदान करता है । जिनमें से न सिर्फ सकारात्मक प्रवृत्ति वाले
पात्र (नायक) बल्कि नकारात्मक प्रवृत्ति के पात्र (खलनायक) भी केन्द्र में हैं ।
इस संग्रह के ग्यारहों कहानियों का
अपना-अपना स्वाभाविक एवं यथार्थपरक सच है । सुधा जी ने पात्रों की मनःस्थितियों को
मनोविश्लेषण की लड़ियों में बडें ही सुन्दर ढंग से पिरोया है । जो ‘आकोकुरा’ की पुस्तक ‘द बुक ऑफ
टी’ के ‘राजकुमार पीवो’ की वीणा के स्वर के समान है, जिसकी जैसी आवश्यकता और मनःस्थिति होगी उसे
वैसी ही सुनायी पडेगी । चाहे वह परिवार से प्रताडित ‘अनुगूँज’ की नायिका गुरमीत हो या नैतिकता-अनैतिकता से परे ‘विकल्प’ की नीरा, चाहे अपनी माँ के आँखों का सूनापन
दूर करने की इच्छा रखने वाली ‘काश !
ऐसा होता’ की पारूल हो अथवा ‘बेघर सच’ की सुलझी हुई रंजना... ये नायिकाएँ अपने अस्तित्व के प्रति सिर्फ जागरूक
ही नहीं बल्कि अपने अधिकारों के लिए निरंतर संघर्ष करती नज़र आती हैं । वहीं
मनप्रीत, रिया, सम्पदा, साकेत रिश्तों के ताने-बाने को समझने का प्रयास करते हैं
और अंत में अपने कमजोरियों पर विजय प्राप्त कर सही एवं तर्कसंगत फैसला लेते हैं । किंतु
‘उसकी खुशबू’ की जूली, ‘पासवर्ड’ की तन्वी, ‘तलाश जारी
है…’ के दोनों छद्मी चोर, ‘विष-बीज’ का खलनायक उर्फ नायक आदि के अपराधिक प्रवृति के पीछे हमारे समाज का ही
हाथ है । कुछ ‘स्पेशल अपीयरेन्स’
भूमिका निभाने वाली नायिकाएँ (‘अनुगूँज’ की जिली, ‘विष-बीज’ की टीचर, ‘सच कुछ और था’ की अर्चना, ‘काश
! ऐसा होता’ की मिसेज़ हाइडी) सशक्त महिलाएँ हैं, जो पाठक पर बिजली की तरह कौंधकर दूरगामी प्रभाव
छोड़ती हैं और उनकी अधूरी कहानियाँ पूरी होने की माँग करती हैं ।
संग्रह की पहली कहानी गूँज के पीछे
की आवाज ‘अनुगूँज’ स्वदेश और विदेश की संस्कृतियों एवं
मूल्यों की टकराहट, स्त्री-शोषण, बेवफाई, हत्या, कोर्ट में गवाही और फिर सच का
सामने आना पाठकों को अनायास ही अपनी तरफ आकर्षित कर लेता है । सुखमय जीवन की चाह
में एन.आर.आई. से लड़कियों का विवाह और विवाहोपरांत उनके साथ हो रही
घटनाएं-दुर्घटनाएँ हमारे समाज को लगातार सतर्क कर रही हैं । माँ-बाप बिना
जाँच-पड़ताल किए विदेश में ब्याह तो देते हैं किंतु अपनी लड़कियों की परिस्थितियों
से अनभिज्ञ रहते हैं । गुरूमीत अपने माँ-बाप से कुछ कह नहीं सकती किंतु अपने
अधिकारों के प्रति सचेत है और उसकी सचेतनता का परिणाम है उसकी हत्या । गुरमीत की
सीधी-सादी देवरानी मनप्रीत ने ससुराल वालों के सामने कभी अपना मुँह नहीं खोला
किंतु गुरमीत के साथ हो रहे अत्याचार और हत्या की वह प्रत्यक्ष गवाह है । ससुराल
वालों के समझाने और अचानक से पति का प्यार उमड़ने के पश्चात् भी उसकी ग्लानि उसे
जीने नहीं देती । बचपन से ही सही समय पर सच न बोल पाने के कारण वह सदैव अपने आपको
दोषी ठहराती रहती है । किंतु अंत में परिकल्पनाओं की दुनियाँ से हकीकत के धरातल पर
आकर अपनी स्वभावगत कमजोरियों पर विजय प्राप्त करते हुए अंतर्द्वन्द्व से बाहर निकल
कर समस्त विवशताओं को तोड़ते हुए सच बोलकर अपराधियों को सजा दिलवाती है ।
‘उसकी खुशबू’ असफल प्रेम के अपमान-बोध से उत्पन्न आपराधिक
प्रवृत्ति में लिप्त होने की कहानी है, जो अपने अस्तित्व को किसी भी हाल में
स्थापित करना चाहती है और बताना चाहती है कि वह किसी से कम नहीं । कहानी की नायिका
जूली अपने प्रेमी मनोज के द्वारा विवाह के दिन ठुकराये जाने के पश्चात् अपमान सह
नहीं पाती और मनोज के साथ-साथ उसके जैसे भारतीय पुरूषों को अपने जाल में फंसाकर
उनकी हत्या कर देती है । उसके हिस्से में प्यार की खुशबू तो नहीं आती किंतु हत्या
जरूर आती है । तीन पुरूषों की हत्या के पश्चात् मिस्टर सुमित सक्सेना चौथे शिकार
हैं जो मनोज की भाँति ही भारतीय पुरूषों की तरह हृष्ट-पुष्ट लम्बे-साँवले हैं और
आसानी से जूली के आकर्षक बदन पर लगे परफ्यूम की तीखी खुशबू से सम्मोहित भी हो जाते
हैं । यह सम्मोहन यूं ही नहीं बल्कि अपनी कल्पनात्मक पत्नी की खूबसूरती जूली में
देखकर उससे प्रेम कर बैठते हैं और जूली के
इरादों से अनभिज्ञ उसका शिकार बन जाते हैं ।
प्रायः सोशल मीडिया पर लगे पोस्ट को
सरसरी निगाह से देखकर उसपर कुछ चलता-सा कमेंट कर आगे बढ़ जाना और अपनी रोजमर्रा के
जीवन में व्यस्त हो जाना हमारे दिनचर्या का हिस्सा हो गया है, परंतु कुछ पोस्ट्स
का परिणाम कितना खतरनाक हो सकता है अथवा किसी खतरे की चेतावनी भी हो सकती है...! इसका सच है - ‘सच कुछ और था’
। इस कहानी में रिया, निखिल और लिंडा पात्रों के प्रत्यक्ष होते हुए भी कोई मुख्य
पात्र नहीं कहा जा सकता, किंतु प्रत्यक्ष न होते हुए भी कहानी के केन्द्र-बिन्दू
में महेन्द्र है । उसकी कुंठा, आकांक्षा, सुपरियारिटी का दिखावा और उस दिखावे की
आड़ में बदले की भावना आदि छद्मी मुखौटे को समझना आसान नहीं था किंतु ये सब रिया
की नज़रों से छुप नहीं पाता । चारित्रिक ढ़कोसले में अपने लंगोटिया यार निखिल से
अपने सभी राज प्रेम, विवाह, आकांक्षा और कुंठा को छुपाकर सुसभ्य और आदर्श दोस्त के
रूप में व्यावहारिक जीवन जी रहा होता है । कॉलेज के दिनों में अर्चना से प्रेम और
उसे गर्भावस्था की अवस्था में छोड़ देना, अमेरिका में लिंड़ा से विवाह कर यह
दिखाना कि भारतीय संस्कृति से कोसो दूर है किंतु लिंडा की इच्छाओं को नज़रअन्दाज
कर बुढ़ापे में अपनी देश भारत में जीवन गुजारना और अपनी मिट्टी पर ही मृत्यु
प्राप्ति की इच्छा ने उसके इस ढ़कोसले भरे रहस्य से पर्दा उठा दिया । सुलझी हुई
अमेरिकन लिंडा के बार-बार कहने पर भी तलाक नहीं देना और उसे इतना परेशान करना कि
वह मानसिक तनाव से गुजरते हुए एक दिन उसे गोली मार देती है, जिसका जिक्र वह सोशल
मीडिया पर पहले ही अपने पोस्ट में कर चुकी होती है । किंतु उसकी बातों पर ध्यान
दिए बिना सलाह देने वालों की लम्बी लिस्ट भी उसे डिप्रेशन से बचा नहीं पाती और वह
अपराध की ओर बढ़ जाती है ।
हमारा प्रेम, हमारी समझ, हमारा
विश्वास हमारे जीवन का ‘पासवर्ड’
है । हम प्रेम में कब अपने जीवन का पासवर्ड अपने प्रेमी को हाथों में सौंप देते
हैं... यह बिना सोचे कि कब उसके षड़यंत्रों के शिकार हो जायें !! नायक समीर अत्यंत सुलझा और
समझदार होने के बावजूद भी अपने घर से लेकर कम्प्यूटर का पासवर्ड अपनी पत्नी तन्वी
के लावण्य और सरलता पर मुग्ध होकर सौंप देता है, जबकि तन्वी का मकसद अपने प्रेमी
के साथ जीवनयापन हेतु ग्रीन कार्ड प्राप्त करना होता है । किंतु तन्वी की अत्यधिक
चालाकीपन ने अन्जाने में ही अपने जीवन का पासवर्ड समीर को दे दिया और हवालात पहुँच
गयी ।
‘तलाश जारी है...’ यह समाज के हर उस फ्रॉड व्यक्तियों
की तलाश है जो रोजमर्रा के जीवन में छोटी-मोटी बातों में भी नियमों का उल्लंघन कर
सरकार को थूक लगाने कोई कसर नहीं छोड़ते ! और तो और वे इसे
अपराध नहीं बल्कि थोड़ी-सी चालाकी या अपनी समझदारी समझते हैं । इनके अनुसार ये
छोटे मोटे फर्जी काम (फोन में क्वॉटर डालकर बात करना, मंदिर के सामने या पार्क में
फोम के ग्लास में शराब पीना, नशे के बहाने किसी की बीवी के साथ नाच लेना आदि) समझदारी
है और टैक्स भरकर आखिर अपनी ईमानदारी का परिचय दे तो देते ही हैं । किंतु वे भूल
जाते हैं कि दूसरों को बेवकूफ समझना खुद में एक बेवकूफी है । यह समाज के ऐसे हर
समझदार व्यक्ति पर तीखा कटाक्ष है ।
‘जैनेटिक प्रॉब्लम’ के कारण जींस का कमज़ोर होना और अपने खानदान के खून से
माँ बनने की प्रबल इच्छा से नैतिकता-अनैतिकता को ताक पर रखते हुए विवाहेत्तर
संबंधों की उलझन को सुलझाती ‘विकल्प’ कहानी
प्रेम और देह के विमर्श को बड़ी ही आसानी से समझा देती है । अपने वंश-वृक्ष से फल
प्राप्ति की इच्छा से नीरा ने विकल्प के रूप में अपने देवर कमल को चुना, जहाँ
भावनाओं की जगह नहीं । हैरानी की बात यह है कि इस संबंध के लिए पूरे परिवार की
सहमति है, परंतु इन परिस्थितियों से अनभिज्ञ नैतिकता की राह पर चलने वाली सम्पदा ने
जल्द ही इस घर में कदम रखा है वह अपनी जिठानी नीरा और अपने देवर कमल के संबंध को
देखकर आहत हो जाती है और मानसिक तनाव एवं अंतर्द्वन्द्व से गुजरने लगती है ।लेकिन जिठानी
के सरल स्वभाव और विवाहेत्तर संबंध को जानने के पश्चात् उससे आर्टिफिशियल इन्सेमिनेशन
के विकल्प चुनने का प्रस्ताव रखती है किंतु नीरा समझाते हुए कहती है - “लाडो, आकाश में उड़ने वाला परिन्दा जब धरती के कठोर धरातल पर पैर रखता है
तब उसे एहसास होता है कि यथार्थ की कठोरता क्या है !” (ढ़ींगरा, सुधा ओम. सच कुछ
और था. पृ. 76) जीवन में विकल्प तो बहुत से हैं परंतु सही विकल्प का चयन ही
समझदारी है साथ ही नीरा पर यह प्रश्न छोड़ जाती है कि उसके पति की भी यही समस्या
है तब ऐसे में उसका विकल्प क्या होगा ?
‘विकल्प’ के बिल्कुल विपरीत कहानी है ‘विष-बीज’ । बलात्कार एक ऐसा विष है जो समाज के हर
स्त्री को जाने-अनजाने दहशत में रखता है । स्त्री हर जगह असुरक्षित महसूस कर रही
है । बलात्कारी एक ऐसा वृक्ष है, जिसके हाथ कहीं भी पहुँच सकते हैं । परंतु सवाल
यह है कि इस विष के बीज कहाँ से आते हैं, कैसे उत्पन्न होते हैं ? लेखिका ऐसे अपराधियों के उत्पत्तिजनक परिस्थितियों एवं उनके
अंतर्द्वन्द्वों को बड़े ही सुन्दर ढ़ंग से व्याख्यायित करती हैं “मेरे भीतर का डीमन (शैतान) नफ़रत का भोजन खा-खा कर इतना शक्तिशाली हो गया
है कि उसने मेरे ऐंजल (फ़रिश्ता) को दबोच लिया है” ।
(ढ़ींगरा, सुधा ओम. सच कुछ और था. पृ. 78)
इस कहानी का नायक उर्फ खलनायक की
आपराधिक मनोवृत्ति डॉ. एबेन ऑलेक्सेंडर की पुस्तक “प्रूफ ऑफ हेवन”पर आधारित है । बाल्यावस्था में उसकी सौतेली माँ की प्रताड़ना और अपने माँ
की कमी का एहसास, अनाथालय में बाल-शोषण और अनाथालय की मालकीन रौनी से बताने पर
उल्टे इसे ही डराना-धमकाना, प्रेमिका सूजन की बेवफाई इसके अपराधिक मानसिकता की आग
में घी डालने का काम करता है । अब वह औरत की अस्मिता को कुचलना चाहता है, उसके
अस्तित्व को चोट पहुँचाना चाहता है, उन औरतों के रोने-तड़पने से उसे खुशी मिलती है
। यह खुशी पाने के लिए उसके पास एक ही हथियार है - बलात्कार । वह कहता है – “पितृसत्ता जानती है कि नारी पुरूष से मज़बूत है और नारी कभी गुटों की,
गिरोहों की, सभ्यताओं की मुखिया हुआ करती थी और समाज का संचालन करती थी । बड़े
षड़यंत्रों और प्रयासों के बाद भी पुरूष ने सत्ता संभाली और पितृसत्ता का वर्चस्व
हुआ है । “बलात्कार” ही ऐसा शस्त्र है, जिसके भय से समस्त
नारी जगत् को दबा कर रखा जा सकता है” । (ढ़ींगरा, सुधा ओम. सच कुछ और था. पृ. 84)
वह बदले की आग में हैवानियत की सीमा
पार करता तब दिखाई देता है जब अफ़गानिस्तान में टूटी दीवारों के बीच बनी एक खोह
में एक माँ अपनी तीन बेटियों के साथ छुप कर बैठी होती है उस समय वह कुछ फौजियों के
साथ मिलकर बलात्कार करता है और जब उनकी चीख की गूँज से भी मन शांत न हुआ तो उन्हें
गोली मार देता है और अंत में अन्जाने में ही सही अपनी माँ से बलात्कार करने के लिए
उसे किडनैप कर चुका होता है । उसे समझ में नहीं आता है कि बेहोश पड़ी महिला के साथ
उसके अन्दर का हेवन शांत कैसे हो गया ? लेकिन बेहोश
महिला के माँ होने का पता चलने पर वह आत्म-ग्लानि से भर उठता है और उसे समझ में
आता है कि यदि उसके पिता ने उसकी माँ को छोड़ा नहीं होता, यदि उन्होंने दूसरी शादी
न की होती तो उसे माँ का प्यार मिलता और आज वह अपराधी न बनता । यह कहानी बाल-मनोविश्लेषण
से लेकर अपराधिक मनोवृत्तियों, पारिवारिक विघटन, बाल-शोषण, बलात्कार पर एक बड़ी
बहस खड़ा करती है ।
‘काश ! ऐसा होता’ कहानी भारत और
अमेरिका में विधवाओं की स्थिति पर तुलनात्मक विमर्श के रूप में प्रश्न खड़ा करती
है । पुरूष के विधुर होने पर उसके विवाह की स्वतंत्रता और स्त्री के विधवा होने पर
उसके विवाह की मनाही ने समाज में अनेक विकृतियाँ पैदा की है । स्त्री की तकलीफ,
उसका दर्द सिर्फ उसका होता है । जिस प्रकार अमेरिका में मिसिज़ हिडिन को
वृद्धावस्था में जीवनसाथी चुनने का अधिकार है यदि उसी प्रकार भारत में पारूल की
माँ अथवा अन्य महिलाओं को भी जीवनसाथी चुनने की स्वतंत्रता मिल जाती तो आज उनके
जीवन में अकेलापन नहीं होता, उन्हें अनेक तकलीफों से मुक्ति मिल जाती ।
‘क्यों ब्याही परदेस’ कहानी ‘दूर
का ढोल’ के सुहावने स्वर का रहस्य खोलती नज़र आती है । परदेस
का सुहावना आकर्षण किसी को नहीं छोड़ता किंतु हकीकत सारे सपनों को चूर भी कर सकता
है । क्यों ब्याही परदेस लेखिका का अपना अनुभव होने के साथ-साथ उन औरतों का भी
अनुभव है जो परदेश में दो संस्कृतियों, दो मूल्यों के टकराहट में फंसी अकेलापन महसूस
करती हैं । दोनों ही देशों के अपने-अपने संघर्ष हैं । यह कहानी स्वदेश एवं विदेश के परिवेश एवं
संघर्षों की तुलना करते हुए पत्रात्मक शैली में लिखी गई है ।
‘और आँसू टपकते रहे...’ हालातों में पिसती बेवश
जिन्दगी की मर्मस्पर्शी कहानी है । कहानी एक ऐसी महिला की है जो बचपन से दुख झेल
रही हालात की मारी विवाह होने के पश्चात् सास के षड़यंत्रों में फंसकर
वेश्यावृत्ति की ओर ढ़केल दी जाती है । होटल के कमरा नं 15 में बिहारी की नायिका
की भाँति लाल सूती साड़ी में लिपटी पल्लू को होंठों और दाँतों से भींच कर सिसकियाँ
लगाते हुए अपने क्लाइंट कोमल से बचाव का गुहार लगाती है । कोमल की दयालु प्रवृत्ति
ने उसे उस दिन वहाँ छोड़ दिया किंतु उसकी सिसकियों को भूल नहीं पाया । वह अपनी
ग्लानि से मुक्ति पाने और उसे बचाने के लिए होटल के कमरे में पहुँचता है लेकिन तब
तक देर हो चुकी होती है । वह लड़की अपने आपको एक शराबी से बचाने के लिए होटल के
कमरे से छलांग लगा चुकी होती है । दूसरे दिन उसकी मृत्यु की सूर्खी पढ़कर कोमल के
आँखों से आँसू टपकते रहे ।
औरत की अस्मिता और अस्तित्व की
कहानी है ‘बेघर सच’ । औरत का कोई घर नहीं होता जबकि औरत पूरे
घर में होती है । मायका में पराया धन और ससुराल में दूसरे घर से आयी लड़की की ‘चुप्पी’ की एक वजह यह भी है । रंजना की माँ अपनी
कला, संगीत को सास और चाची सास के डर से कभी मूर्तवत् रूप नहीं दे पायीं और हमेशा
से चुप्प रही । सास की मृत्यु के पश्चात् उन्होंने अपनी संवेदनात्मक मूर्तियों को
आकार देना प्रारंभ किया । माँ की आकांक्षाएँ, भावनाएँ और सपने मूर्तियों के रूप
में अपने साथ समेट कर रंजना अपने पति संजय के घर आ गयी । किंतु संजय का
अतिमहत्त्वाकांक्षी और वर्कएल्कोहलिक होना और रात में रंजना को मात्र भोग समझ कर
भोगना रंजना को आहत कर जाता । रंजना ने अपनी भावनाओं और संवेदनाओं को भी कला में
ढूँढना शुरू किया और उसे एम. सदोष के ‘होमलेस आइज़’, ‘इन द आइज़ ऑफ टाइम’ जैसी
मूर्तियों में मिली । मूर्तियों को देखकर कविता गढ़ना और उस कविता का मूर्तियों के
साथ प्रकाशित होना तथा उसकी कविता को पढ़कर सदोष का मूर्ति गढ़ना दोनों में अदेह
सूक्ष्म दोस्ती का रूप प्रारंभ हो जाता है । परंतु यह दोस्ती रंजना के पति संजय को
प्रेम लगने लगा और अपनी गलतफ़हमी में उसने आरोप लगाना प्रारंभ किया । उसने उसे
एहसास दिलाया कि वह उसके घर में रहकर किसी और से प्रेम नहीं कर सकती । वह उसकी माँ
की मूर्तियों को फेंकने के साथ-साथ उसकी भावनाओं को भी तार-तार करने लगा । रंजना
प्रेम समझती है पर उसे समझा नहीं पाती – “प्रेम का अर्थ केवल
शरीरों का मिलन नहीं है… प्रेम एक अनुभूति है.. आवश्यक नहीं
कि उसकी अभिव्यक्ति शब्दों से की जाय.. वह अपनी अस्मिता के साथ उसकी कला को
निहारती है । उसकी कला की मीरा सी दीवानी है । मूर्तियों की तराश और उससे पैदा
किये भावों से प्रेम करती है; जो नारी के भीतर की बंद गुफाओं
को खोलते हैं... नारी की अंतर्वेदना को मूर्त करते हैं । नारी के अंगों को नहीं,
भावनाओं और संवेगों को रूप देते हैं...” । (ढ़ींगरा, सुधा ओम. सच कुछ और था. पृ. 114) अंततः मूर्तियों के साथ अपने एक नए घर का चयन करती है, जिसे वह अपना कह
सकेगी और अपनी इच्छाओं, भावनाओं, संवेदनाओं को मूर्त रूप दे सकेगी ।
इन कहानियों में लेखिका ने स्थूल और
सूक्ष्म, प्रेम और देह, व्यावहारिक एवं प्रेक्टिकल, कल्पना और यथार्थ के धरातल पर
अलग-अलग प्रयोग किए हैं । जहाँ एक ओर प्रेम से अलग दैहिक आवश्यकताओं “आकर्षण, प्रेम, लस्ट और सच्चे प्रेम के अंतर को जिस दिन तुम समझ जाओगी, उस
दिन तुम मेरे सच को भी जान पाओगी । देव से मैं सच्चा प्रेम करती हूँ और कमल के साथ
रिश्ते की गरिमा की रक्षा करना भी मैं जानती हूँ” (ढ़ींगरा, सुधा ओम. सच कुछ और था. पृ. 76) पर
चर्चा करती हैं तो वहीं दूसरी ओर दैहिकता से परे प्रेम “प्रेम
का अर्थ केवल शरीरों का मिलन नहीं है…” (ढ़ींगरा, सुधा ओम.
सच कुछ और था. पृ. 114) अथवा “प्यार
पुरूष के लिए बस एक शब्द है और स्त्री के लिए ब्रह्माण्ड । ब्रह्माण्ड के दर्शन वह
बस एक बार करती है और पूरी निष्ठा से अन्तःस्थल की गहराइयों से उसमें समा जाती है
। काम के वाणों को भी प्रेम की प्रत्यंचा पर चढ़ा लेती है” ।
(ढ़ींगरा, सुधा ओम. सच कुछ और था. पृ. 114) को व्याख्यायित
कर स्त्री-मन एवं विमर्श को दो अलग-अलग चिंतन प्रदान करती हैं । एक तरफ सम्पदा और
मनप्रीत के माध्यम से नैतिकता को उच्च शिखर पर पहुँचाती हुई दृष्टिगत होती हैं
वहीं दूसरी ओर नीरा के माध्यम से नैतिकता-अनैतिकता से परे आवश्यकताओं और जीवन की
सच्चाई से अवगत करवाती हैं । एक तरफ सरकार को चूना लगाने वालों का विरोध करती हैं
तो दूसरी तरफ जूली और विष-बीज का नायक और लिंड़ा के माध्यम से रोचक थ्रीलर उत्पन्न
कर उनके मनोभावों को गहराई से समझने-समझाने का प्रयास भी करती है ।
सुधा जी में मनोविज्ञान की गहरी समझ
है । वे विकृत मानसिकता को भी विकृत नहीं रहने देतीं बल्कि उसके प्रभावी कारकों का
वर्णन कर मनोविश्लेषणवादी चिंतन की ओर मोड़ देती हैं । इनकी कहानियाँ सामाजिक
ताने-बाने में विधवा-विवाह एवं विधवा विमर्श, नैतिकता-अनैतिकता, परदेश में ब्याही
जाने वाली लड़कियों की स्थिति, बाल-शोषण, यौन-शोषण, स्त्री-विमर्श, फौजियों का
उत्तरदायित्व, प्रेम और वर्चस्ववादी सत्ता की गहरी पड़ताल करते हुए हम सब पर यह
प्रश्न उठाती हैं कि इन सभी घटनाओं के पीछे जिम्मेदार कौन है – हमारा समाज, हमारी
रूढ़ीवादी मानसिकता, वर्चस्ववादी सत्ता अथवा राजनीति ?
***************
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें