डॉ. कमलेश कुमारी द्वारा संपादित पुस्तक 'प्रवासी कथाकार तेजेन्द्र शर्मा मुद्दे और चुनौतियाँ' में मेरा लेख 'रिश्तों की जटिलताओं में सुलगते नारी मन और देह की गुत्थी' प्रकाशित । पृ. 164-170, प्रथम सं. 2018, साहित्य संचय प्रकाशन, नई दिल्ली ।
रिस्तों
की जटिलताओं में सुलगते नारी मन और देह की गुत्थी
प्रवासी
साहित्यकारों में सुप्रसिद्ध कथाकार तेजेन्द्र शर्मा की रचनाएँ भारतीय संस्कारों
से बंधे किंतु इंग्लैण्ड की धरातल पर पंख फैलाये रिस्तों के मनोविज्ञान का आश्रय
लेकर सामाजिक एवं पारिवारिक संरचना की गुत्थम गुत्थी है किंतु न ही पूरी तरह
नॉस्टेल्जिया और न ही पूर्ण रूप से पाश्चात्य का अनुकरण । हर कहानी का अपना एक
दर्द है और उस दर्द की छाँव में पिघलते पात्रों का जीवन सुखांतक तो कभी दुखात्मक
मोड़ से होकर गुजरता है । इन कहानियों को समझने के लिए रूढिवादिता से दूर आधुनिकता
के फलक पर व्यापक नज़रिए की आवश्यकता है जो रिस्तों के बीच फँसें मन और देह की
जटिलताओं को समझ सकें । प्रायः सरसरी निगाह से पढ़ने पर लगता है कि इन साधारण-सी
कहानियों में स्त्री महज एक देह है, जिसकी भावनाएँ गौण हो जाती हैं । लेकिन कहानी के गहराई में उतरने पर उस देह के
नीचे कूढ़ते मन और मन में चल रहे हलचलों को समझने पर समझ में आता है कि रिस्तों का
हर हिस्सा अस्तित्व के प्रति सजगता और सर्तकता के ताने बाने से बुना हुआ है । ‘कोख
का किराया’ की नायिका मैनी का सरोगेसी की आड़ में अपने एकतरफा प्रेम करने वाले
प्रेमी से गर्भवती होने की जिद्दी इच्छा हो या फिर ‘कल फिर
आना’ की रीमा का अचानक घर में घुसे चोर से प्राप्त शारीरिक
तृप्ति, ‘एक बार फिर होली’ की नायिका
नज़मा के अधूरे प्रेम का पूरे होने की चाह हो या फिर ‘छूता
फिसलता जीवन’ की मैडी के साथ अपने एकतरफा प्रेम से उत्पन्न
बलात्कार की पीड़ा और उस पीड़ा में प्रेमी के वापसी का इंतज़ार, ‘अभिशप्त’ की नायिका निशा का अपने पति और बच्चों को
बाँधे रखने की चाह हो या फिर ‘ये क्या हो गया’ की नायिका अनुष्ठा का अपने पति से
बदले की आग में खुद को ही वेश्यावृत्ति की राह में धकेल देना आदि जीवन की वह
सच्चाई है जिसे हम स्वीकार करें या न करें फिर भी सच तो हैं ।
ये
कहानियाँ रिस्तों की जटिलाओं में फँसे पात्रों की वैवाहिक और विवाहेत्तर संबंध दोनों
ही स्तरों पर चलती हैं । अपनी शारीरिक जरूरतों को पूरी करने की अधिकारिक माँग...
वह भी इतनी निर्भिकता और निर्लज्जता से, यह तेजेन्द्र की नायिकाएँ ही कर सकती हैं
। जिसमें सिर्फ एक पुरूष ही नहीं स्त्री भी बेझिझक प्रथम स्तर पर पहल करती अथवा
पहल में जिद्द भी करती हुई भी दृष्टिगत होती हैं और समय मिलते ही सीमाओं को लाँघने
में संकोच नहीं करतीं । यह विशेषताएं ही उन्हें भारतीय नारियों से दूर कर
इंग्लैण्ड के धरातल पर ला खड़ी करती हैं ।
‘कोख का किराया’ कहानी में नायिका मनप्रीत का फुटबाल
खिलाड़ी डेविड पर मुग्ध होना और मुग्धावस्था के कारण ही सरोगेसी का निर्णय लेना,
मन ही मन डेविड से प्रेम करना और और अपने पति गैरी के साथ बिस्तर पर होते हुए भी
डेविड के बाँहों में होने की कल्पना करना, साथ ही अपने पति गैरी की भावनाओं के
कुचलते हुए और उसके फैसले के विरूद्ध जाकर डेविड का बच्चा अपने कोख में धारण करना आधुनिक
नारी के स्वच्छंद निर्णयात्मक शक्ति को दर्शाता है । उसकी इच्छा है कि डेविड उसे
प्राकृतिक रूप से गर्भवति करे किंतु डेविड का जया से अटूट प्रेम और गौरी के साथ
मित्रवत् वफादारी के कारण इंकार ने मैनी उर्फ मनप्रीत भारतीय और इंग्लैण्ड का
परिवेशगत तुलना “यहाँ तो हर कोई किसी दूसरे के बिस्तर में
घुसने को तैयार रहता है” (शर्मा,
तेजेन्द्र. बेघर आँखें. पृ. 37. (कोख का किराया)) करके
खीझ उठती है । गैरी के लाख समझाने के पश्चात् भी डेविड का बच्चा अपने कोख में धारण
करना कोख का किराया तब लगने लगता है जब डेविड और जया अपने बच्चे को लेकर चले जाते
हैं और बाद में फोन के द्वारा सारी मित्रवत् भावनाओं को ताक पर रखते हुए मैनी को
बच्चे से दूर रहने सलाह देते हैं, जबकि बदले की भावना से गैरी अपने दोनों बच्चों
को लेकर मैनी से बहुत दूर नीना के साथ रहने जा चुका है । मैनी ठगी-सी रह जाती है
उसकी जिन्दगी हैल (नर्क) की भाँति लगने लगती है । “ ‘सरोगेट माँ’ बनने के चक्कर में न वह माँ रह पाई और न
ही पत्नी” । ((शर्मा,
तेजेन्द्र. बेघर आँखें. पृ. 42. (कोख का किराया))
‘कल फिर आना’ कहानी बेमेल विवाह से उत्पन्न तृप्ति-अतृप्ति की कहानी है । कबीर उम्र के उस पड़ाव पर है जब उसके लिए सेक्स का
कोई मतलब नहीं रह जाता और रीमा जवानी के शिखर पर । रीमा का अपने पति से शिकायत है
- “कबीर आप पचास के हो गये तो इसमें मेरा
क्या कसूर है ? मैं अभी सैंतीस की ही हूँ ।... आप कहना चाहते
हैं कि हमारी शादीशुदा ज़िन्दगी बस आपके वाक्य से ख़त्म हो गई ?... जिस तरह पेट को भूख लगती है, कबीर, जिस्म को भी वैसे ही भूख महसूस
होती है । वैसे पेट की भूख शांत करने को तो कई तरिके हैं । मगर जिस्म...” (http://www.rachanakar.org/2012/10/blog-post_4755.html (कल
फिर आना))
जिस्म पति के साथ बीते पलों को स्मरण कर इतना व्याकुल है कि अचानक घर में घुसे चोर
के साथ अपनी तृप्ति ढूँढ़ लेता है । “कुछ पलों में ही जो कुछ
एक बलात्कार की तरह शुरू हुआ था अब आनंददायी रतिक्रिया में परिवर्तित हो चला” । (http://www.rachanakar.org/2012/10/blog-post_4755.html (कल
फिर आना)
यह स्त्री-मन की अत्यंत जटिल मनःस्थिति ही है कि एक तरफ वह पति और बच्चे से बहुत
प्रेम करती है परंतु सेक्स के समय बिल्कुल अलग किस्म की लगती है.. कृत्रिम एवं वस्तुगत
अथवा देह के स्तर पर बेवश । सरसरी निगाह
से देखें तो यह भारतीय परिवेश के लिए अग्राह्य प्रतीत होता है और तो और बलात्कार
सुख में बदल जाये ! अत्यंत आश्चर्य का विषय है । परंतु भारतीय संस्कृति के दोहरे मानदंड़ों
के बीच ही यह सम्भव है कि सेक्स विषय पर खुलकर बात नहीं किया जाता और अपने घुटती
इच्छाओं को छिप-छिपकर मूर्तवत् रूप दे दिया जाता है, अन्यथा आज विवाहेत्तर संबंध
के उदाहरण नहीं मिलतें । इस कहानी पर चर्चा के समय डॉ. बिपाशा सोम कहती हैं कि “स्त्री मन के इस जटिल सूत्र को भारतीय परिवेश में ही समझा जा सकता है । क्योंकि
दुराव-छुपाव यहाँ अधिक है”। तो डॉ. रितुपर्णा मजूमदार का
कहना है “अचानक घर में घुसे चोर से पाँच बार सुख लेना
अर्थात् स्त्री का सहयोग है और जब अतृप्त भावनाएँ तृप्ति का माध्यम बन जाये तब वह
बलात्कार नहीं रहता” । इसीलिए नायिका कहती है – कल फिर आना
।
‘एक बार फिर होली’ कहानी बुलन्दशहर में जन्मी नज़मा
को प्रेम, भावुकता, तकलीफ और मिलन की
उत्कंठा से जुडी है । नज़मा के प्रेमी चन्द्र प्रकाश का होली के दिन उसके गालों पर
गुलाल लगाना और दुर्गा मासी द्वारा हो-हल्ला मचाने पर नज़मा का विवाह कराची में
फौज़ी इमरान से किया जाना, फौज़ियाना अंदाज में पति इमरान का नज़मा के साथ शारीरिक
भूख मिटाना और हिन्दुस्तान की तारिफों के कारण प्रायः उसकी उपेक्षा करते रहना तथा
बार बार प्रताड़ित करना नज़मा को परदेस में और भी अकेला कर जाता है । करगिल-युद्ध
में इमरान की मृत्यु ने नज़मा में फिर से हिन्दुस्तान आने की उत्कंठा उत्पन्न कर
दी और वह आ भी जाती है लेकिन उसकी आँखें दुनिया से छिपकर चन्द्र प्रकाश को ढ़ूँढ़
रही होती है । 26 साल बाद भी बदले हुए हिन्दुस्तान में चन्द्र के लिए नज़मा की
भावनाएँ नहीं बदलतीं । एक हफ्ते बाद फिर से आने वाली होली में चंद्र का इंतज़ार यह
सिद्ध करता है कि प्रेम सचमुच उम्र और समय से परे है ।
‘अभिशप्त’ नायक प्रधान कहानी है परंतु देखा जाय तो
धोखा नायिका निशा के साथ हुआ है कि उसका पति रजनीकांत लंदन में टिके रहने के
उद्देश्य से स्वार्थवश उससे विवाह करता है और मन ही मन स्नेहा से प्रेम करता है ।
निशा एक तर्कशाली आधुनिक नारी है जो अपने पति और बच्चों से ही अपना परिवार समझती
है न कि सास-श्वसूर आदि अन्य सदस्यों से । लेकिन नायिका का वस्तुगत मूल्यांकन उस
समय किया जाता है जब लेखक लिखते हैं - “चाहे दिन-भर एक दूसरे से बात भी न करें, किंतु रात को बिस्तर में
निशा को जब तक उसका हक ना मिल जाए, से तृप्ति नहीं होती”। (शर्मा, तेजेन्द्र. बेघर आँखें. पृ.
63. (अभिशप्त)) नायक की संवेदनशीलता दर्शायी गयी हैं किंतु
नायिका की नहीं । इस कहानी से कई प्रश्न उठ खड़े होते हैं कि क्या संबंध निभाने के
लिए सिर्फ सेक्स ही आवश्यक है ? क्या भावनात्मक लगाव के कमी के कारण
तो ही नहीं कि नायिका निशा रजनीकांत को उसके घर पैसे नहीं भेजने देती ? उसे पति के मन में चल रहे स्नेहा से प्रेम और खुद को तलाक देने का
अंतर्द्वन्द्व पता है इसलिए पति और बच्चों को बाँध कर रखना चाहती है, जिसमें शरीर
एक हथियार है ? या फिर रजनीकांत का ‘मध्यमवर्गीय
बौड़मपन की उड़ान’ में दोहरी जिन्दगी ने निशा को कठोर होने
के लिए विवश कर दिया है ?
‘ये क्या हो गया’ किसी को अपना आदर्श मानने, उसके
जैसा बनने, उसपर अंधविश्वास रखने और अनुकरण के कारण स्वयं से विश्वास खोने के
पश्चात् ‘ये क्या हो गया’ ! जैसा
प्रश्न, आश्चर्य एवं अफ़सोस की कहानी है । राजकुमारी डायना को अपना आदर्श मानने
तथा उनका अंधानुसरण करने वाली अनुष्ठा का अभिजात्य कुल के अनिल के साथ प्रेम
विवाह, अनिल का कोमल भाभी के साथ संबंध और संबंधों में खाये धोखे से आहत अनुष्ठा
में बदले की भावना, अनिल को आहत करने के उद्देश्य से उसके ही दोस्त विजय के साथ अनुष्ठा
का संबंध बनाना, ‘ककॉल्ड’ (जिसकी पत्नी
विवाहेत्तर संबंध में हो ऐसे पुरूष को ककॉल्ड कहते हैं ) बना अनिल का अनुष्ठा का
पीछा करना, तड़पना, सवाल करना किंतु उसे रंगे हाथों पकड़ने में झिझकना अनुष्ठा को
और भी घायल और व्यग्र बना देता है इसलिए वह कहती है- “मुझे अनिल पर दया भी आ रही थी और क्रोध भी, अरे, कोई तुम्हारी पत्नी को
तुम्हारे सामने घुमा रहा है और तुम केवल जासूसी में लगे हुये हो ! तुम्हारी मर्दांगनी क्या मर गई है ! लानत है ऐसे
मर्द पर ! उसकी रगों का खून सचमुच ठण्डा हो चुका था” । (शर्मा, तेजेन्द्र. बेघर आँखें. पृ. 91. (ये क्या हो गया)) यहाँ
तक कि वह प्रिंस चार्ल्स से अनिल की तुलना करते हुए कहती है कि “क्या सारे मर्द एक से होते हैं ? क्या इस सदी के सभी मर्द नामर्द हो चुके
हैं” ? (शर्मा, तेजेन्द्र.
बेघर आँखें. पृ. 91. (ये क्या हो गया) उसका
डायना के जीवनी के तर्ज पर मुंबई के टाटा अस्पताल में जाकर कैंसर रोगियों की
देखभाल करना और अखबार की सूर्खियों में भी आ जाना, बदले की राह में अब आजमानी का
साथ होना आदि बदले की आग में वह समझ नहीं पाती कि वह किससे बदला ले रही है अपने
पति से या खुद से ? अनिल से तलाक और उसके किसी भी काम से अनिल पर कोई भी फर्क न पड़ने से वह
और भी आहत हो जाती है क्योंकि उसका मकसद ही अनिल को तड़पते देखना था जैसे कि अनिल
की बेवफाई के बाद यह स्वयं तड़पी थी । वह अनिल के दिल में जगह बनाना चाहती थी परंतु
वेश्यावृति की राह चुनकर हर जगह से बजगह हो जाती है ।
‘छूता फिसलता जीवन’ में पंजाबी लड़की मैडी यानी मंदीप
ब्रार का जेम्स से एकतरफा प्रेम, जेम्स द्वारा मनदीप का बलात्कार और पैरी नामक
बच्चे का जन्म तथा मैडी का प्रेम, नफ़रत, घृणा के बीच जटिल अंतर्द्वन्द्व को बड़े
ही सरल तरिके से दर्शाया गया है । मैडी जेम्स से मन ही मन प्रेम करती है, उसके साथ
जीवन बीताने के सपने देखती है । “जेम्स उसके लिए सिर्फ एक
नाम नहीं था, वह उसके लिए जीने का प्रयाय बनता जा रहा था” । (शर्मा,
तेजेन्द्र. बेघर आँखें. पृ. 109. (छूता फिसलता जीवन) लेकिन “जेम्स के लिए गर्लफ्रेण्ड का अर्थ था सेक्स !… बस और
अधिक सेक्स” । (शर्मा,
तेजेन्द्र. बेघर आँखें. पृ. 109. (छूता फिसलता जीवन) परंतु
अचानक पार्क में हुए मैडी से जेम्स की मुलाकात के पश्चात् कब्र दिखाने के बहाने
उसका बलात्कार उसे अंदर से झकझोर देता है । वह अपने माँ-बाप के कहने पर जेम्स को
सज़ा दिलवाले के लिए कोर्ट भी जाती है लेकिन कहीं न कहीं उसका मन शरीर पर हावी है
। बलात्कार और प्रेम जैसी विपरीत मनःस्थिति एक साथ दिखाई देते हैं । वह अब भी
उम्मीद लगाये बैठी है कि उससे जेम्स प्यार के दो शब्द बोलेगा, उसे मनाने आ जायेगा
या फिर आई लव यू कह कर उससे माफी माँग लेगा । जहाँ उसे अपने प्रेमी से घृणा है
वहीं वह उससे अपनाने की भी सोच रही है । आश्चर्य है कि ये दोनों विपरीत
मनःस्थितियाँ प्रेम और घृणा संचारी भाव की तरह कैसे आलोडित हो सकते हैं ? क्या घटनाक्रम की क्रूरता धीरे धीरे समाप्त होकर पुनः प्रेम को जीवित कर
देती हैं ?
इन
कहानियों के पात्र रिस्तों के वर्जित क्षेत्रों में जाकर पूरे आत्मविश्वास के साथ
अधिकार माँगने की हिम्मत रखते हैं । ये हिम्मत प्यासी दमित इच्छाओं की परिणति हैं
जो परिणाम की चिंता किए बगैर अपने आपको विद्रोह की आग में झोंक देते हैं । प्रबोध
कुमार गोविल के अनुसार, “जिस तरह हिन्दी में महिला लेखन
पर बात करते हुए कुछ महिला कथाकारों के बारे में समय समय पर कहा जाता रहा है कि वे
पुरूष मनोभावों को चित्रीकरण में भी सिद्धहस्त हैं, ठीक उसी तरह तेजेन्द्र की
कहानियों को पढ़ते समय लगता है कि तेजेन्द्र महिला पात्रों के भीतर से भी बड़ी
स्वाभाविक से बोलते हैं निश्चय ही यह एक बड़ी उपलब्धि है” । (https://www.sahityakunj.net/LEKHAK/T/TejinderSharma/Aalochkon_ki_nigah_mein.htm)
वे
महिला-मन को न केवल समझते हैं बल्कि परत दर परत उसे बड़ी ही सहजता से साहित्य में
उकेरते भी हैं अपने पति से अतृप्ति के पश्चात् “रीमा तड़पकर
उठी । उसकी आँखों में एक अलग किस्म का दर्द था जिसे समझने के लिए दिल में
सेंसेटिविटी होना बहुत ज़रूरी है” ।
(http://www.rachanakar.org/2012/10/blog-post_4755.html (कल
फिर आना)
डेविड
की पत्नी जया के मन में बच्चा किसी और के गर्भ में पलने और पति के छिन जाने का
अनजाना भय का दर्द “जया की भावनाओं को व्यक्त करने के लिए किसी भी भाषा के शब्दों में सामर्थ्य
नहीं है । उन भावनाओं को व्यक्त करने के लिए तो नई शब्दावली बनानी होगी, नये
मुहावरे गढ़ने होंगे” । (शर्मा,
तेजेन्द्र. बेघर आँखें. पृ. 44. (कोख का किराया) इमरान
द्वारा नज़मा की भावनाओं को तार तार किये जाने पर नज़मा की तकलीफ “उसे तो अपनी भूख
शांत करनी होती थी जो हो ही जाती थी । प्रकृति ने बनाये हैं नर और मादा शरीर और
प्रकृति ने ही बनायी है वासना । सृष्टि ने उत्पत्ति के लिए ही वासना को जन्म दिया
है... यदि प्रेम एवं वासना दोनों का समन्वय हो जाये तो जीवन के अर्थ ही बदल जाते
हैं” । (शर्मा,
तेजेन्द्र. बेघर आँखें. पृ. 76. (एक बार फिर होली) अनिल
से बदला लेने के लिए अनुष्ठा का विजय के साथ संबंध बनाते हुए विजय द्वारा की गई
तारिफों से अनुष्ठा के मन में हलचल – “मुझे बहुत दिनों बाद याद आया था कि मेरी आँखें, मेरे बाल, मेरी त्वचा,
मेरे होंठ, मेरी छातियाँ, यानि कि मेरा संपूर्ण बदन ही बला का खूबसूरत है” । (शर्मा, तेजेन्द्र. बेघर आँखें. पृ.
89. (ये क्या हो गया) बोन
मैटास्टेसिस कैंसर से जूझ रही सुरभि का स्तन का पाँच वर्ष पहले ही कट जाने पर नरेन
से पूछे जाना वाला प्रश्न – “मेरी छाती तो कटवा आए, मुझे
प्यार कर पाओगे अब” ? (http://www.abhivyakti-hindi.org/kahaniyan/vatan_se_door/2005/apradhbodhkapret/apradhbodhkapret2.htm (अपराधबोध
का प्रेत)
परमजीत उर्फ पम्मी का अपने पति हरदीप की मृत्यु के पश्चात् उसके साथ बिताये हुए
चार-पाँच महिने के विषय में तथा सूजी आँखों से अस्थि कलश के साथ मिले हुए 3 लाख
रूपये “उसे समझ नहीं आ रहा था कि यह उसके पति की देह की क़ीमत है या उसके साथ
बिताए पाँच महिनों की क़ीमत” । (http://www.abhivyakti-hindi.org/kahaniyan/vatan_se_door/2008/dehkikeemat/dkk3.htm (देह
की क़ीमत)
या
फिर “जया सदा ही दिलीप में एक मित्र तलाशती रही, किंतु वह मित्र उसे राज में ही मिला । पति पत्नी एक दूसरे के मित्र क्यों
नहीं रह पाते” ? (http://www.abhivyaktihindi.org/kahaniyan/vatan_se_door/gandagi_ka_baksa/gkb2.htm गंदगी का बक्सा) आदि
से पता चलता है कि तेजेन्द्र को नारी मन की सूक्ष्म परख है ।
प्रायः
स्त्री-विमर्श को मात्र देह-विमर्श का पर्याय के रूप में आरोपित कर उपेक्षित किया
जा रहा है लेकिन सच तो यही है कि देह से मनुष्य का मूर्त अस्तित्व है । यथार्थ के
धरातल पर पति-पत्नी के रिश्तों में देह की स्वाभाविक एवं प्रयोगात्मक रूप से
महत्वपूर्ण भूमिका है । उस भूमिका में कहीं मन देह पर भारी है तो कहीं देह मन पर ।
मन और देह की चाह की राह को तेजेन्द्र ने बड़ी बारिकी से परखा और चित्रित किया है,
जिसमें टूटन, घूटन, पीड़ा, संत्रास, कुंठा, जीजिविषा, काम, लोभ, मोह, प्रेम,
ईर्ष्या आदि पिघल-पिघलकर परिवारिक संरचना को रौशन करते हैं तथा साथ ही रिस्तों को
बड़े ही सून्दर ढ़ंग से दर्पण दिखाकर उसे व्याख्यायित कर सचेत करने का अनूठा
प्रयास भी हैं ।
***************
संदर्भ ग्रंथ –
·
शर्मा, तेजेन्द्र. बेघर आँखें. सं.
2014. यश पब्लिकेशन, दिल्ली.
रेनू
यादव
रिसर्च
/ फेकल्टी असोसिएट
हिन्दी
विभाग
गौतम
बुद्ध विश्वविद्यालय
यमुना
एक्सप्रेस-वे, नियर कासना, गौतम बुद्ध नगर,
ग्रेटर
नोएडा – 201 312 (उ.प्र.)
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