'शोध-दृष्टि - सुधा ओम ढींगरा का साहित्य' (संपा. बलबीर सिंह एवं प्रकाश चन्द बैरवा) पुस्तक में प्रकाशित
‘नक़्क़ाशीदार केबिनेट’ में चित्रित भारतीय एवं
अमेरिकन परिवेश-बोध
प्रवासी साहित्यकारों
(सुषम वेदी, तेजेन्द्र शर्मा, सुदर्शन प्रियदर्शिनी, जक़िया जुबैरी, पूर्णिमा
बर्मन, अर्चना पेन्यूली, दिव्या माथूर, डॉ. पुष्पिता आदि) में सशक्त हस्ताक्षर डॉ.
सुधा ओम ढींगरा द्वारा सृजित उपन्यास ‘नक़्काशीदार केबिनेट’ अमेरिका में घटित हो रहे ‘हरिकेन’ एवं ‘टारनेडो’ (प्रभंजन एवं
चक्रवात) की त्रासदी के साथ-साथ ‘फ्लैश बैक’ एवं ‘डायरी शैली’ में लिखा
गया है । यह प्रभंजन एवं चक्रवात जनजीवन के पीड़ा, संत्रास एवं त्रासदी की गाथा
है, जो अलग-अलग कहानियों को एकसूत्र में पिरोते हुए अमेरिकन परिवेश में जी रहे
भारतीय हृदय की स्मृत्तियों में रह-रहकर झंझावात ला देता है । इस संदर्भ में यह कहना
गलत न होगा कि इस उपन्यास में परिवेश-बोध मुख्य है और कथा गौण अथवा परिवेश एक ऐसा
माध्यम है जो भारतीय एवं अमेरिकन कथाओं को खुद में आत्मसात कर लेता है । साथ ही
लोगों के मन में उत्पन्न उन रूढ़िवादी मानसिकता एवं अवधारणाओं (विदेशों में तलाक
की संख्या अधिक है, प्रेम में भी प्रोफेशनल होते हैं, बच्चों की परवरिश पर ध्यान
नहीं दिया जाता अथवा बच्चे संस्कारी नहीं होते, सेक्स के लिए रिश्तों का बंधन नहीं
होता, खंडित परिवार, संवेदनहीन समाज आदि) को तोड़ता हुआ दृष्टिगत होता है । देखा
जाए तो “हर कार्य को ‘सरकार का काम है’, नहीं समझा जाता । लोग स्वयं भी अपने लिए खड़े होते हैं” (ढ़ींगरा, सुधा ओम.
नक़्काशीदार कैबिनेट. पृ. 8), “साम्यवाद तो इस देश में हैं” (ढ़ींगरा,
सुधा ओम. नक़्काशीदार कैबिनेट. पृ. 10), “इस देश में समय भागता है, बीतता नहीं” (ढ़ींगरा,
सुधा ओम. नक़्काशीदार कैबिनेट. पृ. 10), “यहाँ हाई स्कूल तक बोर्डिंग या हॉस्टल की अवधारणा नहीं हैं” (ढ़ींगरा, सुधा ओम.
नक़्काशीदार कैबिनेट. पृ. 11), “किसी नुक्कड़, किसी चौराहे पर खाली ठल्ले बैठे लोग ताश खेलते नज़र नहीं
आते । एवई बेमक़सद कोई घूमता नज़र नहीं आता” (ढ़ींगरा,
सुधा ओम. नक़्काशीदार कैबिनेट. पृ. 10), यहाँ पद,
प्रतिभा को देखकर, काम करने के लिए दिया जाता है, रौब जमाने के लिए नहीं (ढ़ींगरा,
सुधा ओम. नक़्काशीदार कैबिनेट. पृ. 65) आदि वाक्य
भारतीय एवं अमेरिकन परिवेश की तुलना के साथ-साथ हमारी जड़ मानसिकता पर गहरा
व्यंग्य भी है ।
इस उपन्यास में दो प्रमुख पात्र
सम्पदा और सोनल की आपस में गुंफित कथाएँ एक दूसरे की पूरक हैं । चक्रवात (हरिकेन
एवं टारनेडो) के बीच फंसी सम्पदा के घर में रोजवुड की बनी नक़्काशीदार केबिनेट (जो
कि सोनल ने दिया था) से प्राप्त हुई सोनल की डायरी के माध्यम से कहानी आगे बढ़ती
है और यह कहानी मात्र एक कहानी न होकर सोनल के जीवन में आया चक्रवात है जो भारत से
होकर अमेरिका की ओर गुजरता है । पंजाब में जमीदार मनचंदा परिवार (जो कि सोनल का
खानदान था) की सम्पत्ति के लिए सोनल के ऐयाश चाचा मंगल एवं उसकी पत्नी मंगला के
मायके वालों के द्वारा लगातार रचे जा रहे षड़यंत्र, षड़यंत्रों की खबर गाँव में
फैलने पर खुद को बचाने के लिए तथा अपने ही घर वालों से बदला लेने के लिए सोनल की
बहन मीनल से बलात्कार एवं उसकी हत्या और फिर उग्रवादियों के साथ मंगला का मिल
जाना, एक-एक करके सोनल के सहायक पम्मी एवं परिवार (सोनल के दादा, पिता, दादी) की
हत्या, सोनल और उसकी माँ का घर छोड़ने पर मजबूर होना और घर छोड़ने के पश्चात् सोनल
की संपत्ति पर नाना-मामा की नज़र रहना तथा संपत्ति हासिल करने के लिए एक षड़यंत्र
के तहत अमेरिका में रहने वाले एक फर्जी डॉक्टर बलदेव के साथ सोनल का विवाह कर
देना, अमेरिका में विवाह की सच्चाई सोनल के सामने आना और उसका ससुराल वालों के जाल
में फँसने से बचने के लिए वहाँ से भागकर जान बचाना, किसी तरह भागकर डनीस और रॉबर्ट
के घर में शरण लेना, उसके बाद संस्था में समाज-सेवा करना और वहीं सम्पदा से
मुलाकात और अपने दोषियों को सज़ा दिलवाने का प्रण लेना तथा अंततः षड़यंत्रकारियों
को सज़ा दिलवाना किसी चक्रवात से कम नहीं ।
सोनल की कहानी अकेले नहीं चलती बल्कि छोटी-छोटी
और भी कई कहानियों से जुड़ती चली जाती है अथवा सोनल के माध्यम से कहलवा ली जाती
हैं । सन् 1801 से 1839 तक के बीच महाराजा रणजीत सिंह के तोशख़ाने की कहानी, अफ़गानिस्तान
के सुजात शाह दुर्रानी द्वारा महाराजा रणजीत सिंह को कोहिनूर हीरा प्राप्त होना,
महारानी विक्टोरिया को कोहिनूर सौंपा जाना, लाहौर पर अंग्रेजों की फतह, 1849 में
अंग्रेज-सिख युद्ध, अफ़गान हमलावरों द्वारा अमृतसर के स्वर्ण मंदिर को नष्ट किया
जाना और महाराजा रणजीत सिंह द्वारा दोबारा सोने की परत चढ़वाना, गुरू तेगबहादूर की
हत्या, राजा खड़क सिंह के जेल जाने के पश्चात् सोनल के पुरखों द्वारा तोशख़ाने से
धन का चुराया जाना और उस धन के लिए पीढ़ी-दर-पीढ़ी कभी डाकुओं द्वारा तो कभी
रिश्तेदारों तथा कभी अपनों के द्वारा खुन खराबा होना, पड़दादी का अधोवस्त्र में धन
छुपाकर घर छोड़ना, हवेली में तहखाना बनवाना और तहखाने में छिपे धन को गुप्त रखना,
सुनारों को गाँव में बसाना और उनसे गहने बनवाना, पंजाब प्रांत में खलिस्तानियों का
उग्र रूप धारण करना, कवि एवं विचारक अवतार सिंह संधु ‘पाश’ की हत्या, 1981 में पंजाब केसरी अखबार समूह के
संपादक लाला जगतनारायण की हत्या, भगत सिंह का जिक्र, ऑपरेशन ब्लू स्टार, इंदिरा
गाँधी की ह्त्या के पश्चात् खूनी खेल, लेनिनवाद, कामरेड, मार्क्सवाद, नक्सलवाद आदि
पर चर्चा करना तथा अचानक से युवाओं में पंजाब के परिस्थितियों को बदलने का उहा-पोह,
मंगला की बड़ी बेटी का उग्रवादियों के साथ भाग जाना और छोटी बेटी के साथ बलात्कार
एवं हत्या, पम्मी की हत्या आदि सामाजिक, राजनैतिक एवं ऐतिहासिक घटनाओं की कड़ियाँ
कहानी को न केवल रोचक बनाते हैं बल्कि कोरी कल्पना से अलग हटकर जीवंतता भी प्रदान
करते हैं ।
इन सबमें सुक्खी यानी सुखवंत का प्रेम
सबसे अधिक सराहनीय कहा जा सकता है कि वह कदम-कदम पर सोनल का साथ देने के लिए तत्पर
रहता है । शुरूआती दौर में सोनल सुक्खी का प्यार समझते हुए भी उसे स्वीकार नहीं कर
पाती परंतु जब तक उसे अपने प्रेम का एहसास होता है तब तक वह अपने नाना के
षड़यंत्रों में फँस चुकी होती है और डॉ. बलदेव सिंह के साथ विवाह करके अमेरिका चली
जाती है । अमेरिका में अपने ससुराल वालों की सच्चाई सामने आने पर एयरपोर्ट पर
सुक्खी द्वारा दी गई हिदायत और डॉलर ही काम आते हैं । बाद में सुक्खी नौकरी छ़ोडकर
अमेरिका आ जाता है और सोनल की रक्षा करता है और अंत में यह प्रेम परिणय में बदल
जाता है ।
इस उपन्यास की खास विशेषता है कि पंजाब
में नशे के गिरफ्त में युवाओं का भविष्य तथा रोजी-रोटी के लिए हर तीसरे चौथे घर से
व्यक्तियों का दुबई, कैनेडा, खाड़ी के देशों में जाना आदि का वर्णन वहाँ की स्थिति
को दर्शाता है तथा साथ ही सोनल जैसी अनेक भोली-भाली मासूम लड़की को फँसाकर उन्हें
देह-व्यापार और नशे के धंधें में उतार देना गंभीर समस्या को उजागर करता है । “बलदेव का गिरोह पंजाब के गाँवों से भोली-भाली लड़कियों से शादी करके यहाँ
लाता । अधिकतर लड़कियों को बाहरी दुनियाँ के बारे में ज़्यादा पता नहीं होता था ।
देह व्यापार से अधिक लोग उनसे नशे का धंधा करवाते । उनके द्वारा एक देश से दूसरे
देश में नशे पहुचाएँ जाते । नशे उनके अंगों में भर दिए जाते थे । अगर किसी देश में
कोई लड़की पकड़ी जाती । उस देश का कानून उसे सज़ा देता । वह उम्र भर वहाँ की जेलों
में पड़ी रहती । ज़िंदा होकर भी मुर्दों सी ज़िन्दगी जीती” ।
(ढ़ींगरा, सुधा ओम. नक़्काशीदार
कैबिनेट. पृ. 107)
बलदेव गिरफ्तार होने के बाद स्वीकार
करता है कि सोनल उसकी भारी भूल थी अन्यथा वह पकड़ा नहीं जाता । सोनल ने कभी हार
नहीं माना बल्कि उसने बलदेव को पकड़वाने की ठान ली थी और निर्णय लिया कि उसके साथ
जैसा हुआ आगे से किसी अन्य लड़की के साथ ऐसा न हो । सुशील सिद्धार्थ के अनुसार, “यह उपन्यास पढ़ते हुए लगता है कि नियती की स्वीकृत व्याख्या को सुधा ने
सोनल के माध्यम से चुनौती दी है । उन्होंने बताया है कि साहस, विवेक, सत्य बना रहे
तो नियति की यति और गतिमति भी बदलती है” । (सुबीर, पंकज (संपा.). विमर्श – नक़्काशीदार केबिनेट. पृ. 19 (बाहरी भीतरी
चक्रवात की रूपक गाथा – सुशील सिद्धार्थ))
एक तरफ पंजाब की समस्याएँ तो दूसरी तरफ
अमेरिकन संस्कृति । दोनों संस्कृतियों के टकराव को लेखिका बखूबी उकेरती हैं ।
सम्पदा न केवल उपन्यास की एक पात्र है बल्कि स्वयं लेखिका का प्रतिनिधित्व करती
दृष्टिगत होती है एक डॉक्टर, एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में। सम्पदा खुशहाल
जीवन व्यतीत करते हुए भी कहीं न कहीं अकेलेपन की शिकार है । सार्थक का कम बोलना, पुरू
और पारूल का दूर जाना आदि उसे अकेलेपन से भर देता है । लेकिन सम्पदा इन सबमें जीना
सीख गई है । सुधा जी की नायिकाएँ प्रायः सशक्त और आत्मविश्वास से भरी होती हैं ।
वे कभी हार मानना नहीं जानतीं । सम्पदा भयंकर प्रभंजन और चक्रवात में भी तटस्थ
रहती है तथा चक्रवात के पूरे समय में सोनल के जीवन में आये चक्रवातों को डायरी में
पढ़ती है किंतु अपने मन में उठ रहे तुफान (एम्प्टी नेस्टर्ज़) को बड़ी सहजता से
झेल जाती है । वह संवेदनशील होते हुए भी भावुक नहीं होती, चोरी होने के पश्चात् भी
चिखती-चिल्लाती नहीं, दुखी है पर दिखाती नहीं, स्मृति है पर विस्मृति नहीं... जो कि उसके अनुभवी होने और परिपक्वतापन को
दर्शाता है ।
यह उपन्यास न केवल स्त्री-संघर्ष की
दास्ताँ है बल्कि सोनल की कहानी के माध्यम से पंजाब में हो रहे उन तमाम मासूम
लड़कियों के साथ अन्याय, छल-कपट, धोखा, देह - व्यापार, नशे का धंधे में फँसाये
जाने आदि की गाथा है, जिससे समाज को सदैव सतर्क और जागरूक रहने की जरूरत है । यह न
सिर्फ सोनल की यात्रा है बल्कि दो देशों की संस्कृतियों के टकराहट की खनक है,
जिसमें विश्वास-अविश्वास, बोध-अबोध, ज्ञान-अज्ञान,
जिम्मेदारियों-ग़ैर-जिम्मेदारियों आदि का एक साथ झटके लगते हैं । यह न केवल
परंपरा, आधुनिकता, ग्रामीण, शहरीकरण, भूमंडलीकरण, बाज़ारीकरण की परिस्थितियों को
बयान करता है बल्कि इन सबके अंतःकरण में छिपे घात-प्रतिघातों को भी व्यक्त करता है
। रोहिणी अग्रवाल के शब्दों में कहें तो “यह
उपन्यास निःसंकोच प्रियदर्शन के बेस्टसेलर उपन्यास ‘जिन्दगी लाइव’ की श्रेणी में रखा जा सकता है जो एक ओर पठनीयता के संस्कार को पुनर्जीवित
करती है तो दूसरी ओर अपने समय की विडम्बनाओं को नज़दीक से देखने की निर्भीक नज़र
भी जुटाता है” । (सुबीर,
पंकज (संपा.). विमर्श – नक़्काशीदार केबिनेट. पृ. 25 (‘नक़्क़ाशीदार
केविनेट’ : स्मृति और सृजनेच्छा के बीच – रोहिणी अग्रवाल))
इस
उपन्यास में लेखिका ने लेखकीय कर्तव्य निभाते हुए विकसित देशों के प्रति “जब कोई समस्या का समाधान नहीं निकलता तो पाश्चात्य की देन है कहकर पल्ला
झाड़ लेते हैं” (ढ़ींगरा,
सुधा ओम. नक़्काशीदार कैबिनेट. पृ. 103)
जैसे वाक्यों एवं कथन के माध्यम से विकासशील देशों का नज़रिया भी साफ किया है तथा
दोनों ही देशों की सांस्कृतिक एवं परिवेशगत तुलना करके अनेक भ्रमपूर्ण अवधारणाओं
को दूर करने का प्रयास किया है । अनजान जगह पर डनीस एवं रॉबर्ट जैसे बुजुर्गों
द्वारा सोनल की सहायता, सम्पदा एवं सार्थक द्वारा प्रत्येक मुश्किल क्षणों में
सोनल के साथ होना यह सिद्ध करता है तथा स्वयं लेखिका भी कहती हैं “अमेरिकन में सेवा भाव कूट-कूट कर भरा होता है” । (ढ़ींगरा,
सुधा ओम. नक़्काशीदार कैबिनेट. पृ. 67) अमेरिका
में लोगों को उनके नाम से पुकारना चाहे वे कितनाहूँ वृद्ध हों अथवा किसी उच्च पद
पर आसीन क्यों न हों, जब तक हाथ पाँव काम करे तब तक बच्चों पर निर्भर न रहना,
नौकरों से काम करवाने के बजाय अपना काम स्वयं करना, पुलीस वालों का अत्यंत
जिम्मेदारी के साथ काम करना आदि अमेरिकी परिवेश की विशेषताएँ प्रत्येक स्थान पर
दृष्टिगत होती हैं । दूसरी ओर पंजाब प्रांत में जमीदारी प्रथा, खेत, नहाने और
पेशाब के लिए सिमेंट अथवा ईंट से घर के बाहर बना घेरा, शराब के अड्डे, गाँव वालों
का एकजूट होकर साथ देना, पम्मी और सुक्खी जैसे भले लोगों का होना, मीडिया का
निष्पक्ष होकर न्याय के लिए तहलका मचा देना, मीडिया के द्वारा पुलीस प्रशासन की
धज्जियाँ उड़ाना, मीनल को न्याय दिलवाना, अफवाहों का अफसाना बन जाना आदि पंजाब के
गाँवों को जीवंत कर देता है ।
जहाँ
एक ओर अमेरिकी परिवेश की अच्छाई दर्शायी गयी है तो वहीं दूसरी ओर बुराईयाँ भी
दृष्टिगत होती हैं । ‘हाइजेन’ और ‘टारनेडो’ के बीच सार्थक
और सम्पदा के घर चोरी तथा समाचार के द्वारा ब्रुकलिन में ही 99600 चोरियों की ख़बर
आश्चर्य से भर देता है कि इस विपदा में कैसे कोई चोरी करने की भी सोच सकता है
! भारत के पंजाब प्रांत में 73.5 प्रतिशत युवा पीढ़ी का नशेड़ी
होना, सम्पत्ति के लिए अपनों का खून कर देना, गाँवों में आधा जीवन लड़ाई-झगड़े में
और आधा जीवन कोर्ट कचहरी में बीत जाना, विवाह के नाम पर लड़कियों का खरीद-फरोख्त
होना आदि भारत की गंभीर समस्याएँ है ।
जीवन
उतना ही नहीं होता जितना हम समझते हैं, बल्कि उससे परे भी बहुत कुछ होता है ।
नक़्काशीदार केबिनेट उस ‘परे’ शब्द को अभिव्यक्त करता है । अच्छाई-बुराई प्रत्येक देश में है । ‘दूर के ढ़ोल’ को न तो पूरी तरह से सुहावना समझना
चाहिए और न ही बेसुरा । सरल, सहज और सूक्ष्म तरिके से संदर्भ और कथ्य को गुंफित
करने वाला यह उपन्यास परिवेशगत दृष्टि से सशक्त एवं बेहतरीन है ।
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संदर्भ-ग्रंथ
– सुबीर, पंकज (संपा.). विमर्श- नक़्क़ाशीदार केबिनेट (बाहरी-भीतरी चक्रवात की
रूपक गाथा). सं. प्रथम, 2018. शिवना प्रकाशन, सीहोर.
- डॉ. रेनू यादव
- डॉ. रेनू यादव